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श्रद्धायुक्त दान का फल


एक सेठ था। वह खूब दान-पुण्य इत्यादि करता था। प्रतिदिन जब तक सवा मन अन्नदान न कर लेता तब तक वह अन्न जल ग्रहण नहीं करता था। उसका यह  नियम काफी समय से चला आ रहा था।

उस सेठ के लड़के का विवाह हुआ। जो लड़की उसकी बहू बनकर आई, वह सत्संगी थी। वह अपने ससुर जी को दान करते हुए देखती तो मन-ही-मन सोचा करतीः ‘ससुर जी दान तो करते हैं, अच्छी बात है, लेकिन बिना श्रद्धा के किया हुआ दान कोई विशेष लाभ प्रभाव नहीं रखता।’

दान का फल तो अवश्य मिलता है किन्तु अच्छा फल प्राप्त करना हो तो प्रेम से व्यवहार करते हुए श्रद्धा से दान देना चाहिए।

वह सत्संगी बहू शुद्ध हाथों से मुट्ठीभर अनाज साफ करती, पीसती और उसकी रोटी बनाती। फिर कोई दरिद्रनारायण मिलता तो उसे बड़े प्रेम से, भगवद्भाव से भोजन कराती। ऐसा उसने नियम ले लिया था।

समय पाकर उस सेठ की मृत्यु हो गयी और कुछ समय बाद बहूरानी भी स्वर्ग सिधार गयी।

कुछ समय पश्चात् एक राजा के यहाँ उस लड़की (सेठ की बहू) का जन्म हुआ और वह राजकन्या बनी। वह सेठ भी उसी राजा का हाथी बनकर आया।

जब राजकन्या युवती हुई तो राजा ने योग्य राजकुमार के साथ उसका विवाह कर दिया। पहले के जमाने में राजा लोग अपनी कन्या को दान में अशर्फियाँ, घोड़े, हाथी इत्यादि दिया करते थे। राजा ने कन्या को वही हाथी, जो पूर्वजन्म में उसका ससुर था, दान में दिया। राजकन्या को उसी हाथी पर बैठकर अपनी ससुराल में जाना था। जैसे ही उसे देखा तो दैवयोग से हाथी को पूर्वजन्म की स्मृति जग गयी। उसे स्मरण हुआ कि ‘यह तो पूर्वजन्म में मेरी बहू थी ! मेरी बहू होकर आज यह मेरे ऊपर बैठेगी ?’

हाथी ने सूँड और सिर हिलाना शुरु कर दिया कि ‘चाहे कुछ भी हो जाय में इसे बैठने नहीं दूँगा।’

राजकन्या ने सोचा कि ‘यह हाथी ऐसा क्यों कर रहा है ?’ शरीर और मन तो बदलते रहते हैं परन्तु जीव तो वही का वही रहता है। जीव में पूर्वजन्म के संस्कार थे, संत पुरुषों का संग किया था, इसलिए राजकन्या जब थोड़ी शांत हुई तो उसे भी पूर्वजन्म का स्मरण हो आया।

वह बोलीः “ओहो ! ये तो ससुर जी हैं… ससुर जी ! आप तो खूब दान करते थे। प्रतिदिन सवा मन अन्नदान करने का आपका नियम था, लेकिन श्रद्धा से दान नहीं करते थे तो सवा मन प्रतिदिन खाने को मिल जाय, ऐसा हाथी का शरीर आपको मिल गया है। आप सबको जानवरों की तरह समझकर तिरस्कृत करते थे, पशुवृत्ति रखते थे। सवा मन देते थे तो अब सवा मन ही मिल रहा है।

मैं देती तो थी मात्र पावभर और पावभर ही मुझे मिल रहा है लेकिन प्रेम और आदर से देती थी तो आज प्रेम और आदर ही मिल रहा है।”

