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Shastra Prasad

तीर्थ कैसे बने ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

तीर्थ कैसे बने ? भगवान या भगवान के प्यारों के निवास के कारण ही तीर्थ बने हैं। जहाँ भगवान या भगवान के प्यारे संत निवास करते हैं वह भूमि तीर्थ हो जाती है।

राजा विक्रमादित्य से पूर्व अयोध्या के तीर्थ का पता नहीं था। राजा विक्रमादित्य युद्ध करके लौट रहे थे तब किसी योगी ने उन्हें बतायाः ‘यह इलाका भगवान श्रीराम के पदचिन्हों का है। विक्रमादित्य ! तुम धर्मात्मा हो, तनिक शांत होकर यहाँ बैठो। जहाँ-जहाँ तुम्हें स्फुरणा हो, वहीं-वहीं भगवान का प्रागट्य स्थल, भगवान का लीलास्थल, भगवान की पाठशाला आदि मिलेगी।’

तब विक्रमादित्य ने खोजा कि कौन सी जगह पर श्रीराम जी अवतरित हुए, किन स्थलों पर लीलाएँ की। उसके बाद अयोध्या के तीर्थ का निर्माण हुआ।

चैतन्य महाप्रभु के पहले वृन्दावन के तीर्थ का लोगों को विशेष पता नहीं था। गौरांग ने अपने शिष्यों सनातन एवं रूप गोसाईं को वहाँ भेजा। उनका हृदय शुद्ध था। उनके हृदय में जहाँ-जहाँ स्फुरण हुआ कि ‘यहाँ भगवान ने चीरहरण किया था, यहाँ मिट्टी खायी थी, यहाँ ऊखल-बंधन हुआ था, यहाँ रास हुआ था…।’ वहीं-वहीं उन तीर्थों की स्थापना हुई।

वल्लभाचार्य जी बताते हैं कि वृंदावन परसोली ग्राम के करीब था। उनका कहना भी सही है एवं चैतन्य महाप्रभु के शिष्यों का कहना भी सही है क्योंकि किसी युग में वृंदावन परसोली गाँव में था और इस युग का वृंदावन अभी जहाँ कहा गया है, वहाँ है।

आद्यशंकराचार्यजी से पहले बद्रीनाथ जी की मूर्ति का पता नहीं था। पंडितों ने उनसे प्रार्थना की तब शंकराचार्य जी ने नारद कुण्ड में गोता मारकर बद्रीनाथ जी की मूर्ति निकाली। तब बद्रीनाथजी के तीर्थ की स्थापना हुई।

जितने भी तीर्थ हैं वे सब उन्हीं महापुरुषों के तप से, प्रेरणा से बने हैं, जिन्होंने आत्मतीर्थ में गोता मारा है। इसीलिए जैनधर्म उन्हें तीर्थंकर कहता है।

आप भी अपने घर में एकाध कमरे को तीर्थ बना दें। जहाँ हरि का चिंतन होता है, जहाँ  परमात्मा का जप ध्यान होता है वह भूमि तीर्थ बन जाती है। जो हृदय हरि का चिंतन करता है वह हृदय तीर्थ हो जाता है। ऐसा तीर्थरूपी हृदय वाला साधक जिस घर में, जिस कमरे में ध्यान-भजन करता है, वह घर, वह कमरा भी तीर्थत्व को  प्राप्त हो जाता है। अतः मैं भी आपको यही शुभकामना एवं सत्प्रेरणा देना चाहता हूँ कि आप भी संतों की सीख मानकर अपने हृदयों तीर्थ बना दीजिये।

एक बार वैष्णवों और शैवों में झगड़ा हो गया। शैवों ने कहाः ‘भगवान शंकर कैलासपति हैं और यहाँ से कैलास जाया जाता है। इसीलिए इस जगह का नाम है – हरद्वार, हर+द्वार अर्थात् महादेव का द्वार।

वैष्णवों ने कहाः पागल हुए हो ? भगवान बद्रीनाथ के मंदिर में जाना हो तो यहाँ से जाया जाता है। इसलिए इस जगह का नाम है – हरिद्वार, हरि+द्वार अर्थात् विष्णु का द्वार।’

शैवः ‘चुप करो। हरिद्वार मत कहो, हरद्वार कहो।’

कभी-कभी भक्तों में अड़ियल दुनियादार भी घुस जाते हैं। किसी ने शैवों को भड़काया और किसी ने वैष्णवों को भड़काया। दोनों में झगड़ा हो गया। आखिर मुकद्दमा चला कि सरकार निर्णय करे कि ‘हरिद्वार’ है कि ‘हरद्वार’ है ?

