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Shastra Prasad

मोक्ष की इच्छा है अत्यंत दुर्लभ


 

मनुष्य शरीर कितना दुर्लभ है। मनुष्य होकर मुमुक्षु होना, यह दूसरी दुर्लभ वस्तु है। ‘अवधूत गीता’ के प्रारम्भ में एक श्लोक है और यह श्लोक ‘खंडनखंडखाद्य’ में भी है।1 इसमें कहा है कि ईश्वर के अनुग्रह से ही मनुष्य के मन में अद्वैत की वासना का उदय होता है। यह बड़े-बड़े भयों से बचाती है परंतु सृष्टि में किसी-किसी को होती है। यह अद्वैत वासना ही मोक्ष की इच्छा है।

इसी प्रकार गीता में भी कहा है कि हजारों मनुष्यों में कोई ही ईश्वरप्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है और उन हजार-हजार सिद्धों में भी किसी—किसी को ही तत्त्वज्ञान होता है।2

मुमुक्षा अर्थात् मोक्ष की इच्छा माने छूटने की इच्छा। जिन बंधनों में आप फँसे हैं उनसे छूटने की इच्छा का नाम मुमुक्षा हैः मोक्तुम इच्छा मुमुक्षा। यह मोक्ष की इच्छा जिस मनुष्य में रहती है उसका नाम है मुमुक्षु।

आप किन बंधनों में फँसे हैं ? असल में आप किसी भी बंधन में नहीं हैं। किसके साथ आपकी हड्डी जुड़ी है ? किसके साथ आपके हाथ-पाँव बँधे हुए हैं ? सारे बंधन मानसिक हैं। मन की ऐसी आदत पड़ गयी है कि यह कहीं न कहीं अपने को बाँध लेता है। बाह्य विषयों के साथ बंधन नहीं होता। यह मन विषय की कल्पना के बिना रहता ही नहीं है। इसलिए इसी मनःकल्पित विषय से मिलता-जुलता बाह्य विषय का जो स्वरूप है उस विषय से ही बंधन प्रतीत होता है।

विषय या संबंध भी कल्पित है और उसका बंधन भी कल्पित है। सम्पदा ने कभी आपको अपने साथ नहीं बाँधा, मन ने  आपको सम्पदा के साथ बाँधा है। सम्पदा तो अपने मालिक को पहचानती ही नहीं है। व्यक्तियों के साथ भी सारे संबंध मानसिक ही हैं।

विषय विकारों में सत्यत्व बुद्धि और सुख-बुद्धि उन-उन विषयों में राग-द्वेष और संबंध की कल्पना को जन्म देते हैं। उसी से बंधन होता है।

बंधन में जब सुख मानने लगते हैं, तब उससे छूटने की इच्छा ही समाप्त हो जाती है। असल में हम छोड़ना क्या चाहते हैं ? मकान, आदमी, धरती, रुपया-पैसा-जेवर-ये कुछ छोड़ना नहीं चाहते। हम तो इनसे प्राप्त होने वाले दुःख को छोड़ना चाहते हैं और सुख एवं सुखदायी को पकड़ना चाहते हैं।

इसलिए मुमुक्षा का प्रारम्भ वहाँ होता है, जहाँ निसर्ग से प्राप्त होने वाले सुख-दुःख का विवेक प्रारम्भ होता है। जहाँ-जहाँ और जो-जो दुःखरूप या दुःखदायी मालूम पड़ने लगेगा, उसकी अहंता-ममता छोड़ते जायेंगे और जहाँ-जहाँ तथा जो-जो सुखरूप या सुखदायी मालूम पड़ता जायेगा, उसको आप पकड़ने की चेष्टा करते जायेंगे। जो सुखरूप या सुखदायी भी प्रतीत होता है परंतु आने-जाने वाला है वह अनित्य सुख भी दुःखरूप हो जायेगा। अतः दुःख और अनित्यता से जब वैराग्य प्रारम्भ होता है तभी असली मुमुक्षा प्रारम्भ होती है।

पहले वस्तुओं और व्यक्तियों से, उनके संबंध से छूटने की इच्छा होती है, यह अपर वैराग्य की स्थिति में मुमुक्षा का स्वरूप है।

बाद में उस अंतःकरण से ही छूटने की इच्छा होती है जिससे ये सब इच्छाएँ होती है। यह शुद्ध वैराग्य की स्थिति में मुमुक्षा का स्वरूप है।

