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सब देवों का देव – पूज्य बापू जी


मनमानी श्रद्धा होती है तो मनमाना फल मिलता है। और मन थोड़ी सीमा में ही होता है, मन की अपनी सीमा है। श्रद्धा सात्त्विक, राजस, तामस – जैसी होती है, वैसा ही फल मिलता है। आप किसी देवतो रिझाते हैं और फल चाहते हैं तो जैसे किसी मनुष्य को रिझाते हैं और फल चाहते हैं तो जैसे किसी मनुष्य को रिझाया तो 5 साल की कुर्सी है। तो 5 साल की कुर्सी या 10-15 साल का उसका सत्ताबल, फिर दूसरी कोई सरकार, दूसरा कायदा हो गया। तो जितने आयुष्यवाला पद होगा, उतना ही आपको फायदा हुआ।

ब्रह्माजी के एक दिन में 14 इन्द्र बदलते हैं। देवता की उपासना करो तो वे जब बदल जाते हैं तो फिर नये इन्द्र का कानून हो जाता है। हर 5 साल में जो-जो कानून पहली सरकार ने पास किये, उनमें भी कई फेरबदल हो जाते हैं, अधिकारियों में फेरबदल हो जाता है। ʹयह अधिकारी अपना है, यह अपना है, यह फलाने का दायाँ हाथ है….ʹ ऐसा करते-करते, खुशामदखोरी करते-करते, भीख माँगते-माँगते, उनका आश्रय लेते-लेते आखिर देखो तो निराश !

छोटी बुद्धि होती है न, तो छोटे-छोटे ग्रामदेवता को मानते हैं, कोई स्थानदेवता को मानते हैं, कोई कुलदेवता को मानते हैं, कोई किसी देवता को मानते हैं। छोटी-छोटी मति है तो छोटे-छोटे देव में ही अटक जाती है, अब पता ही नहीं कि वह कुलदेवता कब मर जाय, कब ग्रामदेवता मर जाय। कुलदेवता के द्वारा, ग्रामदेवता के द्वारा कुछ भी कृपा होगी तो उसी परमेश्वर की होगी, सत्ता होगी तो उसी की होगी, संकल्प सामर्थ्य होगा तो उसी का होगा।

भगवान कहते हैं-

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।

गीताः 5.29

सारे यज्ञ और तपों का फल भोक्ता मैं हूँ। ʹइदं इन्द्राय स्वाहा।ʹ मैं ही भोग रहा हूँ, इन्द3 के पीछे चक्कर क्यों काट रहे हो ? इदं वरुणाय स्वाहा। इदं कुबेराय स्वाहा।ʹ – ये मातृपिंड करो, पितृपिंड करो, यक्षों को दो लेकिन भगवान कहते हैं कि सबके अंदर अंतरात्मारूप से तो मैं ही हूँ और किसी के द्वारा भी वरदान, आशीर्वाद मिलता है तो मैं ही दे रहा हूँ लेकिन उन छोटी-छोटी आकृतियों में लगे रहे तो फिर वह छोटा-छोटा खत्म हुआ तो तुम्हारी उपलब्धि भी खत्म हुई। उन सबमें मैं हूँ। भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। ईश्वर तो बहुत हैं। एक-एक सृष्टि के अलग-अलग ईश्वर हैं। सृष्टियाँ कितनी हैं कोई पार नहीं है लेकिन उन सब सृष्टियों के ईश्वरों-का-ईश्वर अंतर्यामी आत्मा मैं महेश्वर हूँ और कैसा हूँ ? सुहृदं सर्वभूतानां… प्राणिमात्र का सुहृद हूँ। अकारण हित करने वाला हूँ। ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति। ऐसा जो मुझे जानता है उसे शान्ति प्राप्त होती है।

