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Self Realization

परमानंद की प्राप्ति का साधन


 

पूज्यपाद संत श्री आशाराम जी बापू

आत्मकल्याण के इच्छुक व ईश्वरानुरागी साधकों को आत्मशान्ति, आत्मबल प्राप्त करने के लिए, चित्तशुद्धि के लिए ज्ञानमुद्रा बड़ी सहाय करती है। ब्रह्ममुहूर्त की अमृतवेला में शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर गर्म आसन बिछाकर पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में बैठ जाओ। 10-15 प्राणायाम कर लो। यदि त्रिबन्ध के साथ प्राणायाम हो तो बहुत अच्छा है। तदनन्तर दोनों हाथों की तर्जनी यानी पहली अंगुली के नाखून को अंगूठों से हल्का सा दबाकर दोनों हाथों को घुटनों पर रखो। शेष तीनों अंगुलियाँ सीधी व परस्पर जुड़ी रहें। हथेली ऊपर की ओर रहे। गर्दन व रीढ़ की हड्डी सीधी। आँखें अर्धोन्मिलित एवं शरीर अडोल रहे।

अब गहरा श्वास लेकर ʹૐ….ʹ का दीर्घ गुँजन करो। प्रारंभ में ध्वनि कण्ठ से निकलेगी, फिर गहराई में जाकर हृदय से ʹૐʹ की ध्वनि निकालिये। बाद में और गहरे जाकर नाभि या मूलाधार से ध्वनि उठाइये। उस ध्वनि से सुषुम्ना का द्वार खुलता है और जल्दी से आनंद प्राप्त होता है। चंचल मन तब तक भटकता रहेगा, जब तक उसे भीतर का आनंद नहीं मिलेगा। ज्ञानमुद्रा व ʹૐʹ की ध्वनि से मन की भटकान शीघ्र बन्द होने लगेगी। ध्यान के समय जो काम करने की जरूरत न हो उसका चिन्तन छोड़ दो। चिन्तन आ जाय तो ʹૐ अगड़ं-बगड़ं स्वाहाʹ करके उस व्यर्थ चिन्तन से अपना पिण्ड छुड़ा लो।

संकल्प करके बैठो कि हम अब ज्ञानमुद्रा में, ʹૐʹ की पावन ध्वनि के साथ वर्त्तमान घड़ियों का पूरा का आदर करेंगे। मन कुछ देर टिकेगा… फिर इधर-उधर के विचारों की जाल बुनने लग जायेगा। दीर्घ स्वर से ʹૐʹ की ध्वनि करके मन को पुनः खींचकर वर्त्तमान में लाओ। मन को प्यार से, पुचकार से समझाओ। 8-10 बार ʹૐʹ की ध्वनि करके शान्त हो जाओ। शऱीर के भीतर वक्षस्थल में तालबद्ध धड़कते हुए हृदय को मन से निहारते रहो…. निहारते रहो…. मानो शरीर को जीने के लिए उसी धड़कन के द्वारा विश्व-चैतन्य से सत्ता-स्फूर्ति प्राप्त हो रही है। हृदय की उस धड़कन के साथ ʹૐ….. राम…..ʹ मंत्र का अनुसंधान करते हुए मन को जोड़ दो। हृदय की धड़कन के रूप में हर क्षण अपने को प्रकट करने वाले उस सर्वव्यापक परमात्मा को स्नेह करते जाओ। हमारी शक्ति को क्षीण करने वाली, हमारा आत्मिक खजाना लूटकर हमें बेहाल करने वाली भूतभविष्य की कल्पनाएँ हृदय की इन वर्त्तमान धड़कनों का आदर करने से कम होने लगेंगी। हृदय में प्यार व आनंद उभरता जायेगा। जैसे मधुमक्खी सुमधुर सुगंधित पुष्प पाकर चूसने के लिए वहाँ चिपक जाती है वैसे ही चित्त रूपी भ्रमर को परमात्मा से प्यार प्रफुल्लित होते हुए अपने हृदयकमल पर बैठा दो, दृढ़ता से चिपका दो। अपने को वृत्तियों से बचाकर निःसंकल्पावस्था का आनंद बढ़ाते जाओ। मन विक्षेप डाले तो बीच-बीच में ૐ का पावन गुँजन करके उस आनंद-सागर में मन को डुबाते जाओ। जब ऐसा निर्विषय निःसंकल्प अवस्था में आनंद आने लगे तो समझो यही आत्मदर्शन हो रहा है क्योंकि परमात्मा आनंदस्वरूप है।

