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Self Realization

मुक्ति कैसे पायें ?


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

असमाधेरविक्षेपान्न मुमुक्षर्न चेतरः।

निश्चित्य कल्पितं पश्यन्ब्रह्मैवास्ते महाशयः।।

ʹज्ञानी पुरुष समाधिरहित होने के कारण मुमुक्षु नहीं है और विक्षेप (द्वैतभ्रम) के अभाव के कारण उसके विपरीत अर्थात् बद्ध भी नहीं है परंतु निश्चयपूर्वक इस सब जगत को कल्पित समझता हुआ ब्रह्मवत् स्थित रहता है।ʹ (अष्टावक्रगीताः 18.28)

अष्टावक्र मुनि कहते हैं कि ज्ञानी महापुरुष को न समाधि है, न विक्षेप है, न मुमुक्षा है। मुमुक्षा उसे प्राप्त होती है जिसे छूटना होता है। ज्ञानी को न छूटना है न बँधना है।

छूटने की चाह भी तो एक इच्छा है। हालाँकि धन की इच्छा, मान की इच्छा, नश्वर भोगों की इच्छा से तो भगवान की भक्ति की इच्छा अच्छी है। फिल्म देखने की इच्छा से तो भजन कीर्तन में जाने की इच्छा ठीक है लेकिन है तो इच्छा ही। फिल्म देखकर मनुष्य थोड़ा रजस-तमस का मजा लेता है तो कीर्तन करके थोड़ा सात्त्विक मजा लेता है लेकिन मजा जहाँ से आता है वहाँ तो उसकी अभी गति नहीं हुई है।

यह बात ठीक है कि अन्य इच्छाओं को मिटाने के लिए मुक्ति की इच्छा की जाये, किन्तु जब मनुष्य ऊँचा उठता है तो एक ऐसी घड़ी आती है कि मुक्ति की इच्छा भी उसे बाधक लगने लगती है। मुक्ति की इच्छा भी जब छूट जाती है तब मनुष्य परम पद पाने का मोक्ष पाने का अधिकारी बनता है।

मुक्ति की इच्छा भी तो भविष्य की इच्छा ही है और जो भविष्य में सुखी होने की इच्छा रखते हैं, भविष्य में भगवान से मिलने की इच्छा करते हैं वे तो मानों संसार की इच्छा को ही दृढ़ करते हैं। जो वर्त्तमान में ही इच्छाओं को छोड़ देते हैं, उनके हृदय में उसी समय परमात्म-प्रेम, परमात्म-रस छलकने लगता है।

मेरे गुरुदेव से किसी व्यक्ति ने प्रश्न किया किः “मुक्ति कैसे पायें ? संसार की इच्छाएँ कैसे छूटें ?”

गुरुदेव बोलेः “मान लो एक कुआँ है जिसमें काई हो जाने के कारण गंदगी हो गयी है। अब कोई पूछे कि ʹइस कुएँ का पानी तो काम नहीं आ सकता। इसको काम में कैसे लाया जाये ?ʹ

जवाब होगाः “मछलियाँ डाल दो।”

काई को तो मछलियाँ साफ कर देती हैं किन्तु धीरे-धीरे मछलियों का परिवार बढ़ जाता है। फिर कछुआ डाल दो। कछुआ धीरे मछलियों को साफ कर देगा। फिर कछुए को भी निकाल दो तो पानी निर्मल हो जायेगा।

ऐसे ही सुख लेने की इच्छाएँ हमें चंचल कर देती हैं, विक्षिप्त कर देती हैं। अतः उस विक्षेप को हटाने के लिए, चंचलता और आसक्ति को हटाने के लिए, सुख लेने की इच्छा हटाने के लिए सुख देने की इच्छा डाल दो तो संसार की विषय-विकारों रूपी काई को साफ करने में मदद मिलेगी और भीतरी सुख उभरने लगेगा।”

वैसे भी सुख लेने की इच्छा हमें वास्तव में दुःख ही देती हैं जबकि सुख देने की इच्छा से आनंद आने लगता है। सेवा लेने वाले को उतना आनंद नहीं आता जितना सेवा करने वाले को आता है। भोजन करने वाले को उतना आनंद नहीं आता, जितना भोजन कराने वाले को आता है। दान लेने वाले को उतना आनंद नहीं आता, जितना उत्साह से दान देने वाले को आता है। यह तो कईयों का अनुभव है।

