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Shastra Prasad

गुरुवर को प्रणाम


चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरंजनम्।

नादबिन्दुकलातीतं तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजो चैतन्य, शाश्वत, शांत, आकाश से परे हैं, इन्द्रियों से परे हैं, जो नाद, बिंदु और कला से परे हैं, उन श्रीगुरुदेव को प्रणाम हैं !ʹ

यत्सत्येन जगत्सत्यं यत्प्रकाशेन विभाति यत्।

यदानन्देन नन्दन्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजिसके अस्तित्त्व से संसार का अस्तित्त्व है, जिसके प्रकाश से जगत प्रकाशित होता है, जिसके आनंद से सब आनंदित होते हैं उन श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

कर्मणा मनसा वाचा सर्वादઽઽराधयेद् गुरुम्।

दीर्घदण्डनमस्कृत्य निर्लज्जो गुरुसन्निधौ।।

ʹगुरुदेव के समक्ष निःसंकोच होकर लंबा दण्डवत प्रणाम करके मन, कर्म तथा वचन से हमेशा गुरुदेव की आराधना करनी चाहिए।ʹ

आनन्दमानन्दकरं प्रसन्नं ज्ञानस्वरूपं निजभावयुक्तम्।

योगीन्द्रमीडयं भवरोगवैद्यं श्रीसदगुरुं नित्यमहं नमामि।।

ʹजो आनन्दस्वरूप हैं, जो आनंदमय करने वाले हैं, जो सदैव प्रसन्न हैं, जो ज्ञानस्वरूप हैं, जो निज भाव से युक्त हैं, जो योगियों के आराध्यदेव हैं, जो संसाररूपी रोग के वैद्य हैं ऐसे श्री सदगुरु को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ।ʹ

नित्यशुद्धं निराभासं निराकारं निरंजनम्।

नित्यबोधं चिदानंदं गुरुं ब्रह्म नमाम्यहम्।।

ʹजो नित्यशुद्ध हैं, जो आभासरहित हैं, जो निराकार हैं, जो इन्द्रियों से परे हैं, जो नित्य ज्ञानस्वरूप हैं, जो चिदानंद हैं ऐसे ब्रह्मस्वरूप श्रीगुरुदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।ʹ

नमः शिवाय गुरवे सच्चिदानन्दमूर्तये।

निष्प्रपंचाय शान्ताय निरालम्बाय तेजसे।।

ʹशिवस्वरूप, सच्चिदानंदस्वरूप, प्रपंचों से रहित, शान्त निरालम्ब, तेजयुक्त श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

नमः शान्तात्मने तुभ्यं नमो गुह्यतमाय च।

अचिन्त्यायाप्रमेयाय अनादिनिधनाय च।।

ʹहे रहस्यमय, अचिन्तनिय, अपरिमित और आदि-अंत से रहित, शान्त आत्मस्वरूप ! तुझे प्रणाम है !ʹ

नमस्ते सते ते जगत्कारणाय। नमस्ते चिते सर्वलोकाश्राय।।

नमोद्वैततत्त्वाय मुक्तिप्रदाय। नमो ब्रह्मणे व्यापिने शाश्वताय।।

ʹजगत के कारण सत् तुझे प्रणाम है ! सर्व लोकों के आश्रयस्वरूप चित् तुझे प्रणाम है ! मुक्ति प्रदान करने वाले अद्वैत तत्त्व तुझे प्रणाम है ! शाश्वत, सर्वत्र व्याप्त ब्रह्म तुझे प्रणाम है !ʹ

सत्यानन्दस्वरूपाय बोधैकसुखकारिणे।

नमो वेदान्तवेद्याय गुरवे बुद्धिसाक्षिणे।।

ʹजो सत्य और आनंदस्वरूप हैं, चेतनानंद के साधनस्वरूप हैं, बुद्धि के साक्षी हैं, वेदांत के द्वारा ज्ञेय हैं ऐसे श्रीगुरुदेव को नमस्कार है !ʹ

