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Self Realization

पिता को खोजने गया, परम पिता को पा लिया


एक बालक बचपन में ही पितृहीन हो गया था । एक दिन उसने अपनी माँ से पूछाः “माता ! मेरे सभी साथी अपने-अपने पिता की बात करते हैं, क्या मेरे पिता नहीं हैं ? यदि हैं तो वे कहाँ हैं ?”

बालक के इस सवाल को सुन माता के नेत्र भर आये और वह सत्संगी माता उदास नहीं हुई । लड़के का हाथ पकड़कर पास ही गोपालजी के मंदिर में ले गयी और भगवान के श्रीविग्रह की ओर संकेत करके कहाः “देखो बेटा ! ये ही तुम्हारे पिता हैं ।”

बालक पर माता का वह एक वाक्य जादू-सा काम कर गया । वह गोपाल जी को पिताजी-पिताजी कहकर प्रेमपूर्वक पुकारने लगा । नित्य मंदिर जाकर गोपाल जी से बातें करता, पुकारताः “हे पिता जी ! तुम मुझे दर्शन क्यों नहीं देते ?” अनजाने में ही वह बालक सर्वेश्वर परमात्मा की विरह भक्ति के पथ पर तीव्रता से आगे बढ़ने लगा ।

एक दिन वह मंदिर में गया और दृढ़ संकल्प करके वहीं बैठ गया कि ‘मुझे मरना स्वीकार है परंतु अब तुम्हारे बिना नहीं रहा जाता । जब तक तुम मेरे पास आकर मुझे अपनी छाती से नहीं लगाओगे तब तक मैं यहाँ से हटने वाला नहीं हूँ ।’

आधी रात हो गयी । ध्यान करते-करते वह अपने शरीर की सुध-बुध भूल गया ।

गीता (4.11) में भगवान कहते हैं- ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।

‘जो लोग मुझे जिस  प्रकार भजते हैं मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ, उन पर उसी प्रकार कृपा करता हूँ ।’

भक्त प्रह्लाद की दृढ़ निष्ठा ने जैसे स्तम्भ में से भगवान को प्रकट कर दिया था वैसे ही निर्दोषहृदय बालक की अपनत्वभरी पुकार व निष्ठा ने मूर्ति में से भगवान को प्रकट होने के लिए विवश कर दिया ।

भगवान ने भक्त की भावना के अनुसार उसे दर्शन देकर अपने गले लगाया, आशीर्वाद दिया और अंतर्धान हो गये ।

भगवद्-स्पर्श पाकर बालक की कवित्वशक्ति जाग उठी । वह भगवत्प्रेम से भरकर ऐसे-ऐसे पद रचता और गाता कि सुनने वाले लोग गदगद हो जाते, उनके हृदय में भगवद्भक्ति की तरंगे उठने लगतीं । आगे चलकर बालक ने संतत्व को उपलब्ध हो भगवान का अपने अंतरात्मा और व्यापक परमात्मा के रूप में भी साक्षात्कार कर लिया ।

कैसी सूझबूझ है उस सत्संगी माँ की ! न तो स्वयं निराश हुई न बेटे के हृदय को चोट पहुँचने दी बल्कि बेटे को ऐसी दिशा में मोड़ दिया कि वह अपने परम पिता को पाने में सफल हो गया ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल-मई 2020, पृष्ठ संख्या 21 अंक 328-329

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इसका नाम है आत्मसाक्षात्कार !


जिज्ञासु साधकों को अपने परम लक्ष्य ‘आत्मसाक्षात्कार’ सुस्पष्ट तात्पर्य-अर्थ जानने की बड़ी जिज्ञासा रहती है, जिसकी पूर्ति कर रहे हैं करुणासिंधु ब्रह्मवेत्ता पूज्य बापू जीः

अपने-आपका बोध हो जाय, अपने-आपका पता चल जाय इसे बोलते हैं आत्मसाक्षात्कार । यह साक्षात्कार किसी अन्य का नहीं वरन् अपना ही साक्षात्कार है । आत्मसाक्षात्कार का तात्पर्य क्या है ? भगवान दत्तात्रेय कहते हैं कि नाम, रूप और रंग जहाँ नहीं पहुँचते ऐसे परब्रह्म में जिन्होंने विश्रान्ति पायी है, वे जीते जी मुक्त हैं ।

जिसकी सत्ता से ये जीव, जगत, ईश्वर दिखते हैं, उस सत्ता को ‘मैं’ रूप से ज्यों का त्यों अनुभव करना-इसका नाम है आत्मसाक्षात्कार । जीव की हस्ती, जगत की हस्ती और ईश्वर की हस्ती जिसके आधार से दिखथी है और टिकती नहीं है, बदलती रहती है फिर भी जो अबदल आत्मा है उसे ज्यों का त्यों जानना, यही है आत्मसाक्षात्कार । जो तुमसे अलग नहीं है उससे मिले रहो और जो तुमसे अलग हैं – आने जाने वाले विकार, उनसे नहीं मिलो इसी का नाम है आत्मसाक्षात्कार ! लो !

