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Shastra Prasad

भगवन्नाम-माहात्म्य


“राम-नाम के प्रताप से पत्थर तैरने लगे, राम-नाम के बल से वानर-सेना ने रावण के छक्के छुड़ा दिये, राम नाम के सहारे हनुमान ने पर्वत उठा लिया और राक्षसों के घर अनेक वर्ष रहने पर भी सीता जी अपने सतीत्व को बचा सकीं। भरत ने चौदह साल तक प्राण धारण करके रखे क्योंकि उनके कण्ठ से राम नाम के सिवा दूसरा कोई शब्द न निकलता था। इसलिए संत तुलसीदास जी ने कहा कि ‘कलिकाल का मल धो डालने के लिए राम-नाम जपो।”

इस तरह प्राकृत और संस्कृत दोनों प्रकार के मनुष्य राम-नाम लेकर पवित्र होते हैं परंतु पावन होने के लिए राम-नाम हृदय से लेना चाहिए। मैं अपना अनुभव सुनाता हूँ। मैं संसार में यदि व्यभिचारी होने से बचा हूँ तो राम-नाम की बदौलत। मैंने दावे तो बड़े-बड़े किये हैं परंतु यदि मेरे पास राम-नाम न होता तो तीन स्त्रियों को मैं बहन कहने के लायक न रहा होता। जब-जब मुझ पर विकट प्रसंग आये हैं, मैंने राम-नाम लिया है और मैं बच गया हूँ। अनेक संकटों से राम-नाम ने मेरी रक्षा की है। अपने इक्कीस दिन के उपवास में राम-नाम ने ही मुझे शांति प्रदान की है और मुझे जिलाया है।”

महात्मा गाँधी

राम नाम की अपनी महिमा है, शिवनाम की भी अपनी महिमा है। सभी वैदिक मंत्र अपने आप में पूर्ण हैं। वेदपाठ करने से पुण्यलाभ होता है लेकिन पाठ करने से पहले और अंत में भूल चूक निवारण तथा साफल्य के लिए ‘हरि ॐ’ का उच्चारण किया जाता है।

भयनाशन दुर्मति हरण, कलि में हरि को नाम।

निशदिन नानक जो जपे, सफल होवहिं सब काम।।

जिनको जो गुरूमंत्र मिला है वह उनके लिए सर्वश्रेष्ठ है। भीख माँगने वाले अनाथ, सूरदास बालक प्रीतम को गुरु भाईदास जदीसे दीक्षा मिली। ध्यान भजन में लग गया तो संत प्रीतमदास जी बन गये और 52 आश्रम उनकी पावन प्रेरणा से बने। कबीर जी को रामानंद स्वामी से राम नाम की दीक्षा मिली, ध्रुव को नारदजी से ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र की दीक्षा मिली। धनभागी हैं वे जिनको गुरुमंत्र की दीक्षा मिली और उसी में लगे रहे दृढ़ता से। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

भजन्ते मां दृढ़व्रताः।

जो दृढ़निश्चयी हैं वे इसी जन्म में पूर्णता तक पहुँचते हैं। नरसिंह मेहता ने कहाः

भोंय सुवाडुं भूखे मारूं, उपरथी मारूं मार।

एटलुं करतां हरि भजे तो करी नाखुं निहाल।।

अर्थात्

धऱा सुलाऊँ, भूखा मारूँ, ऊपर से मारूँ मार।

इतना करते हरि भजे, तो कर डालूँ निहाल।।

कसौटी की घड़ियाँ आने पर भी जो भगवान का रास्ता नहीं छोड़ते, वे निहाल हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 9, अंक 206