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।

चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹअज्ञानरूपी अंधकार से अंधे बने हुए की आँखों को ज्ञानरूपी अंजन-शलाका से खोलने वाले उऩ श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजो चर और अचर सृष्टि में अखण्ड-मण्डलाकार रूप में व्याप्त हैं, जिन्होंने ʹतत्पदʹ का दर्शन कराया है, उन श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

स्थावरं जङ्गमं व्याप्तं यत्किंचित्सचराचरम्।

त्वंपदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजो चर और अचल सृष्टि में स्थावर एवं जंगम सब जीवों में व्याप्त हैं, जिन्होंने ʹत्वंपदʹ का दर्शन कराया है, उऩ श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

चिन्मयं व्यापितं सर्व त्रैलोक्यं सचराचरम्।

असित्वं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजो चिन्मयस्वरूप, तीनों लोकों के चल एवं अचल सब जीवों में व्याप्त है, जिन्होंने ʹअसिपदʹ का दर्शन कराया है, उन श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

(स्कन्दपुराण)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 79

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हस्तामलक स्तोत्र


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

दक्षिण भारत के श्रीबली नामक गाँव में प्रभाकर नाम के एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे। उनका एक पागल सा लड़का था। वह लड़का बचपन से ही सांसारिक कार्यों के प्रति उदासीन वृत्ति रखता था। उसका व्यवहार एक गूंगे और बहले बालक के समान था। एक बार जब शंकराचार्य अपने शिष्योंसहित इस गाँव में पधारे तब प्रभाकर अपने पागल जैसे दिखने वाले पुत्र को लेकर आचार्य भगवान शंकर के समीप गये। उन्होंने आचार्य को साष्टांग दंडवत प्रणाम किये। श्री शंकराचार्य ने उन दोनों को उठाया और प्रभाकर से प्रश्न किया। उसके जवाब में प्रभाकर ने कहाः “हे स्वामिन् ! मेरा यह पुत्र बचपन से ही गूंगा और तमाम प्रकार के व्यवहार से उदासीन है। अभी इसकी आयु तेरह साल हुई है फिर भी यह हमारी बातचीत नहीं समझता है। इसको इसमें रस नहीं है। जो शास्त्र ब्राह्मणों को पढ़ने चाहिए ऐसे किसी भी शास्त्र का अभ्यास इसने नहीं किया है और न ही इसने वेद पढ़ा है। इसको अक्षरज्ञान ही नहीं है। बड़ी मुश्किल से मैंने इसके उपनयन संस्कार किये हैं। यह अपने किसी मित्र के साथ खेलने नहीं जाता है। इसका ऐसा स्वभाव देखकर कोई शरारती लड़का इसे मारता है तो उसकी मार यह सहन कर लेता है। फिर भी इसे क्रोध नहीं आता है। कभी तो यह भोजन करता है और कभी नहीं करता है। उसके बावजूद भी यह सदैव आनंदी और सुखी रहता है। इसकी यह मूढ़ दशा किस कारण से हुई है ? कृपा करके आप मेरे इस पुत्र का उद्धार कीजिये।”

शंकराचार्य ने उस बालक को प्रश्न पूछे। वह बालक बहरा या गूंगा न था। वह तो पूर्ण प्रकाशित ज्ञानी था, जीवन्मुक्त था। उस बालक ने शंकराचार्य द्वारा पूछे गये प्रश्नों के जो उत्तर दिये वे एक स्तोत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए।

ये प्रश्नोत्तर इस प्रकार हैं-

कस्त्वं शिशो कस्य कुतोसि गन्ता किं नाम ते त्वं कुत आगतोसि।

एतन्मयोक्तं वद चार्भक त्वं मत्प्रीत्ये प्रीतिविवर्धनोसि।।1।।

ʹहे शिशो ! तू कौन है ? किसका पुत्र है ? तू कहाँ जा रहा है ? तेरा नाम क्या है ? तू कहाँ से आया है ? मेरी प्रीति के लिए हे बालक ! तू मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दे। तू हमें बहुत प्रिय लगता है।ʹ

