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यह मेरे तारणहार का तिलक है – पूज्य बापू जी


एक सेठ अपने रसोइये को डाँटते कि “तू मेरे घर का खाता है, मेरी नौकरी करता है तो जैसा मैं तिलक करता हूँ, मेरा परिवार तिलक करता है ऐसा तू भी किया कर ।”

रसोइया ‘हाँ’, ‘हाँ’ कहता रहा लेकिन अपना तिलक नहीं बदला । आखिर सेठ परेशान हो गये । सेठ ने कहाः “अगर कल हमारे सम्प्रदाय का तिलक तूने नहीं किया तो नौकरी से छुट्टी समझना ।”

इस प्रकार डाँटते हुए सेठ ने नौकर से दूसरे ढंग से तिलक करने का वचन ले लिया ।

दूसरे दिन नौकर आया, सेठ चकित हो गये कि नौकर के ललाट पर वही अपना तिलक ! सेठ ने दुत्कारते हुए, फटकारते हुए कहाः “पागल ! कल वचन दे गया था फिर भी तिलक तू अपने ढंग का करता है, हमारे ढंग का क्यों नहीं किया ?”

रसोइये ने कमीज उठाकर पेट दिखाया तो वहाँ पर सेठ के कुल का तिलक था ।

रसोइये ने कहाः “सेठ जी ! आपने आग्रह किया इसलिए आपका तिलक मैंने लगाया है । मैं आपके पास पेट के लिए आता हूँ इसलिए पेट पर आपके कुल का तिलक लगाया है । ललाट पर तो मुझे मेरे गुरुदेव के श्रद्धा-विश्वास का तिलक ही लगाने दो, औरों के तिलक की जरूरत नहीं है । यह मेरे तारणहार का तिलक है । सेठ जी ! मैं मजबूर हूँ इसलिए पेट पर तुम्हारा तिलक लगा दिया है ।”

भारत का रसोइया भी अपना विश्वास नहीं छोड़ता है, अपनी श्रद्धा नहीं छोड़ता है, अपनी दृढ़ता नहीं छोड़ता है तो तुम क्यों छोड़ो ? तुम क्यों भक्ति छोड़ो ? तुम क्यों नियम छोड़ो ? तुम क्यों संयम छोड़ो ? तुम क्यों अपने मनरूपी घोड़े को एकदम बेलगाम करो ?

कोई व्रत, कोई नियम, कुछ नियम-निष्ठा अपने जीवन में लाओ । अगर तुम उसमें थोड़े से सफल हुए तो तुम्हारा बल, तुम्हारी शक्ति विकसित होगी, मन अधीन होता जायेगा । छोटा सा ही नियम लो लेकिन उसको कड़ाई से पूरा करो । 10 प्राणायाम, 10-15 मिनट ध्यान, नीलवर्ण कमल (तीसरा केन्द्र – मणिपुर चक्र) विकसित करने का नियम (अग्निसार क्रिया) अवश्य करो, जिससे शरीर निरोग व फेफड़े बलवान बनेंगे, रोगप्रतिकारक शक्ति का विकास होगा, चित्त की प्रसन्नता, गुरुकृपा पाने की योग्यता, सद्ग्रुरु के ज्ञान को पचाने की क्षमता और मति की दृढ़ता में बढ़ोतरी हो जायेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2019, पृष्ठ संख्या 24, अंक 319

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महापुरुष देते अजब युक्तियाँ


(गुरु अर्जुन देव शहीदी दिवसः 7 जून 2019)

एक दिन मंगलसेन नाम का एक व्यक्ति अपनी मंडली के साथ गुरु अर्जुनदेव जी के दरबार में आया । उसने प्रार्थना कीः “गुरु महाराज ! कोई ऐसी युक्ति बताइये जिससे हमारा भी कल्याण हो जाय ।”

अर्जुनदेव जी बोलेः “जीवन में सत्य पर पहरा देना सीखो, कल्याण अवश्य ही होगा ।”

मंगलसेन बोलाः “मेरे लिए यह कार्य अत्यंत कठिन है ।”

“मंगलसेन ! तुम इसी जन्म में अपना कल्याण चाहते हो और उसके लिए कोई मूल्य भी चुकाना नहीं चाहते ! दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं ?”