राग-द्वेष अंतःकरण में होते हैं। जिससे राग द्वेष की इच्छा होती है वह यदि कट जाय तो बंधन की आत्यंतिक निवृत्ति हो जाये ! योगवासिष्ठ में बृहस्पति जी ने अपने पुत्र ‘कच’ को उपदेश किया की परमानंद की प्राप्ति के लिए त्याग करो। कच एक बरस घूम आया फिर भी त्याग नहीं हुआ। तब उसने दंड-कमण्डलु फेंक दिया। ऐसे कई बार त्याग किया। अंत में कच बोलाः “इस शरीर को चिता में जला देंगे।”

बृहस्पति जी ने हाथ पकड़ाः “नहीं बेटा ! इसका नाम त्याग नहीं है। चित्तत्यागं विदुः सर्वत्यागम्।” अर्थात् जब चित्त का त्याग होगा तब सर्वत्याग होगा। चित्त का त्याग किये बिना कोई जीव मुक्त नहीं हो सकता। अतः चित्त-त्याग की इच्छा ही सच्ची मुमुक्षा है

चित्त के त्याग में ही ईश्वर का अनुभव है। अतः ईश्वर के अनुग्रह से ही मुमुक्षा चित्त में उदय होती है। जिसको ईश्वर आत्मसात् करना चाहता है उसी के हृदय में कृपा करके वह मुमुक्षा उदय करता है। इसलिए मुमुक्षा दुर्लभ है। धनभागी हैं वे मुमुक्षु ! उनके माता-पिता भी धन्य हैं ! धन्या माता पिता धन्यो…..

1.ईश्वरानुग्रहादेव पुंसामद्वैतवासना। महद्भयपरित्राणा विप्राणामुपजायते।। (अवधूत गीता 1.1)

2.मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।। (गीताः 7.3)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2016, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 282

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परहित के लिए विपत्ति मोल लेते हैं संत-महापुरुष


उस समय कोसल देश में सूर्यवंश के राजा ध्रवुसंधि का राज था। उनकी दो रानियाँ थीं – मनोरमा और लीलावती। मनोरमा का पुत्र सुदर्शन बड़ा भाई और लीलावती का पुत्र शत्रुजित छोटा भाई था। कुछ समय बाद राजा की असमय मृत्यु हो गयी। सुदर्शन के नाना कलिंग नरेश वीरसेन और शत्रुजित के नाना उज्जैन नरेश युधाजित अपने-अपने नाती को राजगद्दी पर बिठाना चाहते थे। दोनों में युद्ध हुआ। वीरसेन युद्ध में मारे गये। शत्रुजित का नाना युधाजित अपने नाती के राज्य को निष्कंटक बनाने के लिए सुदर्शन की हत्या करने वाला था। इसलिए महारानी मनोरमा अपने पुत्र को लेकर चुपके से भाग निकली। गंगातट पर आयी तो वहाँ के निषाद डकैतों ने उनका सारा धन माल, गहने छीन लिये। विपत्तियों-पर-विपत्तियाँ टूट रही थीं – पति मर गये, पिता युद्ध में मारे गये, राजपाट छिन गया….। अतः पुत्र को लेकर रानी किसी प्रकार गंगा पार करके भारद्वाज ऋषि के आश्रम में आयी। ऋषि ने उसे आश्रय दिया और कहाः “हे कल्याणि ! तुम यहाँ भयरहित होकर निवास करो।”

जब शत्रुजित के नाना को इस बात का पता चला तो वह सेना लेकर वहाँ आ धमका और ऋषि से बोलाः “हे सौम्य मुने ! आप हठ छोड़ दीजिए और मनोरमा को विदा कीजिए, इसे छोड़कर मैं नहीं जाऊँगा। (यदि आप नहीं मानेंगे तो) मैं इसे अभी बलपूर्वक ले जाऊँगा।”

राजा के ऐसे गर्वपूर्ण वचन सुनकर ऋषि बोलेः “जैसे प्राचीन काल में विश्वामित्र वसिष्ठ मुनि की गौ ले जाने के लिए उद्यत हुए थे, उसी प्रकार यदि आपमें शक्ति हो तो आज मेरे आश्रम से इसे बलपूर्वक ले जाइये!”