इस आत्मध्यान से, आत्मचिन्तन से भोक्ता की बर्बादी रूकती है। भोक्ता स्वयं आनंदस्वरूप परमात्मामय होने लगता है, स्वयं परमात्मा होने लगता है। परमात्मा होना क्या है…. अनादि काल से परमात्मा था ही यह जानने लगता है।

ठीक से अभ्यास करने पर कुछ ही दिनों में आनंद और अनुपम शान्ति का एहसास होगा। आत्मबल की प्राप्ति होगी। मनोबल व बुद्धिबल में वृद्धि होगी। चित्त के दोष दूर होंगे। अपने अस्तित्त्व का बोध होने मात्र से आनंद आने लगेगा। ध्यान-भजन-साधना से अपनी योग्यता ही बढ़ाना है। परमात्मा एवं परमात्मा से अभिन्नता सिद्ध किये हुए सदगुरु को आपके हृदय में आत्मखजाना देने में देर नहीं लगती। बस, साधक को अपनी योग्यता का विकास करने भर की देर है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 26,19 अंक 53

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नासमझी है दुःखों का घर


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

यह भी कैसी विचित्र बात है कि सभी दुःखों और परेशानियों को मिटाना चाहते हैं लेकिन फिर भी हर दिन बंधन बढ़ाते जा रहे हैं, परेशानियों को पोसते जा रहे हैं। मुक्ति सभी चाहते हैं किन्तु मुक्ति पाने की मुक्ति से दूर भागते हैं।

कुछ वर्ष पहले की बात हैः किसी व्यक्ति ने आकर मुझसे कहाः “बापू ! इतने सारे लोग भजन कर रहे हैं, एक मैं नहीं करूँ तो क्या घाटा होगा ? मुझे मुक्ति नहीं चाहिए।”

उसकी बात सुनकर मुझे हँसी आयी क्योंकि वह सरलता से बोल रहा था। मैंने कहाः “अच्छा, मुक्ति नहीं चाहिए किन्तु सुख तो चाहते हो न ? परेशानियाँ तो मिटाना चाहते हो न ?”

उसने कहाः “जी।”

“तो फिर हमारे ये सारे प्रयास किसलिये हैं ? हम कहाँ कहते हैं कि तुम मोक्ष पा लो। हम तो यही चाहते हैं कि तुम्हारी परेशानियाँ मिट जायें और परेशानी मिटाना ही तो मोक्ष है। छोटी परेशानी मिटाने में कम मेहनत है, बड़ी परेशानी के लिये ज्यादा, जन्म-मरण की परेशानी मिटाने के लिए आत्मज्ञान की मेहनत करनी पड़ती है।”

यदि थोड़ी-थोड़ी परेशानियों, दुःखों, बंधनों से थोड़ समय के लिए छूटना चाहते हो तो थोड़ा ज्ञान, थोड़ा पुरुषार्थ और थोड़ा सुख ही काफी है और यदि सदा मुक्ति चाहिए, पूर्ण निर्दुःख, पूर्ण निर्बन्ध, पूर्ण सुख चाहिए तो पूर्ण ज्ञान के लिए पूर्ण पुरुषार्थ करना ही चाहिए।

दुःख कोई नहीं चाहता। मुक्ति नहीं चाहते तो क्या बंधन चाहते हो ? तुम्हें कोई जेल में डाल दे, कोई तुम्हारे पर आदेश चलाये, पत्नी तुम्हें आँखें दिखाये तो क्या तुम्हें अच्छा लगता है ? नहीं, क्योंकि तुम स्वतंत्रता चाहते हो, मुक्ति चाहते हो और मुक्ति पानी है तो फिर ध्यान भजन, जप, सेवा-स्वाध्याय भी करना पड़ेगा। मुक्ति की मंजिल तक पहुँचना है तो उसकी राह पर तो चलना ही होगा।

अनेकों को ऐसा लगता है कि ʹभाई ! हममें तो भगवान के रास्ते चलने की ताकत नहीं है, हमें ज्ञान नहीं चाहिए….ʹ ज्ञान नहीं चाहिए, मुक्ति नहीं चाहिए तो क्या मुसीबतें चाहिए ? दुःख चाहिए ? यह तो नासमझी है। आदमी तमोगुण में आ जाता है तब कहता है कि ʹहमें ईश्वर से क्या लेना देना ? संत-वंत कुछ नहीं, पुण्य-वुण्य कुछ नहीं।ʹ तो पाप करके भी तो तुम सुख ही चाहते हो न ? यदि पाप करने में सुख होता तो सभी पापी आज मजे में ही होते, अशान्त और दुःखी न होते और मरने के  बाद प्रेत या पशु होकर न भटकते, मुक्त हो जाते, शाश्वत स्वरूप से एक हो जाते।