माँ के शरीर में दूध कौन बनाता है ? ग्रामदेव नहीं बनाता, स्थानदेव नहीं बनाता, कुलदेवता नहीं बनाता। वह माँ का अंतर्यामी देव हमारे लिए दूध बनाने की व्यवस्था कर देता है। बस, इतना पक्का करो कि सारे भगवान, सारे के सारे देवता, सारे यक्ष, राक्षस, किन्नर, भगवान, गुरु सबके रूप में वह मेरा परमेश्वर ही है। तो आपका नजरिया बड़ा हो जायेगा, बुद्धि विशाल हो जायेगी। खंड में से अखंड में चले जायेंगे। परिच्छिन्न में से व्यापक हो जायेंगे। बिंदु में से सिंधु बन जायेंगे। ऐसा कोई बिन्दु नहीं है कि सिंधु से अलग हो। ऐसा कोई घड़े का आकाश नहीं है जो महाकाश से अलग हो। ऐसे ही ऐसा कोई जीव नहीं जिसका उस परमेश्वर की सत्ता, स्फूर्ति, चेतना, ज्ञान के बिना कोई अस्तित्व हो।

ʹहे देवता ! यह दे दे…..ʹ, बदली हो जायेगी उसकी तो ! वह देगा तो भी तेरे देवता (अंतर्यामी परमात्मा) के बल से देगा, पागल कहीं का ! ʹहे फलाने देवता ! यह दे दे….ʹ देखो, मैं अभी तो तुमको पागल बोल देता हूँ किंतु पहले मैं भी पीपल देवता को फेरे फिरता था। उनकी डालियों की चम्पी करता, ʹहरि ૐૐ…..ʹ करके आलिंगन करता, बड़ा अच्छा लगता था। अब पता चल गया गुरु कृपा से ओहो ! वही का वही था, अपना ही हृदयदेव था।

हे मेरे प्रभु ! हे मेरे साँईं ! हे मेरे भगवानों-के-भगवान लीलाशाह जी भगवान ! माँगने तो आये थे कुछ, और दे डाला कुछ ! माँगने तो आये थे कि चलो शिवजी का दर्शन करा देंगे लेकिन शिवजी जिससे शिवजी हैं वही मेरा अपना-आपा है, वह दे डाला। माँगने तो आते हैं- ʹयह हो जाय, वह हो जाय, वह हो जाय….ʹ – छोटी-छोटी चीजें लेकिन सत्संग में इधर-उधर घुमा-फिरा के वही दे देते हैं। ओ हो दाता ! तू सुहृद भी है, उदार भी है, दानी तो कैसा ! राजा तो क्या दान करेगा ? सेठ का बच्चा क्या दान करेगा ? कर्ण भी क्या दान करेगा ? चीज वस्तुओं का दान करेगा, अपने कवच का दान कर देगा लेकिन भगवान तो अपने-आपका ही दान कर देते हैं। सबसे बड़ा दाता देखो तो तू ही है महाराज ! यह तेरे दाताओं में जो दानवीरता है वह तेरी है प्रभु ! दाताओं में जो दानवीरता है, बुद्धिमानों में जो बुद्धि है, वह तेरी सत्ता है, तेरी महिमा है। जो उसकी तरफ चल देता है न, उसकी मति-गति कोई नाप नहीं सकता।

श्रद्धा शास्त्रविधि से होती है तो ब्रह्मविलास तक पहुचाती है और श्रद्धा मनमानी होती है तो भूत-भैरव में, बड़े-पीर में रूका के जीवन भटका देती है। कर्म का फल कर्म नहीं देता है, कर्म तो कृत है, किसी के द्वारा किया जाता है, खुद जड़ है। कर्म का फल देने वाला चैतन्य ईश्वर है। और  वही ईश्वर जिसमें स्थापना करो कि ʹयह देवता मेरे कर्म का फल देगाʹ, उस देवता के द्वारा भी इस ईश्वर का ही अंश कर्म का फल देगा। तो फुटकर-फुटकर बाबुओं को रिझा-रिझा के थक जाओगे, सबके बापों का बाप बैठा है उसे पा लो, बस हो गया। परमात्मा तो निर्गुण-निराकार है। किन्तु जो चाहे आकार को साधू परतछ देव। (परतछ=प्रत्यक्ष) जिसने परमात्मा को अपने आत्मरूप में जाना है वह प्रत्यक्ष, साक्षात् भगवान है। मुझे तो मेरे लीलाशाह भगवान मिल गये। पहले तो अलग-अलग भगवानों की खूब उपासना की, नाक रगड़ी पर जब सदगुरु भगवान मिल गये तब सब भगवानों को रख दिया। अभी मेरी कुटिया में अगर कोई भगवान होगा तो मेरे गुरु भगवान का चित्र होगा, नहीं तो बिना चित्र के भी मेरे भगवान अब मेरे से अलग नहीं हो सकते। हे हरि ! हे प्रभु ! ૐૐૐ….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 240