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मंत्र-विद्या के मूल तत्त्व


शास्त्रों में सर्वत्र यही निर्देश दिया गया है कि श्रद्धा, धैर्य और गुरुभक्ति ये तीन तत्त्व साधना – यात्रा के अनिवार्य सम्बल हैं और साधना प्रणाली के सहायक तत्त्व हैं – भक्ति, शुद्धि, आसन, पंचांग सेवन, आचार, धारण, दिव्य देश-सेवन, प्राणक्रिया, मुद्रा, तर्पण, हवन, बलि, योग, जप, ध्यान तथा समाधि। इन तत्त्वों की महत्ता इस प्रकार है।

श्रद्धा– साधना में सर्वप्रथम आवश्यकता श्रद्धा की है। जिस साधक के मन में आराधना की मंगलमयता अथवा कल्याणकारिता में श्रद्धा नहीं है, वह कैसे प्रवृत्त हो सकता है ? श्रद्धा को विचलित करने वाली यदि कोई वस्तु है तो वह है शंका। ‘गीता’ में कहा गया है कि अज्ञश्चाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति – अज्ञानी और श्रद्धारहित शंकाशील मनुष्य विनाश को प्राप्त हो जाता है।’

देव, ब्राह्मण, औषधि, मंत्र आदि भावना के अनुसार फल देते हैं, अतः यदि मंत्र को हम सामान्य मानते हैं तो उसका फल भी सामान्य ही मिलेगा और उसे महान मानेंगे तो वह महान फल देगा। कोई मंत्र छोटा है तो यह क्या फल देगा ? ऐसा कुतर्क नहीं करना चाहिए। अग्नि की छोटी सी चिंगारी क्या घास के ढेर को नहीं जला देती ? अथवा मच्छर छोटा होने पर भी यदि हाथी के कान में घुस जाय तो क्या उसे विकल नहीं बना देता ? अतः मंत्र कैसा भी हो, उसकी अपूर्व शक्ति पर श्रद्धा रखना नितांत आवश्यक है। इसलिए वेदों की आज्ञा है कि श्रद्धाया सत्यमाप्यते – श्रद्धा से सत्य प्राप्त होता है।

धैर्य– सभी कार्य शांति और संतोष से फलदायक होते हैं। आतुरता अथवा शीघ्रता से होने वाले कार्यों में विकार आना स्वाभाविक है। फल के पकने तक धैर्य न रखने वाला क्या कभी पके फल का स्वाद ले सकता है ? चंचल चित्त से होने वाली क्रियाओं से विधिलोप का भय बना रहता है और विधिभ्रंशे कुतः सिद्धि – विधि के भ्रष्ट हो जाने पर सिद्धि कहाँ ?’ अतः मन में पूर्ण संतोष और धैर्य रखकर ही साधना करनी चाहिए।

गुरुभक्ति- मंत्रों की कुंजी गुरु के पास निहित है। प्रायः सभी मंत्र गुरुकृपा से दीक्षित होने पर शीघ्र फल देते हैं। गुरु का पद समस्त देवों से ऊपर है। कहा जाता है कि-

गुरुः पिता गुरुर्माता, गुरुर्देवो गुरुर्गतिः।

शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता, गुरौ रुष्टे न कश्चन।।

‘गुरु पिता हैं, गुरु माता हैं, गुरु देव हैं और गुरु गति हैं। यदि शिव नाराज हो जायें तो गुरु रक्षा करने वाले हैं, किंतु गुरु के नाराज हो जाय तो रक्षा करने वाला कोई नहीं।’

गुरु द्वारा गोविंद के दर्शन सुलभ माने गये हैं। अतएव शास्त्रों में देवपूजा से पूर्व गुरुपूजा का विधान है। कहा भी हैः

गुरुभक्ति विहिनस्य तपो विद्या व्रतं कुलम्।

व्यर्थं सर्वं शवस्यैव नानालंकार-भूषणम्।।

‘जिस प्रकार किसी मुर्दे को अनेक अलंकार पहनाना व्यर्थ है, उसी प्रकार गुरुभक्ति से रहित मनुष्य के तप, विद्या, व्रत और कुल व्यर्थ हैं।’