सेवा करके सुखी होना यह आदर्श भोक्ता के लक्षण हैं जबकि सेवा लेकर सुखी होना यह बीमार भोक्ता के लक्षण हैं… लेकिन हैं दोनों भोक्ता ही। अभी परम शांति से वे दोनों दूर हैं। सेवा करते-करते अन्तःकरण की शुद्धि होने लगती है और उसमें लीन होने से शांति प्राप्त होती है। शांति दोषों की निवर्तक व प्रसाद की जननी है। वह परमात्मशांति ही सार है। परमात्मशांति जहाँ से प्रकट होती है उस परमात्मभाव में जाग जाना परम सार है।

फिर मनुष्य के मन में जिज्ञासा उठने लगती है कि ʹमैं कौन हूँ ? जगत क्या है ? भगवान कैसे हैं ? मुक्ति क्या है ?ʹ आदि। ऐसे प्रश्न जिसके हृदय में अपने-आप उठने लगे तो समझना चाहिए कि उसका भजन फलित हो रहा है। उसमें मोक्ष की आकांक्षा जाग उठती है। फिर साधक देखने लगता है कि ʹकौन सी इच्छा आयी ? इच्छा पूरी हुई तो क्या ?ʹ इस प्रकार उसकी सात्त्विक इच्छाएँ भी छूटने लगती हैं।

सब इच्छाओं को हटाते-हटाते अंत में मुक्ति की इच्छा आये या भगवद्-दर्शन की इच्छा आये तो उसको भी हटा दो। फिर देखो, कितनी शांति और कितना आनंद आपके हृदय में अपने-आप प्रगट होने लगता है ! फिर तो नानकजी की भाषा में आपकी ऐसी स्थिति हो जायेगी किः

भोग-जोग जाके नहीं, वैरी मीत समान।

कह नानक सुन रे मना, मुक्त ताहि ते जान।।

मलिन वासनाओं को हटाने के लिए शुद्ध वासनाओं की आवश्यकता होती है। जगत के आकर्षण और चिंतन से बचने के लिए भगवान के भजन-कीर्तन की, भगवद्-चिंतन की आवश्यकता है लेकिन जब आप वासनाओं को, इच्छाओं को महत्त्व देना बंद कर देते हो, मन से संबंध-विच्छेद कर लेते हो तो फिर शुभ वासनाओं की, शुभ इच्छाओं की भी कोई जरुरत नहीं रह जाती।

तुच्छ इच्छा वासनाओं का  प्रभाव आप पर तब तक ही रहता है जब तक आप सावधान नहीं रहते हो। आप सावधान हो गये तो फिर वासनाओं का प्रभाव भी नष्ट हो जायेगा। वासनाएँ आती हैं मन में और आप असावधान रहते हैं तो उनकी पूर्ति में लग जाते हैं। यदि आप सावधान हो गये तो आप उन्हें पूरी करने में नहीं लग जायेंगे, बल्कि थोड़ा विचार करेंगे। अतः इच्छाओं को मिटाने के लिए सतत् मन का निरीक्षण करते रहो। उसे तुच्छ विषय-विकारों की ओर जाने से रोकते रहो। जैसे पंखा घूमता है किन्तु यदि आप बटन बंद कर दें, विद्युत संपर्क काट दें तो उस पंखे का घूमना कब तक जारी रहेगा ? ऐसे ही आप मन का संबंध काट दोगे तो इच्छाएँ भी कोई प्रभाव नहीं रख सकेंगी।

आप जब मन को सत्ता देते हो तभी वासनाएँ आपको दबा देती हैं। मन को सत्ता देने से, स्वीकृति देने से ऐहिक जगत के नश्वर भोग आप पर हावी हो जाते हैं जबकि मन के द्रष्टा बनने पर आपकी जीत हो जाती है। इसीलिए अष्टावक्र मुनि कहते हैं-

ʹमहापुरुष लोग सारे जगत को कल्पित जानते हैं। उनको न समाधि है न विक्षेप है, न मुमुक्षा है न अन्य कुछ है। वे तो समस्त दृश्य जगत को निश्चित रूप से कल्पित जानकर ब्रह्म में स्थित हो जाते हैं।ʹ

यह जगत कल्पित है। जिस वक्त जैसी कल्पना होती है उस वक्त जगत वैसा ही लगता है। जिन्होंने थोड़ा सा भी सत्संग सुना है उनके मन पर दूसरे की कल्पना का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। …..और यदि वह अपनी कल्पना से आप पार हो जाये तो पूरे विश्व का भी उसके चित्त पर प्रभाव नहीं पड़ता है। वह ʹविश्वजितʹ कहलाता है।