सुख पाप में नहीं, सुख वासना में नहीं, सुख इच्छाओं की पूर्ति में नहीं वरन् सुख है मुक्ति में, सुख है मुक्ति पाये हुए ब्रह्मवेत्ताओं के श्रीचरणों में। इच्छा वासना की निवृत्ति में परम सुख है।

मैंने सुना है। एक बार हनुमानप्रसाद पोद्दार और जयदयाल गोयन्द का आपस में चर्चा कर रहे थेः “आजकल तो कहलाने लगे बड़े ज्ञानी, बड़े संन्यासी… पहले लोग कितना-कितना तप करते थे। इन्द्र ने 108 वर्ष तक ब्रह्माजी की सेवा की, तब ब्रह्मज्ञान मिला। और आज…? घर छोड़कर बन गये साधु-संन्यासी और लिख देंगेः 1008 स्वामी फलानानंद जी…”

तब एक किसान ने उठकर पोद्दार जी से कहाः “भाई जी ! 108 वर्ष तक इन्द्र ने ब्रह्मा जी की सेवा की, तब ज्ञान मिला, तो 108 वर्ष देवताओं के कि मनुष्य के 108 वर्ष ? अगर देवताओं के वर्ष गिनते हो तो उनकी आयुष्य तो 100 वर्ष से अधिक नहीं होती और अगर मनुष्य के 108 वर्ष गिनते हो तो देवताओं के 108 दिन से अधिक नहीं होते।”

तब हनुमानप्रसाद पोद्दार को हुआ कि किसान के वेष में भी ये कोई पहुँचे हुए महात्मा लगते हैं। उनकी सात्त्विक श्रद्धा थी न !

एक बार पोद्दार जी के मुख से निकल गयाः “जो मिर्ची का अचार नहीं छोड़ सकते, जो चाय नहीं छोड़ सकते, जो दो वक्त का भोजन नहीं छोड़ सकते, वे ब्रह्मज्ञान कैसे पा सकते हैं ?”

पहले वे इस प्रकार की आलोचना किया करते थे। साधना काल में इस प्रकार का कभी हो जाता है उऩकी इस बात को अखंडानंद सरस्वतीजी ने सुन लिया। वे भिक्षा लेने पोद्दार जी के घर। उनकी धर्मपत्नी ने बड़े प्रेम से भिक्षा दी। तब अखंडानंदजी ने कहाः “बहन जी ! मिर्ची का अचार है ?”

धर्मपत्नी ने कहाः “हाँ महाराज है।”

“अच्छा, तो दो-तीन टुकड़े दे दो।”

धर्मपत्नी ने अचार दिया। तब पुनः अखंडानंदजी बोलेः “बहन जी ! भाई जी घर पर हैं ?”

“जी हाँ महाराज ! भीतर के कक्ष में कुछ लेखन कार्य कर रहे हैं।”

“अच्छा ! जरा भाई जी को बुलाना।”

भाई जी बाहर आये और आकर प्रेम व श्रद्धा से प्रणाम कियाः “महाराज ! नमो नारायणाय।

अखंडानंद जीः नमो नारायणाय। सेठजी ! आपने प्रवचन में कहा थाः ʹअचार चाहिए, खिचड़ी चाहिए, चाय चाहिए… जो ʹचाहिए-चाहिएʹ में लगे हैं और अपने को ब्रह्मज्ञानी मानते हैं वे क्या ब्रह्मज्ञानी होते हैं ? जो दो समय का भोजन नहीं छोड़ सकते, वे क्या ब्रह्मज्ञान पा सकते हैं ?ʹ

….. तो जिन्हें वास्तव में ब्रह्म परमात्मा का अनुभव हो गया है उनके लिए सेठजी ! मैं पूछता हूँ कि कमबख्त दो मिर्चियाँ, क्या उऩकी ब्रह्मनिष्ठा के स्वाद को कम कर देगी ? क्या अचार की ये दो मिर्चियाँ उऩके परमात्मज्ञान के रस को छीन लेगी ?”

