उत्तम शिष्य तो आध्यात्मिक प्रश्न करने की जरूरत ही नहीं समझता है, गुरु के उपदेश मात्र से, विवेक से ही उसको ज्ञान हो जाता है। मध्यम शिष्य कभी-कभार साधन-विषय का प्रश्न पूछकर बात को पा लेता है, समझ लेता है और तीसरे नम्बर का जो शिष्य है उसको बहुत सारे साधन-भजन की आवश्यकता पड़ती है। और जिसमें शिष्यत्व ही नहीं है, वह चाहे कितना बड़ा भारी तपस्वी हो, बड़ा दिखता हो लेकिन अंदर का दीया जलाने का उसके पास तेल नहीं, बत्ती नहीं।
शिष्य होने के लिए चार शर्तें
शिष्य होने के लिए चार शर्तें हैं। इन शर्तों पर खरा उतरने वाला आदमी ही शिष्य हो सकता है, दूसरा नहीं। विद्या का अभिमान, धन का अभिमान, सत्ता का अभिमान, सौंदर्य आदि या अपनी विशेषता का कोई अभिमान – ये चार अभिमान अगर रहेंगे, चार में से एक भी रहेगा अथवा तो उनका कोई अंश भी रहेगा तो श्रद्धा टिकेगी नहीं। रामकृष्ण परमहंस से विवेकानंद जी ज्यादा पढ़े थे लेकिन विवेकानंद विद्या का अभिमान लेकर बैठे रहते तो रामकृष्ण की कृपा नहीं पा सकते थे। राजा जनक के पास धन और सत्ता थी, अगर उसका अंशमात्र भी अभिमान रहता हो जनक अष्टावक्रजी के इतने समर्पित शिष्य नहीं हो सकते थे।
सदगुरु को पाना, यह तो सौभाग्य है लेकिन उनमें श्रद्धा टिकी रहना, यह तो परम सौभाग्य है। कभी-कभार तो नजदीक रहने से उनमें देहाध्यास दिखेगा, श्रद्धा डगमगायेगी, गुरु का शरीर दिखेगा लेकिन ‘शरीर होते हुए भी वे अशरीरी आत्मा हैं’ इस प्रकार का भाव दृढ़ होगा तब श्रद्धा टिकेगी नहीं, नहीं तो अपनी मति-गति के अनुसार गुरु के व्यवहार को तौलेगा। जब रजोगुण होगा तो गुरु को कुछ सोचेगा कि ‘ये तो ऐसे हैं।’ सत्वगुण होगा तो लगेगा कि ‘देव हैं, ब्रह्म हैं।’
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2015, पृष्ठ संख्या 28, अंक 270
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Shastra Prasad
संकल्पशक्ति से सब सम्भव है – पूज्य बापू जी
संकल्प में बड़ी शक्ति होती है और अभी का संकल्प अभी भी फलित हो सकता है, दो दिन, दस दिन, सौ दिन या सौ साल के बाद भी फलित हो सकता है। संकल्पों की ही दुनिया है।
एक बार गुरु ने शिष्यों से पूछाः “सबसे ज्यादा ठोस क्या चीज है ?”
एक शिष्य ने कहाः पत्थर। दूसरे ने कहाः लोहा। तीसरे ने कुछ और कहा।
गुरु ने कहाः “सबसे ठोस, शक्तिशाली है ‘संकल्प’, जो पत्थरों को चूर कर दे, लोहे को पिघला दे और परिस्थितियों को बदल दे।”
तो ठोस में ठोस है संकल्प और उसका अधिष्ठान है सबसे ठोस ‘आत्मा-परमात्मा’। परमात्मा सत्य-संकल्प है तो वहाँ ठहरकर आप परमात्मा की जागृत अवस्था में अनजाने में आ जाते हैं। प्रार्थना करते-करते शांत होते हैं तो पूर्ण अवस्था की कुछ घड़ी आती है, उस समय प्रार्थना फलती है, संकल्प फलता है
एक बार सूरत में, मैं सुबह टहलने के लिए पैदल जा रहा था तो वहाँ से कोई मुल्ला जी स्कूटर से बड़ी फुर्ती से गुजरा। वह निकल तो गया लेकिन एक बार उसने मेरी तरफ देखा और फिर दौड़ाया स्कूटर। मैंने सोचा कि ‘इसका कुछ तो भला होना चाहिए। एक बार भी दर्शन किया तो खाली क्यों जाय ?’
