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Shastra Prasad

वसंत ऋतु में बीमारियों से सुरक्षा


वसंत ऋतु में शरीर में संचित कफ पिघल जाता है। अतः इस ऋतु में कफ बढ़ाने वाले पदार्थों के सेवन से बचना चाहिए। दिन में सोने से भी कफ बढ़ता है। इस ऋतु में नमक का कम उपयोग स्वास्थ्य के लिए हितकारी है। तुलसी पत्ते व गोमूत्र के सेवन एवं सूर्यस्नान से कफ का शमन होता है। मुँह में कफ आने पर उसे अंदर न निगलें। कफ निकालने के लिए जलनेति, गजकरणी का प्रयोग कर सकते हैं। (देखें आश्रम से प्रकाशित पुस्तक ‘योगासन’, पृष्ठ संख्या 43,44)
वसंत ऋतु में सर्दी-खांसी, गले की तकलीफ, दमा, बुखार, पाचन की गड़बड़ी, मंदाग्नि, उलटी दस्त आदि बीमारियाँ अधिकांशतः देखने को मिलती हैं। नीचे कुछ सरल घरेलु उपाय दिये जा रहे हैं, जिन्हें अपनाकर आसानी से इन रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है।
मंदाग्निः 10-10 ग्राम सोंठ, काली मिर्च, पीपर व सेंधा नमक – सभी को कूटकर चूर्ण बना लें। इसमें 400 ग्राम काली द्राक्ष (बीज निकाली हुई) मिलायें और चटनी की तरह पीस के काँच के बर्तन में भरकर रख दें। लगभग 5 ग्राम सुबह खाने से भूख खुलकर लगती है।
कफ, खाँसी और दमाः 4 चम्मच अडूसे के पत्तों के ताजे रस में 1 चम्मच शहद मिलाकर दिन में 2 बार खाली पेट लें। (रस के स्थान पर अडूसा अर्क समभाग पानी मिलाकर उपयोग कर सकते हैं। यह आश्रम व समितियों के सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध है।) खाँसी, दमा, क्षयरोग आदि कफजन्य तकलीफों में यह उपयोगी है। आश्रमनिर्मित गोझरण वटी की 2 से 4 गोलियाँ दिन में 2 बार पानी के साथ लेने से कफ का शमन होता है और कफ व वायु जन्य तकलीफों में लाभ होता है।
दस्तः इस्बगोल में दही मिलाकर लेने से लाभ होता है। अथवा मूँग की दाल की खिचड़ी में देशी घी अच्छी मात्रा में डालकर खाने से पानी जैसे पतले दस्त में फायदा होता है।
दमे का दौराः साँस फूलने पर 20 मि.ली. तिल का तेल गुनगुना करके पीने से तुरंत राहत मिलती है।
सरसों के तेल में थोड़ा सा कपूर मिलाकर पीठ पर मालिश करें। इससे बलगम पिघलकर बाहर आयेगा और साँस लेने में आसानी होती है।
उबलते हुए पानी में अजवायन डालकर भाप सुँघाने से श्वास-नलियाँ खुलती हैं और राहत मिलती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 30, अंक 267
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राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत भारतीय कालगणना


चैत्री नूतन वर्ष वि.सं. 2072 प्रारम्भः 21 मार्च
विक्रम संवत् भारतीय शौर्य, पराक्रम और अस्मिता का प्रतीक है। चैत्री नूतन वर्ष आने से पहले ही वृक्ष पल्लवित-पुष्पित, फलित होकर भूमंडल को सुसज्जित करने लगते हैं। यह बदलाव हमें नवीन परिवर्तन का आभास देने लगता है।
भारतीय कालगणना का महत्त्व
ग्रेगेरियन (अंग्रेजी) कैलेंडर की कालगणना मात्र दो हजार वर्षों के अति अल्प समय को दर्शाती है जबकि भारतीय कालगणना अति प्राचीन है। संवत्सर का उल्लेख ब्रह्माण्ड के सबसे प्राचीन ग्रन्थों में से एक यजुर्वेद के 27वें व 30वें अध्याय के मंत्र 45 व 15 में किया गया है।
भारतीय कालगणना मन-कल्पित नहीं है, यह खगोल सिद्धान्त व ब्रह्माण्ड के ग्रहों-नक्षत्रों की गति पर आधारित है। आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारम्भ होकर क्रमशः बुध, शुक्र, चन्द्र, मंगल, गुरु और शनि की है। सप्ताह के सात दिनों का नामकरण भी इसी आधार पर किया गया। विक्रम संवत में नक्षत्रों, ऋतुओं, मासों व दिवसों आदि का निर्धारण पूरी तरह प्रकृति पर आधारित ऋषि-विज्ञान द्वारा किया गया है।
इस वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्चात्य कालगणना के अनुसरण के बावजूद सांस्कृतिक पर्व-उत्सव, विवाह, मुण्डन आदि संस्कार एवं श्राद्ध, तर्पण आदि कर्मकाण्ड तथा महापुरुषों की जयंतियाँ व निर्वाण दिवस आदि आज भी भारतीय पंचांग-पद्धति के अनुसार ही मनाये जाते हैं।
विक्रम संवत् के स्मरणमात्र से राजा विक्रमादित्य और उनके विजय एवं स्वाभिमान की याद ताजा होती है, भारतीयों का सर गर्व से ऊँचा होता है जबकि अंग्रेजी नववर्ष का अपने देश की संस्कृति से कोई नाता नहीं है।
स्वामी विवेकानंद जी ने कहा थाः “यदि हमे गौरव से जीने का भाव जगाना है, अपने अंतर्मन में राष्ट्रभक्ति के बीज को पल्लवित करना है तो राष्ट्रीय तिथियों का आश्रय लेना होगा। गुलाम बनाये रखने वाले परकीयों के दिनांकों पर आश्रित रहने वाला अपना आत्म-गौरव खो बैठता है।”
महात्मा गाँधी ने अपनी हरिजन पत्रिका में लिखा थाः “स्वराज्य का अर्थ है – स्व-संस्कृति, स्वधर्म एवं स्व-परम्पराओं का हृदय से निर्वहन करना। पराया धन और परायी परम्परा को अपनाने वाला व्यक्ति न ईमानदार होता है, न आस्थावान।”
पूज्य बापू जी कहते हैं- “आप भारतीय संस्कृति के अनुसार भगवदभक्ति के गीत से ‘चैत्री नूतन वर्ष’ मनायें। आप सब अपने बच्चों तथा आसपास के वातावरण को भारतीय संस्कृति में मजबूत रखें। यह भी एक प्रकार की देशसेवा होगी, मानवता की सेवा होगी।”
इस दिन सामूहिक भजन संकीर्तन व प्रभातफेरी का आयोजन करें। भारतीय संस्कृति तथा गुरु ज्ञान से, महापुरुषों के ज्ञान से सभी का जीवन उन्नत हो। इस प्रकार एक दूसरे की बधाई संदेश देकर नववर्ष का स्वागत करें।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 10 अंक 267
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Rishi Prasad 267 Mar 2015