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पहले डॉक्टर फिर आई.ए.एस. बनी


जब मैं 8वीं कक्षा में पढ़ती थी तभी मैंने पूज्य बापू जी से सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा ली थी। नियमित मंत्रजप, ध्यान के साथ-साथ पूज्य बापू जी के द्वारा आयोजित विद्यार्थी शिविरों में भी मैं भाग लेती रही। सत्संग में पूज्य बापू जी के श्रीमुख से सुनाः

उठो जागो और तब तक मत रूको जब तक उद्देश्य प्राप्त नहीं हो जाता। अनुशासन, तत्परता व बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयास और आत्मविश्वास ही सफलता की कुँजी है।

गुरुदेव के इन प्रभावशाली वचनों ने मेरे मन को उत्साह और उमंग से भर दिया। मुझे लगा कि मैं जो चाहूँ बन सकती हूँ, जीवन के हर क्षेत्र में अवश्य सफल हो सकती हूँ क्योंकि पूज्य बापूजी से प्राप्त सारस्वत्य मंत्र एवं उनकी कृपा हमारे साथ है। मैंने डॉक्टर बनने का उद्देश्य बनाया और बापू जी की कृपा से सहज में ही डॉक्टर (एम.बी.बी.एस.) बन भी गयी। अब भी मैं समय निकाल कर बापू जी का सत्संग सुनती हूँ। सत्संग पर आधारित सत्साहित्य का अध्ययन करने से मुझे पीड़ित मानवता की सेवा करने की प्रेरणा हुई। मुझे लगा कि डॉक्टर बनने से मैं अधिक लोगों की सेवा नहीं कर पाँऊगी। फिर मैंने आई.ए.एस. की परीक्षा दी। संयम, तत्परता, धैर्य एवं सफलता की कुंजी देने वाले पूज्य बापू जी के आशीर्वाद से मेरा चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस.) में हो गया है। अब तो पूज्य बापूजी के श्रीचरणों में मेरी यही विनती है कि आपकी कृपा से मैं समाज-सेवा का कार्य खूब अच्छी तरह से कर सकूँ।

डॉ. प्रीति मीणा (आई.ए.एस.), बारां (राजस्थान)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 29 अंक 213

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उसके लिये क्या असम्भव है !


महर्षि आयोद धौम्य के तीन प्रमुख शिष्यों में से एक थे वेद। वे विद्याध्ययन समाप्त कर घर गये और वहाँ गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए रहने लगे। उनके भी तीन शिष्य हुए जिनमें सबसे प्यारे उत्तंक थे।

उत्तंक का अध्ययन समाप्त हो गया। वे घर जाने लगे। विद्याध्ययन की समाप्ति पर गुरुदक्षिणा अवश्य देनी चाहिए’ – ऐसा सोचकर उन्होंने गुरुजी से विनती कीः “गुरुदेव ! मैं आपको क्या दक्षिणा दूँ ? मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?”

गुरु ने बहुत समझाया कि ‘तुमने पूरे मन से मेरी सेवा की है, यही सबसे बड़ी गुरुदक्षिणा है।’ किंतु उत्तंक बार-बार गुरुदक्षिणा के लिए आग्रह करने लगे, तब गुरु ने कहाः “अच्छा, भीतर जाकर गुरु पत्नी से पूछ आओ। उसे जो प्रिय हो, वही तुम कर दो, यह तुम्हारी गुरुदक्षिणा है।” यह सुनकर उत्तंक भीतर गये और गुरुपत्नी से प्रार्थना की, तब गुरुपत्नी ने कहाः “राजा पौष्य (जिनके राजगुरु थे वेदमुनि) की रानी जो कुण्डल पहने हुए है, वे मुझे आज से चौथे दिन पुण्यक नामक व्रत (वह व्रत जो स्त्रियाँ पति तथा पुत्र के कल्याण की कामना से रखती हैं) के अवसर पर अवश्य लाकर दो। उस दिन मैं उन कुण्डलों को पहनकर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहती हूँ।”