तब उस बालक ने जवाब दियाः

नाहं मनुष्यो न च देवयक्षौ न ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः।

न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो भिक्षुर्न चाहं निजबोधरूपः।।2।।

ʹमैं मनुष्य नहीं हूँ, देव या यक्ष नहीं हूँ, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र भी नहीं हूँ। मैं ब्रह्मचारी, गृहस्थी या वानप्रस्थी भी नहीं हूँ और संन्यासी भी नहीं हूँ। मैं तो ज्ञानस्वरूप परम पवित्र परमानंदरूप ब्रह्म हूँ।ʹ

निमित्तं मनश्चक्षुरादिप्रवृत्तौ निरस्ताखिलोपाधिराकाशकल्पः।

रविर्लोकचेष्टानिमित्तं यथा यः स नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।3।।

ʹजिस प्रकार सूर्य लोगों को अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा करता है, उसी प्रकार मन और इन्द्रियों को अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा करने वाला एवं आकाशादि उपाधियों से रहित ऐसा शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यमग्न्युष्णवन्नित्यबोधस्वरूपं मनश्चक्षुरादीन्यबोधात्मकानि।

प्रवर्तन्त आश्रित्य निष्कंपमेकं स नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।4।।

ʹजैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता है, ऐसे ही अविकारी और शुद्ध चित्स्वरूपवान मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, जिसका आश्रय लेकर स्थूल मन तथा इन्द्रियाँ अपने-अपने व्यवहार में प्रवृत्त रहते हैं।ʹ

मुखाभासको दर्पणो दृश्यमानो मुखत्वात्पृथक्त्वेन नैवास्तु वस्तु।

चिदाभासको धीषु जीवोपि तद्वत् स नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।5।।

ʹजैसे दर्पण में दिखता हुआ मुख का प्रतिबिम्ब वस्तुतः बिम्बरूप मुख से पृथक नहीं है, किन्तु बिम्बरूप ही है वैसे ही बुद्धिरूपी दर्पण में जीवरूप से प्रतीयमान चैतन्य का प्रतिबिम्ब बिम्बरूप चैतन्य से पृथक नहीं है किन्तु चैतन्य रूप ही है। वही नित्य, शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यथा दर्पणाभाव आभासहानौ मुखं विद्यते कल्पनाहीनमेकम्।

तथा धीवियोग निराभसको यः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।6।।

ʹजिस प्रकार दर्पण के या दर्पण में दिखने वाले चेहरे के प्रतिबिम्ब के अभाव में भी चेहरे का अस्तित्व तो होता ही है, उसी प्रकार बुद्धि के अभाव में भी अस्तित्व रखने वाला मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ।ʹ

मनश्चुरादेर्वियुक्तः स्वयं यो मनश्चक्षुरादेर्मनश्चक्षुरादिः।

मनश्चक्षुरादेरगम्यस्वरूपः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।7।।

ʹमैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, जो मन और चक्षु आदि से परे है, जो मन का भी मन और चक्षु आदि का भी चक्षु आदि है एवं जो मन, चक्षु आदि से प्राप्त नहीं है।ʹ

य एको विभाति स्वतःशुद्धचेताः प्रकाशस्वरूपोपि नानेव धीषु।

शरावोदकस्थो यथा भानुरेकः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।8।।

ʹजो स्वयं अकेला ही अपने विशुद्ध स्वप्रकाश अखंड चैतन्यरूप से प्रकाशता है… जैसे जल से भरे हुए अनेक मटकों में एक ही सूर्य अनेक रूप से भासता है उसी प्रकार एक ही स्वयं ज्योति आत्मा अनेक बुद्धियों में अनेक रूप से भासता है, वही नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यथानेकचक्षुः प्रकाशो रविर्न क्रमेण प्रकाशीकरोति प्रकाश्यम्।

अनेका धियो यस्तथैकः प्रबोधः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।9।।

