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Self Realization

परमानंद प्राप्ति का मार्ग – संत पथिक जी महाराज


मनुष्य का ही नहीं वरन् प्राणिमात्र का लक्ष्य है दुःख का सर्व प्रकार से अभाव और सुख में निरंतर स्थिति। और वह अविनाशी परमानंद केवल पूर्णता में ही मिलेगा। अभी तक तुमने जितने आधारों को आनंदप्राप्ति के लिए पकड़ा, वे सभी अपूर्ण ही हैं। जब तुम पूर्ण तत्त्व को समझ लोगे तभी पूर्णानंद के दर्शन भी होंगे। अब यह भी देख लो कि वह पूर्ण तत्त्व है क्या ? सोचकर सदगुरु के महावाक्यों पर ध्यान दो। वह पूर्ण तत्त्व अखण्ड रूप से  व्यापक है पर अपनी धुन में दीवाने पथिक तो चलते ही रहते हैं। प्यारे साथी ! यदि तुम न भी चलो तो कब तक ? अंत में मायाबंधन, दुःखों से निकलना ही पड़ेगा। तब इधर जितना समय खो दोगे उसका पश्चात्ताप ही तो होगा ! अतः अब कायर न बनना, कहीं रुक न जाना। हे पथिक ! आओ, अब अपने परमानंद-लक्ष्य की ओर चलने का पथ जो सद्विचार है, उसी जगह चलो। पथिक ! सावधान होकर समझो।

आओ, प्रथम भगवान सद्गुरुदेव की मंगलकारी स्तुति करते हुए इस शुभ मुहूर्त को र भी परम शुभ बनावें।

अब हम पर तुम दया करो गुरुदेव जी….

कितने दिन से भटक रहे हैं, दुःख के काँटे खटक रहे हैं।

कहाँ-कहाँ हम अटक रहे हैं, करूणाकर मम हाथ धरो।।

मैं आचार विचार हीन हूँ, निर्बल हूँ, अतिशय मलीन हूँ।

यही विनय सब भाँति दीन हूँ, मोहि न परखो खोंट खरो।।

तुम ही मेरे सदगति दाता, तुम ही पिता तुम्हीं हो माता।

तुम ही सरबस सबविधि त्राता, आज हमारे क्लेश हरो।।

अब हम पर तुम दया करो गुरुदेव जी….

पथिक रूप में अविनाशी आत्मन् ! तुमने सद्गुरु, संत-सत्संग, कृपा के बल से अपने परम लक्ष्य परमानंद का जो सद्विचार ग्रंथ है, उसे तो पा लिया। अब इस पथ में यात्रा करने के लिए सद्विवेकरूपी दृष्टि खोलो। इसके द्वारा ही तुम पग-पग पर सावधान होकर कुशलता से चल सकोगे।

स्मरण रहे, उसी समय तुम्हारी दृष्टि के आगे धुँधलापन आ जायेगा, जब तुम अपनी कामनाओं के पीछे दौड़ना शुरु करोगे, तब तुम उस सत्य-प्रकाश के पथ में न जाओगे। सावधान रहो कि तुम्हारे ही मनोविकार तुम्हारी उन्नति में बाधक और दुःखद हो सकते हैं। अतः इन पर दृढ़ संयम रखो। देखो, जब तुम्हारी सद्गुरु-प्रदत्त विवेकदृष्टि कुछ विकृत हो जाय तो कहीं भी इधर-उधर मत दौड़ो। अपने पथ-प्रदर्शक की, संतों की शरण में जाकर अपनी क्षति ठीक करो, यही एकमात्र उपाय है। अपने सद्गुरु के ध्यान को कभी न भूलो, तुम्हारी यात्रा उन्हीं की परम कृपा से हो रही है। तुम अपनी इस यात्रा में दूसरों की सहायता का भरोसा रखने की अपेक्षा अपने अंतर्बल का विश्वास करो। तुम्हारे साथ केवल श्री सद्गुरु की कृपा ही बहुत विशेष है, उसी विश्वास पर उत्साहपूर्वक इधर-उधर न झाँकते हुए सामने पैर बढ़ाओ।