यह सुनकर उत्तंक गुरु और गुरुपत्नी को प्रणाम करके पौष्य राजा की राजधानी को चल दिये।

रास्ते में उन्हें धर्मरूपी बैल पर चढ़े हुए इन्द्र मिले। इन्द्र ने कहाः “उत्तंक तुम इस बैल का गोबर खा लो। भय मत करो।” उनकी आज्ञा पाकर बैल का पवित्र गोबर और मूत्र उन्होंने ग्रहण किया। जल्दी में साधारण आचमन करके वे पौष्य राजा के यहाँ पहुँचे। पौष्य ने ऋषि के आगमन का कारण पूछा। तब उत्तंक ने कहाः “गुरुदक्षिणा में गुरुपत्नी को देने के लिए मैं आपकी रानी के कुण्डलों की याचना करने आया हूँ।”

राजा ने कहाः “आप स्नातक ब्रह्मचारी हैं। स्वयं ही जाकर रानी से कुण्डल माँग लाइये।” यह सुनकर उत्तंक राजमहल में गये। वहाँ उन्हें रानी नहीं दिखीं, तब राजा के पास आकर बोलेः “महाराज ! क्या आप मुझसे हँसी करते हैं ? रानी तो भीतर नहीं हैं।”

राजा ने कहाः “ब्राह्मण ! रानी भीतर ही हैं। जरूर आपका मुख उच्छिष्ट है। सती स्त्रियाँ उच्छिष्ट मुख पुरुष को दिखाई नहीं देतीं।”

उत्तंक को अपनी गलती मालूम हुई। उन्होंने हाथ पैर धोकर, प्राणायाम करके तीन आचमन किया, तब वे भीतर गये। वहाँ जाते ही रानी दिखायी दीं। उत्तंक का उन्होंने सत्कार किया और आने का कारण पूछा।

उत्तंक ने कहाः “गुरुपत्नी के लिए मैं आपके कुण्डलों की याचना करने आया हूँ।”

उसे स्नातक ब्रह्मचारी और सत्पात्र समझकर रानी ने अपने कुण्डल उतारकर दे दिये और यह भी कहा कि “बड़ी सावधानी से इन्हें ले जाना। सर्पों का राजा तक्षक इन कुण्डलों की तलाश में सदा घूमा करता है।” उत्तंक रानी को आशीर्वाद देकर कुण्डलों को लेकर चल दिये।

रास्ते में एक नदी पर वे नित्यकर्म कर रहे थे कि इतने में ही तक्षक मनुष्य का वेश बनाकर कुण्डलों को लेकर भागा। उत्तंक ने उसका पीछा किया किंतु वह अपना असली रूप धारण कर पाताल में चला गया। इन्द्र की सहायता से उत्तंक पाताल में चला गया। इन्द्र को अपनी स्तुति से प्रसन्न करके नागों  को जीतकर तक्षक से उन कुण्डलों को ले आये। इन्द्र की ही सहायता से वे अपने निश्चित समय से पहले गुरुपत्नी के पास पहुँच गये। गुरुपत्नी उन्हें देखकर बहुत प्रसन्न हुई और बोलीं- “मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ, तुम्हें सब सिद्धियाँ प्राप्त हों।”

गुरुपत्नी को कुण्डल देकर उत्तंक गुरु के पास गये। समाचार सुनकर गुरु ने कहाः “इन्द्र मेरे मित्र हैं। वह गोबर अमृत था, उसी के कारण तुम पाताल में जा सके। मैं तुम्हारे साहस से बहुत प्रसन्न हूँ। अब तुम प्रसन्नता से घर जाओ।” इस प्रकार गुरु और गुरुपत्नी का आशीर्वाद पाकर उत्तंक अपने घर गये।

परमात्मस्वरूप श्री सदगुरुदेव के श्रीचरणों में जिसकी अनन्य श्रद्धा हो, गुरुवचनों पर पूर्ण विश्वास हो एवं गुरु-आज्ञापालन में दृढ़ता हो उसके लिए जीवन में कौन सा कार्य असम्भव है ! आगे चलकर उत्तंक बड़े ही तपस्वी, ज्ञानी ऋषि हुए। भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के अनंतर द्वारका लौटते समय इन्हें अपने महिमामय विराट स्वरूप का दर्शन कराया था।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 11, 25 अंक 212

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