अपना-आपा ऐसी ही चीज है जो बिना मेहनत के जानने में आता है और एक बार समझ में आ जाता है तो फिर कभी अज्ञान नहीं होता । अपने स्वरूप का, अपने आत्मा का ऐसा ज्ञान हो जाना, पता चल जाना इसको बोलते हैं आत्मसाक्षात्कार । यह बड़े में बड़ी उपलब्धि है । इसके अतिरिक्त जितनी भी उपलब्धियाँ प्राप्त हों, फइर चाहे सब देवी-देवता ही खुश क्यों  न जायें, तब भी यात्रा अधूरी ही रहेगी । संत नरसिंह मेहता ने ठीक ही कहाः

ज्यां लगी आत्मतत्त्व चीन्यो नहीं, 

त्यां लगी साधना सर्व झूठी ।

जब तक आत्मदेव का अनुभव नहीं किया, ब्रह्मस्वरूप को नहीं जाना तब तक साधना अधूरी है ।

देखने के विषय अनेक लेकिन देखने वाला एक, सुनने के विषय अनेक – सुनने वाला एक, चखने के  विषय अनेक – चखने वाला एक, मन के संकल्प-विकल्प अनेक किंतु मन का द्रष्टा एक, बुद्धि के निर्णय अनेक लेकिन उसका अधिष्ठान एक ! उस एक को जब ‘मैं’ रूप में जान लिया, अनंत ब्रह्मांडों में व्यापक रूप में जिस समय जान लिया वे घड़ियाँ सुहावनी होती हैं, मंगलकारी होती हैं । वे ही आत्मसाक्षात्कार की घड़ियाँ हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2020, पृष्ठ संख्या 2 अंक 326

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तो वह कर्मबंधन से छुड़ाने वाला हो जाता है – पूज्य बापू जी


भगवान कहते हैं-

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।।

‘सर्वदा योगयुक्त (सर्वदा मुझ में एकाग्रबुद्धि रखने वाले) और (मुझे) प्रीतिपूर्वक भजने वाले लोगों को मैं बुद्धियोग (ज्ञाननिष्ठा) देता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते हैं ।’ (गीताः 10.10)

बुद्धि तो सबके पास है लेकिन बुद्धि में योग आ जाय और योग आयेगा भगवान में प्रीति करने से । हम अपने दिल को भगवान से जोड़ें । जो कुछ काम करें, भगवान की प्रीति-प्राप्ति के लिए करें । कर्म तो हम करते हैं लेकिन कर्म में योग मिला दें । कर्म में योग तब मिलेगा जब निष्काम भाव से कर्म करेंगे ।

आप किसके लिए कर्म करते हैं ?… एक माई रास्ते पर झाड़ू  लगाती है और उसकी दृष्टि रुपयों पर है तो वह उसकी नौकरी हो गयी । एक माई बुहारी करती है घर में, उसकी दृष्टि रुपयों पर नहीं है, कुटुम्बियों की सेवा पर है तो सांसारिक कर्तव्यपूर्ति हो जाती है । शबरी भीलन गुरु के आश्रम में बुहारी करती है । उसकी दृष्टि रुपयों पर भी नहीं, कुटुम्बियों की सेवा पर भी नहीं, उसकी दृष्टि राम पर है तो उसकी बुहारी बंदगी हो जाती है, पूजा हो जाती है । बुहारी तो वही-की-वही लेकिन किसके लिए की जा रही है इसका महत्त्व है ! नौकरी करें लेकिन किसके लिए क्या करें ? रुपये-पैसे कमाकर मजा लेने के लिए नहीं बल्कि अपना कर्तव्य पालन करके उस प्यारे (परमात्मा) को प्यार करने के लिए करते हैं तो नौकरी बंदगी हो जाती है ।

भजतां प्रीतिपूर्वकम्…. जो मुझे प्रीतिपूर्वक भजता है…. भगवान में प्रीति कैसे हो ? बार-बार भगवन्नाम लें, बार-बार भगवन्नाम लें, बार-बार भगवान के निमित्त कार्य करें । कार्य किये बिना तो कोई नहीं रह सकता है इसलिए कार्य करें लेकिन राम के लिए, ईश्वरप्रीति-अर्थ । किसी को छोटा दिखाने के लिए अथवा अपने को बेड़ा दिखाने के लिए कार्य करेंगे तो वह कार्य बंधन हो जायेगा लेकिन भगवान को प्रसन्न करने के लिए कार्य करें तो वह बंधन से छुड़ाने वाला हो जाता है ।

ददामि बुद्धियोगं तं.… मैं उनको बुद्धियोग देता हूँ…. एक होती है बुद्धि, मति । कुमार्ग में जाय तो कुमति, सुमार्ग में जाय तो सुमति ।

सुमति कुमति सब कें उर रहहिं ।

नाथ पुरान निगम1 अस कहहीं ।। (श्री रामचरित. सुं. कां. 39.3)

1 वेद या उनका कोई भाग ।

अगर सत्कर्म करके ईश्वर को अर्पण करें और ईश्वर की प्रसन्नता चाहें तो वह सुमति मेधा बन जाती है । मेधावी पुरुषों की वाणी शास्त्र बनने लगती है । और उसी मेधा को अगर सत्यस्वरूप की तरफ लगायें – आत्मा के लिए अनंत ऐश्वर्य, अनंत सत्यत्व, चैतन्यत्व, ज्ञानत्व और आनंदत्व का श्रवण करके गम्भीर निदिध्यासन करें तो बुद्धियोग हो जाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2019, पृष्ठ संख्या 17 अंक 322

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