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कौन मिलते, कौन रह जाते ?


(गुरु गोविन्द सिंह जयंतीः 13 जनवरी 2019)

एक दिन गुरु गोविन्द सिंह जी ने एक सेवक को आज्ञा दी कि “कुछ बताशे तथा कुछ पत्थर के रोड़े पानी से भरे एक घड़े में डाल दो ।”

सेवक ने वैसा ही किया । कुछ देर बाद गुरु जी ने उसे पुनः आज्ञा दीः “वे बताशे तथा पत्थर पानी में से निकालकर ले आओ ।”

सेवक ने घड़े में हाथ डाला तो हाथ में केवल पत्थर ही आये ।

सेवकः “गुरुदेव ! घड़े में केवल पत्थर के टुकड़े ही हैं, बताशे नहीं हैं ।”

गुरु जी ने सेवकों को समझाते हुए कहाः “जो श्रद्धालु शिष्य सच्चे दिल से, तन-मन से, श्रद्धा-प्रेम के साथ गुरु की सेवा करते हैं, वे पानी में घुल मिल गये इन बताशों की तरह हैं । उनका अहंकार गुरुसेवा में गल जाता है, वे सद्गुरु के अनुभव से एक हो जाते हैं परंतु दिखावे की सेवा करने वाले अश्रद्धावान पुरुष पत्थऱ की तरह वैसे-के-वैसे रहते हैं, वे सद्गुरु के आत्मानुभव के साथ नहीं मिल सकते ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 13, अंक 313

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गुरु-तत्त्व की व्यापकता व समर्थता


योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जी के शिष्य अविनाश बाबू रेलवे विभाग में नौकरी करते थे। अपने गुरुदेव के दर्शन, सत्संग-सान्निध्य हेतु उन्होंने एक सप्ताह की छुट्टी के लिए अपने उच्च अधिकारी भगवती चरण घोष को आवेदन पत्र दिया। उन्होंने अविनाश बाबू से कहाः “धर्म के नाम पर ऐसे पागलपन से नौकरी में उन्नति नहीं की जा सकती। आगे बढ़ना है तो यह पचड़ा छोड़कर कार्यालय का कार्य मन लगा के करो।”

निराश होकर अविनाश बाबू घर लौट रहे थे तो सहसा मार्ग में भगवती बाबू मिले। इन्हें उदास देख वे सांसारिक बातें समझाने लगे ताकि इनके मन का क्षोभ दूर हो  जाये। अविनाश बाबू उदासीनता के साथ उनकी बातें सुन रहे थे और मन ही मन गुरुदेव से प्रार्थना भी कर रहे थे।

अचानक कुछ दूरी पर तीव्र प्रकाश हुआ, उसमें लहिरी महाशय जी प्रकट हुए और बोलेः “भगवती ! तुम अपने कर्मचारियों के प्रति कठोर हो।” इसके बाद वे अंतर्ध्यान हो गये।

सर्वव्यापक गुरु-तत्त्व सर्वत्र विद्यमान है। शिष्य जब सदगुरु को शरणागत होकर पुकारता है तो उसकी प्रार्थना गुरुदेव अवश्य सुनते हैं तथा प्रेरणा, मार्गदर्शन भी देते हैं। पूज्य बापू जी से मंत्रदीक्षित साधकों का ऐसा अनुभव हैः

सभी शिष्य रक्षा हैं पाते, सर्वव्याप्त सदगुरु बचाते।

भगवती बाबू अत्यंत विस्मित हो कुछ मिनट चुप रहे, फिर कहाः “आपकी छुट्टी मंजूर, आप अपने गुरुदेव का दर्शन करने अवश्य जायें और यदि अपने साथ मुझे भी ले चलें तो अच्छा हो।”

दूसरे दिन भगवती बाबू सपत्नीक अविनाश बापू के साथ काशी पहुँचे। उन्होंने देखा कि लाहिड़ी महाशय ध्यानस्थ बैठे है। ज्यों भगवती बाबू ने प्रणाम किया त्यों वे बोलेः “भगवती ! तुम अपने कर्मचारियों के प्रति कठोर हो।” ठीक यही बात भगवती बाबू पहले सुन चुके थे। उन्होंने क्षमा याचना की व पत्नीसहित दीक्षा ली।

भगवती बाबू अपने पुत्र मुकुंद के जन्म के कुछ दिन बाद उसे लेकर सपत्नीक अपने गुरुदेव के दर्शन करने आये तो लाहिड़ी जी ने आशीर्वाद देते हुए कहाः “तुम्हारा यह पुत्र योगी होगा।”

भगवती बाबू की पत्नी ज्ञानप्रभा देवी लाहिड़ी महाशय को साक्षात ईश्वर मानती थी। एक बार मुकुंद हैजे से पीड़ित हो गया। डॉक्टर आशा छोड़ चुके थे। ज्ञानप्रभा देवी मुकुंद को लाहिड़ी जी का श्रीचित्र दिखाते हुए बोलीं- “बेटा ! तुम इन्हें प्रणाम करो।” मुकुंद इतना कमजोर हो गया था हाथ उठा के प्रणाम भी नहीं कर सका। माँ ने कहाः “कोई हर्ज नहीं बेटा ! तुम मन ही मन भक्तिभाव से गुरुदेव को प्रणाम करो। तुम जरूर अच्छे हो जाओगे।” मुकुंद ने वैसा ही किया और ज्ञानप्रभा देवी ने हृदयपूर्वक गुरुदेव से प्रार्थना करके सब उनके हाथों में सौंप दिया। दूसरे दिन से मुकुंद स्वस्थ होने लगा और फिर पूर्णतः ठीक होकर महानता के रास्ते चल पड़ा।

