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सबसे सरल और सबसे सरस


जिसकी भगवन्नाम में निष्ठा हो गयी, उसके लिए संसार में क्या काम बाकी रहा ? भगवन्नाम के अभ्यास से वह मधुर लगने लगेगा। भगवन्नाम का महत्त्व समझते पर स्वतः ही हर समय जप होने लगेगा। फिर तो एक मिनट भी व्यर्थ करना बुरा लगेगा।
पहले कुछ समय भजन-कीर्तनादि करना चाहिए और थोड़ी देर गुणानुवाद करना चाहिए। इससे भजन में मन लग जायेगा। संत और भगवान के गुणानुवाद में कर्मकांड की तरह आचार-विचार का कोई नियम नहीं है। गोपियाँ तो गौ दुहते, झाड़ू लगाते, दही मथते तथा हर एक काम करते हुए श्रीकृष्ण का गुणगान किया करती थीं। संतों एवं शास्त्रों ने ध्यानसहित भगवन्नाम-जप की महिमा गाकर संसार का बड़ा उपकार किया है क्योंकि सब लोग जप के साथ ध्यान नहीं करते। अतः ध्यान के बिना उन्हें विशेष लाभ भी नहीं होता। लोभी की भाँति भगवन्नाम अधिकाधिक मात्रा में जपना चाहिए और कामी की भाँति निरन्तर स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।
भगवान से भगवन्नाम अलग है परंतु भगवन्नाम से भगवान अलग नहीं। नाम के अंदर भगवान हैं। सर्वदा भगवान का चिंतन करना चाहिए।
जो जितना अधिक प्रीतिपूर्वक एवं श्रद्धा से जप करेगा, उसे उतनी शीघ्र सिद्धि मिलेगी। गुरुमंत्र की रोज कम-से-कम 11 माला तो करनी ही चाहिए और जितना अधिक से अधिक जप कर सकें करना चाहिए। गुरुमंत्र नहीं लिया तो जिस मंत्र में प्रीति हो, उस मंत्र का जप करना चाहिए। शीघ्र तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति का उपाय है आत्मज्ञानी सदगुरु की प्राप्ति। आत्मज्ञानी सदगुरु मिल जाने से साधक को शीघ्र ही सिद्धि हो जाती है। सदगुरु जो नियम बतायें उन्हीं का पालन करें। अधिक जप करने से शरीर के परमाणु मंत्राकार हो जाते हैं। भगवन्नाम स्मरण करने के लिए शुचि-अशुचि, सुसमय-कुसमय और सुस्थान-कुस्थान का विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को पवित्र करने वाली चीज है जप। यदि एक आसन से जप किया जाय तो बहुत अच्छा है। पापकर्मों को ध्वंस करने के लिए जप करने की आवश्यकता है। देहनाशपर्यंत इसे तत्परता से करते रहना चाहिए। मन भागता रहे तो भी कोई चिंता नहीं किंतु नियमपूर्वक चिंतन की प्रतिज्ञा करनी ही चाहिए। पुनः-पुनः चिंतन करने को ही अभ्यास कहते हैं और यही पुरुषार्थ है। भगवान उन्हीं पर दया करते हैं जो उनका चिंतन करते हैं। जिस प्रकार से भगवान में मन लगे वही करना चाहिए। जप में मन कम लगे तो कीर्तन करें या स्तोत्र-पाठ अथवा स्तुतिपरक पदों का गान करें।
यह निश्चय कर लेना चाहिए कि मैं भगवन्नाम जप, नियम अवश्य करूँगा। इस प्रकार प्रतिज्ञा करने से भजन होगा। भजन तो हठपूर्वक भी करना चाहिए। जप करते हुए मन भटके तो भटकने दो। जप में इतनी शक्ति है कि वह अधिक होने से अपने-आप मन को एकाग्र करने में सहायता करेगा। नित्यप्रति साधन करने की प्रतिज्ञा कर ली जाय तो इससे बड़ा लाभ होगा। यदि लाभ न भी दिखे तो भी कोई हर्ज नहीं, कभी-न-कभी तो आत्मानंद आयेगा ही। जब पास बैठने से ही दूसरे व्यक्ति की जप में प्रवृत्ति होने लगे, तब समझो कि जापक का नाम-जप सिद्ध हुआ। जप किये बिना रहा न जाय, यहाँ तक कि जप पूरा न होने पर खाना पीना भी अच्छा न लगे तब समझो कि जप सिद्ध हुआ है। इसी को जप निष्ठा कहते हैं। जप के समय ये चार काम नहीं करने चाहिएः बोलना, इधर-उधर देखना, सिर या गर्दन हिलाना, हँसना। भगवान के मंगलमय नाम उच्चारण करने से करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। भक्त से कोई अपराध (पाप) हो जाय तो उसे शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं है, वह केवल जप से ही दूर हो जायेगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 21,22 अंक 275
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Rishi Prasad 268 Apr 2015

सफलता के लिए आध्यात्मिकता जरूरी


यूरोप में विश्वविद्यालय का एक छात्र रेलगाड़ी में यात्रा कर रहा था। पास में बैठे एक बुजुर्ग व्यक्ति को माला से भगवत्स्मरण करते देख उसने कहाः महाशय ! इन पुराने रीति-रिवाजों को आप भी मानते हैं ?”
