(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
जप
करने से वायुमंडल में एक प्रकार का भगवदीय रस, भगवदीय आनंद व सात्त्विकता का संचार
होता है, जो आज के वातावरण में विद्यमान वैचारिक प्रदूषण को दूर करता है ।
भगवन्नाम-जप के प्रभाव से दिव्य रक्षा-कवच बनता है, जो जापक को विभिन्न हलके
तत्त्वों से बचाकर आध्यात्मिक व भौतिक उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करता है ।
गुरु
के द्वारा मंत्र मिल गया तो आपकी आधी साधना तो दीक्षा के प्रभाव से ही हो गयी और
पूर्वकृत पाप तथा पूर्वकृत गंदी आदतें दुबारा नहीं दुहरायें तो पहले के पाप क्षम्य
हो जाते हैं और आप निर्दोष हो जाते हैं । ज्यों-ज्यों जप बढ़ेगा त्यों-त्यों पाप
नष्ट होंगे लेकिन कोई भयंकर महापाप है तो ज्यादा जप-अनुष्ठान करने की आवश्यकता होती
है ।
भगवान
आद्य शंकराचार्य के संप्रदाय में बहुत बड़े विद्वान हो गये विद्यारण्य स्वामी ।
उनको गुरुमंत्र मिला और गुरु ने कहा कि ‘अनुष्ठान करो ।’
एक
अक्षर का मंत्र हो तो 1,11,110 जप और उससे अधिक अक्षरों के मंत्र के लिए मंत्र में
जितने अक्षर है उतने गुना (जैसे तीन अक्षर के मंत्र हेतुः 1,11,110×3) जप करने से इष्टमंत्र
सिद्ध होता है । ऐसे अनुष्ठान से अनिष्ट छू हो जाते हैं और जिस देव का मंत्र है वह
देव प्रकट भी हो जाता है । विद्यारण्य स्वामी ने एक अनुष्ठान किया, दो, तीन, चार,
पाँच, छः….. ऐसा करते-करते अनेक अनुष्ठान हो गये । देखा कि अभी तक इष्टदेवता माँ
भगवती प्रकट नहीं हईं, कुछ चमत्कार नहीं हुआ । ‘यह सब ढकोसला (पाखण्ड) है, मैं नाहक इसमें फँसा ।’ – ऐसा विचार आया । तो एकांत जगह में जहाँ कुटिया बना के वे
रह रहे थे, वहाँ लकड़ियाँ इकट्ठी कीं और अग्नि प्रज्वलित करके धार्मिक पुस्तकें,
पूजा-पाठ की सामग्री, माला, गौमुखी आदि सब अग्निदेवता में स्वाहा कर दिया ।
जब अग्नि भभक-भभककर सबको स्वाहा कर रही थी, उतने
में एक दिव्य आभासम्पन्न महिला वहाँ प्रकट हो गयीं और विद्यारण्य स्वामी को कहने
लगीं- “यह तुम क्या कर रहे
हो ?”
बोलेः “माता जी ! यह सब जप-वप ढकोसला है । मैंने अनेक अनुष्ठान किये, मंत्रजप
से कुछ नहीं होता । अब मैं लोगों में प्रचार करूँगा कि धार्मिक बनके समय बर्बाद मत
करो । मैं नास्तिकवाद का प्रचार करूँगा । ईश्वर जैसी कोई चीज नहीं, मंत्र-यंत्र ये
सब फालतू बाते हैं ।”
देवी ने कहाः “अच्छा ! तुम्हें जो करना है करो लेकिन पीछे मुड़के भी तो जरा देखो ।”
विद्यारण्य स्वामी ने देखा कि जैसे आगे अग्नि जल
रही है, वैसे ही पीछे भी भभक-भभक करके लपटें दिख रही हैं और उनमें धड़ाक-धड़ाक
करके ऊपर से बड़े-बड़े पहाड़ जैसे पत्थर गिर कर फूट रहे हैं । पहला, दूसरा, तीसरा,
चौथा…. ऐसा करके अनेक पत्थर भयंकर ध्वनि करते हुए उस अग्नि में नष्ट हो गये । वे
चकित होकर सोचने लगे कि ‘यह मैं क्या देख रहा
हूँ ! जिन देवी ने मुझसे कहा था वे
इस रहस्य को जरूर जानती होंगी ।’
पीछे मुड़कर देखा तो देवी हैं नहीं ! वे कहाँ गयीं ? युवक थे, वन में इधर-उधर जरा आपाधापी की, पुकार लगायीः “हे मातेश्वरी ! देवेश्वरि !! हे विश्वेश्वरि !!! कृपा करो । आप आयीं थीं, अब अदृश्य हो गयी हो । मैं नहीं जानता
वास्तव में आप कौन हो ? मेरा मार्गदर्शन करो
।”
आकाशवाणी हुई कि “तुमने तो धर्म का आश्रय, जप का आश्रय, गुरु आज्ञा का आश्रय
छोड़ दिया, अब तुम अनाथ हो । जाओ भटको, मनमानी करो । कई अनाथ भटक रहे हैं और मरने
के बाद माँ का गर्भ नहीं मिलने पर तो नाली में बह रहे हैं । ऐसे ही तुम भी जाओ,
जैसा भी करना है करो । सूर्य नहीं है ऐसा प्रचार करने से क्या सूर्य का अस्तित्व
मिट जायेगा ? ईश्वर नहीं है ऐसा प्रचार
करने से क्या ईश्वर मिट जायेगा ?”