मंगलसेन के चेहरे पर गम्भीरता छा गयी, बोलाः “मैं आपके बताये सत्य के मार्ग पर चलना तो चाहता हूँ पर एकाएक जीवन में क्रांति लाना इतना सहज नहीं है क्योंकि अब तक हमारा स्वभाव परिपक्व हो चुका है कि हम झूठ बोले बिना नहीं रह सकते ।”

अर्जुनदेव जी ने उत्साहवर्धन करते हुए कहाः “धीरे-धीरे प्रयास करो । जहाँ चाह, वहाँ राह । परमात्मा की कृपा का सहारा लेकर लग जाओ तो ऐसा क्या है जो नहीं हो सकता ! केवल दृढ़ संकल्प करने की आवश्यकता है ।”

“गुरु महाराज ! इस कठिन कार्य में जब हम डगमगायें तो हमें सहारा देने वाला कोई प्रेरणास्रोत भी हो, ऐसी कुछ कृपा कीजिये ।”

अर्जुन देव जी ने एक सुंदर युक्ति बतायीः “एक कोरी लेखन-पुस्तिका सदैव अपने पास रखो, जब कभी किसी मजबूरीवश झूठ बोलना पड़े तो उस पूरे वृत्तांत को लिख लिया करो और सप्ताह बाद उसे सत्संगियों की सभा में सुना दिया करो । सभा कार्य की विवशता को ध्यान में रखकर क्षमा करती रहेगी ।”

उपरोक्त बात सुनने में जितनी सहज लगती थी, जीवन में अपनानी उतनी ही कठिन थी । मंगलसेन को अपने झूठ का विवरण सबके समक्ष रखना ग्लानिपूर्ण लगा । वह गरु आज्ञानुसार अपने पास एक लेखन-पुस्तिका रखने लगा किंतु जब भी कोई कार्य-व्यवहार होता तो बहुत सावधानी से कार्य करता ताकि झूठ बोलने की नौबत ही न आये ।

मंगलसेन जानता था कि सद्गुरु सर्वसमर्थ और सर्वज्ञ होते हैं इसलिए वह बड़ी सतर्कता से व्यवहार करता । सत्याचरण करने से वह धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा । उसे सब ओर से मान-सम्मान भी मिलने लगा ।

ऐसी स्थिति में अहंकार अपने पैर पसाने लगता है परंतु मंगलसेन सावधान था । उसे अंतःप्रेरणा हुई कि ‘यह क्रांतिकारी परिवर्तन तो गुरुवचनों को आचरण में लाने का ही परिणाम है ।’

वह अपने सहयोगियों की मंडली के साथ पुनः गुरुदेव की शरण में पहुँच गया । अंतर्यामी गुरुदेव सब कुछ जानते हुए भी सत्संगियों को सीख देने के लिए अनजान होकर बोलेः “मंगलसेन ! वह झूठ लिखने वाली पुस्तिका लाओ ।”

मंगलसेन ने वह पुस्तिका गुरु जी के समक्ष रख दी । अर्जुनदेव जी पुस्तिका को देखकर बोलेः “यह तो कोरी की कोरी है ।”

तब मंगलसेन ने सब हाल कह सुनाया । गुरुदेव उस पर प्रसन्न होकर बोलेः “जो श्रद्धा-विश्वास के साथ गुरुवचनों के अनुसार आचरण करता है, उसके संग प्रभु स्वयं होते हैं, गुरु का अथाह सामर्थ्य उसके साथ होता है, उसे किसी भी कार्य में कोई कठिनाई आड़े नहीं आती ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 317

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श्रद्धा का बल, हर समस्या का हल-पूज्य बापू जी


मंत्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ ।

यादृशी भावना यस्य सिद्धिभवति तादृशी ।।

स्कन्द पुराण, प्रभास खंडः 278.39

मंत्र, तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, औषध और गुरु में जैसी भावना होती है वैसा ही फल मिलता है ।

संत नामदेव जी के पूर्व जीवन की एक कहानी है । युवक नामदेव का मन विठ्ठल में लगा तो उसके पिता को डर लगा कि ‘यह लड़का भगत बन जायेगा, साधु बन जायेगा तो फिर कैसे गुजारा होगा ?’ बाप ने थोड़ा टोका और धंधा करने, रोजी-रोटी कमाने के लिए बाध्य किया । एक दिन पिताश्री ने नामदेव को कुछ पैसे देकर कपड़ा खरीदवाया और कपड़े का गठ्ठर दे के दूसरे बेचने वालों के साथ बाजार में भेजा ।

नामदेव बाजार में अपना गठ्ठर रख के कपड़े के नमूने खोलकर बैठा लेकिन अब उसकी पिछले जन्म की की हुई सात्त्विक भक्ति उसे बार-बार अँतर्मुख करती है । नामदेव आँखें मूँदकर ‘विठ्ठल-विठ्ठल ‘ करते हुए सात्त्विक सुख में मग्न है । शाम हुई, और लोगों का कपड़ा तो बिका लेकिन नामदेव वही गठ्ठर वापस उठाकर आ रहा है । सोचा कि पिता जी डाँटेंगेः ‘कुछ धंधा नहीं किया…’ अब क्या होगा ? घर लौट रहा था तो उसे खेत में एक वृक्ष के नीचे पड़े हुए सुंदर-सुहावने, गोलमटोल ठाकुर जी जैसे दिखे । उसका हृदय पसीजा, देखा कि ठंड में ठिठुर रहे हैं भगवान !