भक्ति- ऊपर गुरुभक्ति के बारे में कहा गया है, वैसी ही दृढ़ भक्ति भगवच्चरणों में होनी चाहिए, तभी मंत्र और देवता में ऐक्य होगा और यही एकरूपता साधना को फलवती बनायेगी।

शुद्धि- शुद्धि से तात्पर्य स्थान शुद्धि, शरीर शुद्धि, मनः शुद्धि, द्रव्य शुद्धि और क्रिया शुद्धि – इन 5 प्रकार की शुद्धियों से है। आराधना के लिए जिस स्थान का उपयोग करना हो, वहाँ किसी प्रकार की अपवित्रता न रहे, इसलिए साधना से पहले ही उसे पानी से धोकर स्वच्छ कर लें। गोबर – गोमूत्र से पवित्र कर लें। गुलाब जल का छिड़काव किया जा सकता है और जपादि के समय उस स्थान को धूप-दीप से उस स्थान को पवित्र बनाये रखें। यह स्थान एकांत और शांत हो, यह भी आवश्यक है। यही ‘स्थान-शुद्धि’ है।

शरीर शुद्धि– शरीर शुद्धि के लिए पंचगव्य का प्राशन, शुद्ध जल से स्नान तथा शुद्ध वस्त्र धारण अपेक्षित है।

मनः शुद्धि– इस शुद्धि के लिए अपवित्र विचारों का परित्याग तथा पवित्र विचारों की स्थिरता का होना आवश्यक है। इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग बहुत सहायक होते हैं। यथासम्भव ध्यान का सहारा लेने में भी मन स्थिर किया जाना चाहिए।

द्रव्य शुद्धि– आराधना में जिन वस्तुओं का उपयोग किया जाय, वे भी पूर्णतः शुद्ध हों। इसके लिए ताजे पुष्प, दूध, फल आदि लायें। पूजा के उपकरण शुद्ध हों और साधना के समय काम में ली जाने वाली सभी वस्तुएँ शुद्ध रखी जायें। इसी को द्रव्य शुद्धि कहते हैं।

क्रिया-शुद्धि- इस शुद्धि से तात्पर्य है – मंत्र साधना के अंगों के रूप में की जाने वाली क्रियाओं की शुद्धता। इसमें मंत्र के  पूर्वांग, जैसे – योग मुहूर्त, ऋण-धन विचार, मंत्र से संबंधित न्यास, ध्यानादि तथा जप प्रक्रिया का समावेश होता है।

आसन- जप के समय बैठने की स्थिति और जिस पर बैठकर साधना की जाय, इन दोनों का बात संबंध आसन से है। सामान्यतया कुछ विशेष साधनाओं को छोड़कर अन्य सभी के लिए स्वस्तिकासन अथवा पद्मासन उपयुक्त माने गये हैं और बैठने के लिए ऊन का आसन सर्वोपयोगी है। जिस आसन का प्रयोग और उपयोग निश्चित किया गया हो, उसे बार-बार नहीं बदलना चाहिए। स्वयं जिस आसन पर बैठकर जपादि करते हों उस पर दूसरे को न बैठने दें।

पंचांग-सेवन- उपर्युक्त पद्धति से बाह्य और अंतःशुद्धि कर लेने के बाद पंचांग-सेवन का निर्देश है। इसमें आराध्य देव की गीता, सहस्रनाम, स्तोत्र, कवच और हृदय का समावेश है।

गीता सहस्रनामानि स्तवः कवचमेव च।

हृदयं चेति पंचैतत् पंचांग प्रोच्यते बुधैः।।

कुछ अंशों के पंचांग तो मिलते हैं किंतु बहुतों के नहीं मिलते, इस संबंध में कोई शंका न रखते हुए इतना ही पर्याप्त होगा कि जो भी गुरुनिर्दिष्ट साहित्य उपलब्ध हो, उसी का पाठ करें।