बुजुर्गः “हाँ, मानता हूँ। क्या तुम नहीं मानते ?”
छात्र हँसा और अभिमानपूर्वक बोलाः “मुझे इन वाहियात बातों पर बिल्कुल विश्वास नहीं। फेंक दो आप गोमुखी और माला को तथा इस विषय में विज्ञान क्या कहता है समझो।”
“विज्ञान ! मैं विज्ञान को नहीं समझता। शायद आप समझा सको मुझे।” आँखों में आँसू भरकर दीनतापूर्वक उस बुजुर्ग ने कहा।
“आप मुझे अपना पता दे दें। मैं इस विषय से संबंधित कुछ वैज्ञानिक साहित्य भेज दूँगा।”
बुजुर्ग ने अपना परिचय पत्र निकालकर उस छात्र को दिया। छात्र ने परिचय पत्र को सरसरी नजर से देख अपना सिर शर्म से झुका लिया। उस पर लिखा था – लुई पाश्चर, डायरेक्टर, वैज्ञानिक अनुसंधान, पेरिस’।
लुई पाश्चर फ्रांस के विश्वप्रसिद्ध सूक्ष्मजीव विज्ञानी तथा रसायनयज्ञ थे। विश्वभर में बड़े पैमाने पर उपयोग में लायी जाने वाली ‘पाश्चराइजेशन’ की विधि इन्होंने ही खोजी थी। साथ ही इन्होंने कई लाइलाज रोगों से बचाने वाले टीकों (वैक्सीन्स) की भी खोज की थी।
नोबल पुरस्कार विजेता आइंस्टीन ने भी भारत के ऋषियों द्वारा बतायी गयी साधना-पद्धति को अपनाकर विज्ञान के क्षेत्र में कई अनुसंधान किये। 2007 में नोबल शांति पुरस्कार जीतने वाली IPCC टीम के सदस्य व कई पुरस्कारों से सम्मानित अमित गर्ग, जो भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद (IIMA) में प्रोफेसर हैं, वे कहते हैं- “गुरुमंत्र के नियमित जप से मुझे आध्यात्मिक और सांसारिक हर क्षेत्र में अच्छी सफलता मिली। पूज्य गुरुदेव संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग से मुझे अपने मैनेजमेंट विषय तथा शोध के बारे में अंतर्दृष्टि और महत्त्वपूर्ण संकेत मिलते हैं, जिनका समुचित उपयोग मैं सफलतापूर्वक अपनी कक्षा में तथा अनुसंधान के कार्यों में करता हूँ।”
2014 में इंडियन कैमिकल्स सोसायटी की तरफ से युवा वैज्ञानिक पुरस्कार पाने वाले पूज्य बापू जी से दीक्षित अरविंद कुमार साहू कहते हैं-
“मंत्रजप से मेरी स्मरणशक्ति और बौद्धिक क्षमता में अद्भुत विकास हुआ। पूज्य गुरुदेव ने एक सत्संग कार्यक्रम में मुझे वैज्ञानिक बनने का आशीर्वाद दिया। गुरुदेव के सान्निध्य में आने व सेवा करने से मेरे जीवन में सदगुणों एवं ज्ञान का खूब-खूब विकास हुआ है।”
‘नेशनल रिसर्च डेवलपमेंट कॉरपोरेशन’ के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित युवा वैज्ञानिक एवं वैश्विक स्तर पर ख्यातिप्राप्त फिजियोथेरेपिस्ट डॉ. राहुल कत्याल कहते हैं- “पूज्य बापू जी से प्राप्त सारस्वत्य मंत्रदीक्षा प्रतिभा-विकास की कुंजी है।”
कनाडा के ‘नासा’ वैज्ञानिक नोर्म बर्नेंस व ईरान के विख्यात फिजीशियन श्री बबाक अग्रानी भी पूज्य बापू जी के सान्निध्य में आध्यात्मिक अनुभूतियाँ पाकर गदगद हो उठे थे।
भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि से सच्चा सुख, शांति नहीं मिल सकती है। आध्यात्मिक उन्नति से ही व्यक्तिगत जीवन का सम्पूर्ण विकास हो सकता है। सर्वांगीण उन्नति के लिए सत्संग, सद्भाव, संयम-सदाचार, सच्चाई आदि सदगुणों की आवश्यकता है। आध्यात्मिकता सभी सफलताओं की जननी है। आध्यात्मिक पथ पर चलने से सफलता के लिए आवश्यक सभी गुण जैसे – ईमानदारी, एकाग्रता, अनासक्ति, उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति, पराक्रम आदि सहज में मानव के स्वभाव में आ जाते हैं। जिन्होंने भी स्थायी सफलताएँ पायी हैं, उसका कारण उनके द्वारा आध्यात्मकिता में की गयी गहन यात्रा ही है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 23, अंक 268