मैंने उसे आवाज तो नहीं लगायी पर अंदर से कहा कि ‘ठहर जा, ठहर जा…’ तो टायर पंक्चर हो गया। फिर वह पीछे देखता रहा। मैं तो पैदल घूमने चला गया।
फिर मैं वहाँ से वापस गुजरा तो उसने कहाः “महाराज ! कहाँ जा रहे हो।” इतने में मेरी गाड़ी आ गयी। मैं गाड़ी से उसको ‘समता साम्राज्य’ व ब्रह्मचर्य की पुस्तक दी और प्रसादरूप में केले देकर कहाः “बस अब जा सकते हो।”
वह बोलाः “अच्छा, खुदा हाफिज !” और मुझे देखता रह गया।
तात्पर्य यह है कि यदि तुम्हारे हृदय में शुद्धता है, अंतःकरण स्वच्छ है, प्रेम है तो तुम्हारे संकल्प के अनुसार घटनाएँ घटती हैं। जैसे शबरी के जीवन में प्रेम था, हृदय शुद्ध था तो राम जी ने आकर उसके बेर ही माँगे। रामजी को भूख लगी थी अथवा राम जी को बेर खाने का शौक था ? नहीं, शबरी का संकल्प राम जी के द्वारा क्रियान्वित हो रहा था। ऐसे ही श्रीकृष्ण के लिए कौरवों ने बड़ी व्यवस्था की थी भोजन-छाजन की, श्रीकृष्ण वहाँ नहीं गये और विदुरजी की पत्नी – काकी के यहाँ गये। और वह काकी भी सचमुच भोली-भाली थी !
विदुरजी ने कहाः “केले तैयार करके रखना।” अब छिलके गाय को देने हैं और केले रखने हैं लेकिन वह पगली छिलके-छिलके रखती जाती है और केले-केले गाय को देती जाती है। गाय तो केले स्वाहा कर गयी। अब कृष्ण आयेः “काकी ! बहुत भूख लगी है।” तो उसने छिलकों का थाल रख दिया। उसको पता ही नहीं कि मैं क्या रख रही हूँ ! और भगवान श्रीकृष्ण ने केले के छिलके खाये। ‘श्रीकृष्ण आयेंगे, खायेंगे, खायेंगे…..’ इतनी तीव्रता थी और संकल्प था तो श्रीकृष्ण आये और उसके द्वारा भाव-भाव में अर्पण किये गये छिलके तक खाये।
संकल्पशक्ति क्या नहीं कर सकती ! इसलिए आप हमेशा ऊँचे संकल्प करो और उनको सिद्ध करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ में लग जाओ। अपने संकल्प को ठंडा मत होने दो, अन्यथा दूसरों के संकल्प तुम्हारे मन पर हावी हो जायेंगे और कार्यसिद्धि का मार्ग रूँध जायेगा। तुम स्वयं सिद्धि का खजाना हो। सामर्थ्य की कुंजी तुम्हारे पास ही है। अपने मन को मजबूत बना तो तुम पूर्णरूपेण मजबूत हो। हिम्मत, दृढ़ संकल्प और प्रबल पुरुषार्थ से ऐसा कोई ध्येय नहीं है जो सिद्ध न हो सके। तुम्हारे संकल्प में अथाह सामर्थ्य है। जितना तुम्हारा संकल्प में अथाह सामर्थ्य है। जितना तुम्हारा संकल्प सात्त्विक होगा और जितनी तुम्हारी श्रद्धा अडोल होगी तथा जितनी तुम्हारी तीव्रता होगी, उतना वह फलित होगा।
व्यर्थ के संकल्पों को कैसे दूर करें ?
व्यर्थ के संकल्प न करें। व्यर्थ के संकल्पों से बचने के लिए ‘हरि ॐ…’ के प्लुत गुंजन का भी प्रयोग किया जा सकता है। ‘हरि ॐ…..’ का गुंजन करें फिर शांत हो जायें। मन इधर-उधर भागे तो फिर गुंजन करें। यह व्यर्थ संकल्पों को हटायेगा एवं महासंकल्प की पूर्ति में मददरूप होगा। व्यर्थ के चिंतन को व्यर्थ समझकर महत्त्व मत दो।
पवित्र स्थान में किया हुआ संकल्प जल्दी फलता है। जहाँ सत्संग होता हो, हरि चर्चा होती हो, हरि कीर्तन होता हो वहाँ अगर शुभ संकल्प किया जाय तो जल्दी सिद्ध होता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 14,15 अंकः 268
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समस्या बाहर, समाधान भीतर
एक राजा बड़ा सनकी था। एक बार सूर्यग्रहण हुआ तो उसने राजपंडितों से पूछाः “सूर्यग्रहण क्यों होता है ?”