ऐसा नहीं कि किसी की संस्था को देखकर कोई प्रभावित हो जाये कि हम भी ऐसी ही संस्था बनायें, किसी के सौन्दर्य को देखकर आप भी सुन्दर दिखना चाहे, किसी की गाड़ी देखकर खुद भी वैसी ही गाड़ी खरीदने की सोचने लगे। ना ना…. जैसे हर फूल अपनी जगह पर अपने ही ढंग से, सहज रूप से खिलता है, वैसे ही निर्वासनिक पद में आने पर आपसे सहज स्वाभाविक रूप से जो होगा वह बहुत अच्छा होगा। किसी के महल-बँगले, गाड़ी-वाड़ी, बगीचा देखकर वैसा ही बनाने या लेने की इच्छा हो गयी तो वह सब न मिलने पर मन में खटकेगा और मिल गया तो उतना सुख नहीं मिलेगा जितना निर्वासनिक होने पर मिलता है। उन भोगों से प्राप्त सुख तो क्षणिक होगा जबकि निर्वासनिक होने पर सुख का दरिया आपके भीतर ही लहरा उठेगा।

हकीकत में परम पद पाना कठिन नहीं है, लेकिन ये इच्छाएँ ही मनुष्य को जन्म-मरण के चक्र में घुमाती रहती हैं। हाँ, कई बार ऐसा भी होता है कि तुच्छ इच्छाओं की जगह कुछ अच्छी इच्छाएँ उठती हैं, परमात्म-प्राप्ति की भी इच्छा उठती है किन्तु है तो इच्छा ही। तुच्छ इच्छाएँ लोहे की जंजीर हैं तो ये अच्छी इच्छाएँ सोने की जंजीर हैं।ʹ अभी यहाँ ईश्वर नहीं हैं, हिमालय में जाऊँगा तब मिलेंगे….. अभी तो धन कमा लूँ फिर ʹडिपोजिटʹ रखकर पेंशन मँगाकर आराम से भजन करूँगा….ʹ यदि ऐसा सोचने लगे तो समझो आपने मुक्ति के द्वार बंद कर दिये। अतः इच्छाओं का त्याग करो।

इच्छाओं का त्याग करते-करते एक ऐसी ऊँची अवस्था आती है जहाँ समाधि की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। रोग हो तब तक औषधि की आवश्यकता पड़ती है और रोग ही न रहे तो औषधि की कोई आवश्यकता ही नहीं है। ऐसे ही जिसकी वासनाएँ पूर्णतः निर्मूल हो गयीं, जिसने निर्वासनिक पद को पा लिया उसके लिए समाधि को भी आवश्यता नहीं रह जाती।

अष्टावक्रजी महाराज इसीलिए कहते हैं- “महाशय ज्ञानी को न समाधि है न विक्षेप है, न मुमुक्षा है न अन्य कुछ। समस्त दृश्य जगत को निश्चय ही कल्पित जानकर वह ब्रह्म में स्थित हुआ है।”

इसी बात को श्री भोलेबाबा ने ʹवेदान्त छन्दावलीʹ में इस प्रकार कहा हैः

करता समाधि है नहीं, जिसमें नहीं विक्षेप है।

नहीं मोक्ष ही है चाहता, रहता सदा निर्लेप है।।

विश्व कल्पित जानकर, नहीं चित्त को भटकाय है।

संलग्न रहता ब्रह्म में, सो धीर शोभा पाय है।।

जिसका महान् आशय है, उसे ʹमहाशयʹ कहा जाता है। महान् आशय है अपने जीवन तत्त्व को जानना। जो अपने ऊपर किसी भी प्रकार की इच्छा वासनाओं की रेखा न खींचे अथवा खींची हुई रेखा को जिसने हटा दिया है, वह ʹमहाशयʹ है। ऐसा महाशय ही समस्त दृश्य जगत को कल्पनामात्र मानकर ब्रह्मस्वरूप में स्थित होता है।

हे मानव ! तू भी उठ, जाग और समस्त इच्छा वासनाओं को त्यागकर एक बार निर्वासनिक पद पाकर तो देख ! फिर मनुष्य तो क्या, समस्त यक्ष, गंधर्व, किन्नर तेरे चरणों में सिर झुकाने को तैयार हो जायेंग… देवता भी तेरे दर्शन कर अपना भाग्य बनायेंगे…. ऐसा तू महिमावान् हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 82

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ऋषि विज्ञान की रहस्यमयी खोज


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

सृष्टि के अधिष्ठाता सच्चिदानंद  परमात्मा की सोलह कलाएँ हैं। जगत के जड़ चेतन पदार्थों तथा मानवेतर प्राणियों में उनमें से अलग-अलग कलाएँ निश्चित संख्या में विकसित होती हैं परन्तु मनुष्य में ईश्वर की संपूर्ण कलाओं को विकसित करने का सामर्थ्य होता है।

