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Shastra Prasad

दशरथ जी की सभा में छलका जनक जी के दूतों का ज्ञानामृत



जब राजर्षि जनक के दूतों ने महाराज दशरथ को भगवान
श्रीरामचन्द्रजी द्वारा शिव-धनुष टूटने का समाचार सुनाया तब भाव से
उनका हृदय भर आया और अत्य़धिक स्नेह के कारण वे अपने पद की
गरिमा भूल गये और दूतों को पास बैठाकर कहने लगेः
“भैआ कहहु कुसल दोउ बारे ।
भैया ! क्या मेरे दोनों नन्हें पुत्र कुशल हैं ?”
जनकपुर के दूत चकित होकर सोचने लगे, ‘इन्होंने कैसी विलक्षण
दृष्टि पायी है – जिन्होंने धनुष तोड़ दिया वे इन्हें नन्हें-से बालक दिखाई
दे रहे हैं ! आश्चर्य है ! पत्र में पढ़ चुके हैं, फिर भी कुशल पूछ रहे हैं ।’
दूत मौन हैं । दूतों की चुप्पी से दशरथजी को संदेह हुआ कि ‘इन
लोगों को पत्र दे दिया होगा, जिसे लेकर चले आये होंगे । शायद राम
को देखा या नहीं ?” फिर एक शब्द और जोड़ दियाः “अच्छा, देखा है तो
क्या अपनी आँखों से देखा है ? अगर अपनी आँख से देखा है तो अच्छी
तरह से देखा कि नहीं ?”
जब दूत कुछ बोले नहीं तो स्वयं बताने लगे कि “मेरा एक पुत्र तो
साँवलने और दूसरा गोरे रंग का है । वे धनुष-बाण लेकर चलते हैं ।
विश्वामित्र जैसे मुनि के साथ हैं ।”
दूत मौन ही हैं इसलिए उन्होंने आगे कहाः “अगर पहचानते हैं तो
पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ ।
दूर से तो कोई भी चर्चा सुन लेता है पर स्वभाव का पता तो पास
जाकर ही चलता है ! तो क्या आप उनके स्वभाव को जानते हैं ?”
राजा दशरथ प्रेम से बार-बार इस प्रकार पूछने लगे । फिर भी दूत
नहीं बोले तो उन्होंने प्रश्न कियाः “यह प्रश्न मेरे दिल में इसलिए बहुत

उठ रहा है क्योंकि मैंने सुना है जनक विदेह हैं, देह की भावना से ऊपर
हैं, फिर ऐसे विदेह (जनक) ने उऩ्हें कैसे जाना ?
कहहु विदेह कवन विधि जाने ।”
ये प्रेमभरे वचन सुनकर दूत मुस्कराये और कहाः “हे राजाओं के
मुकुटमणि ! सुनिये, आपके समान धन्य और कोई नहीं है, जिनके राम-
लक्ष्मण जैसे पुत्र हैं, जो दोनों विश्व के भूषण हैं । आपके पुत्र पूछने
योग्य नहीं हैं ।
पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे ।।
‘वे पुरुषसिंह तीनों लोकों के प्रकाशस्वरूप हैं ।’ (श्री रामचरित.
बा.कां. 291,1)
महाराज ! आप यह कह रहे हैं लेकिन आपके पुत्र जो हैं वे प्रकाश
में देखने के लिए नहीं हैं अपितु स्वयं प्रकाशित करने के लिए हैं । सारे
संसार में जो दिखाई दे रहा है, उनके प्रकाश से ही दिखाई दे रहा है ।”
बड़ा दार्शनिक सूत्र देते हुए उऩ्होंने कहा कि “अँधेरे में कोई वस्तु
खो जाय और न मिले तो कहा जाता है कि ‘अब तो प्रकाश की
आवश्यकता है, दीया जलाकर ढूँढ लो ।’ पर क्या सूर्योदय के बाद कोई
यह कहता है कि ‘जरा दीपक लेकर देखो कि सूरज निकल आया कि
नहीं ?’ यह तो उलटी बात होगी, कारण कि सूरज निकलने के बाद यही
कहा जाता है कि ‘अब दीपक की क्या आवश्यकता है, इसे बुझा दो ।’
तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हें ।
देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे ।।
हे नाथ ! उनके लिए आप कहते हैं कि ‘उन्हें कैसे पहचाना ?’ क्या
सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखा जाता है ?” (श्री रामचरित. बा. कां.
291,2)