“माता जी ! यह मैंने क्या देखा कि अनेक बड़े भयंकर पत्थर अग्नि में जलकर
नष्ट हो गये !”
देवी बोलीः “तुम्हारे पूर्वजन्मों के जो भयंकर महापातक थे, वे एक-एक करके
अनुष्ठानों से नष्ट हुए ।”
“माता जी ! कृपा करो, मार्गदर्शन दो ।”
देवी बोलीं- “मार्गदर्शक गुरु के मत्र का तुमने अनादर किया । उन गुरु की
पूजा-प्रार्थना करके उनसे क्षमायाचना करो
। गुरु के स्पर्श अथवा गुरु के दिये हुए मंत्र को और माला को अपना कल्याण करने
वाला परम साधन मानकर फिर से जप-अनुष्ठान करोगे तो तुम्हें सिद्धियाँ मिलेंगी ।”
विद्यारण्य स्वामी ने रोते हुए गुरु के चरणों में
गिर कर यह सारी घटना सुनायी । कृपालु गुरु ने उन्हें पुनः माला, ग्रंथ आदि दे दिया
और कहा कि “अब एक ही अनुष्ठान से
तुम सफल हो जाओगे ।”
उन्होंने ऐसा ही किया और इतने बड़े सिद्ध हुए कि
उन्होंने ग्रंथ रचा और उस ग्रंथ से मुझे (पूज्य बापू जी को) परमात्मा की प्राप्ति
हुई ।
जैसे श्रीकृष्ण की गीता से अर्जुन को तत्त्व
प्रसादजा मिल गयी, ऐसे ही गुरुमंत्र के प्रभाव से उन महापुरुष की जो पूर्वजन्मों
के महापातकों की भयँकर कालिमाएँ थी, वे नष्ट हुईं और उन्हे तत्त्वज्ञान, तत्त्व
प्रसादजा बुद्धि मिली । उन्होंने पंचदशी नामक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा । वेदांत के
साधक और ज्ञानमार्ग की साधना करने वाले सभी संत-महात्मा और भक्त उस ग्रंथ से
परिचित हैं ।
तो जप करते हैं और कुछ धड़ाक-से हो जाय, ऐसा नहीं होता । जप के प्रभाव से पहले तन की शुद्धि, मन की शुद्धि और पूर्वकर्मों की शुद्धि होती है और जब वह कर्जा निपट जाय तब जमा होगा न ! बैंक बैलेंस कब होगा ? ‘मैंने रोज दो सौ, पाँच सौ, हजार रूपये बैंक में दिये, अभी तक मेरे एक लाख रूपये हुए नहीं !…’ अरे बुद्धू जी ! साढ़े तीन लाख पहले के बैंक के तुम्हारे ऊपर बाकी थे, वही अभी जमा होने में पचीस हजार हुए । तेरा जमा कैसे होगा ? पहले कर्जा पूरा होगा तबह जमा होगा न बेटे ! पहले कर्जा पूरा होगा तब जमा होगा न बेटे ! ऐसे ही जप से पातकनाशिनी ऊर्जा पैदा होती है, जिससे संचित पापों का नाश होता है और पुण्य बढ़ता है । अतः निरंतर जप करते रहना चाहिए ।
शास्त्र कहते हैं-
जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिर्न संशयः ।
नीच कर्मों से बचकर किये गये जप से अवश्य ही
सिद्धि मिलती है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 16,17
अंक 198
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