श्रीकृष्ण में समस्त सोलह कलाएँ पूर्ण रूप से विकसित थीं। श्रीरामचन्द्रजी में बारह कलाओं का विकास हुआ था। इसी प्रकार अनेक ऋषि-मुनियों में भिन्न-भिन्न संख्याओं में ईश्वरीय कलाओं का विकास हुआ था।

पत्थर तथा उसके जैसे अन्य जड़ पदार्थों में परमात्मा की एक ही अस्तित्त्वकला का विकास होता है। उसे तोड़ डालो तो उसके टुकड़े बन जाएँगे। पीस डालो तो चूर्ण हो जायेगा और उसे फूँक मारकर उड़ा दो तो वातावरण में ओझल हो जायेगा परन्तु फिर भी वह कहीं-न-कहीं रहता अवश्य है। उसका होना ही ईश्वर की  अस्तित्त्वकला है।

पेड़ पौधों में ईश्वर की दो कलाएँ होती हैं- पहली अस्तित्त्वकला तथा दूसरी ग्राह्यकला। वे पृथ्वी एवं वातावरण से अपना भोजन भी ग्रहण कर सकते हैं।

पशु-पक्षियों में उस सत्यस्वरूप परमात्मा की चार कलाएँ विकसित होती हैं- पहली अस्तित्त्वकला, दूसरी ग्राह्यकला, तीसरी स्थानान्तरणकला तथा चौथी अल्प स्मृतिकला।

पशु-पक्षी भोजन के साथ-साथ गमनागमन भी कर सकते हैं तथा उनमें थोड़ी स्मृति (यादशक्ति) भी होती है। पक्षी अपने घोंसलों को पहचान लेते हैं। गाय का बछड़ा सैंकड़ों गायों के बीच भी अपनी माँ को पहचान लेता है। कोई बछड़ा किसी दूसरी गाय का दूध पीने जाये तो वह उसे लात-सींगों से मारती है। यह ईश्वर की स्मृतिकला है परन्तु उनमें यह कला अल्पविकसित होती है।

बछड़ा जब बड़ा हो जाता है तब वह अपनी माँ को नहीं पहचानता अथवा जो कुछ महीने बछड़े को माँ से दूर रखा जाय और बाद में फिर उन्हें मिलाया जाय तो वे एक-दूसरे को नहीं पहचान पाते।

मनुष्य में पाँच कलाएँ विकसित होती हैं- अस्तित्त्वकला, ग्राह्यकला, स्थानान्तरणकला, स्मृतिकला तथा विचारकला।

मनुष्य में स्मृतिकला अधिक विकसित होती है। उसे अपने सम्बन्धों, जाति तथा वर्ण आदि की आजीवन स्मृति बनी रहती है।

मनुष्य की पाँचवीं कला है विचारकला जिसके द्वारा वह विचारने तथा जानने की क्षमता रखता है, नये-नये आविष्कार कर सकता है।

मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी वस्तुएँ तथा जीव अपनी कुछ निश्चित कलाओं में बँधे हुए हैं। गाय आज से सौ वर्ष  पहले भी चार पैरों से चलती थी और आज भी चार पैरों से ही चलती हैं। पत्थर की कभी भी दूसरी कला विकसित नहीं हुई।

योनि बदल जाने के बाद कलाओं का बदलना और बात है परन्तु अपने एक जीवनकाल में ये जीव तथा वस्तुएँ अपनी निश्चित कलाओं तक ही सीमित रहते हैं।

मनुष्य का यह सौभाग्य है कि वह पाँच कलाओं से लेकर दस, पन्द्रह अथवा सम्पूर्ण सोलह कलाओं को  विकसित करत सकता है। वह छः भागवी कला बढ़ाकर भगवदीय सामर्थ्य प्राप्त कर सकता है।

दस कलाओं का विकास कर लेने पर मानव मुक्तात्मा हो जाता है। यदि योगाभ्यास बढ़ाकर और भी आगे बढ़े तो वह सोलह कलाओं तक की यात्रा कर सकता है। इसीलिए मनुष्य को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा जाता है।

आज के मनुष्य का यह दुर्भाग्य है कि वह अन्य जीवों की भाँति अपनी पाँच कलाओं में ही बँधकर रह जाता है। सामर्थ्य होते हुए भी आज का मानव अपने जीवन को पूर्ण विकसित नहीं कर पाता। इसका कारण है भौतिकवाद की चकाचौंध के पीछे मनुष्य का मोहित हो जाना तथा समाज में आध्यात्मिकता एवं योगविद्या का अभाव हो जाना।

हे मानव ! ईश्वर ने तुझे ईश्वर-पद तक की यात्रा करने का सामर्थ्य दिया है। अतः इस सामर्थ्य का उपयोग करके अपने जीवन-पुष्प को पूर्ण विकसित करके पूर्णता को प्राप्त कर। इसी में मानव जीवन की सार्थकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1999, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 77

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ईश्वर प्राप्ति इसी जन्म में संभव है…. पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


 

कई लोगों को होता है कि ʹहम सियाराम-सियाराम…. हरि ૐ-हरि ૐ…ʹ करते हैं, शिविर भरते हैं, शराब-कबाब छोड़ दिया है फिर भी भगवान नहीं मिलते। क्यों ?