यह सुनकर हाथी ने उस राजकन्या के चरणों में सिर झुकाया और मनुष्य की भाषा में बोलाः “मैं तेरे आगे हार गया। आ जा….. तेरे चरण मेरे सिर-आँखों पर, मेरे ऊपर बैठ और जहाँ चाहे वहाँ ले चल।”

प्रकृति को हम जैसा देते हैं, वैसा ही हमें वापस मिल जाता है। आप जो भी दो, जिसे भी दो, भगवद्भाव से, प्रेम से और श्रद्धा से दो। हर कार्य को ईश्वर का कार्य समझकर प्रेम से करो। सबमें परमेश्वर के दर्शन करो तो आपका हर कार्य भगवान का भजन हो जायेगा और फल यह होगा कि आपको अंतर-आराम, अंतर-सुख, परमात्म-प्रसाद पानी की रूचि बढ़ जायेगी और उनको पाना आसान हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2002, पृष्ठ संख्या 13, 14 अंक 111

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संत महिमा


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

गुजरात में नड़ियाद के पास पेटलाद नामक ग्राम में रमणलाल नाम के एक धर्मात्मा सेठ रहते थे। वे चाहते थे क हमारे पेटलाद में शराब की बोतलें नहीं अपितु हरिनाम की, हरिरस की प्यालियाँ बँटे। साधु संतों के प्रति उनका बड़ा झुकाव था।

अति पापियों को तो संत-दर्शन की रुचि भी नहीं होती। जिसके पाप नष्ट होते हैं, उसी की श्रद्धा साधु-संतों में टिकती है। अगर कोई कुकर्म करता है तो उसके पाप जोर पकड़ते हैं एवं वह साधु-संतों का विरोधी हो जाता है।

किसी आदमी के कुल का विनाश होगा या विकास होगा – यह जानना हो तो देखो कि उस आदमी को साधु-संतों के प्रति श्रद्धा है या उनकी निंदा करता है ? उस आदमी के विचार ऊँचे हैं या हल्के हैं ?

मुझे भविष्य में सुख मिलेगा कि दुःख – यह मैं अभी जान सकता हूँ। अगर मेरे मन में कुकर्म के विचार आ रहे हैं, परदोष दर्शन हो रहा है, दूसरे को गिराकर, छल-कपट करके ऊँचा होना चाहता हूँ तो मेरे भविष्य में अशांति और दुःख लिखा है। अगर मैं दूसरे की भलाई चाहता हूँ, कष्ट सहकर भी परोपकार करना चाहता हूँ तो मेरा भविष्य उज्जवल है।

अगर मन में बुरे विचार आते हैं तो हमारा कर्त्तव्य है कि उन्हें काट दें। जो व्यक्ति अपने-आपको नहीं संभालता है, उसको देवता भी कब तक संभालेंगे ? भगवान भी कब तक संभालेंगे ?

हिम्मते बंदा तो मददे खुदा। बेहिम्मत बंदा तो बेज़ार खुदा।।

सत्कर्म करने में हिम्मत करनी चाहिए। मन तो धोखा देगा कि ʹअपना क्या…. अपना क्या ? अरे ! अपने पेट के लिए, अपने परिवार के लिए तो कुत्ता भी जी लेता है लेकिन जो रब के लिए, समाज की आध्यात्मकि उन्नति के लिए जीते हैं, उनका जीवन धन्य हो जाता है।

रमणलाल ऐसे ही पुण्यात्मा सेठ थे। गाँव में साधु-संतों को बुलाकर, उनका बड़ा आदर-सत्कार करते थे। भगवत्परायण साधु-संतों को सदगुरु मानकर उनके आश्रम में स्वयं भी यदा-कदा जाया करते एवं जहाँ जाकर चुपचाप सेवा करते थे।

संतों का हृदय ही ऐसा होता है कि वे किसी की सेवा नहीं लेते हैं और यदि लेते भी हैं तोत उसका कल्याण करने के लिए लेते हैं।