ʹजैसे सूर्यदेवता अनेक नेत्रों को क्रम से प्रकाश न करता हुआ एक साथ ही प्रकाश करता है वैसे ही अनेक बुद्धियों को एक ही साथ सत्ता-स्फूर्ति देने वाला नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

विवस्वत्प्रभातं यथारूपमक्षं प्रगृह्णाति नाभातमेवं विवस्वान्।

यदाभात आभासयत्यक्षमेकः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।10।।

ʹजैसे सूर्य से प्रकाशित रूप को ही नेत्र ग्रहण कर सकता है यानी देख सकता है, सूर्य से अप्रकाशित रूप को नेत्रेन्द्रिय ग्रहण नहीं कर सकती वैसे ही सूर्य भी जिस चैतन्य आत्मा से प्रकाशित हुआ ही रूप, नेत्र आदि प्रकाश देता है। आत्मा से अप्रकाशित सूर्य किसी को कभी भी प्रकाश नहीं दे सकता यानी सर्व-लोक प्रकाशक सूर्यादि ज्योति आत्मप्रकाश से प्रकाशित होती है, वही नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यथा सूर्य एकोप्स्वनेकश्चलासु स्थिरास्वप्यनन्यद्विभाव्स्वरूपः।

चलासु प्रभिन्नः सुधीष्वेक एव स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।11।।

ʹजिस प्रकार एक ही सूर्य स्थिर और अस्थिर जल के विषय में अलग-अलग प्रतिबिम्बित होता हुआ दृश्यमान होता है, उसी प्रकार चर और अचर – इन दोनों प्रकार की बुद्धियों को प्रकाशित करने वाला मैं अद्वितीय शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

धनच्छन्नदृष्टिर्घनच्छन्नमर्क यथा निष्प्रभं मन्यते चातिमूढ़ः।

तथा बद्धवद् भाति यो मूढ़दृष्टेः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।12।।

ʹजिस प्रकार बादलों से ढके हुए सूर्य को मंद बुद्धिवाला पुरुष तेज और प्रकाशरहित समझता है, उसी प्रकार मूढ़ बुद्धिवाले पुरुष को जो बद्ध-स्वरूप दिखता है वह शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप मैं हूँ।ʹ

समस्तेषु वस्तुष्वनुस्यूतमेकं समस्तानि वस्तूनि यं न स्पृशन्ति।

वियद्वत्सदा शुद्धमच्छस्वरूपः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।13।।

ʹजो सदा शुद्ध और निर्मल है तथा जो समस्त पदार्थों के अंतर्गत स्थित होते हुए भी वे पदार्थ उसे स्पर्श नहीं कर सकते या उसे दूषित नहीं कर सकते वह मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ।ʹ

उपाधी यथा भेदता सन्मणीनां तथा भेदता बुद्धिभेदेषु तेपि।

यथा चन्द्रिकाणां जले चंचलत्वं तथा चंचलत्वं तवापीह विष्णो।।14।।

ʹजिस प्रकार रंग और आकार में भेद होने के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के मणियों में भेद की कल्पना होती है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न बुद्धियों के भेद की उपाधि के कारण एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न स्वरूप से दृश्यमान होता है। जैसे जल में चंद्र अनेक एवं चंचल दिखता है ऐसे ही हे विष्णु ! तुम भिन्न-भिन्न दिखते हो। (वस्तुतः तो तुम एक, नित्य, शुद्ध और अविकारी हो।ʹ)

ब्राह्मण पुत्र के ये उत्तर सुनकर श्रीमद् आद्य शंकराचार्य समझ गये कि यह बालक तो ब्रह्म को हस्तामकलकवत् यानी हाथ में रखे हुए आँवले की तरह स्पष्टतः जानने वाला ब्रह्मवेत्ता है। अतः उन्होंने उसका नाम भी हस्तामलक रख दिया और वह प्रश्नोत्तररूप स्तोत्र ʹहस्तामलक स्तोत्रʹ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हस्तामलक आगे चलकर शंकराचार्य के चार पट्टशिष्यों में से एक हुए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 16 से 18 अंक 55

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शास्त्र-महिमा – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


 

ʹगुरु ग्रंथ साहिबʹ में आता है किः

साधु ते होवहि न कारज हानि।

साधु से कार्य की हानि नहीं होती। साधु किसको कहते हैं ?