जो चीज अधिक आसान होती है, आसानी से मिलती है। उसका लाभ भी तुच्छ होता है, छोटा होता है। जिस मौसम में जो सब्जी या फल ज्यादा होते हैं उसकी कीमत भी कम होत है।

जीवन में सोना इतना काम नहीं आता जितना की लोहा। भोजन बनाने में, औजार बनाने में, मकान आदि बनाने में लोहा जितना उपयोगी है उतना उपयोग सोने का नहीं है। लेकिन कम मात्रा में मिलने के कारण महँगा सोना खरीदा भी जाता है और बड़े यत्न से रखा भी जाता है।

लखपति के लि 25-50 या 100-200 रूपये की कोई कीमत नहीं किन्तु गरीब व्यक्ति के लिए तो 1-2 रूपये भी कीमती हैं।

जिनके यहाँ साल-दो-साल में बालक आ जाते हैं उन्हें बालक मुसीबत से लगते हैं जबकि जिनके यहाँ 15-20 साल बाद बालक का जन्म होता है तो उन्हें लगता है कि मानो, साक्षात देवता ही आ गये हों।

इसी प्रकार अगर वह परब्रह्म-परमात्मा यदि आसानी से मिल जाता तो उसका आनंद, उसका माधुर्य नहीं ले पाते लेकिन बहुत यत्न करते-करते जब मिलता है तो खूब आनंद-माधुर्य छलकता है।

यहाँ दूसरा प्रश्न उठ सकता है कि ʹफिर भी सबको तो भगवान नहीं मिलते। क्यों ?

हाँ, यह बात सही है लेकिन सबको न मिलने का कारण होता है। एक होती है इच्छा और दूसरी होती है आकांक्षा। इच्छा केवल दिमाग को घुमाती है जबकि आकांक्षा मन-बुद्धि को उसमें सक्रिय भी करती है। दुर्बल इच्छा या दुर्बल आकांक्षा वाला व्यक्ति ईश्वर की प्राप्ति तक की यात्रा नहीं कर पाता है।

अच्छा, यह बात भी स्वीकार कर ली तो पुनः एक प्रश्न उठ सकता है कि ʹइच्छा बढ़कर आकांक्षा बनती है और आकांक्षा जब तीव्र होती है तब जीव ईश्वर को पाता है। यह बात भी ठीक है परंतु जिसकी दुर्बल इच्छा-आकांक्षा है तो वह यदि ईश्वर के रास्ते चला और ईश्वर नहीं मिला तो फिर उसकी इतनी मेहनत का क्या लाभ ? संसार के आकर्षणों के त्याग का क्या लाभ ?

इसका उत्तर है कि संसार की चीजों को पाने का आपने यत्न किया और वे नहीं मिलीं तो आपका यत्न व्यर्थ गया किन्तु ईश्वर को पाने का यत्न किया और ईश्वर इस जन्म में नहीं मिले तो भी वह यत्न व्यर्थ नहीं जाता।

संसार की चीजें जड़ हैं, उन्हें पता नहीं कि ʹआप उनको पाना चाहते हैंʹ। अतः अगर आपको वे चीजें नहीं मिलतीं, तब भी आपकी दुर्बल इच्छा-आकांक्षाओं को सबल बनाने की ताकत उन जड़ वस्तुओं में नहीं है जबकि आपकी आरंभिक दुर्बल इच्छा-आकांक्षा को देखकर अंतर्यामी परमात्मा सोचता है कि ʹनिर्बल के बल राम….।ʹ देर-सबेर, इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में, इस जन्म की गयी इच्छा-आकांक्षा को, इस जन्म की साधना को पुष्ट बनाकर वह प्रियतम परमात्मा स्वयं ही मिल जाता है।

इस जन्म का वकील, डॉक्टर दूसरे जन्म में पुनः वकील, डॉक्टर बनना चाहे तो जरूरी नहीं कि बन ही जाये ओर अगर बने भी तो उसे आरंभ तो क, ख, ग, घ… , A, B, C, D…. आदि से ही आरंभ करना पड़ेगा। लेकिन इस जन्म का अगर कोई भक्त है तो दूसरे जन्म में उसे फिर से भक्ति की A, B, C, D…. करने की जरूरत नहीं है वरन् जहाँ से भक्ति छूटी है, वहीं से शुरू हो जायेगी।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोभिजायते।।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।।