लोगों को हुआ कि पता नहीं ब्रिटिश सरकार हिन्दू धर्म के तीर्थ के लिए क्या निर्णय करेगी ?

कई पेशियाँ पड़ीं। आखिर में अंग्रेज न्यायाधीश ने निर्णय दियाः ‘हरिद्वार भी नहीं और हरद्वार भी नहीं। यहाँ हिन्दू लोग अपने माता-पिता की हड्डियाँ डालते हैं इसलिए इसका नाम ‘हड्डीद्वार’ होगा।

यह नाम और निर्णय सरकारी फाइलों में धरा रह गया, सड़ रहा है। पक्षपाती अंग्रेज न्यायाधीश का काला मुँह करके यह आदेश फाइल में ही धरा रह गया। अभी भी लोग ‘हड्डीद्वार’ नहीं हरिद्वार या हरद्वार की कहते हैं।

कुछ बाह्यतीर्थ हैं, कुछ आभ्यांतर तीर्थ हैं। जैसे गंगाजी, यमुनाजी, गोदावरी जी आदि के तट पर स्थित जो तीर्थ हैं वे धरती के उन स्थानों पर हैं, जहाँ विशेष चैतन्य के प्रभाव के परमाणु हैं। जैसे, शरीर में कुछ अंग मलिन होते हैं और कुछ अंग उत्तम होते हैं। नीचे के अंगों पर या पैर पर हाथ लग जाये तो हाथ धोना चाहिए लेकिन ललाट पर उँगली लग गयी तो हाथ धोने की जरूरत नहीं पड़ती है। ऐसे ही पृथ्वीरूपी शरीर पर कुछ विशेष चैतन्य के प्रभाव के परमाणु हैं वे बाह्यतीर्थ कहलाते हैं।

आत्मज्ञानरूपी रस और आत्ममाधुर्यरूपी भाव में जो नहाते हैं वे तीर्थों को तीर्थत्व देने वाले होते हैं।

तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि।

जिन्होंने मन इन्द्रियों पर अनुशासन करके आत्मिक यात्रा की और अंदर का वैदिक अनुभव प्राप्त करके जो कुछ कहा, वही शास्त्र बन गये।

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची ह्यवंतिका।

पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।

इन सात स्थानों की भूमि में वे विशेष परमाणु हैं। इसीलिए वहाँ जाने वालों को थोड़ा सा ही जप तप करने से आनंद और शांति की प्राप्ति होती है। ऐसे ही जहाँ जप-तप ध्यान भजन होता है और आत्मतीर्थ में नहाये हुए कोई महापुरुष मिलते हैं तो ऐसे स्थल अंतर के तीर्थ हैं, आभ्यांतर तीर्थ हैं।

कुछ स्थावर तीर्थ होते हैं, कुछ जंगम तीर्थ होते हैं। जैसे, गंगा, यमुना ये स्थावर तीर्थ हैं। ऐसे पुरुष जो आत्मगंगा, आत्मतीर्थ में नहाते हैं जंगम तीर्थ हैं, चलते फिरते तीर्थ हैं।

कुछ लोग मानते हैं कि ‘चलो, कुंभ में गये, नहाये पुण्य हुआ… तीर्थ में गये, बढ़िया हो गया….’ यह सब ठीक है। लेकिन यदि आत्मतीर्थ में नहीं आये तो इन तीर्थों के आस-पास रहने  वालों के हाल जरा देख लो। तीर्थ में जाना पुण्यकर्म तो है लेकिन जो आत्मतीर्थ में नहीं नहाते हैं, उन्हें शास्त्र सावधान करते हैं। शास्त्र कहते हैं-