संत की महिमा वेद न जाने। जेता जाने तेता बखाने।।

एक संत हजारों असंतों को संत बना सकते हैं लेकिन हजारों संसारी मिलकर भी एक संत नहीं बना सकते। संत बनना कोई मजाक की बात नहीं है। एक नेता जाता है तो उसकी कुर्सी पर दस आ जाते हैं लेकिन भारत में दस ब्रह्मज्ञानी संत इस संसार से चले और एक भी उनकी जगह पर नहीं आया।

एक संत कइयों की डूबती नैया को पार लगा सकते हैं, कई पापियों को पुण्यात्मा बना सकते हैं, कई अभागियों को भाग्यवान बना सकते हैं, कई नास्तिकों को आस्तिक बना सकते हैं, अभक्तों को भक्त बना सकते हैं, अशांतों को शांत बना सकते हैं और शांत में शांतानंद प्रगट कराके उसको मुक्त महात्मा बना सकते हैं।

राजा सुषेण नाव में यात्रा करते-करते कहीं जा रहे थे। मार्ग में आँधी तूफान आने की वजह से उनकी नाव खतरे में पड़ गयी, जिससे उनकी पत्नी, उनके इकलौते पुत्र, उनके स्वयं के तथा एक महात्मा के प्राण संकट में पड़ गये।

यह देखकर राजा सुषेण पुकार उठेः “बचाओઽઽઽ ! और किसी को भले नहीं, लेकिन इन महात्मा जी को बचा लो….”

वे एक बार भी यह नहीं बोले कि ʹरानी को बचाओ…. पुत्र को बचाओ…. मुझे बचाओ…..ʹ नहीं नहीं। उन्होंने तो बस, रट लगा  दी कि ʹबाबाजी को बचाओ…. बाबा जी को बचाओ….ʹ

बड़ी मुश्किल से, दैवयोग से नाव किनारे लगी। राजा के जी-में-जी आया। किनारे पर उतरकर मल्लाह ने कहाः “राजन ! आपने एक बार भी नहीं कहा कि मुझे बचाओ, रानी को बचाओ, राजकुमार को बचाओ। बस, बाबाजी को बचाओ, ऐसा क्यों ?”

राजाः “ऐसा बेटा तो दूसरा भी आ सकता है। रानियाँ भी कई आती और जाती हैं। मेरे जैसे राजा भी कई हैं। मेरे मर जाने के बाद दूसरा गद्दी पर आ जायेगा लेकिन ये हजारों के दिल की गद्दी पर दिलबर को बैठाने वाले संत बड़ी मुश्किल से आते हैं इसलिए ये बच गये तो समझो, सब बच गये। इनकी सेवा हो गयी तो समझो, सबकी सेवा हो गयी।”

सेठ रमणलाल भी इसी भाव के अनुसार अपनी संपत्ति को संतसेवा में लगा देते। लोग उन्हें कहते कि ʹकुछ हमारा पैसा भी स्वीकार कर लेंʹ तो वे कहतेः “अभी नहीं, भाई ! दान के पैसे हैं लोहे के चने। इसका सदुपयोग करेंगे तो कुल आबाद होगा, नहीं तो सात पीढ़ी कंगाल हो जायेगी। मुझे अभी जरूरत नहीं है। जब जरूरत होगी, तब तुमसे ले लूँगा। पहले अपना लगाऊँगा।”

दान अपने घर से शुरु होता है, सेवा अपने शरीर से शुरु होती है, भक्ति अपने मन से शुरु होती है और आत्मज्ञान अपनी सदबुद्धि से शुरु होता है।

सत्संग सुनते-सुनते सेठ रमणलाल की बुद्धि बहुत तेजस्वी हो गयी। देखो, सत्संगी हो चाहे कुसंगी हो, अच्छा आदमी हो चाहे बुरा आदमी हो, चढ़ाव-उतार के दिन तो सबके आते ही हैं। श्रीराम के भी आते हैं और रावण के भी आते हैं। तब भी श्रीराम हृदय से पवित्र रहते हैं, सुखी रहते हैं और चढ़ाव के दिन आते हैं तब भी निरहंकारी रहते हैं। जबकि पापी आदमी के चढ़ाव के दिन आते हैं तो वह घमंड में मरता है और उतार के दिन आते हैं तो विषाद में कुचला जाता है।