ʹयोगभ्रष्ट पुरुष शुद्ध आचरणवाले श्रीमान् पुरुषों के घर में जन्म लेता है अथवा ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है।ʹ (गीताः 6.41.42)

आध्यात्मिक सफलता ऊँची चीज है। वह अनायास और जल्दी नहीं मिलती है वरन् ऊँची चीजों के लिए ऊँचा प्रयत्न करना पड़ता और ऊँची चीजों की महत्ता को स्वीकारना पड़ता है। अमर तत्त्व की प्राप्ति, परमात्मा की प्राप्ति की तीव्र इच्छा कोई मजाक नहीं है। उसमें खूब विवेक चाहिए।

जिसकी ईश्वर प्राप्ति की आकांक्षा खूब तीव्र होती है, वह इसी जन्म में ईश्वर को पा लेता है और आकांक्षा अगर तीव्र नहीं है तो कालान्तर में वह तीव्र बनती है और वह ईश्वर को पा लेता है। किन्तु कालान्तर में तीव्र बने, इसका इन्तजार क्यों करो ? बल्कि अभी तीव्र बना लो। जैसे शहद के छत्ते में एक रानी मधुमक्खी होती है। रानी मधुमक्खी जहाँ जाती है वहाँ बाकी की सारी मधुमक्खियाँ उसी का अनुसरण करती हैं। ऐसे ही आपके जीवन में ईश्वरप्राप्ति की इच्छा को रानी बना दो, मुख्य बना दो तो जो कई जन्मों के बाद मिल सकता है वह अमर तत्त्व, वह अमर पद आप इसी जन्म में पा सकते हैं। केवल अपनी आकांक्षा को तीव्र कर दो, बस।

कई लोग व्यवहार में विफल होते हैं तो कहते हैं- ʹभाई ! मैंने धंधा तो किया किन्तु चला नहीं क्योंकि संघर्ष बहुत था… यह काम तो किया लेकिन क्या करें ? भाग्य ही ऐसा था…. पिता-भाई-भागीदार ने साथ नहीं दिया…ʹ वगैरह-वगैरह। सच बात तो यह है कि उनकी आकांक्षा की तीव्रता नहीं होती इसलिए वे विफल होते हैं और दोष देते हैं व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति को।

विफलता का मुख्य कारण यही है कि आकांक्षारूपी रानी मधुमक्खी के अभाव में साधारण मधुमक्खी बैठा देते हैं और दोष परिस्थितियों को देते हैं। ʹभाई ! इसने धोखा दे दिया… उसने ऐसा कर दिया….ʹ जबकि किसी की आकांक्षा तीव्र होती है तो वह कार्य को पूरा करके ही छोड़ता है और उस कार्य में सफल भी होता है।

जैसे, सांसारिक कार्यों में भी व्यक्ति दुर्बल इच्छा व आकांक्षा व असावधानी के कारण विफल होता है, ठीक वैसा ही ईश्वरप्राप्ति का कार्य है। यदि व्यक्ति की ईश्वरप्राप्ति की आकांक्षा तीव्र नहीं होती तो उसका ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य भी सिद्ध नहीं होता। अतः व्यक्ति को चाहिए कि आकांक्षा को तीव्र बनाये।

आकांक्षा को तीव्र कैसे बनाया जाये ? रोज सुबह उठकर संकल्प करें- “मैं अमर तत्त्व को पाऊँगा। जिसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रहता, जिसे जानने के बाद और कुछ जानना शेष नहीं रहता और जिसमें स्थिर रहने के बाद बड़े भारी दुःख से भी आदमी विचलित नहीं होता, जिसमें स्थिर होने के बाद इन्द्र का पद भी तुच्छ लगता है उसी में मैं स्थिर रहूँगा….।” इस संकल्प को रोज जोर से दुहरायें। सूर्योदय और संध्या के वक्त का फायदा लें, उपासना करें। महाभारत में यह लिखा है कि ऐसा करने वाले व्यक्ति की धृति, मेधा और प्रज्ञा बढ़ती है। अतः सूर्योदय और सूर्यास्त के वक्त का उपयोग उपासना में करो। चूको नहीं।

दृढ़तापूर्वक इस छोटे से नियम को पालो। तमाम व्यावहारिक विडंबनाएँ मिटाने का सामर्थ्य और ईश्वरप्राप्ति का रास्ता तय करने में भी इससे आसानी होगी। हिम्मत करो।