तब हनुमानप्रसाद पोद्दार जी हाथ जोड़ते हुए बोलेः “महाराज ! क्षमा कीजिए। आप जैसों के आगे तो हम नतमस्तक हैं।”

जिनको ब्रह्म-परमात्मा का अनुभव हो गया है उनके लिए मिर्ची का अचार तो क्या, छप्पन पकवान तो क्या देवताओं के भोग भी नीरस हैं। वे उनको आसक्त नहीं कर सकते। ऐसे दिव्य ब्रह्मज्ञान के रस का वे आस्वाद कर चुके होते हैं कि जिसके आगे ब्रह्मलोक के सुख तक फीके पड़ जाते हैं तो मनुष्य लोक के तुच्छ में वे क्या आसक्त होंगे ? जिनको आत्मा-परमात्मा का शुद्ध अनुभव हो जाता है, उनके लिए संसार के सुख-दुःख, ऊँचाई-नीचाई कोई मायने नहीं रखती क्योंकि उऩ्होंने अपने शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वरूप को जान लिया है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 50

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शाश्वत स्थान की प्राप्ति


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शांतिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।

ʹहे भारत ! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उसकी कृपा से तू परम शान्ति और शाश्वत स्थान प्राप्त करेगा।ʹ (भगवद् गीताः 18.62)

देह शाश्वत नहीं है अर्थात् सदा रहने वाली नहीं है, देह से मिलने वाली खुशियाँ शाश्वत नहीं हैं, देह को मिलने वाले पद शाश्वत नहीं हैं लेकिन देह का जो आधार है, देह में रहने वाला जो विदेही चैतन्य आत्मा है, वह शाश्वत है और वही परम शान्ति का धाम है।

आज तक जिस किसी को ज्ञान मिला है, प्रेम मिला है, आनंद मिला है, निर्दोष सुख मिला है वह उस शाश्वत चैतन्य के भण्डार से ही मिला है। वही आत्मपद है, सबका असली स्वरूप है। उस सोઽहम् स्वभाव की पवित्रता, शांति, समता, करूणा, प्रेम, आनंद आदि अनादि काल से निखरते आये हैं, निखर रहे हैं और निखरते ही रहेंगे। बुद्धिमानों की बुद्धि, सत्ताधीशों की सत्ता संभालने की कला, धनवानों की धन संभालने की और बढ़ाने की अक्ल, शूरवीरों का शौर्य, तेजस्वियों का तेज, सुन्दरियों का सौन्दर्य एवं सज्जनों की सज्जनता इसी शाश्वत पिटारी से आती है, फिर भी जरा-सी भी कम नहीं होती है। वह शाश्वत चैतन्य परमात्मा अपना आत्मारूप बनकर सदा हमारे साथ है। भगवान कहते हैं-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

ʹइस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है।ʹ

हम जितने-जितने उस पूर्ण परमेश्वर में, अपनी आत्मा में तल्लीन होते जाएँगे, उतने-उतने पावन होते जाएँगे, निश्चिंत होते जाएँगे, आनंदित होते जाएँगे…

हम नाश होने वाली देह को ʹमैंʹ मानकर सदा रहने वाले चैतन्य आत्मा की अवहेलना करते हैं, इसलिए परेशानियों के पोटले सिर पर उठाने पड़ते हैं। जबकि उस परमेश्वर की शरण में जाने से आत्मस्वभाव में तल्लीन होने से परेशानियाँ दूर हो जाती हैं और परम शांति मिलती है, इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- तमेव शरणं गच्छ। ʹउस परमात्मा की शरण में जा।ʹ

जो कुछ हो जाये उसमें उस परमात्मा की मर्जी मानो। ʹमान देने वाले में भी तू। मित्र में भी तू और शत्रु में भी तू। अनुकूल परिस्थिति देने वाला भी तू और प्रतिकूलता पैदा करने वाला भी तू। तन्दुरुस्ती में भी तू और रोग में भी तू….ʹ इस प्रकार हर वक्त, हर जगह उस प्रियतम प्रभु को देखोगे तो कोई भी तुम्हें परेशान नहीं कर पायेगा। भेद बुद्धि से दिखाई देनेवाले अलग-अलग नाम रूपों को सच्चा मानने से दुःख, चिंता, अशांति, खिंचाव-तनाव व खूनखराबा होता है जबकि अभेद बुद्धि से ʹसबमें एक ही परमेश्वर की सत्ता, स्फूर्ति, चेतना चमक रही हैʹ ऐसा भाव रखकर व्यवहार करने से ओज-तेज, पवित्रता, आनंद और शांति बढ़ती है।