सन् 1950-52 के आसपास का समय था। सेठ रमणलाल के भी उतार के दिन आये। पेटलाद में हाहाकार मच गया कि ʹइतना धर्मात्मा किन्तु दिवाला निकलने की नौबत !ʹ सेठ रमणलाल स्वयं भी बड़े चिंतित थे। उस समय लोग कहने लगेः ʹअरे ! इतना बड़ा सत्संग हाल बनाया, संतों की इतनी सेवा की, फिर भी उनका दिवाला निकल रहा है…!ʹ

वास्तव में सत्संग करने से सेठ रमणलाल का धंधा ठप्प नहीं हो रहा था, वरन् इस समय बाजार की मंदी एवं उतार का समय होने से धंधा ठप्प हो रहा था। किन्तु सत्कर्मों की वजह से ऐसी विकट परिस्थिति में भी सेठ रमणलाल में काफी समझ थी। अतः वे एक महात्मा के पास गये, जिनका नाम था नारायण मुनि। उनके पास जाकर रमणलाल ने कहाः

“महाराज ! दिल खोलकर बात बताता हूँ कि नौकरों ने कुछ उल्टा-सीधा किया है, बाजार थोड़ी मंदी है और जिन लोगों ने मेरे पास डिपाजिट रखी थी, उन लोगों का विश्वास टूट गया है। सब एक साथ डिपाजिट लेने आ रहे हैं। अतः अब रातों-रात दिवाला निकलने के सिवाय मेरे पास कोई चारा नहीं रह गया है। फिर भी सत्संग किया है, सत्कर्म किया है इसलिए बुद्धि में यह प्रेरणा आयी है कि चलूँ, संत से कुछ मार्गदर्शन ले लूँ।”

यह सत्संग का फल है। कष्ट है, भारी कष्ट है। सात पीढियों को कलंक लगे कि ʹयह दिवालिया है।ʹ और उधर परलोक में भी दुःख भोगना पड़े, ऐसा अवसर आ रहा है। फिर भी बचने की जगह पर जा रहे हैं।

नारायण मुनि ने कहाः “जब दिवाला निकालने का तुमने सोच ही लिया है तो कुछ-न-कुछ रकम अपने हाथों में करने की योजना बनायी होगी। कोई भी आदमी दिवाला निकालने के पहले अपना कुछ-न-कुछ पैसा बचा लेता है। सच बता, तूने कितना सरकाया है ?”

रमणलालः “महाराज ! अभी थोड़ा इधर-उधर करूँगा, तो लाख-सवा लाख रूपये मेरे हाथ में आ जायेंगे।”

नारायण मुनिः “अच्छा, तो वह सवा लाख रूपये तू मुझे दे दे। मैं उससे इधर पाठशाला खोलूँगा और तेरी रक्षा भगवान करेंगे।”

रमणलालः “जो आज्ञा, महाराज !”

दिवाला निकलने में जो लाख-सवा लाख रूपये की रकम बचेगी, उसे भी नारायण मुनि माँग रहे हैं और रमणलाल स्वीकार कर रहे हैं…. कैसी उत्तम समझ है “!

