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विलक्षण है गुरुमंत्र की महिमा – पूज्य बापू जी


परमात्मा में जो महापुरुष बैठे हुए हैं, उनके वचन परमात्म-तत्त्व को छूकर निकलते हैं। वे वचन मंत्र होते हैं। उन वचनों का अंतर में मनन करने से जिज्ञासु साधकों का उत्थान होता है। मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा। ऐसा शास्त्रवचन है। मंत्र जपने में जितनी श्रद्धा होगी और जितना उसका अर्थ समझकर जपेंगे, उतना ही अधिक लाभ होगा। गुरुओं के वाक्य, संतों के उपदेश को ठीक से पकड़ेंगे तो संसार सागर से पार होना कोई कठिन नहीं है, नितांत आसान हो जाता है।

मंत्रदीक्षा का अर्थ

मंत्रदीक्षा लेने का मतलब है पावर हाउसों का पावस जो आत्मा-परमात्मा है उससे जुड़ना। शिष्य कहलाने के लिए कोई मंत्र लेले, वह अलग बात है। शिष्य कहलाना एक बात है और सत्शिष्य होना दूसरी बात है। सत्शिष्य का लक्षण है कि सत्स्वरूप परमात्मा में गुरु जगा रहे हैं तो अपनी ओर से हम आनाकानी न करें। ईश्वर ने कृपा करके मनुष्य जन्म दिया, गुरु ने कृपा करके मंत्रदीक्षा दी तो हम अपने ऊपर और कृपा करें।

दूसरी बात जिस दिन से हम गुरु धारण करते हैं, उस दिन से मंत्र के द्वारा, दृष्टि के द्वारा आत्मदेव में जगे हुए उऩ गुरुदेव की हाजिरी हमारे हृदय में हो जाती है, संबंध हो जाता है। फिर शिष्य शरीर से कितना भी दूर हो लेकिन उसकी प्रार्थना, उसके प्रश्न गुरु तक पहुँच जाते हैं। जैसे एक बर्तन से दूसरे बर्तन में घृत प्रवेश करता है, ऐसे ही गुरु के आध्यात्मिक हृदय से शिष्य के हृदय को पुष्टि मिलती है। कछुआ, मछली बच्चों से दूर होकर भी अपनी दृष्टिमात्र से उन्हें पोस लेते हैं, ऐसे ही गुरु कितने भी दूर हों लेकिन सच्चे हृदय से शिष्य का कोई प्रश्न है या पुकार है तो गुरु का बाह्य शरीर तो नहीं दिखेगा लेकिन गुरु तत्त्व जो सर्वव्यापक ब्रह्माण्ड में है, वह रक्षा कर लेता है।

मंत्रदीक्षा से नया जन्म

गुरुदीक्षा को दुबारा जन्म माना जाता है। माता-पिता ने इस शरीर को जन्म दिया है लेकिन जिस दिन माँ के गर्भ में बच्चा आया, उस दिन माँ को खबर नहीं, बाप को भी नहीं। समय पाकर वह बच्चा महीने-दो-महीने का होता है, तब ख्याल आता है कि बच्चा है। फिर ज्यों-ज्यों समय बीतता है, त्यों-त्यों वह गर्भिणी स्त्री सँभल-सँभल के कदम रखती है। 9 महीने होते हैं तब बच्चे का जन्म होता है। वह बच्चा माँ-बाप के शरीर से पुष्ट होकर संसार में जन्म लेता है। उसका जन्म व सर्जन होता है तुच्छ चीजों से, रज-वीर्य से। क्षुद्र चीजों से यह शरीर बनता है लेकिन आध्यात्मिक तत्त्व की जब हमें दीक्षा मिलती है, तब हम ʹद्विजʹ होते हैं अर्थात् हमारा दुबारा जन्म होता है।