ज्ञानो अमृतो न तृप्तस्य कृतकृतश्च योगिनाः।

नैवस्ति किंचित् कर्त्तव्यस्ति चेतसा तत्परितः।।

‘जो पुरुष ज्ञानरूपी अमृत से तृप्त हैं और कृतकृत्य हैं उन्हें किंचित भी कर्त्तव्य नहीं है। यदि वे अपने में कर्त्तव्य मानते हैं तो वे तत्त्ववेत्ता नहीं हैं।’

इदं तीर्थं इदं तीर्थम् भ्राम्येति तामसाजनाः।

आत्मतीर्थम् न जानन्ति कथं मोक्ष जितयेः।।

‘कपिल गीता’ का यह श्लोक एकदम ऊँचा, तात्त्विक ज्ञान की तरफ संकेत करने  वाला है। ‘इस तीर्थ में चलो, उस तीर्थ में चलो….’ ऐसा तामसी और राजसी सुख में उलझे हुए ल ग ही बोलते हैं। इन तीर्थों में, आत्मतीर्थ में आने के लिए ही जाया जाता है।

कभी जाये केदार कभी जाये मक्के।

आत्मतीर्थ में नहीं आया तो खा ले दर-दर के धक्के।।

इदं तीर्थं इदं तीर्थं…. ‘यह तीर्थ है, वह तीर्थ है’ – ऐसा करके अज्ञानी जीव घूमते-फिरते रहते हैं क्योंकि वे आत्मतीर्थ को नहीं जानते हैं।

जिस पुरुष की अपने आत्मा में ही प्रीति है और जो अपने आत्मा में ही तृप्त हैं, संतुष्ट हैं, उनके लिए कोई कर्त्तव्य नहीं है।

लोग मृत्यु के समय काशी जाना पसंद करते हैं लेकिन आत्मतीर्थ में पहुँचे हुए कबीरजी ने कहाः

“ऐसा कहा जाता है कि मगहर में मरने वाला सुअर बनता। क्या उस स्थान का इतना प्रभाव है कि वह मेरे आत्मा-परमात्मा के आत्यंतिक सुख, आत्मज्ञान को छीन लेगा ? नहीं छीन सकता।”

कबीर जी मरने के लिए मगहर में गये। कबीर जी जैसा दृढ़ बोध जिनको हो जाता है वे ही तृप्त रहते हैं। बाकी के लोग तो कहते हैं- ‘मुझे तीर्थ में ले जाओ, मुझे गंगाजल पिलाओ।’ ऐसा कहना ठीक है, उचित है, लेकिन जिनको ब्रह्मज्ञान हो गया है वे गंगाजल पीयें यह कोई जरूरी नहीं है। वे तो जिस जल को छू दें, वही गंगाजल है और जहाँ चरण रख दें वहीं तीर्थ हैं। आत्मतीर्थ की ऐसी दिव्य महिमा है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 15,16 अंक 110

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वाममार्ग और भ्रष्टाचार


हमारे देश के युवावर्ग को एक ओर तो तथाकथित मनोचिकित्सक गुमराह कर उसे संयम-सदाचार और ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट करके अनिंयत्रित विकारों के शिकार बना रहे हैं तो दूसरी ओर कुछ तथाकथित विद्वान वाममार्ग का सही अर्थ न समझ सकने के कारण स्वयं तो दिग्भ्रमित हैं ही, साथ ही उसके आधार पर ʹसंभोग से समाधिʹ की ओर ले जा जाने के नाम पर युवानों को पागलपन और महाविनाश की ओर ले जा रहे हैं। इन सबसे समाज व राष्ट्र को भारी नुकसान पहुँच रहा है। कोई भी दिग्भ्रमित व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र कभी उन्नति नहीं कर सकता, उसका पतन निश्चित है। अतः समाज को सही मार्गदर्शन की नितांत आवश्यकता है।

आजकल तंत्रतत्त्व से अनभिज्ञ जनता में वाममार्ग को लेकर एक भ्रम उत्पन्न हो गया है। वास्तव में प्रज्ञावान प्रशस्य योगी का नाम ʹवामʹ है। और उस योगी के मार्ग का नाम ʹवाममार्गʹ है। अतः वाममार्ग अत्यन्त कठिन है और योगियों के लिए भी अगम्य है तो फिर इन्द्रियलोलुप लोगों के लिए वह कैसे गम्य हो सकता है ? वाममार्ग जितेन्द्रिय के लिए है और जितेन्द्रिय योगी ही होते हैं।