सीधा सा तात्पर्य है कि बुद्धि ही दीपक है और संसार की वस्तुओं
को देखने के लिए बुद्धि के दीये जलाने की आवश्यकता है । पर परम
प्रकाशक जब स्वयं प्रकट हो जाये, उस समय बुद्धि के प्रकाश की कोई
आवश्यकता नहीं है ।
फिर दूत आगे कहते हैं- “आपके बड़े राजकुमार अत्यंत शीलवान
और विनयवान हैं । उनमें कोमलता है तथा छोटे राजकुमार अत्यंत
तेजस्वी हैं, जिन्हें देखकर ही जो बुरे राजा हैं वे काँपने लगते हैं । आपने
जो पूछा कि ‘अपनी आँखों से देखा कि नहीं और विदेह ने कैसे जाना ?’
तो महाराज ! हमें तो आपकी बात कुछ उलटी दृष्टि आ रही है । इनको
विदेह ही जान सकते हैं ! जो मात्र ‘देह’ देखने वाले हैं वे क्या जानें ! वे
तो उनको भी एक देह में घिरा हुआ मान लेंगे । आपने जब यह कहा
कि ‘भली प्रकार देखा कि नहीं ?’ तो उनको देखने के बाद अब दिखाई
देना ही बन्द हो गया ।
देव देखि तव बालक दोऊ ।
अब न आँखि तर आवत कोऊ ।।
‘हे देव ! आपके दोनों बालकों को देखने के बाद अब आँखों के नीचे
कोई आता ही नहीं (हमारी दृष्टि पर कोई चढ़ता ही नहीं) ।”
(श्रीरामचरित. बा. कां. 292,3)
जब रोम-रोम में रमने वाला सर्वव्यापी राम ज्ञानचक्षु से भली प्रकार
दिखाई देता है तो फिर और कुछ नहीं दिखाई देता, पूरा दृश्य प्रपंच भी
चैतन्यस्वरूप परमात्मा का आनंद-उल्लास जान पड़ता है । जनक जी के
दूतों के ज्ञान की मधुरता छलकाते वचन सुनक सभासहित राजा दशरथ
प्रेम में मग्न हो गये ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 344

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शास्त्रों का जितना अधिक आदर, उतना अधिक लाभ ! – पूज्य बापू जी


ग्रंथ क्यों आदरणीय हैं ?

ग्रंथों में देखा जाय तो कागज और स्याही के सिवाय कोई तीसरी चीज नहीं होती । कागज और स्याही होती है और होते हैं वर्णमाला के अक्षर, जो तुम स्कूल में पढ़े हो, पढ़ाते हो । उन्हीं अक्षरों का मिश्रण होगा उसमें, और क्या होगा ? लेकिन फिर भी  वर्णमाला के वे अक्षर सत्सगं के द्वारा दुहराये जाते हैं और उस ढंग से छप जाते हैं तब उनसे बनी पुस्तक, पुस्तक नहीं बचती, वह स्याही और कागज नहीं बचता, वह शास्त्र हो जाता है और हम उसे शिरोधार्य करके, उसकी शोभायात्रा निकाल कर अपने को पुण्यात्मा बनाते हैं । जिन ग्रंथों में संतों की वाणी है, संतों का अनुभव है, उन ग्रंथों का आदर होना ही चाहिए । हमारे जीवन में ये सत्शास्त्र अत्यधिक उपयोगी हैं । उनका आदरसहित अध्ययन करके एवं उनके अनुसार आचरण करके हम अपने जीवन को उन्नत कर सकते हैं ।

स्वामी विवेकानन्द तो यहाँ तक कहते हैं कि “जिस घर में सत्साहित्य नहीं वह घर नहीं वरन् श्मशान है, भूतों का बसेरा है ।”

अतः अपने घर में तो सत्साहित्य रखें और पढ़ें ही, साथ ही औरों को भी सत्साहित्य पढ़ने की प्रेरणा देते रहें । इसमें आपका तो कल्याण होगा ही, औरों के कल्याण में आप सहभागी बन जायेंगे ।

तभी ज्ञान ठहरेगा

भगवान ने जो बोला है वह भी शास्त्र में ही है, भगवद्गीता शास्त्र है । शासनात् इति शास्त्रम । जो हमारे मन-बुद्धि को अनुशासित करके गिरने से बचाकर मुक्ति की तरफ ले चलें, उन ग्रंथों को ‘शास्त्र कहते हैं, फिर भले वह आश्रम का शास्त्र ‘ईश्वर की ओर’ हो, ‘दिव्य प्रेरणा प्रकाश’ हो या ‘ऋषि प्रसाद’ हो । शास्त्रों को जो जितना आदर-मान करके रखा जाता है उतना ही उनका ज्ञान ठहरता है । कई लोग मुँह से उँगलियओं में थूक लगाते हैं और किताब के पृष्ठ पलटते जाते हैं अथवा कोई बोलते हैं- ‘3 रूपये की पुस्तक पढ़’ और उसे उलटा रख देंगे । ऐ मूर्ख ! तू शास्त्र का अनादर करता है तो फिर तेरे को क्या ज्ञान ठहरेगा !