हे पथिक ! अब आगे जो कुछ भी जानना बाकी है, उसे तुम वस्तुतः सद्गुरुदेव से ही जान सकोगे। अतः सद्गुरुदेव की दिव्य वाणी को सुनो, उन्हीं का आश्रय लो और जब तक कुछ भी चाह है तब तक परमेश्वर का अनन्यभाव से अवलम्बन लो, अन्यत्र कहीं भी दृष्टि न डालो। वे ही एक सबका परमाश्रय हैं। उनका ही सतत चिंतन, स्मरण, ध्यान करते रहो। चिंतन की महिमा का फल तो तुम्हारे आगे प्रत्यक्ष ही है। जो जिसका चिंतन, ध्यान करता है, वह उसी को प्राप्त होता है। अतः तुम अपने परम लक्ष्य परमानंदमय परमात्मा का ही निरंतर स्मरण, स्वभाव, गुण चिंतन करते हुए सद्व्यवहारपूर्वक अपने कर्तव्यपालन में दृढ़ रहो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 10 अंक 223

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पपीहे जैसा नियम हो तो प्रभुप्राप्ति इसी जन्म में हो जाय


जयदयालजी गोयन्दका

कोई भी मनुष्य यदि दृढ़ निश्चय कर ले कि आज भगवान अवश्य मिलेंगे तो इसमें कोई संदेह नहीं कि उसे भगवान आज मिलेंगे। ऐसा निश्चय करना तो अपना काम है। इसमें भगवान की दया को भी निमित्त बना लें। जैसे कोई परम मित्र के पहुँचने का तार आ जाय तो हम उसके स्वागत के लिए कितनी व्यवस्था करते हैं और प्रतीक्षा करते हैं, ऐसे ही प्रभुप्राप्ति की प्रतीक्षा करनी चाहिए। प्रभु इस बात को जानते हैं कि कौन उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। आज उन्हें सच्चे मन से पुकारेंगे तो आज ही आपसे मिलनि की उन्हें फुर्सत मिल जायेगी।

उसमें दो प्रकार की दशाएँ होती हैं – एक तो आर्तभाव, परम व्याकुलता जैसे मछली को जल से अलग होने पर होती है जड़ तो जड़ है, प्रभु चैतन्य हैं, वे बड़े दयालु हैं। दूसरा भाव प्रेम का है। जैसे मित्र के आने का दृढ़ निश्चय होता है, उसमें प्रसन्नता एवं प्रतीक्षा होती  है इसी प्रकार प्रभु में प्रेम होने पर वे अवश्य पहुँच जाते हैं। नियम और प्रेम दोनों रखें। नियम पपीहे का होता है, वह स्वाति की बूँद से ही अपनी प्यास बुझाना चाहता है। बादल बरसें तब भी उसका नियम नहीं टूटता, प्रेम में कमी नहीं आती। यहाँ तक कि उसके प्राण भी चले जायें, तब भी वह नियम नहीं तोड़ता। इसमें बादल तो जड़ हैं, वैसे ही बरस जाते हैं। प्रभु तो चैतन्य हैं और बड़े दयालु हैं, वे अपने प्रेमी को मरने नहीं देते।

इसी प्रकार हम भी नियम ले लें कि सिवाय प्रभु के और कुछ भी नहीं चाहिए। किसी का चिंतन न करें तो हमें प्रभु अवश्य ही मिलेंगे। ‘हमें कैसे मिलेंगे ?’ पहले से ही ऐसा विपरीत निश्चय नहीं करना चाहिए। दृढ़ विश्वास होना चाहिए।

कई लोग सोचते हैं कि अमुक महाराज दया कर दें, कह दें तो हमको ईश्वरप्राप्ति हो जायेगी, भगवान मिल जायेंगे। ऐसी अवस्था में भगवान से मिलने की आवश्यकता ही क्या है, जब किसी के कहने से मिलें।

करोड़ों में कोई एक भगवत्प्राप्त मनुष्य होता है और उनमें भी कोई विरला ही होता है जो भगवान को मिला सके। कोई कहे कि भगवत्प्राप्त पुरुष मार्ग तो बतला सकते हैं। यह ठीक है तो फिर लोग इतने अच्छे मार्ग पर क्यों नहीं चलते ? इसका उत्तर यही है कि इस विषय में उन्हें विश्वास नहीं है। इसी कारण समस्त संसार की यह दशा हो रही है।

बात रही महापुरुष की दया की, भगवान की दया की वह तो सतत रहती ही है। फिर भी काम नहीं होता तो यह मानना पड़ेगा कि हमें उनकी दया में विश्वास नहीं है। हमने उनकी दया को माना नहीं है, बात वास्तव में यही है।

गजेन्द्र, द्रौपदी आदि ने विश्वास से भगवान को बुलाया तो भगवान इनके पास अतिशीघ्र पहुँच गये। यद्यपि इनको दुःख-निवारण की ही आवश्यकता थी।