सत्पुरुख पिछानिया सत्गुरु ता का नाम।

तिसके संग सिख उदरियै नानक गुण गान।।

जिन्होंने उस सत्यस्वरूप को जाना है, सत्यस्वरूप में जिनकी मति विश्रान्ति पाती है वे जो बोलते हैं वह मत नहीं माना जाता, वरन् शास्त्र माना जाता है।

नानक बोले सहज सुभाऊ।

अपने अनुभव की बात संत तुकारामजी ने भी कही है। महाराष्ट के सुप्रसिद्ध संत तुकाराम ! निंदक भले उन्हें गधे पर बिठाकर उनकी बदनामी करें लेकिन समझदारों ने उऩ्हें नवाजा है। छत्रपति शिवाजी ने उनकी पूजा की है। सज्जनों ने, साधकों ने गुरुओं की पूजा की, उनका ज्ञान पाया और निंदकों ने उनके लिए न जाने कौन-कौन सी मुसीबतें खड़ी कीं। गुरुतेगबहादुर को धधकती धूप में, तपे हे तवे पर बैठाया गया। क्या वे इतने अपराधी थे ? नहीं। अपराधी लोगों को महापुरुष अपराधी दिखते हैं।

अपराधी का अपराध निवृत्त करने के लिए क्रूरतापूर्ण दण्ड देने से उसका अपराध निवृत्त नहीं होता लेकिन अपराधी की स्थिति समझकर उसके निरपराध नारायण स्वभाव को जगाने से वह निरपराधी होता है। सदग्रंथ व्यक्ति को निरपराध तत्त्व में जगाते हैं। यदि दण्ड देने से, बेंत मारने से जगत के अपराध समाप्त हो जाते तो अभी पुलिस की जरूरत नहीं पड़ती, कारावासों की जरूरत नहीं पड़ती। जहाँ निरपराध तत्त्व है उस तत्त्व का प्रसाद, उस तत्त्व की रूचि, उस तत्त्व का ज्ञान और उस तत्त्व का आनंद दिलाया जाय तो अपराधी से अपराधी व्यक्ति निरपराध हो जायेगा।

जहाँ कोयला है वहाँ हीरा भी तो प्रगट हो सकता है। जहाँ अपराध है वहाँ निरपराध नारायण भी तो छुपा है। इसलिए कृपा करके अपने बच्चे-बच्चियों के अपराध को बार-बार दुहराकर उन्हें गहरे अपराधी कभी न बनाइएगा। वरन् उनके अंदर जो भी निरपराध चेष्टा है उसकी प्रशंसा कीजिएगा ताकि उनको अपराधी प्रवृत्ति करने का अवसर ही न मिले। अपराधी के प्रति इस ढंग से पेश न आयें कि ʹतूने यह किया…. तूने यह गलती की…. तू अपराधी है….ʹ उसे कहो किः ʹऐसी जो गलती करते हैं उनके बुरे हाल होते हैं। तू ऐसी गलती करने के योग्य नहीं है। तूने जान-बूझकर यह गलत काम नहीं किया, तुझसे हो गया। तू मेरा बेटा है।ʹ इस प्रकार के सहानुभूतिपूर्ण वाक्यों से उसे सुधारने का प्रयास करें।

ऐसी सब व्यवस्था हमारे सदग्रंथों में है और वे सदग्रंथ किसी मत-पंथ की नहीं, अपितु प्राणीमात्र के हित की बात करते हैं।

बालक जब पैदा होता था, दाई बच्चे को बाप की गोद में रख देती थी। तब बाप नवजात शिशु के कान में बोलता थाः अश्मा भव। परशु भव।