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भवसिंधु पार उतारणहारः भगवन्नाम


ऋगवेद (4.1.1) में आता हैः
अमर्त्यं यजत मर्त्येषु।
‘हे विद्वान लोगो ! मरणधर्मवालों में मरणधर्म से रहित परमात्मा की पूजा करो।’
मरने वाले मनुष्य-शरीर के प्रस्थान की कोई निश्चित घड़ी, क्षण नहीं है। उसके समुद्धार के लिए कलियुग में भगवन्नाम ही एकमात्र उत्तम आधार है।
नामु सप्रेम जपत अनायासा।
यह सप्रेम नाम-जप इस कलियुग में अनायास साधन है। इसकी साधना में कोई विशेष आडम्बर, विधि-विधान या साधनों की आवश्यकता नहीं है। यह ऐसा रस है कि जितना चखो उतना ही दिव्य व मधुर लगता है। यह नाम-प्रेम ऐसा है कि पीने से तृप्ति नहीं होती, प्यास और बढ़ती है। पीने से आनंद होता है और अधिकाधिक पीने की लालसा उत्कट होती जाती है। ऐसा कौन पुण्यात्मा बुद्धिमान होगा जो ऐसे द्विगुण नाम-रस को छोड़ कर संसार के रस, जो कि इसकी तुलना में सदैव फीके हैं एवं उनके चखने से ही शक्ति का क्षय, रोग, पराधीनता और जड़ता अवश्यंभावी है, ऐसे नश्वर भोगसुख, वासना विकारों में लिप्त होगा ?
भगवन्नाम-कीर्तन, भगवत्स्मृति, भगवद्शांति, भगवद्-आनंद से भक्त और भगवान दोनों एक हो जाते हैं, भक्त ब्रह्ममय हो जाता है। भगवान कहते हैं कि ‘त्रिभुवन की लक्ष्मी, भोग, मान, यश आदि सुखों को नीरस गिनने वाले जो भक्त मेरा कीर्तन करते हुए नृत्य करते हैं उनके द्वारा मैं खरीदा गया हूँ।’
भगवान देवर्षि नारद जी से कहते हैं-
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वै।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।। (पद्म पुराण, उ. खंड. 94.23)
हे नारद ! मैं कभी वैकुण्ठ में भी नहीं रहता, योगियों के हृदय का भी उल्लंघन कर जाता हूँ परन्तु जहाँ मेरे प्रेमी भक्त मेरे गुणों का गान करते हैं, वहाँ मैं अवश्य रहता हूँ।
ऐसे भगवान को वश में करने वाले ईश्वर-प्रेमी भगवदगुण-नाम कीर्तन करके भगवान में अखण्ड स्थिति प्राप्त कर लेते हैं। भगवान गुण, रूप, माधुर्य, तेज, सुख, दया, करुणा, सौहार्द, क्षमा और प्रेम के सागर हैं। जगत में कहीं भी, इनमें से किसी भी गुण का कोई भी अंश दिखने में आता है तो वह सारा का सारा परमेश्वर के उस अनंत भण्डार में से ही आता है। भगवन्नाम-कीर्तन करने वाले भक्त अनंत सुखराशि, आनंदघन भगवान के हृदय के साथ अपना ताल मिला लेते हैं, भगवान के हृदय के साथ अपना हृदय मिला लेते हैं। दुनियावी लोगों के लिए जो दुःखालय है, वही संसार भगवान के प्यारे के लिए भगवान की लीलाकृतिस्वरूप सुखालय बन जाता है। उसकी हर एक रचना भक्त को भगवान की स्मृति कराती है। स्वर और व्यञ्जन उसके शब्दब्रह्म बन जाते है। उसे दृश्यमात्र में भगवान की अलौकिक आभा, ज्योतिपुंज दिखाई देता है।
धन्य है ऐसे भक्त, जिन्होंने भक्ति के साथ संयम और तत्परता से भुवनों को पावन कर दिया और अपने ब्रह्म स्वभाव में, ‘सोऽहम्’ स्वभाव में सजग हो गये !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 21 अंक 267
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