एक लड़का है, वह किताब पढ़ेगा न, तो ऐसे-वैसे रख देगा, जहाँ-तहाँ रख देगा । तो इतने साल हो गये, इतनी किताबें पढ़ लीं किन्तु रंग नहीं लगा उसको । शास्त्र का आदर नहीं करता न ! कपड़े को तो उसने रंग लिया हिम्मत करके लेकिन उसके दिल को रंग लगाने के लिए मेरे को हिम्मत करनी पड़ती है फिर भी मैं सफल नहीं हो  पा रहा हूँ क्योंकि वह जब सहयोग देगा तब मैं सफल होऊँगा उसको रँगने में । विद्यार्थी जब सहयोग देगा तब शिक्षक सफल होता है उसको पास करने में । तो आप लोग मेरे को सहयोग देना, समझ गये ! तब मैं सफल होऊँगा, नहीं तो नहीं हो सकता हूँ । तो आप सहयोग दोगे न ? (सब ‘हाँ’ बोलते हैं ।) ठीक है, शाबाश है ! धन्यवाद !

कैसे आदर करें ?

सत्शास्त्रों में सत्पुरुषों की वाणी होती है अतः मुँह से उँगली गीली करके उनके पन्ने नहीं पलटने चाहिए । पवित्रता और आदर से संतों की वाणी को पढ़ने वाला ज्यादा लाभ पाता है । सामान्य पुस्तकों की तरह सत्संग की पुस्तक पढ़कर इधर-उधर नहीं रख देनी चाहिए । जिसमें परमात्मा की, ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की अनुभूति है, जो परमात्मशांति देने वाली है वह पुस्तक नहीं, शास्त्र है । उसका जितना अधिक आदर, उतना अधिक लाभ !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2021 पृष्ठ संख्या 17 अंक 339

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जीवन को सफल बनाने वाले सीता जी के 12 दिव्य गुण


श्री सीता नवमीः 13 मई 2019

पद्म पुराण (भूमि खंड, अध्याय 34) में स्त्री के जिन 12 दिव्य गुणों का वर्णन आता है, वे सारे-के-सारे सद्गुण सीता जी में थे।

स्त्री का पहला सद्गुण है रूप । अपने रूप को साफ-सुथरा और प्रसन्नवदन रखना चाहिए, कृत्रिमता (फैशन) की गुलामी नहीं करनी चाहिए ।

सीता जी में दूसरा गुण था शील । शील माने लज्जा । स्त्री का आभूषण है लज्जा । तू तड़ाके की भाषा या फटाक-से बोल देना नहीं, बेशर्मी नहीं, लज्जा और संकोच करके पुरुषों के बीच बात करने का सद्गुण होता है शीलवान नारियों में ।

सीता जी में तीसरा सद्गुण था सत्य वचन । सीता जी सारगर्भित बोलतीं, सत्य बोलतीं, दूसरों को मान देने वाला बोलतीं और आप अमानी रहती थीं ।

चौथा सद्गुण था आर्यता (सदाचार) । दुर्गुण-दुराचार में जो रत हैं उन महिलाओं की गंदगी अपने चित्त में या व्यवहार में न आये । छल-छिद्र, कपट का स्वभाव अपना न बने, सीता माता की नाईं अपने हृदय में सदाचार की भावना बढ़ती रहे इसका ख्याल रखना भारत की देवियाँ !