पहले माता-पिता के शरीर से इस स्थूल शरीर का जन्म हुआ, फिर गुरुओं के कृपा-प्रसाद से हम लोगों का जो जन्म होता है वह आध्यात्मिक जन्म होता है। माता और पिता दोनों के दो शरीर मिलकर स्थूल शरीर बनाते हैं लेकिन आध्यात्मिक शरीर को जन्म एक ही गुरु दे देते हैं। इसलिए गुरु को केवल माता या केवल पिता नहीं कहा जाता है, गुरु को माता और पिता भी कहा जाता है – त्वमेव माता च पिता त्वमेव…. लेकिन माता और पिता कहने पर शास्त्रकर्ता ऋषि को संतोष नहीं हुआ। गुरु ईश्वर के मार्ग पर हमको ले चलने के लिए हमारे साथ बंधु जैसा और सखा जैसा भी व्यवहार करते हैं, जैसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन के साथ सखा का व्यवहार करते हुए उसे ज्ञान करा दिया। ऋषि ने कहा – गुरु हमारे माता, पिता, बंधु, सखा, विद्या हैं….. फिर भी ऋषि रुक नहीं गये। जिनको परमात्म-तत्त्व का अनुभव हुआ है, उन्होंने ही यह प्रार्थना बनायी है। उन्होंने अपनी कृतज्ञता व्यक्त की है। फिर कहते हैं- गुरुब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। मेरे गुरु जी ब्रह्मा भी हैं, ब्रह्मा जैसे सृष्टि का सर्जन करते हैं, ऐसे ही गुरु ने मेरे आध्यात्मिक शरीर को जन्म दिया फिर उसको उपदेश, आदेशों द्वारा हर वर्ष में गुरु पूनम आदि निमित्त के द्वारा पुष्ट किया। मेरे अंदर जो दूषित संस्कार थे उनको गुरुदेव ने जलाया।

ब्रह्मा होकर सदसंस्कारों की सृष्टि की, विष्णु होकर पालन किया और शिवजी होकर कुसंस्कारों का संहार किया। महेश्वर तक तो कहा, फिर कहते हैं कि महेश्वर का पूजन-अर्चन अच्छा है, सुहावना है, मर गये तो शिवलोक में जायेंगे लेकिन गुरु यहीं आत्मसाक्षात्कार कहा देते हैं, ब्रह्मस्वरूप बना देते हैं। इसलिए मेरे गुरु तो साक्षात् परब्रह्म हैं। गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः। तो ऐसे आत्मारामी गुरु, जिनको वेद के वास्तविक तत्त्व का, तात्त्विक स्वरूप का बोध है, युक्ति द्वारा, शास्त्रों द्वारा, स्मृतियों के द्वारा समझाने की जिनके पास योग्यता है, कला है, शिष्य के संशय-छेदन का जिनमें सामर्थ्य है, जिनकी परब्रह्म-परमात्मा में स्थिति है, निष्ठा है ऐसे संतों को ʹश्रोत्रय ब्रह्मनिष्ठʹ कहा जाता है।

गुरुमंत्र खोले जीवन्मुक्ति के द्वार

ऐसे गुरुओं से मंत्रदीक्षा मिल जाय अथवा मार्गदर्शन मिल जाय और साधक पूरा चल दे तो यहीं, इसी जन्म में परब्रह्म-परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है, वह जीवन्मुक्त होकर जीता है। कोई उनका उपदेश लेकर चला लेकिन पूरा नहीं पहुँचा है तो भी ऐसे शिष्य को कभी नरक में नहीं जाना पड़ता है। नरक उसके लिए खत्म हो गया। थोड़ी बहुत साधना है तो स्वर्ग में जायेआ और उससे बढ़िया समझ या साधना है तो ऊँचे लोकों में जायेगा। ब्रह्मज्ञान का सत्संग सुना है, मनन किया है किंतु साक्षात्कार नहीं हुआ तो मरने के बाद वह ब्रह्मलोक में जायेगा। ब्रह्माजी के वास जो वैभव व सुविधाएँ हैं, सृष्टि के सर्जन के सामर्थ्य को छोड़कर बाकी का पूरा-का-पूरा सुख-वैभव उसको भोगने को मिलेगा। यह शास्त्रीय बात है, किसी छोटे-मोटे व्यक्ति की कल्पना नहीं है अथवा किसी एक महाराज ने कह दिया है, वह बात नहीं है। अगर उस शिष्य को, साधक को आत्मज्ञान पाने की तीव्रता है तो ब्रह्मलोक के भोग भी तुच्छ लगेंगे। फिर श्रेष्ठ, पवित्र आचरण वाले श्रीमान के, किसी योगी के अथवा किसी ऋषि के घर वह फिर जन्म लेगा और उसे जल्दी ही ज्ञान हो जायेगा, वह मुक्त हो जायेगा। ब्रह्माजी कल्पपर्यन्त रहते हैं। अगर उसे तीव्रता नहीं है तो जब तक ब्रह्माजी हैं, ब्रह्मलोक है तब तक वह रहेगा और फिर अंत में ब्रह्माजी उसको जरा सा उपदेश करेंगे और उपदेश लग जायेगा, वह मुक्त हो जायेगा।