आलस कबहुँ न कीजिये आलस अरि सम जानि।

आलस से विद्या घटे बल-बुद्धि की हानि।।

रात को जल्दी सो जाओ, रात्रि का भोजन जल्दी कर लो। सुबह जल्दी उठो और इस संकल्प को आत्मसात् कर लो तो अमर तत्त्व पाने की आकांक्षा बढ़ेगी।

दूसरी बात है कि भगवान की महत्ता जान लो कि भगवान सबसे महान हैं। सब पदों से भी परमात्मपद ऊँचा है। सब यशस्वी और सुखियों से भी परमात्मपद को पाये हुओं का यश और सुख ऊँचा है।

जो लोग दान-पुण्य करके सुखी और यशस्वी होना चाहते हैं, ठीक है… धन्यवाद के पात्र हैं वे, लेकिन परमात्मप्राप्ति वालों का यश और सुख अदभुत होता है। धन या सत्ता के बल से जो यशस्वी और सुखी होना चाहते हैं उनका यश सुख भी स्थायी नहीं होता। जो अपने मधुर स्वभाव के बल से यशस्वी-सुखी होना चाहते हैं उनसे भी परमात्मप्राप्तिवालों का सुख और यश ऊँचा होता है। जो दान-पुण्य नहीं करते हैं उनकी अपेक्षा दान-पुण्य करने वालों का यश-सुख टिकता है लेकिन अखंड आत्मतत्त्व को पाये हुओं का सुख अखंड टिकता है। यश तो उऩ्हीं का स्थायी होता है जो तीव्र प्रयास करके, ऊँचा प्रयास करके ऊँचे में ऊँची चीज आत्मदेव को पा लेता है।

इस प्रकार जितनी-जितनी आप ऊँची चीज पसंद करते हैं उतनी-उतनी ही तीव्र आकांक्षा रखनी पड़ती है। उतना ही ऊँचा पुरुषार्थ करना पड़ता है तभी उतना ऊँचा सुख या यश टिकता है।

बालक छोटे-छोटे खिलौनों से या लॉलीपॉप बिस्किट से भी रीझ जाता है किन्तु वही बालक जब बड़ा हो जाता है तो क्या उसे हीरे के लिए लालीपॉप या बिस्किट से रिझाया जा सकता है ? नहीं, क्योंकि उसकी मति अब कुछ सुयोग्य बनी हैं। ऐसे ही यह जगत भी लालीपॉप या बिस्किट के टुकड़े जैसा है और परमात्मा हीरों का हीरा है। आपकी मति ऐसी बने कि जगत की किसी भी ऊँचाई को पाने की लालच में ईश्वरप्राप्ति की इच्छा को न छोड़ दें। किसी शत्रु को ठीक करने में कहीं आपका ईश्वर न छूट जाये। किसी मित्र को रिझाने में कहीं आपका ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य न छूट जाये। किसी सुविधा को पाने में कहीं आप अपने लक्ष्य से च्युत न हो जायें। कोई असुविधा आपकी ईश्वरप्राप्ति की उमंग को न छुड़वा दे। ऐसी सतर्कता रखनी चाहिए।

गलती यह होती है कि ईश्वरप्राप्ति की इच्छा-आकांक्षा तीव्र न होने के कारण हम ईश्वरप्राप्त की बात को एवं जहाँ ईश्वरप्राप्ति की बात सुनने को मिलती है उन महापुरुषों को सुनते हुए भी नहीं सुनते हैं।

ʹमहाराज ! यह कैसे ? ईश्वरप्राप्ति की जो बातें बताते हैं उन महापुरुषों के वचनों को हम सुनते हुए भी नहीं सुनते, यह कैसे ?ʹ

एक बार गौतम बुद्ध ने यही बात आनंद से कही थी किः “आनंद ! मुझे कोई नहीं सुनता है। सब अपने-अपने को ही सुनते हैं।”

“भंते ! यह कैसे ? सब आपको सुनने के लिए ही तो आते हैं।”

“नहीं आनंद नहीं। सब मुझे सुनने के लिए नहीं आते बल्कि अपने को ही सुनने के लिए आते हैं और जो जैसा है वैसा ही सुनता है।”

आनंद फिर भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। तब बुद्ध बोलेः

“आज खुद ही इस बात का पता चल जायेगा, आनंद !”

शाम का सत्संग पूरा हुआ, तब बुद्ध ने प्रतिदिन की तरह आज भी दुहराया किः “जाओ, समय बीता जा रहा है… अपने-अपने काम में तत्परता से लगो। दिया हुआ वायदा जरूर निभाना चाहिए। बीता हुआ समय वापिस नहीं आता है। अपना वायदा निभाने वाला व्यक्ति ही सफल होता है।”

इतना कहकर बुद्ध उठे एवं राहगीरों के रास्ते पर आनंद को लेकर खड़े हो गये। पहले-पहले एक वेश्या निकली। उससे पूछाः “तुमको आज सत्संग में कौन सी बात अच्छी लगी ?”