निर्दोष, भोले-हृदय नामदेव ने अपनी गठरी खोली और उन गोलमटोल ठाकुर जी को कपड़ा लपेट दिया और बोलता हैः “अच्छा, तुम ठिठुर रहे थे, अब तो तुमको आराम मिल गया ? अब मेरे पैसे दो, नहीं तो मेरे पिता दामा सेठ मेरे को डाँटेंगे ।”

अब पत्थर की मूर्ति पैसे कहाँ से लाती ? नामदेव गिड़गिड़ाया, आखिर कहा कि “अच्छा, अभी नहीं हैं तो अगले सप्ताह मैं आऊँगा न बाजार में, तब पैसे तैयार रखना ।”

पिता ने पूछाः “कितने का बिका कपड़ा ?”

बोलाः “कपड़ा तो बिक गया पर पैसे नहीं आये । पैसे अगले सप्ताह मिलेंगे ।” पिता ने इंतजार किया कि अगले सप्ताह बेटा पैसा लायेगा ।

नामदेव अगले सप्ताह आता है मूर्ति का पास, कहता हैः “लाओ पैसा, लाओ पैसा ।” अब मूर्ति पैसा कहाँ से दे !

आखिर पिता को क्या बतायें ?… उठायी वह गोलमटोल प्रतिमा और पिता के पास आकर कहाः “ये ठंड में ठिठुर रहे थे तो इनको कपड़ा दिया था । कपड़ा भी गायब कर दिया और पैसे भी नहीं देते ।”

पिता ने नामदेव को डाँटते हुए उस पत्थर को पटक दिया । नामदेव घबराया कि ‘विठ्ठलदेव ! तुमको भी चोट लगी है और मेरे पिता जी मुझे भी मारेंगे !’ अंतरात्मा ने आवाज दी कि ‘नामदेव ! घबरा मत, तेरा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा । तू मेरा है, मैं तेरा हूँ ।’

देखते ही देखते वह पत्थर सोने का हो गया । पिता जी दंग रह गये, नगर में बिजली की तरह यह बात फैल गयी ।

जिसके खेत से वह पत्थर उठा के लाये थे व जमींदार आकर बोलाः “यह तो मेरे खेत का पत्थर था । वही सोना बना है तो यह मेरा है ।”

नामदेव ने कहाः “तुम्हारा है तो ले जाओ पर तुम्हारे इस भगवान ने मेरे कपड़े पहने थे, तुम मेरे कपड़ों के पैसे चुकाओ । मेरे पिता को मैं बोलता हूँ, तुम्हें सोने के भगवान दे देंगे ।”

जमींदार से पैसे दिलवा दिये पिता को और जमींदार वह सुवर्ण के भगवान ले गया और घर पहुँचा तो देखा कि सोने की जगह पत्थर ! ‘कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम् ।’ करने में, न करने में और अन्यथा करने में भगवान समर्थ हैं – इस बात को याद रखना चाहिए ।

वह जमींदार वापस आकर बोलाः “तुम्हारे सोने के भगवान पत्थर के बन गये !”

बोलेः “अब हम क्या करें ?”

“लो यह पत्थर, रखो पास ।” वह पत्थर समझकर फेंक के चला गया लेकिन नामदेव जी को पत्थऱ में छुपा हुआ अपना प्रियतम दिखता था । नामदेव की दृष्टि में जड़-चेतन में परमेश्वर है । संत नामदेव जी के मंदिर में आज भी भक्त लोग उनके उस ठाकुर जी को पूजते हैं ।

हम मूर्ति में श्रद्धा करते हैं तो उसमें से भगवान प्रकट हो जाते हैं तो जिनके दिल में भगवान प्रकट हुए हैं उन विद्यमान महापुरुषों में यदि दृढ़ श्रद्धा हो जाय तो हमारे तरने में कोई शंका ही नहीं । शरीरों में श्रद्धा कर-करके तो खप जायेंगे । सारा संसार इसी में खपा जा रहा है । अतएव शरीर जिससे दिखते हैं, उस आत्मा में श्रद्धा हो जाय, परमात्मा में श्रद्धा हो जाय, परमात्मा का अनुभव कराने वाले सद्गुरु में श्रद्धा हो जाय तो बेड़ा पार हो जाय ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2019, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 314

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