आचार– आचार से तात्पर्य है – आचरण। प्रत्येक कर्म में उसके अनुकूल आचरण भी आवश्यक है। यह प्रसिद्ध है कि ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ अर्थात् देव बनकर देव की पूजा करें। इसके अनुसार जिस मंत्र का जप किया जाय, उससे संबंधित न्यास, ध्यान आदि पहले जान लें तथा संप्रदाय के अनुरूप प्रयोग करें। यदि इस विधि में मनमाना हेर-फेर किया जायेगा तो सफलता में विलंब, विघ्न अथवा विकार आयेगा। इसे हम आभ्यांतर आचार कह सकते हैं। इसी तरह बाह्य आचारों का पालन भी हर प्रकार से आवश्यक है।

धारण– मंत्र के वर्णों और पदों को शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों में धारण करना तथा विभिन्न न्यासों का विधान ‘धारण’ है।

दिव्य देश सेवन– उत्तम वातावरण का निर्माण करने के लिए उत्तम स्थान का होना अत्यावश्यक है। जिन स्थानों पर पूर्व काल में महापुरुषों ने वर्षों तक साधना करके सिद्धियाँ प्राप्त की हों, जहाँ सदा पवित्र वातावरण बना रहता हो तथा जहाँ देवताओं के प्रधान पीठ हों, ऐसे पुण्य क्षेत्रों में रहकर स्मरण करना, गंगा-स्नानादि से पवित्रता प्राप्त करना दिव्य देश सेवन में आता है

प्राण-क्रिया- शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में प्राण को ले जाकर मंत्राभ्यास करना तथा प्राणायाम द्वारा मंत्रजप को बढ़ाना ‘प्राणक्रिया’ है।

मुद्रा- देवताओं का सन्निधान प्राप्त करने के लिए हाथ की अंगुलियों के योग से विभिन्न आकृतियों के निर्माण को मुद्रा कहा जाता है। यह विषय गुरुगम्य है और प्रत्येक देव के आयुध, आवाहनादि क्रिया और अन्यान्य जप के पूर्वांग और उत्तरांग के रूप में प्रयुक्त होती है। देवताओं को प्रसन्न तथा असुरों का विनाश करने से इसका नाम मुद्रा पड़ा है।

तर्पण– जलांजलिपूर्वक मंत्रोच्चारण से तर्पण संपन्न होता है। संध्या के पश्चात देव, ऋषि और मनुष्य तर्पण किया जाता है तथा जब प्रत्येक मंत्र का पुरश्चरण किया जाता है तो उसमें जप का दशांश हवन और हवन का दशांश तर्पण शास्त्र विहित है। यह मंत्रदेव के प्रति श्रद्धा निवेदन की प्रक्रिया है।

हवन- जौ, तिल, चावल, घृत और शर्करा के मिश्रण से शाकल बनाकर उसके साथ घृत की अग्नि में आहुति देने की क्रिया को हवन अथवा होम कहते हैं। किसी विशिष्ट मंत्र अथवा देव विशेष की जप साधना में कुछ विशिष्ट हवनीय द्रव्य द्वारा भी यह कर्म किया जाता है।

बलि–  इसमें देवताओं के लिए नेवैद्य अर्पण किया जाता है। मंत्र विशेष अथवा देवता विशेष के अनुरोध से कुछ विशिष्ट वस्तुओं का समर्पण भी इसमें होता है, किंतु किसी प्रकार की हिंसा का इसमें कोई स्थान नहीं है।

याग– इससे अंतर्याग तथा बहिर्याग की प्रक्रिया का संकेत किया है। अंतर्याग में शरीर के विभिन्न अंगों में स्थित देवताओं को नमन करते हुए भावना की जाती है तथा बहिर्याग में न्यास और पूजादि का समावेश होता है।

जप– मंत्र का जप माला आदि के माध्यम से प्रसिद्ध है।

ध्यान- सामान्यतया इष्टदेव के स्वरूप का चिंतन ध्यान कहलाता है। मन की एकाग्रता के लिए यह आवश्यक है।

