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कठिन-से-कठिन और सुगम से सुगम साधनः भगवन्नाम-जप – पूज्य बापू जी


ʹऐसा कौन सा साधन है जो सुगम से सुगम और कठिन से कठिन है ? उत्तम से उत्तम पद दिला सके और सुगम से सुगम हो, ऐसा साधन कौन सा है ?ʹ ऐसा मन से पूछो, खोजो।

सबसे सुगम और सबसे कठिन साधन है ʹजपʹ । गुरुमंत्र का जप सुगम से सुगम और कठिन से कठिन है। अगर उसकी महत्ता समझते हो, उसमें रसबुद्धि रखते हो, उसमें सर्वोपरि ऊँचाइयों की समझ रखते हो, उसमें सर्वोपरि ऊँचाइयों की समझ रखते हो तो तुम्हारे लिये गुरुमंत्र जप, नाम की कमाई सुगम से सुगम हो जायेगी और ऊँचे में ऊँची पदवी तक पहुँचा देगी। अगर भगवन्नाम की, गुरुमंत्र की कद्र नहीं जानते हो तो कठिन से कठिन है, मन नहीं लगेगा।

संत कबीरजी को एक मजदूर कहता हैः “बाबा जी ! मैं पत्थर कूटूँगा, खेत खली में मजदूरी करूँगा लेकिन यहाँ बैठकर रामनाम हम नहीं कर सकते महाराज !” कठिन से कठिन है उनके लिए। और जिसके मन को ललक लग गयी, जो नाम की कमाई का महत्त्व समझ गया उसके लिए भगवान का नाम सुगम से सुगम है।

जबहि नाम हृदय धरयो, भयो पाप को नाश।

जैसे चिनगी आग की, पड़ी पुराने घास।।

जैसे आग की चिनगारी घास को जला देती है, ऐसे ही नामजप पाप-वासनाओं को, कुकर्म के आकर्षणों को जलाकर भगवदरस, भगवत्शांति, भगवन्नमाधुर्य और भगवत्प्रेम से मनुष्य को पावन कर देता है।

प्रो. तीर्थराम इतना मानसिक जप करते थे कि एक बार सोते समय उनके श्वासोच्छ्वास और रोमकूपों में भी नाम के आंदोलन उभर आये।

पूरन सिहं घबरायाः “तीर्थराम ! तीर्थराम !! आपको कुछ हो गया भाई !”

“क्या हुआ ?”

“ओहो ! आपके शरीर से ૐकार की ध्वनि निकल रही है।”

प्रो. तीर्थराम नाचे कि “मैं तीर्थराम नहीं, अब तो मैं स्वयं तीर्थ बन गया। जहाँ जाऊँगा वहाँ भक्ति, शांति, आनंद और माधुर्य बाँटूँगा। मैं तो चलता-फिरता तीर्थ बन गया।”

स्थावर तीर्थ में नहाने को जाना पड़ता है पर संत बन जाते हैं ʹजंगम तीर्थʹ, चलते-फिरते तीर्थ ! जहाँ जायें वहाँ तीर्थ का माहौल ! तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि।

पूर्ण स्वभाव में जिनकी पहुँच और प्रीति हो गयी है, ऐसे महापुरुष तो तीर्थ बनाने वाले हो जाते हैं। आज तक जो तीर्थ हुए हैं, वे या तो भगवान के प्राकट्य से या तो भगवद्-तत्त्व की कमाई जिनकी प्रकट हो गयी, पूरी हुई, उन महापुरुषों की चरणरज से बने हैं। ऐसे संतों के प्रभाव से ही हरिद्वार की ʹहर की पौड़ीʹ विशेष तीर्थ बन गयी है।

जप करते समय यदि मन भटके तो भटकने दो, डरो मत ! जप में इतनी शक्ति है कि जप अधिक होने पर वह मन को एकाग्र होने में सहाय करेगा और मन अपने-आप पवित्र होगा। ʹशरीर हमारा नहीं है, शरीर तो प्रकृति का है, मर जायेगा। धन और मकान भी यहाँ रह जायेगा। लेकिन मेरा आत्म-हरि मेरे को छोड़ नहीं सकता और मैं उसको छोड़ नहीं सकता। वह हमारा परम हितैषी है।ʹ – इस भाव से दृढ़ श्रद्धा, विश्वास एवं निष्ठा पूर्वक भगवन्नाम जप, भगवद् ध्यान, भगवद् विश्रांति में लग जाओ तो भगवन्मय हो जाओगे। ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2013, पृष्ठ संख्या 15, अंक 244

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कलितारणहारा भगवन्नाम


इस कलिकाल में भवसागर से पार होने के लिए भगवन्नाम एक मजबूत नौका है, जिसकी सहायता से मनुष्य भवसागर से सरलता से पार हो सकता है। भगवन्नाम-महिमा का वर्णन करते हुए महर्षि वेदव्यासजी अपने शिष्यों को कहते हैं- कलिर्धन्यः ʹअर्थात् कलियुग धन्य है !ʹ व्यासजी के वचन सुनकर शिष्यों ने जिज्ञासापूर्वक प्रश्न किया कि “गुरुजी ! कलियुग में तो पाप, दुराचार, निंदा, राग-द्वेष अधिक होता है, फिर भी आप उसे धन्य कह रहे हैं !”