ऋषि के ऐसे निर्भीक उत्तर से राजा भयभीत हो गया। उसने अपने वृद्ध मंत्री से सलाह की। मंत्री ने कहाः “हे राजन ! ऐसा दुस्साहस नहीं करना चाहिए। तपस्वियों, ब्रह्मज्ञानी संतों का साथ किया जाने वाला संघर्ष निश्चित ही कुल का नाश करने वाला होता है। सुदर्शन को यहीं छोड़ दीजिये।” राजा लौट गया।

ऋषि के आश्रम में सुदर्शन ने प्रेम, अनुशासन, शिक्षा तथा सुसंस्कार पाये। 5 वर्ष की उम्र में बालक मंत्र को सबका सार समझकर कभी नहीं भूलता था। वह खेलते, सोते मन-ही-मन मंत्र जपता था। मुनि ने राजकुमार को वेद, धनुर्वेद, नीतिशास्त्र की शिक्षा दी। मंत्रजप तथा उपासना के प्रभाव से उसे दिव्य अस्त्र-शस्त्र प्राप्त हुए। इसके बाद सुदर्शन ने अयोध्या का राज्य पुनः प्राप्त कर लिया। युद्ध में शत्रुजित तथा युधाजित दोनों मारे गये। इस प्रकार जनता को एक सुयोग्य राजा मिला।

संत-महापुरुषों की कैसी करूणा होती है ! वे समाज की भलाई के लिए किसी की परवाह नहीं करते, दूसरों के मंगल के लिए बड़ी-से-बड़ी मुसीबतें भी अपने सिर लेने से नहीं झिझकते। शरणार्थी की योग्यता-अयोग्यता को न देखते हुए उसे अपना लेते हैं और अपना अनुभव, ज्ञान, तप और साधना का खजाना दे देते हैं।

जो संतों के प्रति सदभाव रखते हैं, उनके ज्ञान को अपने जीवन में उतारते हैं वे अपना कल्याण कर लेते हैं पर जो उनके प्रति दुर्भाव से निंदा करते-करवाते रहते हैं, उन्हें नानक जी ने चेताया हैः

संत का निंदकु महा हतिआरा1।।

संत का निंदकु परमेसुरि2 मारा।।

संत के दोखी3 की पुजै न आसा4।।

संत का दोखी उठि चलै निरासा।।

1 महाहत्यारा। 2 परमेश्वर 3 संत का निंदक 4. आशा।

संत कबीर जी ने भी सावधान किया हैः

कबिरा निंदक ना मिलो, पापी मिलो हजार।

एक निंदक के माथे पर, लाख पापिन को भार।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2016, पृष्ठ संख्या 11 अंक 281

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सर्वहितैषी भारतीय संस्कृति – पूज्य बापू जी


 

आप भारतीय संस्कृति की, त्रिकालज्ञानी ऋषियों की जो सामाजिक व्यवस्था है उसका फायदा उठाओ। संत कबीर जी ताना बुन रहे हैं, कपड़ा बहुत बढ़िया बना रहे हैं। उनसे पूछाः “क्यों इतनी मेहनत कर रहे हैं ?”
बोलेः “राम जी पहनेंगे।” कपड़ा बाजार में ले जाते हैं। लोग कपड़ा व उसकी बुनाई देखकर चौंकते हैं कि ‘यह तो महँगा होगा, हम नहीं ले सकते हैं।’
कबीर जी बोलेः “नहीं, नहीं। जिस दाम में तुमको साधारण कपड़ा मिलता है उसी दाम का है। इसकी बनावट ऐसी है कि आपके काम में आ जाये। मेरे राम को बार-बार कपड़ा खरीदने में समय न गँवाना पड़े इसलिए मैंने बढ़िया बनाया है। यह कपड़ा ले जाओ।” गरीब से गरीब आदमी कबीर जी का कपड़ा खरीद सकता है।
गोरा कुम्हार मटका बनाते हैं तो ऐसा बनाते हैं कि घर ले जाते-जाते फूटे नहीं। मटका बाप ले जाय तो बेटा भी पानी पिये और जरूरत पड़े तो पोते के भी काम में आये। यह भारतीय संस्कृति की देन है। लेकिन अभी तो हम पाश्चात्य जगत से ऐसे बंध गये कि और हो !… ‘अपना अधिक-से-अधिक नफा हो और सामने वाले का चाहे भले सत्यानाश हो जाय।’ यह उनका कल्चर है।

कितनी उदार है भारतीय संस्कृति !