मरने के बाद तीन चीजें आपका पीछा नहीं छोड़तीं – पुण्य आपको स्वर्ग ले जाता है, पाप आपको नरक में ले जाता है और भगवन्नामयुक्त गुरुमंत्र जब तक भगवत्प्राप्ति नहीं हुई तब तक मरने के बाद भी आपको यात्रा करा के भगवान तक ले जाता है। यह गुरु मंत्र की महिमा है। अतः गुरुमंत्र को साधारण न समझें। प्रीतिपूर्वक, आदरपूर्वक, अर्थसहित नियमित जपते जायें। यह आपको परमात्मदेव में, परमात्म-सुख में प्रतिष्ठित करा देगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 16,17, अंक 247

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मंत्रशक्ति से अकाल दूर


मार्च माह में ऐरोली (मुम्बई) में आयोजित होली कार्यक्रम के दौरान मीडिया ने पूज्य बापूजी के लिए अनर्गल प्रलाप अलापा। इससे हमको बड़ा दुख हुआ। मंत्र-विज्ञान के लिए कुछ चैनलों ने जो चुनौती दी, उसे हम सब साधकों ने स्वीकार कर लिया। सातारा जिले (महा.) में खटाव तहसील पिछले दो सालों से सूखाग्रस्त है। यहाँ भयंकर अकाल के कारण लोगों को तथा जानवरों को पीने के लिए पानी नहीं था। टैंकर से पानी आता था। पुसेगाँव के पास एक बड़ा तालाब है- ‘नेर’। उसमें बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी थीं। यहाँ के ४००-५०० साधकों ने मिलकर पंडाल लगवाया और २४ से २६ मई तक त्रिकाल संध्या में श्री आशारामायण पाठ, गुरुमंत्र का जप, सत्संग व हवन किया।

पूज्य बापूजी की कृपा से पूर्णाहुति के समय अचानक बरसाती बादल घिर आये (देखें तस्वीरें आवरण पृष्ठ ४ पर) और बूँदा-बाँदी शुरू हो गयी। कुछ ही मिनटों में घणघोर वर्षा होने लगी। पिछले दो वर्षों से भीषण अकाल के कारण बारिश बिलकुल नहीं हुई थी। सभी लोग खुशी से नाचते हुए बारिश में भीगने लगे। वह बारिश चली तो ऐसी चली कि रातभर मूसलाधार वर्षा हुई। विक्टोरिया रानी के शासनकाल में बने यहाँ के विशाल ‘नेर’ तालाब की बड़ी-बड़ी दरारें भर गयीं। केवल दो दिनों में ही एक तिहाई तालाब भर गया। चार दिन तक ऐसी बरसात हुई कि हमारे क्षेत्र के बड़े-बड़े सूखे नालों में बाढ़ आ गयी। कईं गाँवों के सूखे कुएँ और बावड़ियाँ पानी से भर गयीं। सभी ने मंत्र-विज्ञान का प्रभाव प्रत्यक्ष देखा और कइयों ने आकर हमें धन्यवाद दिया। हमने उन सबको बताया कि धन्यवाद देने हैं तो पूज्य बापूजी को दो, जिनकी कृपा से मंत्र-विज्ञान की महिमा हम सबके सामने प्रत्यक्ष हुई है।

तुकाराम सालुंखे, विसापुर, जि. सातारा (महा.)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई २०१३, पृष्ठ संख्या ३१, अंक १

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मंत्रजप से शुद्ध होते हैं जन्मकुण्डली के बारह स्थान – पूज्य बापू जी