वाममार्ग उपासना में मद्य, मांस मीन, मुद्रा और मैथून – ये पाँच आध्यात्मिक मकार जितेन्द्रिय, प्रज्ञावान योगियों के लिए ही प्रशस्य हैं क्योंकि इनकी भाषा सांकेतिक है जिसे संयमी एवं विवेकी व्यक्ति ही ठीक-ठीक समझ सकता है।

मद्यः शिव-शक्ति के संयोग से जो महान अमृतत्त्व उत्पन्न होता है उसे ही ʹमद्यʹ कहा गया है अर्थात् योगसाधना द्वारा निरंजन, निर्विकार, सच्चिदानंद परब्रह्म में विलय होने पर जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे ʹमद्यʹ कहते हैं और ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्रपद्मादल से जो अमृतत्त्व स्रावित होता है उसका पान करना ही ʹमद्यपानʹ है। यदि इस सुरा का पान नहीं किया जाता तो सौ कल्पों में भी ईश्वरदर्शन करना असंभव है। ʹतंत्रतत्त्वप्रकाशʹ में आया है किः “जो सुरा सहस्रार कमलरूपी पात्र में भरी है और चंद्रमा-कला-सुधा से स्रावित है वही पीने योग्य सुरा है। इसका प्रभाव ऐसा है कि यह प्रकार के अशुभ कर्मों को नष्ट कर देती है। इसी के प्रभाव से परमार्थकुशल ज्ञानियों-मुनियों ने मुक्तिरूपी फल प्राप्त किया है।”

मांसः विवेकरूपी तलवार से काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पाशवी वृत्तियों का संहार कर उनका भक्षण करने को ही ʹमांसʹ कहा गया है। जो इनका भक्षण करे एवं दूसरों को सुख पहुँचाये वही बुद्धिमान है। ऐसे ज्ञानी और पुण्यशील पुरुष ही पृथ्वी पर के देवता कहे जाते हैं। ऐसे सज्जन कभी पशुमांस का भक्षण करके पापी नहीं बनते बल्कि दूसरे प्राणियों को सुख देने वाले निर्विषय तत्त्व का भक्षण करते हैं।

आलंकारिक रूप से यह आत्मशुद्धि का उपदेश है अर्थात् कुविचारों, पाप-तापों, कषाय-कल्मषों से बचने का उपदेश है। किन्तु पशुलोलुपों ने अर्थ का अनर्थ कर उपासना के अतिरिक्त हवन-यज्ञों में भी पशुवध प्रारम्भ कर दिया था।

मत्स्यः अहंकार, दम्भ, मद, मत्सर, द्वेष, चुगलखोरी – इन छः मछलियों को विषय विरागरूपी जाल में फँसाकर सदविद्यारूपी अग्नि में पकाकर इनका सदुपयोग करने को ही ʹमीनʹ या ʹमत्स्यʹ कहा गया है अर्थात् इन्द्रियों का वशीकरण, दोषों तथा दुर्गुणों का त्याग, साम्यभाव की सिद्धि और योगसाधन में रत रहना ही ʹमीनʹ या ʹमत्स्यʹ ग्रहण करना है। इनका सांकेतिक अर्थ न समझकर प्रत्यक्ष मत्स्य के द्वारा पूजन करना तो अर्थ का अनर्थ होगा और साधना-क्षेत्र में एक कुप्रवृत्ति को बढ़ावा देना होगा।

जल में रहने वाली मछलियों को खाना तो सर्वथा धर्मविरुद्ध है, पापकर्म है। दो मत्स्य गंगा-यमुना के भीतर सदा विचरण करते रहते हैं। गंगा यमुना से आशय है मानव शरीरस्थ इड़ा-पिंगला नाड़ी का। उनमें निरन्तर बहने वाले श्वास-प्रश्वास ही दो मत्स्य हैं। जो साधक प्राणायाम द्वारा ऩ श्वास प्रश्वासों को रोककर कुंभक करते हैं वे ही यथार्थ में मत्स्य साधक हैं।