समाधि– यह ध्यान की सर्वोच्च कोटि है, जिसमें ध्याता के बेसुध होकर बाह्य ज्ञान से शून्य बन जाता है।

उपर्युक्त प्रक्रियाएँ विस्तृत तथा कुछ कठिन हैं। अतः आचार्यों ने इनमें से केवल 5 अंगों पर विशेष ध्यान देने का संकेत किया है. जिनमें आसन, मंत्र-पदों की धारणा, मंत्र पदों के अर्थ की भावना, सालम्ब ध्यान तथा निरालम्ब ध्यान आते हैं।

इस प्रकार मंत्र योग का आश्रय लेने से मुख्य ध्येय की सिद्धि और परमार्थ की प्राप्ति सुगम बन जाती है। साधक को चाहिए कि इनमें से जो क्रियाएँ सुलभ हैं, उनका यथाशक्ति प्रयोग करे तथा अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो।

(संकलित- ‘मंत्र-शक्ति’, लेखक- डॉ. रूद्रदेव त्रिपाठी)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 11-13 अंक 119

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भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी……


 

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

‘श्रीरामचरितमानस’ में आता हैः

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।।

यदि तुम विदेश जाना चाहो तो तुम्हारे पास पासपोर्ट होगा तब वीजा मिलेगा। वीजा होगा तब टिकट मिलेगी। फिर तुम हवाई जहाज में बैठकर अमेरिका जा सकोगे।

यदि नौकरी चाहिए तो प्रमाणपत्रों की जरूरत पड़ेगी। अगर व्यापार करना हो तब भी धन की जरूरत पड़ेगी। किंतु भक्ति में ऐसा नहीं है कि ‘तुम इतनी योग्यता प्राप्त करो तब भक्ति कर सकोगे….’

तुम्हारे पास कोई योग्यता, कोई प्रमाणपत्र न हो तो भी तुम भक्ति जब चाहो कर सकते हो। ईश्वर का ऐश्वर्य इसी में है कि वह तुम्हारी योग्यता देखकर तुम्हें स्वीकार नहीं करता वरन् स्वीकार करना उसका स्वभाव है, उसका ईश्वरत्व है। अगर तुम सोच लेते हो कि ‘मैं इतने साल तक भक्ति करूँगा तब भगवान मिलेंगे….’ समय-मर्यादा की अड़चन तुम्हारी ओर से है, ईश्वर की तरफ से नहीं हैं।

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।

जैसे, विभीषण आया तो सुग्रीव ने श्रीराम जी से कहा कि ‘यह शत्रु का भाई है, अतः इसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।’ किंतु शत्रु का भाई है इसलिए उसे स्वीकार न करें तो ईश्वर का ईश्वरत्व किस बात का ? अगर भगवान केवल भक्तों को ही स्वीकारें और अभक्तों को न स्वीकारें तो कामी, क्रोधी, पापी वगैरह कहाँ जायेंगे ?

श्रीराम जी ने कहाः ‘मेरा तो प्रण है शरणागत के भय को हर लेना – मम पन सरनागत भयहारी। जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या का पाप लगा हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव मेरे सम्मुख होता है तो उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।’

कोटि विप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।।
सनमुख होई जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।। श्री रामचरित. सुंदरकांडः 43.1

ईश्वर से यह नहीं होता कि योग्य को ही स्वीकारें। वरन् जो भी उनका होना चाहता है, उसके लिए ईश्वर के द्वार सदा खुले हैं।

शर्त यह है कि हम यह न मानें कि ‘हम पापी हैं… हमारे कर्म ऐसे हैं… हमको भगवान स्वीकार करेंगे कि नहीं ?’ अपने कर्मों को याद करके अपने को प्रभु का मानो और प्रभु को अपना मानो तो काम बन जायेगा….