अब विज्ञान भी गा रहा है अध्यात्म की महिमा


यूएसए के ओहियो विश्वविद्यालय के एक अध्ययन से सामने आया है कि ‘जो लोग ईश्वरीय सत्ता को मानते हैं वे ज्यादा आश्वस्त और सुरक्षित रहते हैं। ऐसे लोगों का मनोबल सामान्य लोगों की तुलना में बढ़ जाता है और वे विपरीत परिस्थितियाँ तथा रोग का आक्रमण नास्तिक या कारणवादियों की तुलना में आसानी से झेल पाते हैं। अध्यात्म की शरण लेने से मनुष्य अपने को ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है। ‘ विश्वविद्यालय द्वारा तीन साल तक किये इस अध्ययन में 28 हजार लोगों में बीमार पाये गये 7 हजार से अधिक सदस्यों में 80 प्रतिशत संख्या नास्तिकों की थी। उन्हें मधुमेह, हृदयरोग, तनाव, अनियंत्रित रक्तचाप जैसे राजरोग थे।
हडर्सफील्ड विश्वविद्यालय (इंगलैण्ड) की वरिष्ठ व्याख्याता एवं उच्च परिचारक व्यवसायी मेलानी रॉजर्स का कहना हैः “अध्यात्म मरीजों और उपचारकों – दोनों के लिए जीवन का अर्थ और वास्तविक लक्ष्य की आवश्यकता बताकर उन्हें सँभाले रखने में मदद करता है। यह दोनों में समान रूप से प्रतिरोध-क्षमता को बढ़ाता है एवं मरीज के रूग्णता और संकट के समय के अनुभव को बेहतर करता है।” उसके अनुसार “कभी-कभी मरीज जीवन में आशा खो देते हैं। अध्यात्म मरीजों के ठीक होने में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बहुत से लोग अध्यात्म को अव्यवहारिक मानते हैं जबकि अध्यात्म बहुत ही व्यवहारिक है।”
जहाँ आधुनिक मशीनें, महँगी दवाएँ एवं बड़े-बड़े चिकित्सक हाथ खड़े कर देते हैं, ऐसी गम्भीर बीमारियों से पीड़ित लोग भी ईश्वर एवं ईश्वरप्राप्त महापुरुषों पर श्रद्धा-विश्वास करके मौत के मुँह से निकल आते हैं। ऐसे असंख्य लोगों के अनुभव हमें देखने-पढ़ने को मिलते रहते हैं।
आज विज्ञान भी मान रहा है कि अध्यात्म (ईश्वर एवं ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों) में आस्था-विश्वास रखने वाला व्यक्ति चिंता, तनाव, अशांति से बचकर स्वस्थ एवं सुखी जीवन जीता है पर अध्यात्म से जुड़ने के केवल इतने ही फायदे नहीं हैं। विज्ञान तो सिर्फ इसके स्थूल फायदों का ही हिसाब लगा सकता है, जो कि इससे होने वाले लाभों के सामने नगण्य है। अध्यात्म क्या है इसका वास्तविक अर्थ तो भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बताया है और अध्यात्म का रहस्य एवं पूरा फायदा तो अध्यात्म-तत्त्व (परमात्मा) का अनुभव किये हुए महापुरुषों के चरणों में जाने से ही पता चलता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैः
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैः विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।
‘जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्तिरूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्ण रूप से नष्ट हो गयी हैं – वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं।’ (गीताः 15.5)
वे सुख-दुःख में सम रहते हैं और अव्यय, अविनाशी पद को पाते हैं। जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो जाते हैं। स तृप्तो भवति। सः अमृतो भवति। स तरति लोकांस्तारयति। वे तृप्त होते हैं, अमृतमय होते हैं। वे तरते हैं, औरों को तारते हैं। अमृतमय आत्मा में एकाकार पुरुषों की उपलब्धि अदभुत है। उनकी कृपा से लोगों के शरीर व मन के रोग तो कुछ भी नहीं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार – ये रोग भी नियंत्रित हो जाते हैं और देर-सवेर परमात्म-पद को पाकर वे अध्यात्म-तत्त्व में, परमात्मस्वरूप में स्थित हो जाते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 27 अंक 267
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