नारायण मुनि ने घोषणा कर दी कि ʹसेठ रमणलाल की तरफ से मैं पाठशाला बनवा रहा हूँ।”

डिपाजिट माँगने वालों ने सुना कि ʹसेठ दिवालियाँ हैं और वे तो सवा लाख रूपये पाठशाला के लिए दे रहे हैं ! वे दिवालिया कैसे हो सकते हैं ? अरे ! डिपाजिट दें तो उन्हीं को दें।ʹ

सारी डिपाजिट उनके पास वापस आ गयी और रमणलाल गिरते-गिरते ऐसे चढ़े कि बाद में तो उन्होंने कई सत्कर्म किये, कई भण्डारे किये और साधु-संतों की खूब सेवा की। ʹरमणलाल औषधालयʹ, नाराण मुनि पाठशाला आदि आज भी उनके सत्कर्म की खबरें दे रहे हैं…. आदमी चाहे छोटा हो तो भी अपने सत्कर्मों से महान बन जाता है।

सूरत से कीरत भली बिना पाँख उड़ जाय।

सूरत तो जाती रही कीरत कबहुँ न जाय।।

शबरी भीलन को पता था क्या ? धन्ना जाट को पता था क्या ? बाला-मरदाना को पता था क्या कि लोग हमें याद करेंगे ? नहीं। वे तो लग गये गुरु की सेवा में, बस… और ऐसा नहीं कि गुरु ने सदैव वाहवाही ही की होगी कि ʹशाबाश बेटा ! शाबाश।ʹ नहीं, कई बार डाँटा और फटकारा भी होगा।

जो वाहवाही का गुलाम होकर धर्म का काम करेगा, उसकी वाहवाही कम होगी या डाँट पड़ेगी तो वह विरोधी हो जायेगा। लेकिन जिसको वाहवाही की परवाह ही नहीं है, भगवान के लिए भगवान का काम करता है, गुरु के लिए गुरु का काम करता है, समाज को ऊपर उठाने के लिए सत्कर्म करता है तो उसको हजार फटकार पड़े तब भी वह गुरु का द्वार, हरि का द्वार, संतों का द्वार नहीं छोड़ेगा।

तीन प्रकार के लोग होते हैं- किसी का मन होता है तमोगुण प्रधान श्रद्धावाला। किसी की राजसिक श्रद्धा होती है और किसी-किसी की सात्त्विक श्रद्धा होती है।

तामसिक श्रद्धावाला देखेगा कि इतना दूँ और फटाक से फायदा हो जाये। अगर फायदा हुआ तो और दाव लगायेगा। जैसे सटोरी होते हैं न, पंजे से छक्का, अट्ठे से दहलावाले… एक बार-दो बार आ गया तो ठीक, वह दारू भी पिला देगा महाराज को और मुर्गियाँ भी ला देगा और महाराज भी ऐसे ही होते हैं।

आगे गुरु पीछे चेला। दे नरक में ठेलम ठेला।।

….तो तामसी लोग ऐसा धंधा करते हैं और आपस में झगड़ मरते हैं।

राजसी आदमी की श्रद्धा टिकेगी लेकिन कभी-कभी डिगेगी भी, कभी टिकेगी-कभी डिगेगी, कभी टिकेगी-कभी डिगेगी। अगर टिकते-टिकते उसका पुण्य बढ़ गया, सात्त्विक श्रद्धा हो गई तो हजार विघ्न आ जायें, हजार बाधाएँ आ जायें, हजार मुश्किलें आ जायें फिर भी उसकी श्रद्धा नहीं डिगती और वह पार पहुँच जाता है। इसीलिए सात्त्विक लोग बार-बार प्रार्थना करते हैं- “हे मुकद्दर ! तू यदि धोखा देना चाहता है तो मेरे दो जोड़ी कपड़े, गहने-गाँठें कम कर देना, रूपये पैसे कम कर देना लेकिन भगवान और संत के श्रीचरणों के प्रति मेरी श्रद्धा मत छीनना।ʹ

श्रद्धा बढ़ती-घटती, कटती-पिटती रहती है लेकिन उनके बीच से जो निकल जाता है, वह निहाल हो जाता है। उसका जीवन धन्य हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1998, पृष्ठ संख्या 16-19, अंक 71