जो उस परमेश्वर को पाने के लिए अर्थात् अपने आत्मस्वरूप को जानने के लिए प्रयत्न करते हैं, जो अपनी उन्नति चाहते हैं। ऐसे साधकों की, भक्तों की तीन अवस्थाएँ होती हैं-

तस्यैवाहम्। मैं उसका हूँ।

तवैवाहम्। मैं तेरा हूँ।

त्वमेवाहम्। मैं तू ही हूँ।

जैसे किसी लड़की की मँगनी होती है तब वह लड़की मानती हैः ʹमैं उसकी हूँʹ। जब नयी-नयी शादी होती है तब बोलती हैः ʹमैं तेरी हूँ।ʹ फिर पति के घर में रहने लगती है और पुरानी हो जाती है तब कोई आकर उसे पूछेः

“गोविन्दभाई हैं ?”

“वे तो नहीं हैं लेकिन बात क्या है ?”

“मुझे एक चीज चाहिए थी।”

“हाँ, हाँ, ले जाओ। मैं और वे एक ही तो हैं। इसमें क्या पूछना ?”

भक्त की स्थिति भी ऐसी है। ʹमैं उसका हूँʹ माने मँगनी हो गयी। ʹमैं तेरा हूँʹ माने शादी हो गयी। ʹमैं और तू एक ही हैंʹ माना संबंध दृढ़ हो गया, पक्का काम हो गया। जीवात्मा-परमात्मा की शादी के ये लक्षण हैं।

मँगनी के पहले तो लड़की पिता के घर को अपना मानती है। पति के घर का, ससुरालवालों के घर के संबंध का पता ही नहीं होता है। जब मँगनी होती है तब कहती हैः ʹउनका घर है, ससुरालवालों का घर है। फिर नयी-नयी शादी होती है तब ʹमेरे पति का घर हैʹ ऐसा मानती है। जब घर में रहते हुए पुरानी हो जाती है तब ʹहमारा घर हैʹ ऐसा कहने लगती है।

भावो हि विद्यते देवो। जैसा भाव होता है वैसा दिखता है। भाव बदलते हैं तो वही की वही परिस्थिति बदली हुई मालूम पड़ती है। अपना अहंभाव बदल जाय, ʹमैंʹ पना बदल जाय तो ममभाव ʹमेराʹ पना बदल जाता है। अहंता बदलने से ही ममता बदल जाती है। अपनी अहंता को ईश्वर में लगा दो तो ʹमैं भगवान का हूँʹ यह भाव जगेगा और भगवान में प्रीति हो जायेगी तब लगेगा ʹभगवान मेरे हैं।ʹ दृढ़तापूर्वक भगवान से अपनापन मान लोगे तो हृदय में भक्ति की रसधारा बहने लगेगी।

भक्ति की प्रारंभिक दशा में भक्त भगवान को अपने से कहीं दूर मानता है, वह परमेश्वर की चर्चा अन्य पुरुष में करता हैः ʹमैं उसका हूँ।ʹ तस्यैवाहम्।

इस भाव का भी पूर्णरूप से अनुभव कर लिया जाय तो हृदय मधुरता से छलक जायेगा। ʹमैं उसका हूँ तो मेरा जो कुछ है वह भी मेरे प्रभु का है….।ʹ ऐसा भक्त सुबह उठता है तबसे लेकर रात को सोने तक जो कुछ काम करता है उसको अपने प्रिय प्रभु का आदेश समझकर ही करता है। वह अपने घर, सगे-संबंधी, मित्र आदि को भी ईश्वर का समझता है या तो ईश्वर की कृपा से सब मिला है ऐसा मानता है। उससे उसे परम आनंद मिलता है।

जब प्रारंभिक दशा से कुछ उन्नत होता है और ईश्वर से निकटता का अनुभव करता है, तब वह कहता है ʹमैं तेरा हूँ।ʹ इस भाव से ईश्वर को अपने समीप मानता है। पहली दशा मधुर और प्यारी है किंतु यह दशा उससे भी प्यारी और रूचिकर है।

