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Shastra Prasad

ज्ञान-प्रेम-माधुर्य का महासागर सनातन धर्म – पूज्य बापू जी


दुनिया के हर प्राचीन धर्म ने, दुनिया के हर सुलझे हुए सम्प्रदाय व कई प्रबुद्ध महापुरुषों ने और राजा महाराजाओं ने जिसको सहर्ष स्वीकार किया और अनुभूतियाँ की हैं, सारी पृथ्वी पर और स्वर्ग में ही नहीं अपितु, अतल, वितल, तलातल, रसातल, महातल, जनलोक, भुवर्लोक, तपलोक आदि अन्य लोकों पर भी जिसका साम्राज्य छाया हुआ है, वह सार्वभौम ब्रह्मांडव्यापी धर्म है ‘सनातन धर्म’।

भिन्न-भिन्न देश काल और परिस्थिति के अनुसार पृथक-पृथक धर्म बने हैं किंतु सनातन धर्म सम्पूर्ण मानव-जाति के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। सनातन सत्य रूपी धर्म जीवमात्र के भीतर, हर दिल में धड़कनें ले रहा है। सनातन सत्य हर दिल में छुपी हुई परमात्मा की वह सुषुप्त शक्ति है, जिसके जागृत होने से मनुष्य का सर्वांगीण विकास होता है, पूर्ण आत्मिक विकास होता है। जितने अंश में मानव सनातन सत्य के निकट होता है, उतने अंश में उसका जीवन मधुर होता है। जितने अंश में सनातन सत्य से संबंधु जुड़ता है, जितने अंश में अपनी सुषुप्त शक्तियाँ सनातन चेतना से प्राप्त करता है, उतने अंश में वह अपने क्षेत्र में उन्नत होता है। यह एक हकीकत है कि मनुष्य जितना-जितना ‘देह’ को सत्य मानकर संकीर्ण कल्पनाएँ रचता है, उतना-उतना सच्चे सुख से दूर होता जाता है। आज का मनुष्य शरीर के भोगों में, बड़ी-बड़ी सुख-सुविधाओं से सम्पन्न महलों में रहने में, भौतिक ऐश-आरामों में रचे-पचे रहने में ही सच्चा सुख मान बैठा है और उसे ही प्राप्त करने  में अपना सारा समय बरबाद कर देता है। फलस्वरूप वह अपने आत्मा-परमात्मा के ज्ञान से वंचित ही रह जाता है।

भागवत के प्रसंग में आता है कि रहुगण राजा राजपाट का सुख भोगते-भोगते विचार करते हैं- ‘जिस देह को जला देना है, उस देह को आज तक तो बहुत भोगों और सुख सुविधाओं में रमाया लेकिन ज्यों ही मृत्यु का एक झटका आयेगा तो सब कुछ पराया हो जायेगा। मृत्यु आकर सब छीन ले उसके पहले उस सनातन शांति से मुलाकात कर लें तो अच्छा रहेगा।’

जहाँ में उसने बड़ी बात कर ली,

जिसने अपने-आपसे मुलाकात कर ली।

सनातन धर्म हमें अपने वास्तविक स्वरूप अर्थात् स्व-स्वरूप को प्रकट करने की आज्ञा देता है। हमारा आदि धर्म हमें सिखाता है कि पंचभूतों का बना शरीर ‘हम’ नहीं हैं। वास्तव में हम स्वयं ब्रह्म हैं, जो सृष्टि का कर्ता और धर्ता वास्तव में हम अभेद ब्रह्म हैं। सारा जगत ब्रह्मस्वरूप ही है। माया के पाश में बन्धे हुए एक-दूसरे को हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि मानते हैं और संकीर्ण विचारधाराओं में  बहने लगते हैं। दुःख, अशांति, झगड़े, चिंता आदि में हम उलझते गये हैं, वरना सनातन धर्म एको ब्रह्म द्वितियोनास्ति…..हम सभी एक हैं, भिन्न नहीं हैं… यह दिव्य संदेश विश्व को दे रहा है और यही तो सनातन सत्य भी है। इस सनातन सत्य रूपी व्यापक दृष्टिकोण का प्रभाव समाज पर जितने अंश में होता है, उतने ही अंश में स्नेह, आनंदद, भाईचारा, दया, करुणा, अहिंसा आदि दैवी गुणों से समाज सम्पन्न होता है। इस सत्य के साथ अपना नाता जोड़ना ही व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक जगत में प्रगति का मूल मंत्र है, मधुर जीवन की कुंजी है। फिर चाहे रमण महर्षि जी हों, साँईं लीलाशाहजी हों, ऋषि याज्ञवल्क्य हों, चाहे रामावतरा या कृष्णावतार हों, चाहे कोई राजनैतिक जगत में सेवा करने वाला हो।