आश्चर्य होगा यह जानकर कि अपने नवजात कोमल शिशु को पिता कहताः ʹतू पत्थर बन। तू चट्टान बन। तू कुल्हाड़ा बन….।ʹ

वेद भी कहते हैं कि पिता को ऐसा बोलना चाहिएः ʹअब तू कोमल शिशु संसार में आ रहा है तो संसार के कई सुख-दुःख के थपेड़े लगेंगे, कई आरोप लगेंगे। जैसे, दरिया के किनारे छोटी-मोटी बालू होती है, तिनखे होते हैं तो बह जाते हैं, लुढ़क जाते हैं जबकि चट्टान होती है तो थपेड़ों से टकराती रहती हैं और अपने अस्तित्त्व को बरकरार रखती है। इसी प्रकार हे पुत्र ! तू मजबूत बनना। अश्मा भव। तू दृढ़ बनना। इस संसार में कई थपेड़े लगेंगे, मेरे लाल ! परशु भव। तू कुल्हाड़ा बनना। विघ्न-बाधाओं, मुसीबतों-आकर्षणों को, पाप और ताप को काटने वाला हे वीर ! तू कुल्हाड़ा बनना। तू डरना मत। कायर मत बनना। दीन-दुःखियों का सहायक बनना। वह बल किस काम का जो दीन-दुःखियों के, सज्जन-सदाचारियों एवं संत महापुरुषों की सेवा में न लगे ?ʹ

अंत में पिता बोलता हैः हिरण्यमस्तुम् भवः। तू स्वर्ण की नाईं चमकना, मेरे लाल ! तू एक कोने में जंगली फूल की तरह खिलकर मुरझाना मत, वरन् तू गुलाब होकर महक तुझे जमाना जाने।ʹ

मेरे गुरुदेव ने एक बार गुलाब का फूल मुझे दिखाया और बोलेः

“देख, यह क्या है ?”

मैं- “गुरुदेव ! यह गुलाब का फूल है।”

गुरुदेवः “इसको किराने की दुकान पर ले जा और चावल पर, मूँग पर, धनिया, काजू, किसमिस, बदाम, अखरोट आदि पर रख, सैंकड़ों-सैंकड़ों चीजों पर रख, फिर सूँघ तो सुगंध किसकी आयेगी ?”

गुरुदेवः “बस, एक बात मान ले। तू गुलाब होकर महक तुझे जमाना जाने।

आप भी अपने पुत्रों को इसी प्रकार महकाने का प्रयास करें। कैसा दिव्य ज्ञान है हमारे महापुरुषों का ! कितनी महानता और उदारता है उनमें !

सन् 1661 में गुरु अर्जुनदेव ने गुरुग्रंथ साहिब संपन्न करवाया। उन्होंने यह ग्रंथ तो संपन्न करवाया लेकिन इतना बढ़िया ग्रंथ बनने से सब लोग खुश हो जायें यह संभव नहीं है।

जो गुरुद्रोही थे, निंदक थे उन्हें बढ़िया मौका मिल गया कुप्रचार करने का। भाई बुढा के द्वारा उस ʹग्रंथ साहिबʹ की सेवा सुश्रुषा का काम होता था। ʹग्रंथ साहिबʹ के वचन सुनकर समझदार तो संतुष्ट होते थे लेकिन जो गुरु के निंदक थे, संत के निंदक थे, धर्म के विरोधी थे, गुरुओं की करुणा-कृपा को दुकानदारी समझकर बदनामी करने में जो अपने को चतुर मानते थे ऐसे लोगों ने देखा कि यह अच्छा अवसर है। अतः उन्होंने अकबर को जाकर शिकायत की कि अर्जुनदेव ने एक ऐसा ग्रंथ बनाया है जिसमें मुसलमानों की निंदा है। वे अपने पंथ की स्थापना करना चाहते हैं।