मुद्राः आशा, तृष्णा, निंदा, भय, घृणा, घमंड, लज्जा, क्रोध – इन आठ कष्टदायक मुद्राओं को त्यागकर ज्ञान की ज्योति से अपने अन्तर को जगमगाने वाला ही ʹमुद्रा साधकʹ कहा जाता है। सत्कर्म में निरत पुरुषों को इन मुद्राओं को ब्रह्मरूप अग्नि में पका डालना चाहिए। दिव्य भावानुरागी सज्जनों को सदैव इनका सेवन करना चाहिए और इनका सार ग्रहण करना चाहिए। पशुहत्या से विरत ऐसे साधक ही पृथ्वी पर शिव के तुल्य उच्च आसन प्राप्त करते हैं।

मैथुनः ʹमैथुनʹ का सांकेतिक अर्थ है मूलाधार चक्र में स्थित सुषुप्त कुण्डलिनी शक्ति का जागृत होकर सहस्रार चक्र में स्थित शिवतत्त्व (परम ब्रह्म) के साथ संयोग अर्थात् पराशक्ति के साथ आत्मा के विलास रस में निमग्न रहना ही मुक्त आत्माओं का मैथुन है, किसी स्त्री आदि का ग्रहण कर उसके साथ संसारव्यवहार करना मैथुन नहीं है। विश्ववंद्य योगीजन सुखमय वनस्थली आदि में ऐसे ही संयोग का परमानंद प्राप्त किया करते हैं।

इस प्रकार तंत्रशास्त्र में  पंचमकारों का वर्णन सांकेतिक भाषा में किया गया है किन्तु भोगलिप्सुओं ने अपने मानसिक स्तर के अनुरूप उनके अर्थघटन कर उन्हें अपने जीवन में चरितार्थ किया और इस प्रकार अपना एवं अपने लाखों अनुयायियों का सत्यानाश किया। जिस प्रकार सुन्दर बगीचे में असावधानी बरतने से कुछ जहरीले पौधे उत्पन्न हो जाया करते हैं और फूलने-फलने भी लगते हैं, इसी प्रकार तंत्र-विज्ञान में बहुत-सी अवांछनीय गन्दगियाँ आ गयी हैं। यह विषयी-कामान्ध मनुष्यों और मांसाहारी एवं मद्यलोलुप अनाचारियों की ही काली करतूत मालूम होती है, नहीं तो श्रीशिव और ऋषि-प्रणीत मोक्षप्रदायक पवित्र तंत्रशास्त्र में ऐसी बातें कहाँ से और क्यों आतीं ? जचिस शास्त्र में अमुक-अमुक जाति की स्त्रियों का नाम ले-लेकर व्यभिचार की आज्ञा दी गयी हो और उसे धर्म तथा साधना बताया गया हो, जिस शास्त्र में पूजा की पद्धति में बहुत ही गंदी वस्तुएँ पूजा सामग्री के रूप में आवश्यक बतायी गयी हों, जिस शास्त्र को मानने वाले साधक हजारों स्त्रियों के साथ व्यभिचार को और नरबालकों की बलि को अनुष्ठान की सिद्धि में कारण मानते हों, वह शास्त्र तो सर्वथा अशास्त्र और शास्त्र के नाम को कलंकित करने वाला ही है। ऐसे विकट तामसिक कार्यों को शास्त्रसम्मत मानकर भलाई की इच्छा कार्यों को शास्त्रसम्मत मानकर भलाई की इच्छा से इन्हें अपने जीवन में अपनाना सर्वथा भ्रम है, भारी भूल है। ऐसी भूल में कोई पड़े हुए हों तो उन्हें तुरंत ही इससे निकल जाना चाहिए।

आजकल ऐसे साहित्य और ऐसे प्रवचनों की कैसेटें बाजार में सरेआम बिक रही हैं। अतः ऐसे कुमार्गगामी साहित्य और प्रवचनों की कड़ी आलोचना करके जनता को उनके प्रति सावधान करना भी राष्ट्र के युवाधन की सुरक्षा करने में बड़ा सहयोगी सिद्ध होगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2000, पृष्ठ संख्या 19-21 अंक 95

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भागवत प्रसाद


पूज्यपाद संत श्री आशाराम जी बापू

कलियुगे के आदमी का जीवन कोल्हू के बैल जैसा है। उसके जीवन में कोई ऊँचा लक्ष्य नहीं है। किसी ने कलियुग के मानव की दशा पर कहा हैः