ऐसा नहीं कि उन्होंने जो पाया है, वह हम नहीं पा सकते। हममें भी वही योग्यता है। सिर्फ ठीक मार्गदर्शन से सही पथ पर लगने की आवश्यकता है। स्वामी रामतीर्थ अपने ईश्वर से  मुलाकात करके ऐसे छलके कि सनातन धर्म के अमृत को बाँटते-बाँटते वे अमेरिका पहुँचे। उस समय (सन् 1899-1901) अमेरिका के राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने स्वामी रामतीर्थ की उदारता को अखबारों द्वारा सुना और उससे वे इतने प्रभावित हुए कि स्वयं चलकर रामतीर्थ के दर्शन करने गये। अखबारवालों को स्वामी रामतीर्थ के बारे में  बताते हुए उन्होंने कहा थाः “मैंने आज तक सुना  था कि जीसस सनातन सत्य के अमृत को पाये हुए थे लेकिन भारत के इस साधु को तो अमृत बाँटते हुए देखा।  मेरा जीवन सफल हो गया।”

आज हम अपने जीवन में सनातन सत्य के अमृत को पाने की आकांक्षा नहीं रखते इसलिए हम सुविधाओं के बीच पैदा होते हैं, पलते हैं फिर भी जिंदगीभर परेशान ही रहते हैं और आखिर उस सच्चे सुख को पाये बिना मर जाते हैं, जीवन व्यर्थ गँवा देते हैं।

धन, सौंदर्य से हम सुंदर नही होते वरन् सुंदर से भी सुंदर आत्मस्वरूप के करीब पहुँचने पर हम सुंदर होते हैं। जितने हम भीतर के धन से खोखले या कंगाल होते हैं उतनी बाह्य पदार्थों की गुलामी करनी पड़ती है क्योंकि सुख इन्सान की जरूरत है। जब तक हमें आत्मिक आनंद नहीं मिलता, तब तक हम विषय वासना में सुख ढूँढते हैं किन्तु  दुःख,  परेशानी के अलावा कछ हाथ नहीं लगता। इसके विपरीत, जितने हम भीतर के धन से सम्पन्न होते हैं, आत्मसुख से तृप्त होते हैं उतना हम बाह्य भोग-पदार्थों की ओर से बेपरवाह होते हैं।

अष्टावक्रजी के शरीर में आठ कमियाँ थीं। छोटा कद, टेढ़ी टाँगें थीं और उम्र 12 वर्ष थी फिर भी संसार से विरक्त होकर सरकने वाली चीजों से और मन के निर्णयों, आकर्षणों से पार हो के मुक्तिपद प्राप्त किये हुए थे तो राजा जनक उनके चरणों में प्रणाम करके उनके आगे प्रश्न करते हैं- “भगवन् ! आत्मसुख कैसे प्राप्त होता है ?”

सनातन सत्य के सुख को पाने की जिज्ञासा हर मनुष्य में होती है परंतु सच्ची दिशा न मिलने पर वह संसार-सुख में भटक जाता है। मिथ्या जगत के नश्वर सुख में सत्यबुद्धि  करके हम क्षणिक सुख प्राप्त करने में लगे रहते हैं। फिर चाहे कितने विघ्न क्यों न आयें ? पैसे कमाने के लिए न जाने क्या-क्या करना पड़ता है ? यदि धन बहुत हो गया तो शरीर में रोग घुसा होता है, किसी के माँ-बाप अचानक चल बसते हैं। जीवन है तो कुछ-कुछ आफतें आती ही रहती हैं। अरे ! भगवान स्वयं जब श्रीरामचन्द्रजी तथा श्रीकृष्ण के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए, तब उन्हें भी विघ्न-बाधाएँ आयी थीं किंतु फर्क है तो इतना कि हम जब विघ्न-बाधाएँ आती हैं तो उनमें बहकर हताश निराश हो जाते है जबकि संत-महापुरुष सत्यस्वरूप ईश्वर के साथ अपना सनातन संबंध जोड़े हुए होते हैं, जिससे वे लेशमात्र भी विघ्न-बाधाओं में बहते नहीं हैं। वे निराश या हताश नहीं होते वरन् मुसीबतें उनके जीवन को चमकाने, प्रसिद्धि दिलाने एवं पूजनीय बनने का कारण बन जाती हैं। भगवान श्रीरामचन्द्रजी को 14 साल का वनवास मिला था। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म ही काल कोठरी में हुआ था। पूतना जहर पिलाने आ गयी, कंस मामा ने लगातार कई षडयन्त्र रचे। फिर भी श्रीकृष्ण और रामजी सदैव अपने सनातन सत्यस्वरूप में प्रतिष्ठित रहे, मुस्कराते रहे। यही तो है जीव को अपने आत्मस्वरूप में जगाने का सनातन धर्म का उद्देश्य