पंडित बोलेः “राहू के सूर्य को ग्रसने से।”
“राहू क्यों और कैसे ग्रसता है ? बाद में सूर्य कैसे छूटता है ?” जब उसे इन प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर नहीं मिले तो उसने आदेश दियाः “हम खुद सूर्य तक पहुँचकर सच्चाई पता करेंगे। एक हजार घोड़े और घुड़सवार तैयार किये जायें।”
राजा की इस बिना सिर-पैर की बात का विरोध कौन करे ? उसका वफादार मंत्रि भी चिंतित हुआ। मंत्री का बेटा था वज्रसुमन। उसे छोटी उम्र में ही सारस्वत्य मंत्र मिल गया था, जिसका वह नित्य श्रद्धापूर्वक जप करता था। गुरुकुल में मिले संस्कारों, मौन व एकांत के अवलम्बन से तथा नित्य ईश्वरोपासना से उसकी मति इतनी सूक्ष्म हो गयी थी मानो दूसरा बीरबल हो।
वज्रसुमन को जब पिता की चिंता का कारण पता चला तो उसने कहाः “पिता जी ! मैं भी आपके साथ यात्रा पर चलूँगा।”
पिताः “बेटा ! राजा की आज्ञा नहीं है। तू अभी छोटा है।”
“नहीं पिता जी ! पुरुषार्थ व विवेक उम्र के मोहताज नहीं हैं। मुसीबतों का सामना बुद्धि से किया जाता है, उम्र से नहीं। मैं राजा को आने वाली विपदा से बचाकर ऐसी सीख दूँगा जिससे वह दुबारा कभी सनकभरी आज्ञा नहीं देगा।”
मंत्रीः “अच्छा ठीक है पर जब सभी आगे निकल जायें, तब तू धीरे से पीछे-पीछे आना।”
राजा सैनिकों के साथ निकल पड़ा। चलते-चलते काफिला एक घने जंगल में फँस गया। तीन दिन बीत गये। भूखे प्यासे सैनिकों और राजा को अब मौत सामने दिखने लगी। हताश होकर राजा ने कहाः “सौ गुनाह माफ हैं, किसी के पास कोई उपाय हो तो बताओ।”
मंत्रीः “महाराज ! इस काफिले में मेरा बेटा भी है। उसके पास इस समस्या का हल है। आपकी आज्ञा हो तो….”
“हाँ-हाँ, तुरंत बुलाओ उसे।”
वज्रसुमन बोलाः “महाराज ! मुझे पहले से पता था कि हम लोग रास्ता भटक जायेंगे, इसीलिए मैं अपनी प्रिय घोड़ी को साथ लाया हूँ। इसका दूध-पीता बच्चा घर पर है। जैसे ही मैं इसे लगाम से मुक्त करूँगा, वैसे ही यह सीधे अपने बच्चे से मिलने के लिए भागेगी और हमें रास्ता मिल जायेगा।” ऐसा ही हुआ और सब लोग सकुशल राज्य में पहुँच गये।
राजा ने पूछाः “वज्रसुमन ! तुमको कैसे पता था कि हम राह भटक जायेंगे और घोड़ी को रास्ता पता है ? यह युक्ति तुम्हें कैसे सूझी ?”
“राजन् ! सूर्य हमसे करोड़ों कोस दूर है और कोई भी रास्ता सूरज तक नहीं जाता। अतः कहीं न कहीं फँसना स्वाभाविक था।
दूसरा, पशुओं को परमात्मा ने यह योग्यता दी है कि वे कैसी भी अनजान राह में हों उन्हें अपने घर का रास्ता ज्ञात होता है। यह मैंने सत्संग में सुना था।
तीसरा, समस्या बाहर होती है, समाधान भीतर होता है। जहाँ बड़ी-बड़ी बुद्धियाँ काम करना बंद करती हैं वहाँ गुरु का ज्ञान, ध्यान व सुमिरन राह दिखाता है। आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ ?”
“बिल्कुल निःसंकोच कहो।”
“यदि आप ब्रह्मज्ञानियों का सत्संग सुनते, उनके मार्गदर्शन में चलते तो ऐसा कदम कभी नहीं उठाते। अगर राजा सत्संगी होगा तो प्रजा भी उसका अनुसरण करेगी और उन्नत होगी, जिससे राज्य में सुख-शांति और समृद्धि बढ़ेगी।”
राजा उसकी बातों से बहुत प्रभावित हुआ, बोलाः “मैं तुम्हें एक हजार स्वर्ण मोहरें पुरस्कार में देता हूँ और आज से अपना सलाहकार मंत्री नियुक्त करता हूँ। अब मैं भी तुम्हारे गुरु जी के सत्संग में जाऊँगा, उनकी शिक्षा को जीवन में लाऊँगा।” इस प्रकार एक सत्संगी किशोर की सूझबूझ के कारण पूरे राज्य में अमन चैन और खुशहाली छा गयी।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 15 अंक 267
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