कैसी अगाध महिमा है आत्मज्ञानी महापुरुषों के दर्शन, सत्संग, सान्निध्य, सुमिरन व उनकी अहैतुकी कृपा की  ! एक ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के शिष्य के सम्पर्क में आने से भगवती बाबू के पूरे परिवार का उद्धार हो गया और उनके पुत्र विश्वप्रसिद्ध परमहंस योगानंद बन गये। ब्रह्मज्ञानी सदगुरु के मार्गदर्शन में चलने वाला स्वयं की 21 पीढ़ियाँ तो तारता ही है, अपने सम्पर्क में आने वालों को भी महापुरुषों से जोड़कर उनके जन्म-जन्मांतर सँवारने में निमित्त बन जाता है। धन्य हैं ऐसे महापुरुष और धन्य हैं उनकी कृपा पचाने वाले सत्शिष्य !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 21, अंक 294

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सबसे सरल और सबसे सरस


जिसकी भगवन्नाम में निष्ठा हो गयी, उसके लिए संसार में क्या काम बाकी रहा ? भगवन्नाम के अभ्यास से वह मधुर लगने लगेगा। भगवन्नाम का महत्त्व समझते पर स्वतः ही हर समय जप होने लगेगा। फिर तो एक मिनट भी व्यर्थ करना बुरा लगेगा।
पहले कुछ समय भजन-कीर्तनादि करना चाहिए और थोड़ी देर गुणानुवाद करना चाहिए। इससे भजन में मन लग जायेगा। संत और भगवान के गुणानुवाद में कर्मकांड की तरह आचार-विचार का कोई नियम नहीं है। गोपियाँ तो गौ दुहते, झाड़ू लगाते, दही मथते तथा हर एक काम करते हुए श्रीकृष्ण का गुणगान किया करती थीं। संतों एवं शास्त्रों ने ध्यानसहित भगवन्नाम-जप की महिमा गाकर संसार का बड़ा उपकार किया है क्योंकि सब लोग जप के साथ ध्यान नहीं करते। अतः ध्यान के बिना उन्हें विशेष लाभ भी नहीं होता। लोभी की भाँति भगवन्नाम अधिकाधिक मात्रा में जपना चाहिए और कामी की भाँति निरन्तर स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।
भगवान से भगवन्नाम अलग है परंतु भगवन्नाम से भगवान अलग नहीं। नाम के अंदर भगवान हैं। सर्वदा भगवान का चिंतन करना चाहिए।
जो जितना अधिक प्रीतिपूर्वक एवं श्रद्धा से जप करेगा, उसे उतनी शीघ्र सिद्धि मिलेगी। गुरुमंत्र की रोज कम-से-कम 11 माला तो करनी ही चाहिए और जितना अधिक से अधिक जप कर सकें करना चाहिए। गुरुमंत्र नहीं लिया तो जिस मंत्र में प्रीति हो, उस मंत्र का जप करना चाहिए। शीघ्र तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति का उपाय है आत्मज्ञानी सदगुरु की प्राप्ति। आत्मज्ञानी सदगुरु मिल जाने से साधक को शीघ्र ही सिद्धि हो जाती है। सदगुरु जो नियम बतायें उन्हीं का पालन करें। अधिक जप करने से शरीर के परमाणु मंत्राकार हो जाते हैं। भगवन्नाम स्मरण करने के लिए शुचि-अशुचि, सुसमय-कुसमय और सुस्थान-कुस्थान का विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को पवित्र करने वाली चीज है जप। यदि एक आसन से जप किया जाय तो बहुत अच्छा है। पापकर्मों को ध्वंस करने के लिए जप करने की आवश्यकता है। देहनाशपर्यंत इसे तत्परता से करते रहना चाहिए। मन भागता रहे तो भी कोई चिंता नहीं किंतु नियमपूर्वक चिंतन की प्रतिज्ञा करनी ही चाहिए। पुनः-पुनः चिंतन करने को ही अभ्यास कहते हैं और यही पुरुषार्थ है। भगवान उन्हीं पर दया करते हैं जो उनका चिंतन करते हैं। जिस प्रकार से भगवान में मन लगे वही करना चाहिए। जप में मन कम लगे तो कीर्तन करें या स्तोत्र-पाठ अथवा स्तुतिपरक पदों का गान करें।
यह निश्चय कर लेना चाहिए कि मैं भगवन्नाम जप, नियम अवश्य करूँगा। इस प्रकार प्रतिज्ञा करने से भजन होगा। भजन तो हठपूर्वक भी करना चाहिए। जप करते हुए मन भटके तो भटकने दो। जप में इतनी शक्ति है कि वह अधिक होने से अपने-आप मन को एकाग्र करने में सहायता करेगा। नित्यप्रति साधन करने की प्रतिज्ञा कर ली जाय तो इससे बड़ा लाभ होगा। यदि लाभ न भी दिखे तो भी कोई हर्ज नहीं, कभी-न-कभी तो आत्मानंद आयेगा ही। जब पास बैठने से ही दूसरे व्यक्ति की जप में प्रवृत्ति होने लगे, तब समझो कि जापक का नाम-जप सिद्ध हुआ। जप किये बिना रहा न जाय, यहाँ तक कि जप पूरा न होने पर खाना पीना भी अच्छा न लगे तब समझो कि जप सिद्ध हुआ है। इसी को जप निष्ठा कहते हैं। जप के समय ये चार काम नहीं करने चाहिएः बोलना, इधर-उधर देखना, सिर या गर्दन हिलाना, हँसना। भगवान के मंगलमय नाम उच्चारण करने से करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। भक्त से कोई अपराध (पाप) हो जाय तो उसे शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं है, वह केवल जप से ही दूर हो जायेगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 21,22 अंक 275
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