पहली बात यह है कि अपने कर्म का कर्त्ता न मानें। दूसरी बात है कि कर्म में अपना स्वतंत्र ज्ञान नहीं होता। कर्म को पता नहीं होता कि वह कर्म है। कर्म स्वयं जड़ है, आपकी भावना के अनुसार उसका परिणाम होता है। कर्म करके कुछ पा लूँगा ऐसा विचार किया तो कर्म करने पड़ेंगे। क्रिया से जो कुछ मिलेगा वह मेहनत करवायेगा और अंत में थका देगा। पर भाव से जो मिलेगा वह मेहनत नहीं करवायेगा वरन् प्रेम उभारेगा और थकान मिटायेगा तथा जीवन को रसमय बनायेगा।

‘मैं इतना जप रोज करूँगा…. तब कहीं पवित्र होऊँगा और फिर भगवान मेरा जप स्वीकार करेंगे अथवा मैंने इतने अच्छे कर्म किये परंतु बीच में इतने बुरे कर्म किये इसलिए मेरा सब कुछ खो गया।’ ऐसा सोचोगे तो ऐसा ही दिखेगा, ऐसा ही होगा।
प्रयत्न करना चाहिए कि शास्त्र विरुद्ध कर्म न हों परन्तु स्मृति अपने कर्मों की नहीं, भगवान के स्वरूप की करनी चाहिए। भगवान ज्ञानस्वरूप हैं, भगवान चैतन्यस्वरूप हैं, भगवान आनंदस्वरूप हैं, भगवान हमारे परम हितैषी हैं, भगवान हमारे परम सुहृद हैं….. – ऐसा मानने से भगवत्प्रीति बढ़ती जायेगी।

ईश्वर में, शास्त्र में, गुरु में तथा अपनी आत्मा में जितनी श्रद्धा होगी, जितनी दृढ़ता होगी, उतना ही बल बढ़ता जायेगा।

एक पंडित जी प्रतिदिन किसी गाँव में कथा करने जाते थे। उसी गाँव में एक ग्वालिन प्रतिदिन नदी पास से दूध बेचने आती थी। दूध बेचने के लिए जाते-जाते वह ग्वालिन कथा के एक दो शब्द सुन लिया करती थी। एक बार कथा के ये शब्द उसके कान में पड़ गये कि ‘राम नाम से पत्थर भी तर जाते हैं।’

कहा गया है कि विश्वासो फलदायकः। ‘विश्वास से फलदायक होता है।’
ग्वालिन का विश्वास भी गजब का था। वह दूध बेचकर जब घर वापस जाने के लिए नदी तट पर आयी, तब सोचने लगीः ‘जब राम नाम से पत्थर तक तैर सकते हैं तो मैं तो मनुष्य हूँ। मैं क्यों नहीं तैर सकती ? नाव वाले को व्यर्थ में दो पैसे क्यों दूँ ?’ ऐसा दृढ़ निश्चय और विश्वास करके राम नाम लेते हुए उसने नदी में पैर रखा और चलकर नदी के उस पार पहुँच गयी ! अब वह प्रतिदिन दूध बेचने आती तो राम नाम जपते-जपते नदी पर चलकर ही आने लगी !

महीना पूरा हुआ। उसके पास थोड़े-से पैसे इकट्ठे हो गये। उसने सोचा कि जिन पंडित जी की कथा से मुझे इतना फायदा हुआ है, उन्हें एक बार भोजन तो करवा दूँ। उसने पंडित जी से अपने घर चलकर भोजन करने की प्रार्थना की। पंडित जी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। समय और तिथि निश्चित हो गयी।