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श्रद्धा सब धर्मों में जरूरी


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

ʹनारद पुराणʹ में आता है कि श्रद्धा से ही भगवान संतुष्ट होते हैं।

श्रद्धापूर्णाः सर्वधर्मा मनोरथफलप्रदाः।

श्रद्धया साध्यते सर्वं श्रद्धया तुष्यते हरिः।।

ʹनारद ! श्रद्धापूर्वक आचरण में लाये हुए ही सब धर्म मनोवांछित फल देने वाले होते हैं। श्रद्धा से ही सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से भगवान श्रीहरि संतुष्ट होते हैं।ʹ

नेता को भी ʹमैं जीत जाऊँगा…ʹ यह श्रद्धा होती है तभी वह चुनाव में तत्पर होता है और सफल होता है। दुकानदार को भी श्रद्धा होती है कि ʹदुकान चलाने में लाभ होगा…. धंधा चलेगा…..ʹ भी वह पगड़ी देकर दुकान खरीदता है और सफल होता है। विद्यार्थी को भी श्रद्धा होती है कि ʹमैं पढ़ूँगा और पास होऊँगा….।ʹ हालाँकि सब विद्यार्थी पास नहीं होते हैं – 100 प्रतिशत विद्यार्थी पास नहीं होते हैं। कहीं 70 तो कहीं 80 प्रतिशत पास होते हैं तो 20 या 30 प्रतिशत फेल भी होते हैं। अगर हजार विद्यार्थी परीक्षा में बैठें तो आठसौ पास होंगे लेकिन अगर आठसौ बैठें तो आठसौ पास नहीं होंगे। किन्तु हजार के हजार विद्यार्थी सोचते हैं कि ʹहम तो पास हो जायेंगेʹ तभी 700-800 पास हो पायेंगे।

परीक्षा में भी जो फेल होते हैं उन्हें कुछ  तो ज्ञान मिलता ही है। ऐसे ही जो श्रद्धा से ईश्वर के रास्ते पर चल पड़ता है उसे पूर्णता की प्राप्ति होती है किन्तु कभी-कभार अगर इस जन्म में न भी हुई फिर भी उस साधक की साधना व्यर्थ नहीं जाती। स्वर्ग या ब्रह्मलोक का सुख-वैभव  उसे मुफ्त में मिल ही जाता है और वह उस सुख का उपभोग करके पुनः किसी श्रीमान के घर, किसी योगी के घर जन्म लेता है। बचपन से ही भोग-सामग्री के बीच होते हुए भी, पूर्वकाल की श्रद्धा के बल से किया हुआ भजन, दान-पुण्य एवं सत्कर्म उसके हृदय को उठाता जाता है और वह परम पद की, पूर्णता की प्राप्ति कर लेता है।

जिसके जीवन में श्रद्धा नहीं है, उसका जीवन रसहीन हो जायेगा। फिर वह इन्जेक्शनों एवं गोलियों से तन्दुरुस्ती माँगता फिरेगा, डिस्को और वाइन, सिगरेट, पान-मसाले (गुटखा) से प्रसन्नता माँगता फिरेगा और इधर-उधर के छोटे-मोटे अखबारों, नॉवेल-उपन्यास आदि में ज्ञान खोजता फिरेगा लेकिन जिसके जीवन में श्रद्धा है उसके अंतर में आत्मज्ञान प्रगटेगा, उसकी अंतरात्मा से आत्मसुख प्रगटेगा, उसकी अंतरात्मा से आरोग्यता के कण प्रगटेंगे और देर-सबेर अंतरात्मा की यात्रा करके वह परमात्म पथ की यात्रा में भी सफल हो जायेगा।

जिसके जीवन में श्रद्धा नहीं होती वह तत्पर नहीं होगा, संयमी भी नहीं होगा, स्नेहवान भी नहीं होगा। जिसके जीवन में श्रद्धा है उसके जीवन में तत्परता होगी, संयम होगा, रस होगा। जो लोग श्रद्धावान का मजाक उड़ाते हैं, उनके लिए आचार्य विनोबा भावे कहते हैं “श्रद्धावान को अंधश्रद्धालु कहना यह भी  अंधश्रद्धा है।”