गुरुकुल में श्रीरामचन्द्र जी सामने वाले अन्य विद्यार्थी हारते हों तो लखन और भरत को भी खुद हारकर दूसरों का उत्साह और खुशी बढ़ाने का संकेत देते हैं। उनके छोटे भाई भी श्रीरामजी का अनुकरण करते हैं। यह कैसी है भारतीय संस्कृति ! कितनी उदार संस्कृति !

एक वह कल्चर है जिसमें अपने बाप को पकड़ के जेल में डालकर राजा बन जाता है औरंगजेब और दूसरी यह महान संस्कृति है कि अपने बड़े भाई को राज्य मिले इसलिए भरत भैया हाथाजोड़ी करने जा रहे हैं। बड़ा कहता हैः “छोटा राज्य का अधिकारी है” और भरत भैया कहते हैं- “नहीं, बड़े राज्य करें और छोटे उनकी आज्ञा का पालन करें।” अयोध्या का विशाल राज्य…. जहाँ देवता भी अयोध्या के नरेश से मदद माँगते थे, ऐसा राज्य गेंद की नाईँ छोटा भाई बड़े भाई की गोद में और बड़ा भाई छोटे भाई की गोद में डालता है। आखिर इस त्याग और प्रेम की भारतीय संस्कृति ने एक नया रास्ता निकाला।

राम जी ने कहाः “राज्य नहीं करना है, मैं तो ऋषि मुनियों के दर्शन करूँगा। साधुओं व देवताओं का कार्य करूँगा। वन की सात्त्विक हवा में रहूँगा। भैया ! राज्य तुम सम्भालो।” हाँ-ना करते हुए एक कठोर आदेश मिल गया कि “भरत ! अब तुम मेरी आज्ञा मानो।”
भरत बोलेः “तो भैया ! आपके राज्य की मैं सेवा तो करूँगा लेकिन राजा होकर नहीं, सेवक होकर। आप अपनी खड़ाऊँ मुझे दे दो।”

राज्यसिंहासन पर राम जी की खड़ाऊँ रहती हैं और भरत भैया राज्य व्यवस्था करते हैं। कैसी सुन्दर व्यवस्था है ! कैसी भारतीय संस्कृति की महान छवि दिख रही है !
सच्चा हिन्दुस्तानी वह है……

दुःख की बात है कि भारतीय संस्कृति की परम्परा में हम लोगों का जन्म हुआ लेकिन भारतीय संस्कृति का ज्ञान पाने के लिए हमारे पास समय नहीं है। भारतीय संस्कृति के महापुरुषों का रहस्य समझने वाली हमारे पास इस समय व्यवस्था ही नहीं रही।

अदंर की सरलता, अदंर का आनंद, भगवान की भक्ति और रस को त्यागकर बाहर के भौतिकवादी जीवन को सच्चा हिन्दुस्तानी महत्त्व नहीं देता है। हिन्दुस्तानी समझता है कि मनुष्य जीवन ईश्वरीय सुख, ईश्वरीय आनंद, इश्क इलाही, इश्क नूरानी पाने के लिए है, फिर चाहे रामरूप में, कृष्णरूप में, गुरुरूप में, आत्मरूप में या आनंदरूप में…. ईश्वर के अनेक रूपों में से किसी भी रूप की तरफ लग पड़ा तो देर-सवेर उसकी स्थिति वहाँ हो जाती है। यह हिन्दुस्तानी की महानता का लक्षण है।
यह वैदिक संस्कृति है, अऩादिकाल से चली आ रही है। भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिवजी इसी वैदिक संस्कृति में प्रकट हुए हैं। शबरी भीलन को मार्गदर्शन देनेवाले मतंग ऋषि ने भी इसी संस्कृति के ज्ञान से शबरी का मार्गदर्शन किया और इसी संस्कृति के ज्ञान से हमारे गुरुदेव ने हमको ईश्वरप्राप्ति करायी और हम आपको भी इसी रास्ते से ईश्वर के सुख की तरफ ले जा रहे हैं, देर-सवेर प्राप्ति भी हो जायेगी…. स्थिति हो के प्राप्ति !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 267
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