पैसा मेरा परमेश्वर और पत्नी मेरी गुरु।

लड़के-बच्चे शालिग्राम अब पूजा किसकी करूँ।।

लोग इतने अल्प मति के हो गये हैं कि जिधर का झोंका आया उधर मुड़ जाते हैं। अपनी इष्ट की, गुरु की पूजा कभी नहीं करते हैं, उपासना नहीं करते हैं, पर किसी ने लिख दिया किः

ʹजय संतोषी माँ…. यह पत्र पढ़कर, ऐसे और पत्र आप लिखोगे तो आपका कल्याण होगा। अगर इसका अनादर करोगे तो आपका बहुत बुरा होगा….ʹ तो आदमी भयभीत हो जाते हैं और पत्र लिखने लग जाते हैं। संतोषी माँ की पूजा भी करने लग जाते हैं, पाठ भी करने लग जाते हैं

वेदव्यासजी ने अपनी दीर्घदृष्टि से यह जान लिया था कि कलियुग के आदमी में इतनी समता, इतनी शक्ति न होगी कि वह घर-बार छोड़कर ऋषियों के द्वार पर जाए और सेवा-सुश्रुषा करके हृदय शुद्ध कर सके….. ऋषियों के पास जाकर नम्रतापूर्वक प्रार्थना करके आत्मज्ञान, आत्मशांति के विषय में प्रश्न पूछे। इसलिए उऩ्होंने कृपा करके श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने के साथ साथ तत्त्वज्ञान की, आत्मज्ञान की बातें भी जोड़ दीं। ग्वालों के साथ गाय चराईं, मक्खन चुराया, गोपियों के चीर हरण किये, कभी तो बंसी बजाई, कभी धेनकासुर-बकासुर को यमसदन पहुँचाया। ऐसी बातों से हास्यरस, श्रृंगाररस, विरहरस, वीररस जैसे रस भरकर रसीला ग्रंथ ʹश्रीमद् भागवतʹ बनाया। इस ग्रंथ की रचना करके वेदव्यास जी ने जगत पर बड़ा उपकार किया है।

ʹश्रीमद् भागवतʹ की रचना के पहले वेदव्यास जी ने कई ग्रन्थों की रचना की थी, पुराणों का संकलन किया था, पर उनके मन में कुछ अभाव खटकता रहता था।

एक बार नारदजी पधारे, तब वेदव्यासजी ने अपनी मनोव्यथा सुनाई। उन्होंने कहाः “देवर्षि ! मैंने पुराण लिखे, ब्रह्मसूत्र की रचना की, कई भाष्य लिखे, उपनिषदों का विवरण लिखा, लेकिन अभी भी मुझे लगता है कि मेरा कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है। कुछ अधूरा रह गया है, कुछ छूट गया है। मुझे आत्मसंतोष नहीं मिल रहा है।”

नारदजी ने कहाः “तुम्हारा कहना ठीक ही है, तुम्हारा कार्य सचमुच में अधूरा है। ये ʹब्रह्मसूत्रʹ उपनिषद सब लोग समझ नहीं पायेंगे। जिनके पास विवेक-वैराग्य तीव्र होगा, मोक्ष की तीव्र इच्छा होगी उनके लिए ʹब्रह्मसूत्रʹ जरूरी है। जैसे, किसी आदमी का गला पकड़कर पानी में डुबा दें और वह बाहर निकलने के सिवाये और कुछ नहीं चाहता-ऐसी जिसमें ईश्वर प्राप्ति की इच्छा हो, उसके लिए ʹब्रह्मसूत्रʹ अच्छा है। लेकिन जिन लोगों में परमात्म प्राप्ति की तड़प नहीं है, जो संसार में रचे पचे हैं और जो संसार को सत्य मानते हैं, संसार को ही सार मानते हैं, देह में जिनकी आत्मबुद्धि है, जगत में सत्यबुद्धि है और परमात्म-प्राप्ति के लिए जिनके पास समय नहीं है-ऐसे लोगों में ब्रह्मसूत्र और उपनिषद पढ़ने की रूचि नहीं होगी। कदाचित् वे पढ़ेंगे तो समझ भी नहीं पायेंगे। विवेक-वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मोक्ष की इच्छा-इन चार साधनों से युक्त आदमी वेदान्त को सुनेगा, ब्रह्मसूत्र सुनेगा तो उसे आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा। लेकिन जो साधन-चतुष्टय से सम्पन्न नहीं होगा, वह कितना भी सुनेगा, उस पर असर नहीं होगा। जगत में प्रायः ऐसे लोग ही ज्यादा होते हैं। आपने उन लोगों के उत्थान के लिए क्या उपाय किया है ?