ʹगुरु ग्रंथ साहिबʹ कोई मत नहीं है। वह तो वेदों का अमृत है। मत मति से निकलते हैं। यदि अर्जुनदेव अपनी मति से मुसलमानों के खिलाफ कुछ लिख डालते तो हम मानते कि वह मत है। किन्तु उन्होंने मति के अनुसार नहीं लिखा वरन् वेद और उपनिषदों का, पुराणों का प्रसाद उसमें लिखा है।

निंदकों के द्वारा कान भरे जाने पर अकबर ने फरमान जारी कियाः “अर्जुनदेव ने जो ग्रंथ बनवाया है उसे शाही दरबार में पेश किया जाये और हमारे सामने पढ़ा जाये।”

अर्जुनदेव के आदमी ग्रंथ लेकर दरबार में पहुँचे। अकबर बोलाः

“पढ़ो मेरे सामने यह ग्रंथ। देखूँ तो सही इसमें क्या लिखा है।”

ʹगुरु ग्रंथ साहिबʹ खोला गया। अकबर बोलाः “बीच का पन्ना पढ़ो।”

पन्ना क्या था ? वहाँ तो हीरा-मोती चमक रहे थे ! पन्ने में लिखा थाः

कोई बोले राम राम कोई कोई खुदाई।

कोई बोले सूफिया कोई अल्लाही।।

कारण करण करीम किरणधारी रहीम।

कोई नहावे तीरथ कोई हज जाई।।

कोई करे पूजा कोई सिर नवाई।

कोई  पढ़े वेद तो कोई किताई।।

कोई कहे तुर्की कोई कहे हिन्दू।

कोई बांचे बिस्तु कोई सिरजिन्दु।।

कह नानक जिन हुकुम पिछानिया।

प्रभु साहिब का तिन भेद जानिया।।

जिसने उस रब का, उस अकाल पुरुष का, उस चैतन्य का हुकुम पहचाना, उसी ने उस परमेश्वर का भेद जाना। बाहर से ये सारे मत-मतान्तर दिखते हैं तो कोई उसे कृष्ण कहता है तो कोई उसे करीम, कोई उसे राम कहता है तो कोई रहीम। कोई उसे तीर्थों में खोजता है तो कोई मंदिरों में और कोई उसे मस्जिदों में नवाजता है लेकिन जो उसके हुकुम को, उसकी सत्प्रेरणा को मानता है वही उस परब्रह्म परमात्मा को जानता है। यही ʹग्रंथ साहिबʹ की वाणी है।

आप जब सही करने लगते हैं, शास्त्रानुकूल करने लगते हैं तो भीतर से धन्यवाद छलकता है। इसको बोलते हैं अंतर्यामी अवतार। आपके हृदय में वह अकाल पुरुष अंतर्यामी रूप में अवतरित होता रहता है। हम अगर सात-सात गुफाओं में छुपकर भी बुरा कार्य करें, जहाँ हमें कोई भी न देख सके, वहाँ भी कोई देखने वाला होता है जो हमें कोसता है।

बल का हर्ता और बल का भर्ता वही परब्रह्म परमात्मा है। हम निःस्वार्थ कर्म करते हैं तो भीतर से हमारा बल बढ़ जाता है और हम उस रब के हुकुम की अवहेलना करके दूषित कर्म करते हैं तो हमारा बल कुंठित हो जाता है। यह सब भक्तों का अनुभव होगा।

कह नानक जिन हुकुम पिछानिया।

प्रभु साहिब का तिन भेद जानिया।।

अकबर ने कहाः “अच्छा, अब दूसरी जगह से पढ़ो।”

ऐसा करते-करते उसने अलग-अलग जगहों से पढ़वाया किन्तु कहीं भी कोई मत, मजहब और पंथ की बात नहीं थी। वहाँ तो थी जीवात्मा को परमात्मा का रंग लगाने की बात। अकबर भी दंग रह गया भारत के सदग्रंथ को सुनकर !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1996, पृष्ठ संख्या 9,10,11 अंक 47

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