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2013, पृष्ठ संख्या  12-14, अंक 251

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चतुर्मास में विशेष पठनीय – पुरुष सूक्त


जो चतुर्मास में भगवान विष्णु के आगे खड़े होकर ʹपुरुष सूक्तʹ का जप करता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है।

श्री गुरुभ्यो नमः।

हरिः

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।

स भूमिँसर्वतः स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङगुलम्।।

जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्माँड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं।।1।।

पुरुषएवेदँ सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।।2।।

जो सृष्टि बन चुकी, जो बनने वाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं। इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं।।2।।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुषः।

पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।3।।

विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है। इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं।।3।।

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोस्येहाभवत्पुनः।

ततो विष्वङ व्यक्रामत्साशनानशनेअभि।।4।।

चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है। इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं।।4।।

ततो विराडजायत विराजोअधि पूरुषः।

स जातोअत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः।।5।।

उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ। उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए। वही देहधारीरूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया।।5।।

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्।

पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये।।6।।

उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ (जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है)। वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई।।6।।

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतऋचः सामानि जज्ञिरे।

छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।7।।

उस विराट यत्र पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ। उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ।।7।।

तस्मादश्वाअजायन्त ये के चोभयादतः।

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताअजावयः।।8।।

उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौएँ, बकरियाँ और भेड़ें आदि पशु भी उत्पन्न हुए।।8।।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।

तेन देवाअयजन्त साध्याऋषयश्च ये।।9।।

मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांडरूप यज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ) का प्रादुर्भाव किया।।9।।

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।

मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाउच्येते।।10।।

संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का ज्ञानी जन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाँघें और पाँव कौन से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ?।।10।।

ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद् भ्याँ शूद्रोअजायत।।11।।

विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात ज्ञानीजन (विवेकवान) हुए। क्षत्रिय अर्थात् पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं। वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए।।11।।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादिग्निरजायत।।12।।

विराट पुरुष की नाभी से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुई। इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है)।।13।।

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।

वसन्तोस्यासीदाज्यं ग्रीष्मइध्मः शरद्धविः।।14।।

जब देवों ने विराट पुरुष को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन (समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई।।14।।

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः।

देवा यद्यज्ञं तन्वानाअबध्नन् पुरुषं पशुम्।।15।।

देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं।।15।।

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।16।।

आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया। यज्ञीय जीवन जीने वाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं।।16।।

शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः!!!

(यजुर्वेदः 31.1.-16)

सूर्य के समतुल्य तेजसम्पन्न, अहंकाररहित वह विराट पुरुष है, जिसको जानने के बाद साधक या उपासक को मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्षप्राप्ति का यही मार्ग है, इससे भिन्न और कोई मार्ग नहीं। (यजुर्वेदः 31.18)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2012, अंक 235, पृष्ठ संख्या 24,25

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भगवद्-उपासना के आठ स्थान


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

भगवान श्रीकृष्ण ने भागवत में कहा कि मेरी उपासना के आठ स्थान हैं। उनमें से किसी में भी लग गय तो भगवद् रस, भगवत्प्रीति, भगवत् तृप्ति, भगवन्माधुर्य में प्रवेश मिल जाता है।

अर्चायां स्थण्डिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाप्सु हृदि द्विजे।

द्रव्येण भक्तियुक्तोऽर्चेत् स्वगुरुं माममायया।।

‘भक्तिपूर्वक निष्कपट भाव से अपने पिता एवं गुरुरूप मुझ परमात्मा की पूजा की सामग्रियों के द्वारा मूर्ति में, वेदी में, अग्नि में, सूर्य में, जल में, हृदय में अथवा ब्राह्मण में – चाहे किसी में भी आराधना करे।’  (श्रीमद् भागवत्- 11.27.9)

मूर्तिः मुझ चैतन्य को पाने-जानने के लिए पूजा की सामग्रियों द्वारा देवी देवता, भगवान, ब्रह्मज्ञानी गुरु आदि की जो मूर्ति है उसमें मेरी पूजा की जा सकती है। मेरी मूर्ति की सेवा पूजा करना और उसको एकटक देखते हुए एकाग्र होना, यह मेरी उपासना है।