“भगवन् ! आप और यहाँ !! आप सचमुच में भगवान हैं, अंतर्यामी हैं। आज की यह बात तो बहुत ही बढ़िया थी कि ʹदिया हुआ वचन निभाना चाहिए।ʹ आज मैं एक बड़े सेठ को वक्त दे आयी थी और आपने मुझे वक्त पर ही अपना वायदा याद दिला दिया। आप सचमुच ही अंतर्यामी हैं।”

इस प्रकार वेश्या ने अपने को ही सुना, बुद्ध को नहीं।

इतने में दूसरा आदमी निकला। उससे पूछाः “भाई ! आज तुम्हें सबसे ज्यादा क्या बढ़िया लगा ?”

उसने कहाः “वायदा निभाने वाली बात बहुत बढ़िया थी। आज हमने साथियों को वायदा दे रखा है और जहाँ डाका डालना है वहाँ यदि वक्त निकल जायेगा तो हम विफल हो जायेंगे। अतः वक्त कहीं बीत न जाये, इसकी याद दिला दी भंते ने।”

डाकू ने भी अपने को ही सुना। इतने में एक भिक्षु को रोका और उससे पूछाः

“भैया ! आज तुमने क्या सुना ?”

भिक्षुः “हर मनुष्य माँ के गर्भ में प्रार्थना करता है कि ʹहे प्रभु ! बाहर निकलकर तेरा भजन करेंगे।ʹ यह वादा करके गर्भ से बाहर निकलता है कि ʹअब वक्त व्यर्थ नहीं करेंगे, अपना जीवन सार्थक करेंगे।ʹ भंते ! आप भी रोज कहते हैं कि ʹसमय बीत रहा है…ʹ मौत कब आकर गला दबोच ले इसका कोई पता नहीं है इसलिए वक्त का सदुपयोग करेंगे। कहीं असत् वस्तुओं में वक्त न चला जाये, असत् आकांक्षाओं में वक्त न चला जाये, असत् इच्छाओं में वक्त न चला जाये क्योंकि ʹबीता हुआ समय फिर वापस नहीं आता।ʹ आपकी यह बात हमें बहुत जँची।”

तब बुद्ध ने आनंद से कहाः “देख आनंद ! इसने भी अपने को ही सुना है। यह भिक्षु है, इसलिए अपने को ठीक ढंग से सुना है। डाकू और वेश्या ने अपने ढंग से सुना था और भिक्षु ने अपने ढंग से। इस प्रकार सब अपने को ही सुनते हैं।”

फिर भी जैसे पिता बच्चे की हजार-हजार बात मान लेते हैं और बच्चे की भाषा में अपनी भाषा मिला देते हैं, ʹरोटीʹ को ʹलोतीʹ बोल लेते हैं ताकि बच्चा आगे चलकर पिता की भाषा सीख ले। ऐसे ही बुद्ध पुरुष आपकी हजार-हजार ʹहाँʹ में ʹहाँʹ भर लेते हैं ताकि एक दिन तुम भी उनकी हाँ में हाँ भरने की योग्यता पा लो। ईश्वरप्राप्ति की इच्छा-आकांक्षा तीव्र करके मुक्त होने का सामर्थ्य पा लो।

ईश्वरप्राप्ति की आकांक्षा अगर तीव्र हो गयी तो फिर मुक्ति पाना तो वैसे भी सहज ही हो जायेगा और इसके लिए आवश्यक है साधन भजन की तीव्रता।

मान लो, किसी दुकानदार का लक्ष्य है रोज 2000 रूपये का धंधा करना। रात होते-होते उसका 2500-3000 रूपयों का धंधा हो जाता है। एक दिन अगर उसने सुबह-सुबह ही 4500 रूपयों का धंधा कर लिया तो क्या वह दुकान बंद कर देगा कि आज का लक्ष्य पूरा हो गया ? नहीं नहीं, वह सारा दिन दुकान चालू रखेगा कि 5000 रूपयों का धंधा हो जाये… 6000 रूपयों का हो जाये। जब मनुष्य को नश्वर धन मिलता है तब भी वह लोभ बढ़ा लेता है ऐसे ही शाश्वत साधन-भजन और निष्ठा में लोभ बढ़ा दे तो तीव्र आकांक्षा आत्मसाक्षात्कार करा देगी।

कबीरजी ने कहा हैः