जब भक्ति की पराकाष्ठा आती है, उन्नति की अंतिम अवस्था आती है तब वह ईश्वर को अपना स्वरूप जान लेता है। उस अवस्था में वह कहता है त्वमेवाहम्। ʹमैं तू ही हूँ।ʹ फिर वह भक्त और ईश्वर दो अलग नहीं रहते हैं। दोनों एक हो जाते हैं। ईश्वर का सच्चा प्रेमी ईश्वर में मिल जाता है तो जान लेता हैः ʹमैं वह हूँ। मैं तू हूँ तू मैं है। तू और मैं एक हैं।ʹ यानी जीव ब्रह्म की एकता का अनुभव हो जाता है। यही ज्ञान की उच्चतम अवस्था है। यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। जो बाहर भीतर सच्चे हैं, वे शुद्ध बुद्धि से इस निश्चय पर पहुँच जाने के बाद निदिध्यासन द्वारा इस निश्चय का अनुभव कर लेते हैं, दिव्य आनंद को पा लेते हैं, वे स्वयं ब्रह्मरूप हो जाते हैं, वे इसी जीवन में मुक्त हो जाते हैं अतः जीवन्मुक्त कहलाते हैं।

ऐसी जीवन्मुक्ति पाना ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। देह को ʹमैंʹ मानते रहोगे और देह के संबंधों को मेरा मानते रहोगे तो काम नहीं चलेगा। ʹमैं गोविंदभाई….. मैं मोहनभाई…. ये मेरे बेटे-बेटियाँ…. यह मेरी पत्नी… यह मेरी दुकान… यह मेरा मकान….ʹ ऐसी बातों में उलझकर जीवन पूरा कर देने वाले तो कई लोग इस संसार में आ-आकर चले गये।

आप भी अगर ज्ञान का विचार नहीं करोगे तो अपने सच्चे स्वरूप को नहीं पहचान पाओगे। जो अपनी अहंता को शरीर ओर शरीर के संबंधों से हटाकर भगवान में लगा देता है, वही देर-सबेर भगवत्स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है।

भाव बदलने से ही आधा काम बन जाता है। बाकी का काम ज्ञानसयुक्त जीवन जीने से पूरा हो जाता है। भाव किसी साधन से नहीं बदलता है वरन् ज्ञान से बदलता है।

जैसे, किसी बकरे के गले में फँदा पड़ा हो और आप उसे स्नानादि कराके उसके आगे धूप-दीप करो, पूजा करो, आरती उतारो, मेवा-मिठाई का प्रसाद रखो, फिर भी उससे बंधन नहीं कटेगा लेकिन फँदा कैसा है ? यह देखकर उसे काटने का उपाय सोचो और फँदा काट दो तब काम बनेगा।

ऐसे ही जीवरूपी बकरे के गले में अज्ञान का जो फँदा पड़ा है उसे जरा समझ लो और सत्संग से सेवा से, विवेक-वैराग्य से, विचाररूपी कैंची से काट दो तो मुक्त हो जाओगे। फिर चाहे प्रवृत्ति करो चाहे निवृत्ति लेकिन रहोगे निजानंद में। तब आपको किसी का भय नहीं रहेगा। फिर चाहे मौत भी आ जाय तो मौत के भी आप दृष्टा बन जाओगे। यह मुक्तिपद है ही ऐसा कि जिसे पाकर फिर इस जन्म-मरण के चक्कर में वापस नहीं आना पड़ता।

श्रीकृष्ण कहते हैं-

न तद् भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः।

यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।

ʹजिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते, उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वही मेरा परमधाम है।ʹ (भगवद् गीताः 15.6)

परमात्मा के उस परमधाम को पाने के लिए श्रीकृष्ण कहते हैं- तमेव शरणं गच्छ। तू सर्वभाव से उस परमात्मा की शरण में जा, जो अंतर्यामी आत्मा के रूप में सदा तेरे साथ है। जो अनन्य भाव से उसकी शरण में जाता है वह भी उसी रूप हो जाता है। उसे सबमें अपना-आपा नजर आता है।

दुर्बल में भी ʹमैंʹ और बलवान की गहराई में भी ʹमैंʹ…. शत्रु में भी ʹमैंʹ और मित्र में भी ʹमैंʹ ही नजर आया तो फिर अहंकार, राग-द्वेष, ईर्ष्या, भय आदि के लिए स्थान ही कहाँ बचेगा ?

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।

न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।।

ʹजो पुरुष सबमें समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, अर्थात् राग-द्वेष आदि विकारों के वश नहीं होता है इससे वह परम गति को प्राप्त होता है। (भगवद् गीताः 13.28)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 3,4,5 अंक 49

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