वेदीः वेदी में आहुति देकर (यज्ञ के द्वारा) वातावरण में शुभ संकल्प फैलाना, ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदं इन्द्राय इदं न मम। ‘यह इन्द्र के लिए है, मेरा नहीं।’ ॐ वरूणाय स्वाहा, इदं वरूणाय इदं न मम। ‘यह वरुण के लिए है, मेरा नहीं।’ यह कुबेर के लिए है, मेरा नहीं…’ इस प्रकार ममता हटायें। तो ममता हटाने की रीति जो यज्ञों में बतायी गयी, वह भी मेरी उपासना है।

‘मेरा नहीं है’…. एक तो ‘मैं’ और दूसरा ‘मेरा’ ये दोनों माया है। ‘वस्तु मेरी नहीं है, फिर शरीर को जो ‘मैं’ मानता हूँ वह ‘मैं’ मैं नहीं हूँ। शरीर के बाद भी जो रहता है, वह चैतन्य मेरा परमात्मा है।’ – इस ढंग की समझ से विधि के द्वारा मेरी पूजा होती है।

अग्निः भगवान बोलते हैं कि अग्नि देवता के ध्यान के द्वारा तथा घृतमिश्रित हवन सामग्रियों से आहुति देकर की हुई पूजा भी मेरी पूजा है।

सूर्यः अर्घ्यदान, उपस्थान (उपासना पूजा के निमित्त निकट जाना, सामने आना) तथा आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करना, इससे बुद्धि भी विकसित होती है और भगवत्साधना भी मानी जाती है।

जलः भगवान कहते हैं कि जलतत्त्व भी मेरा ही स्वरूप है। जल में तर्पण आदि से मेरी उपासना करनी चाहिए। जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धा से जल भी चढ़ाता है, तब मैं उसे बड़े प्रेम से स्वीकार करता हूँ। वह भक्त जल में एकदृष्टि (परमात्मदृष्टि) करता है अथवा गंगे ये यमुने चैव….. कह के पुण्यनदियों का आवाहन करके उस जल से स्नान करता है, केशवाय नमः, नारायणाय नमः…. कहकर आचमन लेता है, पंचामृत आदि बनाता है तो जल में जो यह भगवद्भाव है, आदरभाव है उससे शांति, पुण्याई होती है। यह भी मेरी पूजा का एक तरीका है।

हृदयः हृदय में मेरी पूजा करें। श्वासोच्छवास के साथ मेरा नाम जप करें।

बोलेः भगवान हृदय में हैं तो हृदय बड़ा और भगवान छोटे !

अरे ! भगवान हृदय में उतने लगते हैं लेकिन भगवान की सत्ता अनंत ब्रह्माण्डों में व्याप्त है। बीज छोटा लगता है पर उसमें संस्कार कैसे हैं कि बड़ा वटवृक्ष भी छुपा है उसमें ! एक बीज में कितने वृक्ष छुपे हैं, सारे विज्ञानी मिलकर उसका गणित नहीं लगा सकते, ब्रह्माजी भी नहीं लगा सकते। ऐसे ही एक मनुष्य से कितने मनुष्यों की परम्परा चलेगी, ब्रह्माजी नहीं बता सकते। हरि अनंत हैं तो हरि की हर चीज भी तो अनंत की खबर दे रही है। एक बीज का अंत हो जायेगा क्या ? एक गुठली बोयी आम की उससे आम का वृक्ष बना और कल्पना करो कि हजार फल लगे उसमें। अब हजार फल खा लो और गुठलियाँ बो दो। फिर हजार पेड़ हुए। उन हजार पेड़ों की गुठलियाँ बो दो, अब उनकी संख्या कितने तक पहुँच सकती है ? एक आम का या एक वटवृक्ष का बीज कितने बीज दे सकता है, इसका कोई अंत है क्या ? तो जैसे यह बीज है वैसे ही अनंत की हर चीज अनंत की खबर है। तो आप अपने को जन्मने मरनेवाला मत मानिये। जन्मने मरने वाले शरीर को जो सत्ता दे रहा है, आप उस चैतन्य को ‘मैं’ रूप में जानिये। इसलिए यह उपासना बताते हैं भगवान।

तो भगवान कहते हैं कि हृदय में मेरा ध्यान करे – चतुर्भुजी रूप का, द्विभुजी रूप का अथवा श्वास अंदर जाय तो उसको देखे, बाहर आये तो गिनती करे, इस प्रकार अंतरंग ध्यान करे। सुख आया, दुःख आया, काम आया, क्रोध आया… इनको देखे, इनके साथ जुड़े नहीं तो यह भी एक प्रकार की मेरी अंतरंग उपासना है। एक-से-एक प्रभावशाली उपासनाएँ हैं भगवान कीक।