नियत दिन और समय पर ग्वालिन पंडित जी को लेने आयी। दोनों नदी के तट पर पहुँचे तो देखा कि नाव नहीं है। पंडित जी ने कहाः
“यहाँ तो कोई नाव ही नहीं दिखाई दे रही, उस पार कैसे पहुँचेंगे ?”
ग्वालिन ने कहाः “अरे, पंडित जी ! आप ही ने तो कहा था कि राम नाम से पत्थर तक तैर सकते हैं तो आपके लिए नदी को पार करना कौन-सी बड़ी बात है ? चलिये, मेरे साथ चले-चलिये।”

यह कहकर ग्वालिन तो बड़ी आसानी से पानी पर चलने लगी परंतु पंडित जी किनारे पर ही खड़े रह गये। तब उन्हें हुआ कि मैंने इतने शास्त्र पढ़े, कथाएँ कीं, किंतु शास्त्रों का सार, कथाओं का सार तो इस ग्वालिन ने पाया।

ग्वालिन ने तो केवल दो वचन ही सुने थे कि ‘राम नाम से तो पत्थर भी तर जाते हैं’। उसने उन वचनों पर विश्वास किया तो पानी पर चलना उसके लिए आसान हो गया। ऐसे ही हमें शास्त्र वचनों, गुरु वचनों पर विश्वास हो जाये तो हम भी भवसागर से आसानी से पार हो सकते हैं। जरूरत है तो केवल अटल विश्वास की….

परिस्थितियों से हार न मानें, इनसे चिपके नहीं और इनसे घबराये भी नहीं। तटस्थ हो जायें। अपने भगवत् तत्त्व के साथ एकाकार होकर परिस्थितियों को गुजरने दें। ‘भगवान मेरे साथ हैं और मैं भगवान का हूँ’ – यह विश्वास जितना पक्का करोगे भगवान उतने जल्दी प्रकट होंगे। ईश्वर के रास्ते जाने का एक बार दृढ़ संकल्प कर लिया तो फिर उसको छोड़े नहीं।

बरसात के दिनों में फालतू घास जल्दी उग जाती है परंतु गुलाब के फूल जहाँ-तहाँ नहीं उगते। गुलाब के फूल खिलाने हैं तो कलम लगानी पड़ती है, निराई-गुड़ाई करनी पड़ती है, खाद-पानी देना पड़ता है, देखभाल करनी पड़ती है तब गुलाब खिल पाता है।

ऐसे ही फालतू विचार जल्दी आ जाते हैं, व्यर्थ कर्म भी जल्दी हो जाते हैं किंतु श्रेष्ठ कर्म करने में दृढ़ता रखनी पड़ती है। श्रेष्ठ विचार के लिए सत्संग करना होता है। सत्संग से जो श्रेष्ठ विचार मिलें उन्हें पकड़े रखें, सुना-अनसुना न करें। जैसे गुलाब की कलम लगाते हैं तो उसकी देखभाल करते हैं, ऐसे ही विचारों की कलम लग जाये तो उसकी सँभाल करनी चाहिए। बगीचे में तो फूल खिलते हैं, सुगंध देकर मुरझा जाते हैं परंतु यहाँ तो हृदय खिलेगा और परमात्मतत्त्व का अमिट अनुभव होने लगेगा।

तीसरी बात है कि कभी यह न समझें कि ‘ईश्वर कहीं दूसरी जगह पर है…. अभी नहीं है बाद में मिलेगा…. यहाँ नहीं है, कहीं जाने के बाद मिलेगा…..।’ नहीं, ईश्वर तो तुम्हारा आत्मा होकर बैठा है, वह सर्वत्र और सदा है। आरंभ में होता है कि ‘वह कहीं है और मैं कहीं हूँ और मैं उसका हूँ’। जब भक्ति और बढ़ती है, सत्संग और शास्त्र विचार करता है तो ‘मैं’ पना मिट जाता है और वह कहने लगता है कि ‘मैं वही हूँ, वह मैं हूँ।’