ईश्वर को पाने की तड़पवाला तो कोई विरला ही होगा, बाकी लोग तो यूँ ही अपना समय गँवा देते हैं। आप कोई ऐसे ग्रंथ की रचना कीजिये जिसमें वीरों के लिए वीररस भी हो, विनोद चाहने वालों के लिए हास्यरस भी मिले, भक्तिमार्गवालों के लिए भक्तिरस भी मिले, जो सँसार में प्रेम रखते हैं उनको कुछ प्रेम की बातें मिल जायें और साथ में तत्त्व का चिंतन भी हो। सब प्रकार के लोगों की मनोदशा का विचार करके ऐसा ग्रंथ बनाया जाये जो सब प्रकार के रसों में सराबोर करते हुए तत्त्वज्ञान का रास्ता दिखाकर परमात्मरस तक पहुँचा सके।”

नारदजी की बात व्यासजी को सौ प्रतिशत जँची। व्यासजी ने समाधि में बैठकर श्लोकों की रचना की। भागवत में तीन सौ पैंतीस अध्याय और अठारह हजार श्लोक हैं। ऐसा नहीं कि वेदव्यासजी श्रीकृष्ण के पीछे लेखनी लेकर घूमे और ग्रंथ की रचना की। समाधि में बैठने पर उन्हें युग-युगान्तर में, कल्प-कल्पान्तर में श्रीकृष्ण की मधुर लीलाएँ आदि जो जो दिखा उसे लिखने के लिए उन्होंने गणपति जी का आवाहन किया। वेदव्यासजी श्लोक बोलते गये और गणपति जी लिखते गये। गणपति जी तो ऋद्धि सिद्धि के दाता हैं। उन्होंने श्लोक लिखने में मदद की और इस तरह ʹश्रीमद् भागवतʹ का ग्रंथ तैयार हो गया।

वेदव्यासजी ने वृद्धावस्था में ʹश्रीमद् भागवतʹ की रचना की थी। उऩ्हें लगा कि वे खुद इसका प्रचार नहीं कर पायेंगे इसलिए उऩ्हें चिन्ता हुई किः ʹयह शास्त्र मैं किसको दूँ ?ʹ आखिर उऩ्होंने शुकदेवजी को पसंद किया। शुकदेव जी जन्म से ही विरक्त थे, निर्विकार थे। जन्म से ही उन्हें संसार के विषयों में राग नहीं था। वेदव्यास जी ने यह ग्रंथ शुकदेव जी को पढ़ाया और उन्हीं के द्वारा इस ग्रंथ का प्रचार हुआ।

शुकदेवजी ने इस पवित्र ग्रंथ ʹश्रीमद् भागवतʹ की कथा परिक्षित को सुनाई। शुकदेवजी उत्तम वक्ता थे और परीक्षित उत्तम श्रोता थे।

इस कथा के प्रारम्भ में आता है कि भक्तिरूपी स्त्री रो रही हैः “मेरे ज्ञान और वैराग्यरूपी दो पुत्र अकाल वृद्ध हो गये हैं और मूर्च्छित होकर पड़े हैं।”

जवान माँ के बेटे अकाल वृद्ध होकर मृतप्रायः हो रहे हैं – यह कुछ मर्म की बात है।

कलियुग के आदमी के पास भक्ति तो होगी परन्तु ज्ञान और वैराग्य बेटे अगर मूर्च्छित होंगे तो भक्ति रोती रहेगी। भक्ति को स्त्री का रूप देकर और ज्ञान-वैराग्य को बेटों का रूप देकर ऐसी कथा बनाकर लोगों को जगाने का प्रयास जिन्होंने किया है, उन वेदव्यासजी की दृष्टि कितनी ऊँची होगी ! कितनी विशाल होगी !