व्यासजी ने कहाः “मैं कलियुग को धन्य इसलिए कहता हूँ क्योंकि इसमें भगवान को प्राप्त करना अधिक आसान है। कलियुग में निरंतर भगवन्नाम लेने मात्र से मनुष्य उनको प्राप्त कर सकता है। यह दूसरे युग में सम्भव ही नहीं है।”

ʹश्रीमद् भागवतʹ (12.3.52) में भी आता हैः

कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः।

द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्।।

ʹसत्ययुग में भगवान विष्णु के ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में भगवान की पूजा से जो फल मिलता था, वह सब कलियुग में भगवान के नाम-कीर्तनमात्र से प्राप्त हो जाता है।ʹ

ऐसा कलितारण भगवन्नाम सर्व पापों को हरकर परमात्म-प्रीति जगाने का अमोघ सामर्थ्य रखता है। पापविनाशक परम कृपालु परमात्मा सबके सुहृद, परम हितैषी, निकटतम व सबके लिए सहज हैं। वे सहस्ररूपाधिपति, सहस्रनामाधिपति होते हुए भी नाम-रूप से रहित हैं। जात-पाँत, गुण-धर्म को न देखकर जो जिस नाम से उन्हें भजता है, प्रभु वैसे ही उसे मिलते हैं। उसकी समझ को अधिकाधिक परिपक्व बनाते हुए अपने दिव्य स्वरूप का ज्ञान पाने की ओर उसे प्रेरित करते हैं।

उस चैतन्यस्वरूप परमात्मा के नाम-जप के प्रताप से ही निर्बल सबल बनकर प्रबल भक्ति को पा सकते हैं। दुष्ट और कनिष्ठ श्रेष्ठ बनकर सर्वोत्कृष्ट पद को पा सकते हैं। यहाँ तक कि एक बार गलती से, कपट से या अन्य किसी भी भाव से कोई भगवन्नामरुपी डोरी से परमात्मा का दामन पकड़ लेता है तो फिर पकड़ने वाला कितना भी छुड़ाना चाहे पर प्रभु उसे छोड़ते नहीं।

भगवन्नाम-जप के प्रभाव से वह भगवान के प्रेमपाश में बँध जाता है। पूतना ने कपट से प्रभु को पकड़ा पर भगवान ने जब उसे पकड़ा तो ऐसा पकड़ा कि उसने छुड़ाना चाहा तो भी नहीं छोड़ा, पूतना को पार कर दिया। इस प्रकार अंतःस्थल की परा वाणी के प्रकाशक उस प्रभु का कोई दम्भ, पाखंड या कामनावश भी नाम-सुमिरन करे तो भी उसका कल्याण निश्चित ही होता है। दुनिया में मनुष्य को अपने नाम का मोह ही दुःख देता है और जन्म-मरण के चक्कर में डालता है। अतः कीर्ति का मोह छोड़ने के लिए नामकीर्तन-जप के सिवा कोई उपाय नहीं है। भगवान का नाम ʹममʹ के भार की जगह ʹसमʹ का सार सिखाता है। ममता को हटाकर समता के ऊँचे सिंहासन पर प्रतिष्ठित करता है। समता आयी तो सार, नहीं तो सब भार – यह सिद्धांत भगवन्नाम-सुमिरन करते-करते शांत होने से ही प्रत्यक्ष अनुभव होता है। जप से लोभ मिटकर लाभ-ही-लाभ होता है, मनुष्य की इच्छानुसार फिर चाहे वह भौतिक लाभ हो या आध्यात्मिक लाभ।