अपने बाप पर भी तो श्रद्धा रखनी पड़ती है। जो श्रद्धावान का मजाक उड़ाते हैं वे भी तो श्रद्धावान हैं। ʹयह मेरा बाप…. यह मेरी जाति….ʹ यह श्रद्धा से ही तो मानते हैं। पायलट पर, बसड्राईवर पर भी तो श्रद्धा रखनी पड़ती है। हालाँकि कई बार दुर्घटना भी हो जाती है।

यहाँ भगवान कहते हैं- श्रद्धापूर्णाः सर्वधर्मा… सब धर्मों को श्रद्धा पूर्ण करती है, चाहे स्त्रीधर्म हो – जो स्त्री, पुरुष में साक्षात नारायण का वास समझकर उसकी सेवा करती है, अपनी इच्छा-वासनाओं को महत्त्व न देते हुए पति के संतोष में अपना संतोष मान लेती है, उस स्त्री के पातिव्रत्य धर्म में इतना सामर्थ्य आ जाता है जितना उसके पति में भी शायद न हो और यह सामर्थ्य आता है उसकी श्रद्धा से। विद्यार्थी का धर्म भी श्रद्धा से संपन्न होता है और चिकित्सक आदि का धर्म भी श्रद्धा से संपन्न होता है। यदि नकारात्मक विचार रखकर चिकित्सक इलाज करे या मरीज करवाये तो दोनों को हानि होगी। अतः श्रद्धा, तत्परता सब धर्मों में चाहिए, सब कर्मों में चाहिए।

श्रद्धापूर्णाः सर्वधर्मा मनोरथफलप्रदाः।

श्रद्धया साध्यते सर्वं श्रद्धया तुष्यते हरिः।।

ʹनारद ! श्रद्धापूर्वक आचरण में लाये हुए ही सब धर्म मनोवांछित फल देने वाले होते हैं। श्रद्धा से सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से ही भगवान श्रीहरि संतुष्ट होते हैं।ʹ

श्रद्धा से साधक में तत्परता आती है, श्रद्धा से ही मन-इन्द्रियों पर संयम किया जाता है और श्रद्धा से ही परमात्मस्वरूप की प्राप्ति होती है। श्रद्धा से उत्तम गुण उत्पन्न होते हैं और श्रद्धा से ही उत्तम रस की प्राप्ति होती है।

राजा द्रुपद ने संतान-प्राप्ति के लिए श्रद्धा से भगवान शिव की आराधना की। शिव की आराधना का फल हुआ कि राजा द्रुपद को संतान तो प्राप्त हुई किन्त कन्या के रूप में।

तब राजा द्रुपद ने पुनः आराधना की जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रगट हुए। तब राजा ने प्रार्थना कीः “भगवन्, ! मैंने तो संतान अर्थात् पुत्र की प्राप्ति के लिए आराधना की थी लेकिन यह तो कन्या है।”

शिवजीः “हमारी दी हुई वस्तु को तुम प्रसाद समझकर स्वीकार करो। यह दिखती तो कन्या है लेकिन तुम इसे पुत्र ही समझो।”

राजा द्रुपद ने भगवान के वचनों पर श्रद्धा की। उस कन्या का कन्यापरक नाम नहीं रखा परंतु पुत्रपरक नाम-शिखण्डी रखा। उसके संस्कार भी पुत्र के अऩुसार एत। जब वह युवती हुई तब उसे युवक मानकर किसी कन्या से उसकी शादी करवा दी। श्रद्धा के बल से वह कन्या पुत्र के रूप में बदल गयी, शिखण्डी पुरुष हो गया। आज भी कभी-कभी आप सुनते हैं कि लड़की में से लड़का हो गया।

यह सब परिणाम है दृढ़ श्रद्धा का। दृढ़ श्रद्धा असंभव को भी संभव करने में सक्षम है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 1997, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 51

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