चौथी बात है कि यह सदा याद रखें कि यह शरीर सदा नहीं रहेगा। एक दिन श्मशान में जायेगा परंतु मेरी आत्मा परमात्मा का सनातन अंश है और सदा रहेगी। इस प्रकार की जो समझ है वह शरीर की ममता हटा देगी, शरीर से आसक्ति हटा देगी।
शरीर की आसक्ति रखने से आलस्य बढ़ता है, इन्द्रियों में विलासिता आ जाती है, मन असंयमी हो जाता है और बुद्धि के दोष बढ़ जाते हैं।
‘शरीर तो पंचभूतों का है’ – ऐसी मान्यता दृढ़ हो जाये तो शरीर का आलस्य चला जाता है। मन की विलासिता और इन्द्रियों का उच्छ्रंखलपना नियंत्रित हो जाता है और बुद्धि में समता आने लगती है।

देह को ‘मैं’ मानोगे तो भोग-वासना पीछा नहीं छोड़ेगी। सूक्ष्म शरीर को ‘मैं’ मानोगे तो विचार और सिद्धान्त में पकड़ होगी। कारण शरीर को ‘मैं’ मानोगे तो अवस्था में पकड़ होगी परंतु सच्चिदानंद-स्वरूप परमात्मा में ‘मैं’ और ‘मेरा’ पन होगा तो हर हाल में खुश…।

फिर तो भगवान का भजन करते हो तब भी भगवान तुम्हारे और नहीं करते हो तब भी भगवान तुम्हारे हैं। मन नाचता है तब भी तुम भगवान के और मन शांत रहता है तब भी तुम भगवान के हो जाते हो।

जैसे, पत्नी ससुराल में हो तब भी, मायके में हो या घर में हो, बाजार में हो तब भी पति की ही है। पति की सेवा करती है तब भी पति की है और किसी दिन सेवा नहीं करती है तब भी पति की ही है। वैसे ही जीव भगवान का है। भजन होता है तब भी भगवान तुम्हारे हैं और नहीं होता है तब भी भगवान तुम्हारे ही रहते हैं।

जब तुमने सच्चे दिल से भगवान को अपना मान लिया तो वह तुम्हारा क्यों नहीं होगा ?
तुम तो एकमात्र उस भगवान का ही आश्रय लो। ईश्वर की ओर चलने में जहाँ सहयोग मिलता हो, उत्साह बढ़ता हो, वह जगह छोड़े नहीं और ईश्वर से विमुख करने वाला वातावरण हो वहाँ जाये नहीं।

‘श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ में आता हैः “हे राम जी ! यदि आत्मतत्त्व की जिज्ञासा में हाथ में ठीकरा ले चांडाल के घर से भिक्षा ग्रहण करे वह भी श्रेष्ठ है, पर मूर्खता से जीना व्यर्थ है।”

बड़े-बड़े ऐश्वर्य से भी वह अवस्था अच्छी है, क्योंकि बड़े-बड़े ऐश्वर्य भोगकर भी आखिर नरकों में जाना पड़ेगा।

सुख-सुविधाएँ, गाड़ी-बँगले आदि का कुछ भी मूल्य नहीं है। इनको पाने का यत्न करने में प्राणी अपना सारा समय-शक्ति गँवा देता है, जबकि भगवत् भाव का, भगवत् शांति का, भगवत् माधुर्य का जो सुख है वह यहाँ भी सुख देता है और अंत में सुखस्वरूप ईश्वर से मिला देता है। इसलिए प्रयत्न करके भगवत् भाव को, भगवत् ज्ञान को, भगवत् ध्यान को और भगवत् तत्त्व को आत्मसात करना चाहिए।

….और यह कठिन नहीं है। ‘कठिन है-कठिन है’ सोचते हैं तो कठिन हो जाता है। अन्यथा यह कठिन नहीं है। देर वाला काम नहीं है। ऐसा नहीं है कि कोई चीज और लाकर देनी पड़ेगी….। इसे न कहीं से लाना है, न बनाना है। यह तो हाजरा हुजूर है इसे केवल जानना है, बस।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 15-18, अंक 117
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