ब्राह्मणः ब्राह्मणों में मेरी भावना करे, उनमें मेरे स्वरूप को देखे। जो सदाचारी, संयमी ब्राह्मण हैं, वे भगवत्स्वरूप हैं। जो ब्रह्म को जानने का यत्न करते हैं और जिनका खानपान, व्यवहार सात्त्विक है, ऐसे ब्राह्मण देवता में भी मेरा भाव करे और उनके सदगुण ले।

सदगुरुः आठवाँ पूजा स्थान बताते हुए भगवान बोलते हैं कि इन सब पूजाओं की पराकाष्ठा यह है कि जिन्होंने मुझ सच्चिदानंद को पाया है, जिनको मेरा साक्षात्कार हुआ है, अवतार लेकर जिनको मैं पूजता हूँ, ऐसे आत्मवेत्ता सद्गुरु तो मेरा स्वरूप ही हैं। सद्गुरु मेरे भी आदरणीय-पूजनीय होते हैं। मैं अवतार लेकर उनका चेला बनता हूँ। ऐसे सद्गुरु की आज्ञा में जिसने तन को, मन को, जीवन को लगा दिया, वह तो मेरे साथ एकाकारता कर लेता है।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान…

सदगुरु के वचन में शबरी लग गयी, पूरणपोड़ा लग गया और वे भगवान के साथ एकाकार हो गये। तारक सद्गुरु मिल गये तो आप सारी उपासनाओं की ऊँचाई पर आ जाओगे। संत कबीर जी कहते हैं-

सद्गुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।

‘मैं मराठा हूँ…. मैं माई हूँ…. मैं भाई हूँ… मैं दुःखी हूँ…. मैं सुखी हूँ…..’ यह भ्रम हो गया है। सुख-दुःख होते हैं मन को, मैं उनको जानने वाला हूँ। ऐसा दृश्य दिखे, ऐसा दिखे, ऐसा दिखे….’ वह तो मन को दिखेगा, तेरे को क्या मिलेगा ? तो कभी-कभी मान्यताएँ और सामाजिक वातावरण ऐसा हमको उलझा देता है कि लगता है भगवान को पाना बड़ा कठिन है।

लोग सोचते हैं कि ‘बापू जी ने बड़ी तपस्या की। महात्मा बुद्ध ने बड़ी तपस्या की।’ नहीं पता था इसलिए बड़ी गधा-मजदूरी की, इधर-उधर भटके थे, पता चला तो यूँ है। मेरे बड़े बापू (भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज) को जो मेहनत करनी पड़ी, उसका सौवाँ हिस्सा मुझे मेहनत करनी पड़ी। लेकिन फिर भी जो मुझे अनजाने में पापड़ बेलने पड़े, उसका हजारवाँ हिस्सा भी तुम्हें मेहनत नहीं करनी पड़ती और मौज मार रहे हो ! (सामने बैठे सत्संगियों से) तुम्हारे लिए क्या कठिन है ! अब यह सुन रहे हो इसमें क्या कठिन है ? सारी तपस्याओं से जो न मिले वह ऐसे ही मिल रहा है हँसते खेलते, सुनते।

हँसिबो खेलिबो धरिबो ध्यान, अहर्निश कथिबो ब्रह्मज्ञान।

खावे पीवे न करे मन भंगा, कहे नाथ मैं तिसके संगा।।

क्या कठिन है ? नहीं तो रावण सोने की लंका बनाने में सफल हो गया, हिरण्यकशिपु सोने का हिरण्यपुर बनाने में सफल हो गया, ऐसा उनका तप था लेकिन शरीर, मन और बुद्धि तक ही तो पहुँचे ! यह तपोमय बुद्धि, एकाग्रता तो उन्हें मिली किंतु स्वतःसिद्ध जो सुख है वह नहीं मिला। साठ हजार वर्ष तप करके जो पाया उसका आखिर नाश हो गया। अगर इन दोनों सज्जनों को साक्षात्कारी गुरु मिले होते और उनके नजरिये से चले होते तो साल-दो-साल में ऐसी चीज पाते कि जिसका कभी नाश नहीं हो सकता। सद्गुरु मिले तो चालीस दिनों में मैंने जो पाया है, उसका कभी नाश नहीं हो सकता। तो भगवान सद्गुरु की महिमा बताते हुए कहते हैं कि ऐसे सद्गुरु की आराधना, पूजा मेरी एकदम सीधी और सहजता में मेरी प्राप्ति कराने वाली पूजा है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 17-19 अंक 222

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