शास्त्रों में जन्मकुण्डली के बारह स्थान बताये गये हैं। एक करोड़ जप पूरा होने पर उनमें से प्रथम स्थान-तनु स्थान शुद्ध होने लगता है। रजो-तमोगुण शांत होकर रोगबीजों व जन्म-मरण के बीजों का नाश होता है तथा शुभ स्वप्न आने लगते हैं। संतों, देवताओं व भगवान के दर्शन होने लगते हैं। कभी कम्पन होने लगेगा, कभी हास्य आने लगेगा, कभी नृत्य उभरेगा, कभी आप सोच नहीं सकते ऐसे-ऐसे रहस्य प्रकट होंगे। निगुरों के आगे इन रहस्यों को प्रकट नहीं करना चाहिए। रात को सोते समय कंठ में गुरु जी के साथ तादात्म्य करके सो गये तो गुरु शिष्य का संबंध जुड़ जाता है। श्रद्धा तीव्र है तो संबंध जल्दी जुड़ता है अन्यथा दो तीन महीने में जुड़ जाता है। स्वप्न में गुरु अथवा संत के दर्शन होने लगें तो समझो एक करोड़ जप का फल फलित हो गया।

अगर दो करोड़ जप हुआ तो कुंडली का दूसरा स्थान-कुटुम्ब स्थान शुद्ध व प्रभावशाली हो जाता है। धन की प्राप्ति होगी, कुटुम्ब का वियोग नहीं होगा। समता ,शांति व माधुर्य स्वाभाविक हो जायेगा। कुटुम्ब स्थान शुद्ध होने पर नौकरी व धनप्राप्ति के लिए भटकने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जैसे व्यक्ति की छाया उसके पीछे चलती है, ऐसे ही धन और यश उसका दास होकर उसके पीछे चलेंगे।

तीन करोड़ जप  की संख्या पूरी होने पर जन्मकुण्डली का तीसरा स्थान या सहज स्थान शुद्ध हो जाता है, जाग जाता है। असाध्य कार्य आपके लिए साध्य हो जाता है। लोग आपको प्रेम करने लगेंगे, स्नेह करने लगेंगे। आपकी उपस्थितिमात्र से लोगों की प्रेमावृत्ति छलकने लगेगी।

अगर चार करोड़ जप हो जाता है तो चौथा स्थान – सुख स्थान, मित्र स्थान शुद्ध हो जाता है। शरीर और मन के आघात नहीं के बराबर हो जायेंगे। मानसिक उपद्रव की घटनाएँ होंगी लेकिन आपका मन उन सबसे निर्लेप रहेगा। डरने की बात नहीं है कि चार करोड़ जप कब पूरा होगा। साधारण जगह पर जप की अपेक्षा तुलसी की क्यारी के नजदीक एक जब दस जप के बराब होता है। देवालय अथवा आश्रम में प्राणायाम करके किया गया एक जप सौ गुना ज्यादा फल देता है। ब्रह्मवेत्ता गुरु के आगे किया एक जप हजारों गुना फल देता है। संयम, श्रद्धा, एकाग्रता व तत्परता जितने अंशों में मजबूत होंगे, जप उतना ज्यादा प्रभावी होगा। सोमवती अमावस्या और ऐसी मंगलमय तिथियों के दिनों में जप का फल 10 हजार गुना हो जाता है। सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण में लाख गुना हो जाता है। दुष्कर्मों का त्याग करके किये गये जप का फल अनंत गुना हो जाता है।

पाँच करोड़ जप पूरा होने पर पाँचवाँ स्थान-पुत्र स्थान शुद्ध हो जायेगा। अपुत्रवान को पुत्र हो जायेगा। अपुत्रवान को आप पुत्र देने की युक्ति सिद्ध कर लेंगे।

छः करोड़ जप पूरा होने पर छठा स्थान-रिपु स्थान शुद्ध हो जायेगा। कोई आपसे शत्रुता नहीं रख सकेगा। किसी  ने शत्रुता की तो प्रकृति उसको दंडित करेगी। शत्रु वे रोग से आपको निपटना नहीं पड़ेगा, जप की शक्ति उससे निपटेगी।

सात करोड़ जप पूरा होने पर आपकी जन्मकुण्डली का सातवाँ स्थान-स्त्री स्थान शुद्ध हो जाता है। आपकी शादी नहीं हो रही है तो शादी हो जायेगी। दूसरे की शादी नहीं हो रही है तो उसके लिए आपकी दुआ भी काम करने लगेगी। दाम्पत्य सुख अनुकूल होगा। आपके सभी रिश्तेदार, पत्नी, बच्चे, ससुराल पक्ष के लोग आपसे  प्रसन्न रहने लगेंगे। आपको किसी को रिझाना नहीं पड़ेगा, सभी आपको रिझाने का मौका खोजते फिरेंगे। भगवद्-जप से आप इतने पावन होने लगेंगे ! फिर निर्णय क्यों नहीं करते कि ʹमैं दो करोड़ की संख्या पूरी करूँगा।ʹ तीन, चार, पाँच करोड़…. जितने का भी हो ठान लो बस।