पाँचवाँ सद्गुण था धर्म-पालन । सीता जी वार-त्यौहार, तिथि के अनुरूप आचरण करतीं और घर का भोजन आदि बनाती थीं ।

छठा सद्गुण था सतीत्व (पातिव्रत्य) । श्री रामचन्द्र जी के सिवाय उनको और जो भी पुरुष दिखते वे अपने सपूतों जैसे दिखते या बड़ी उम्र के हों तो पिता की नाईं दिखते – ऐसा सद्गुण सीता जी में था । सीता जी के चित्त में स्वप्न में भी परपुरुष को पुरुषरूप में देखने की वृत्ति नहीं जगती थी । वे उत्तम पतिव्रता देवी थीं । पाषाण की मूर्ति में दृढ़ भक्ति करने से वहाँ से मनोवांछित फल मिलता है तो पति में तो साक्षात् परमात्मसत्ता है । उसके दोष या ऐब न देखकर उसमें परमात्म-सत्ता को देख के सेवा करने का सद्गुण – यह एक बड़ा भारी सद्गुण है, अपने-आपमें बहुत ऊँची बात है ।

सातवाँ सद्गुण था दृढ़ता । रावण जब सीता जी को रिझाने-समझाने आता है तो सीता जी तिनका रख देती हैं । फिर महीनों भर सीता जी रहीं, रावण तिनके की रेखा से आगे नहीं आया ।

आठवाँ सद्गुण है साहस । सीता जी जब अशोक वाटिका में रहती थीं तब राक्षस-राक्षसियाँ रावण के कहने से उन्हें डराने आते थे लेकिन सीता जी डरती नहीं थीं । अंदर से हँसती थीं कि ‘ये सब माया के खिलौने हैं, आत्मा अमर है । ये सब मन के डरावने खेल हैं । मैं क्यों डरूँ ?’

सीता जी में  नौवाँ सद्गुण था मंगल गान । सीता जी ने कष्ट, प्रतिकूलताएँ सब कुछ सहा फिर भी कभी राम जी के प्रति फरियाद नहीं की । सदा उनका यश ही गाती रहीं ।

नारी का दसवाँ सद्गुण है कार्य-कुशलता । सीता जी टूटे मन से नहीं, सब कार्य मनोयोग से करतीं, पूरी सावधानी, उत्साह और कुशलता से करतीं । उनको न कर्मफल के भोग की कामना थी और न उनके जीवन में लापरवाही व पलायनवादिता थी ।

जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी । बिपुल लदा सेवा बिधि गुनी ।।

निज कर गृह परिचरजा करई । रामचंद्र आयसु अनुसरई ।।

‘यद्यपि घऱ में बहुत से (अपार) दास और दासियाँ हैं और वे सभी सेवा की विधि में कुशल हैं तथापि (स्वामी की सेवा का महत्त्व जानने वाली) श्री सीता जी घर की सब सेवा अपने ही हाथों से करती हैं और रामचन्द्र जी की आज्ञा का अनुसरण करती हैं ।’ (श्री रामचरित. उ.कां.23.3)

ग्यारहवाँ सद्गुण है – पति के प्रति प्रेमभाव, अनुराग । सीता जी राम जी को प्रेमस्वरूप, ब्रह्मस्वरूप जानती थीं । सीता जी राम के चिंतन में राममय हो गयीं । अशोक वाटिका में सीता जी नज़रकैद थीं । रावण ने उनको प्रलोभन दिये, डरा के, छल-कपट, धोखे से गुमराह करने की कोशिश की फिर भी राम जी के प्रति असीम अनुराग के कारण सीता जी का मन एक क्षण भी फिसला नहीं ।

बारहवाँ सद्गुण है – मीठे, नम्र वचन । सीता जी सब कुटुम्बियों के साथ प्रेमपूर्वक बर्ताव करती थीं, खिन्न हो के नहीं । ‘जाओ, कर लो… मेरा सिर खपा दिया…. ‘नहीं, नहीं ! सीता के देश की देवियों को यह बात शोभा नहीं देती है । ‘अरे छोरे ! मर जाओ !…. अरे मैं तो हैरान हो गयी, परेशान हो गयी !….’ ऐसी वाणी का दुर्गुण भारत की देवियाँ क्यों अपने जीवन में लायेंगी ? माँ सीता की नाईं प्रेमपूर्वक बर्ताव करने का सद्गुण अपने में लाना चाहिए । सीता जी सास-ससुर की सेवा स्नेह से करती थीं । जिन्होंने पति को जन्म दिया है वे पति के माता-पिता भी सीता जी की सेवा से बड़े संतुष्ट रहते थे, प्रसन्न रहते थे ।

आज लोग ‘सीताराम-सीताराम’ करते हैं । ‘सीताराम’ करके राम जी के गुण पुरुष भरें अपने में और ‘सीता’ का उच्चारण करके सीता जी के सद्गुण भारत की नारियाँ भरें अपने में तो आज भी घर-घर में सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम प्रत्यक्ष होने लगेंगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 21,22 अंक 316

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