गिरधर नाम का गान करते हुए भक्तिमती मीरा ने नाचकर प्रभु को रिझा लिया तो अकाल पुरुष आदि नामों का सुमिरन करते हुए उसमें शांत होकर गुरु नानकदेवजी ने प्रभु को पा लिया। ʹविट्ठल, रामकृष्ण, हरिʹ – इन भगवन्नामों से संत तुकारामजी ने भगवान की निष्काम उपासना कर पूर्णता प्राप्त की तो उन्हीं पांडुरंग का नाम जपते-जपते ब्रह्मज्ञानी सदगुरु विसोबा खेचर के श्रीचरणों में पहुँचने की यात्रा कर संत नामदेव जी के नामरूपरहित परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया। भगवन्नाम-जप से स्वार्थपरता सर्वार्थता में बदल जाती है और सर्वार्थता परमार्थता में परिणत होकर जीवन को पूर्णता की ओर अग्रसर करती है। बिजलीघर से तो तार जुड़ा है ही, बस भगवन्नाम की पुकार से अहंकार का बटन दबाया कि प्रकाश-ही-प्रकाश है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 238

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अमूल्य औषधि


भगवन्नाम की महिमा का वर्णन करते हुए संत विनोबाजी भावे कहते हैं- “मेरी तो यह धारणा है कि सभी रोगों और कष्टों की अचूक दवा ईश्वर में श्रद्धा रखकर भक्तिभाव से उपासना में तल्लीन रहना ही है। यदि आसपास भगवद्भक्ति का वातावरण रहे, भगवान के भक्तों द्वारा भजन होता रहे, तब कुछ पूछना ही नहीं है। इससे रोगी को परम शांति मिलेगी और उसके जीवन की बीमारी भी दूर हो जायेगी।

दो दिन मुझे बुखार आया पर सुबह-शाम की प्रार्थना ज्यों-की-त्यों चलती रही। मेरी धारणा है कि बीमार मनुष्य के आसपास भगवान के भक्तों, संतों महात्माओं के द्वारा लिखित भजनों का, भगवन्नाम का मधुर स्वर में गान करने से बेहतर न तो कोई दवा हो सकती है और न तो कोई सेवा। जो शांति और आराम नामस्मरण से प्राप्त होता वह वह अन्यत्र दुर्लभ है। और जहाँ अनेक भक्त मिलकर सामूहिक प्रार्थना करते हों, भजन गाते हों, वहाँ का तो पूछना ही क्या है !

परंतु लोग श्रद्धारूपी अचूक दवा के रहते हुए भी नाना प्रकार की, नाना रूप की कृत्रिम दवाएँ लेते देते हैं। सूर्य, पानी और आकाश आदि प्राकृतिक चीजों का उपयोग न करके महँगे गलत इलाज करते हैं।

एक ऋषि ने सोमदेव से औषधि के लिए पूछा तो सोमदेव ने ऋषि को उत्तर दिया कि ‘पानी में सभी औषधियाँ निहित हैं। पानी का सेवन और परमेश्वर का स्मरण करो। सारे रोग दुर होंगे।’ ऐसा ऋग्वेद में लिखा है। पानी के साथ हवा और आकाश की मदद रोग से बचने के लिए लेनी चाहिए।

भगवान यह नहीं देखते कि भक्त बैठकर भजन कर रहा है या सो करके, खाकर अथवा स्नान करके। वे तो सिर्फ हृदयपूर्वक की हुई भक्ति चाहते हैं। (बीमारी के कारण) दो दिनों तक मैं पड़ा-पड़ा प्रार्थना सुनता था पर तीसरे दिन बैठने की इच्छा हुई। भगवान बड़े दयालु हैं। वे इन सब बातों पर ध्यान नहीं देते। वे तो हृदय की भक्ति देखकर ही प्रसन्न होते हैं।

भक्तों द्वारा जहाँ प्रेम से भजन गाये जाते हैं, वहाँ भगवान निश्चित रूप से रहते हैं और जहाँ सामूहिक भजन श्रद्धावान भक्तों द्वारा हो, वहाँ तो ईश्वर का रहना लाजिमी ही है ऐसा भगवान का कहना है।

नाहं वसामि  वैकुण्ठे योगिनां हृदय न वै।

मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।

‘हे नारद ! मैं कभी वैकुण्ठ में भी नहीं रहता, योगियों के हृदय का भी उल्लंघन कर जाता हूँ, परन्तु जहाँ मेरे प्रेमी भक्त मेरे गुणों का गान करते हैं, वहाँ मैं अवश्य रहता हूँ।’ (पद्म पुराणः 94.23)

इसलिए सभी लोगों से मेरा नम्र निवेदन है कि आप लोग निरंतर भगवान के नाम के जप में, प्रार्थना में श्रद्धा के साथ अपने समय को लगाओ। कुछ दिनों के बाद अपने-आप ही भक्तिरस का अनुभव होने लगेगा और सभी प्रकार के रोगों से आप मुक्त हो जायेंगे, फिर रोग चाहे जैसे हों – शारीरिक अथवा मानसिक।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 8, अंक 225

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