अगर आठ करोड़ जप हो गया तो आठवाँ स्थान – मृत्यु स्थान शुद्ध हो जायेगा। फिर आपकी चाहे गाड़ियों, मोटरों अथवा जहाज या हेलिकाप्टर से भयंकर दुर्घटना ही क्यों न हो लेकिन आपकी अकाल मृत्यु नहीं हो सकती है। मृत्यु के दिन ही मृत्यु होगी, उसके पहले नहीं हो सकती। चाहे आप गौरांग की नाई उछलते हुए दरियाई तूफान की लहरों में प्रेम से कूद जायें तो भी आपका बाल बाँका नहीं होगा।

आनंदमयी माँ बीच नर्मदा में नाव से कूद पड़ीं, तैरना नहीं जानती थी फिर भी हयात रहीं। लाल जी महाराज नर्मदा की बाढ़ में आ गये, वे तैरना नहीं जानते थे फिर भी उनकी जप-सत्ता ने मानो उनको पकड़ के किनारे कर दिया। मैंने ऐसे कई जप के धनियों को देखा भी है, शास्त्रों में पढ़ा-सुना भी है।

अगर नौ करोड़ जप  हो जाये तो मंत्र के देवता जप करते ही आपके सामने प्रकट हो जायेंगे, वार्तालाप करेंगे। समर्थ रामदास के आगे सीताराम प्रकट हो जाते थे, तुकारामजी के आगे रूकोबा विट्ठल (राधा कृष्ण) प्रकट हो जाते थे, लाल जी महाराज के सामने उनके इष्टदेव मंत्र जपते ही प्रकट हो जाते थे।

अगर दस करोड़ जप की संख्या पूरी कर ली तो जन्मकुंडली का दसवाँ स्थान-कर्म स्थान, पितृ स्थान शुद्ध हो जायेगा। दुष्कर्मों का नाश होगा और आपके सभी कर्म सत्कर्म हो जायेंगे। श्रीकृष्ण का युद्ध भी सत्कर्म हो जाता है, हनुमानजी का लंका जलाना भी सत्कर्म हो जाता है।

राम लखन जानकी, जय बोलो हनुमान की।

लंका जलायी तो कितने जल गये होंगे ! लेकिन हनुमान जी को दोष नहीं लगा।

अगर ग्यारह करोड़ जप हो गया तो ग्यारहवाँ स्थान-लाभ स्थान शुद्ध होता है। धन, घर, भूमि के तो लाभ सहज में होते जायेंगे। सत्त्वात्संजायते ज्ञानम्…. परमात्म-ज्ञान का प्रकाश हो जायेगा।

अगर बारह करोड़ जप हो जाता है तो क्या कहना ! आपका बारहवाँ स्थान – व्यय स्थान शुद्ध हो जाता है। वह इतना शुद्ध हो जाता है कि अनावश्यक व्यय बंद हो जायेंगा। रज-तम पूर्णत शांत हो जायेंगे। सत्त्वगुण की जो सिद्धि है दर्शन-अदर्शन, वह प्राप्त हो जायेगी। मेरे सामने ऐसा हुआ था। मेरे सामने जा रहे थे संत। जैसे ही मैं देखने को दौड़ा तो उसी समय वे अदृश्य हो गये।

जिन्हें हरिभक्ति प्यारी हो,

माता-पिता सहजे छुटे संतान अरू नारी।

माता-पिता और पति-पत्नी की मोह-ममता छूट जाती है और उनमें भी भगवद् भाव आने लगता है। जिसको भगवद् भक्ति का रंग लगता है, उसका नजरिया बदल जाता है। विकारी नजरिये की जगह भगवद् नजरिया आ जाता है। ममता की जगह पर भगवान आ जाते हैं। मोह, स्वार्थ और विकार की जगह पर स्नेह और सच्चिदानंद छलकने लगता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2013, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 245

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