आज तो कोई भागवत की कथा करवाते हैं तो उसका फल ऐहिक ही चाहते हैं और इसकी कथा करने वाला भी अगर लोभी होगा तो कथा के द्वारा भी धन पाना चाहेगा। ʹआज तो श्रीकृष्ण का जन्म है… चाँदी का पालना ले आओ…  आज तो श्रीकृष्ण की शादी है….. रुक्मणि के लिए गहने लाओ….ʹ ऐसा कहकर कथाकार धन कमाना चाहेगा। इसलिए वेदव्यासजी ने ʹभक्तिरूपी स्त्री के ज्ञान-वैराग्य दो बेटे मूर्च्छित हैं…ʹ ऐसा उदाहरण देकर लोगों को समझाया है कि ज्ञानसहित, वैराग्यसहित दृढ़ भक्ति करोगे तो शीघ्र ही कल्याण होगा।

इस ग्रंथ के और भी कई नाम हैं। एक नाम है ʹभागवत महापुराणʹ शेष 17 पुराणों को पुराण कहते हैं लेकिन इस भागवत को महापुराण कहा जाता है क्योंकि इसमें जगह-जगह पर उस महान तत्त्व का चिन्तन और ज्ञान की बातें विशेष मिलती हैं। दूसरा नाम है ʹपरमहंस संहिताʹ। शुकदेव जी जैसे आत्मानंद में मस्त रहने वाले व्यक्ति को भी भागवत के श्लोक और भागवत के आधाररूप मुख्य पात्र श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन बड़ा आनंदमयी लगता है। इसका एक और नाम है ʹकल्पद्रुमʹ। जो मनोकामना रखकर श्रवण-मनन करोगे तो वह तुम्हारी मनोकामना देर-सबेर पूरी होगी ही। ऐसे ग्रंथ ʹश्रीमद् भागवतʹ में श्रीकृष्ण की लीलाओं के साथ तत्त्वज्ञान की बातें इस ढंग से लिखी गई हैं कि पढ़ने वाले और सुनने वाला इसमें सराबोर हो जाता है और आनंद को पा लेता है।

कई पुण्यशाली लोग अनेक प्रसंगों पर ʹभागवतʹ की कथा का आयोजन करते हैं। जहाँ भी ʹभागवत सप्ताहʹ होता है, ʹभागवतʹ की कथा होती है वहाँ कथा के चौथे दिन श्रीकृष्ण का जन्म मनाया जाता है। ऐसा नहीं है कि श्रीकृष्ण का जन्म बारह महीने में एक बार ही मनाते हैं। जब-जब, जहाँ-जहाँ ʹभागवत कथाʹ होती है तब-तब श्रीकृष्ण का जन्म मनाते हैं। सुबह को भी मनाते हैं, शाम को भी मनाते हैं, अमावस्या को भी मनाते हैं, पूनम को भी मनाते हैं। वैसे तो ऐतिहासिक ढंग से लोग भादों (गुजरात-महाराष्ट आदि के अनुसार श्रावण) मास की कृष्ण-अष्टमी की रात को बारह बजे श्रीकृष्ण-जन्म मनाते हैं, पर भक्त लोग तो जब अनुकूलता हुई, जब मौका मिला कि श्रीकृष्ण-जन्म मनाने को उत्सुक रहते हैं। जब पुण्य जोर पकड़ते हैं, जब हृदय से ʹमेरे-तेरेʹ का भाव मिट जाता है, तब हृदय में आनंदरूपी श्रीकृष्ण प्रकट हो जाते हैं। हृदय में कृष्णतत्त्व का आनंद छलकने लगता है।

आपकी मति सुसंस्कृत हो जाये, आत्मज्ञान के रंग से रंग जाये, आपकी मति आत्मदेव के कृष्णतत्त्व के प्रकाश से प्रकाशित हो जाये-इसके लिए जिन ग्रन्थकारों ने, आत्मवेत्ता महापुरुषों ने, वेदव्यासजी जैसे नामी-अनामी ऋषियों ने, महर्षियों ने अपना सर्वस्व लुटा दिया, आपको जगाने के लिए ही अपने जीवन का हर क्षण गुजार दिया उन महापवित्र आत्माओं के चरणों में हमारे हजारों-हजारों प्रणाम हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 25-28, अंक 79

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