केवल भगवान से मिलने के लिए भगवान को चाहे तो वह तो बात ही कुछ और होती है। ऐसे भक्त से शीघ्र मिलने की भगवान की भी इच्छा हो जाती है, इसलिए ऐसा समझना चाहिए कि प्रभु की इच्छा तो पूरी होगी ही। हमारी इच्छा पूरी हो इसमें हम लाचार हैं, पर प्रभु की इच्छा पूरी न हो ऐसा नहीं हो सकता।

जब हमारी इच्छा केवल और केवल उनसे मिलने की हो जायेगी तो सारा भार भगवान पर आ जायेगा और ऐसे प्रेमी भक्त के वश होकर भगवान उससे मिल जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 17,19 अंक 213

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परमात्म-प्राप्ति के सोपान


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

परमात्मा अच्छे हैं… दयालु हैं…. कृपालु हैं…. वास्तव में ऐसा कहनी भी अपनी बालबुद्धि का परिचय है। परमात्मा के विषय में जो लोग शेखी बघारते हैं, वे समझो, परमात्मा को गाली ही देते हैं, लेकिन ये तोतली भाषा की मीठी गालियाँ हैं, इनसे ईश्वर को मजा आता होगा।

जैसे, कोई अपने करोड़पति पिता को बोलेः “पिता जी ! आपके पास तो बहुत सारे रुपये हैं। आप तो तीन हजार रुपये के मालिक हैं।”

पिता भी कह देता हैः “हाँ, बेटा ! ठीक है।”

ऐसे ही लोग भगवान को कह देते हैं कि ‘भगवान ! आप तो त्रिलोकीनाथ हैं। आप तो चौदह भुवनों के स्वामी हैं।’

अरे ! क्या आपको पता है कि आपके शरीर में कितने जीवाणु (बैक्टीरिया) हैं ? नहीं, ऐसे ही सृष्टिकर्ता ईश्वर को भी पता नहीं है कि कितनी सृष्टियाँ हैं मेरे में।

यहाँ कोई संदेह कर सकता है कि ‘ईश्वर तो सर्वान्तर्यामी हैं फिर भी उनको पता नहीं ?’ जैसे आप अपने पूरे शरीर को जानते हो – पैर पर चींटी चले, नाक पर मच्छर काटे और कान पर मक्खी बैठे तो आपको एक साथ अनुभव होगा कि क्रमशः होगा ? एक साथ अनुभव होगा। आप सारे शरीर में सर्वव्यापी हो फिर भी शरीर में कितने जीवाणु (बैक्टीरिया) हैं आप गिनकर नहीं बता सकते। ऐसे ही ईश्वर में कितनी सृष्टियाँ हैं, वह ईश्वर को भी पता नहीं है। जब ईश्वर को ही पता नहीं तो आपको-हमको कैसे पता चलेगा ?

कई कोट पाताल के वासी।

कई कोट जतींदर जोगी।

कई कोट ब्रह्मरस भोगी।।

कई करोड़ ब्रह्मज्ञानी हो गये। भले इस लोक में ही या अन्य लोक में। वे ब्रह्मज्ञान की चर्चा करते-करते ब्रह्मरस का पान करते हैं।

ब्रह्म परमात्मा की चर्चा हो रही है, यह भी तो ब्रह्मरस है। बिना वस्तु, बिना व्यक्ति, बिना सुविधा के भी अंदर का रस आ रहा है – यह ब्रह्मरस है, परमात्म-रस है।

विषय विकारों का जो रस होता है, वह संसार में गिराता है।  ध्यान का रस है शांत रस, जो सामर्थ्य बढ़ाता है। भगवद् रस भाव को बढ़ाता है और तत्त्वज्ञान का रस नित्य एकरस रहता है। जीवनमुक्ति रस नित्य नवीन रस है। जिसने इस रस को पाया है उसका फिर पुनर्जन्म नहीं होता है।

लोगों का भगवान उनका माना हुआ भगवान है क्योंकि लोगों को भगवत्स्वरूप का ज्ञान नहीं है।

जो भगवान सदा है, वह सर्वत्र भी है। जो सर्वत्र है, वह सबमें है। जो सबमें है वह हममें भी है। जो कभी है और कभी नहीं हैं, वे भगवान नहीं हो सकते। जो कहीं हैं और कहीं नहीं हैं, वे भगवान नहीं हो सकते हैं। भगवान के रूपविशेष हो सकते हैं।

परब्रह्म परमेश्वर तो सारे संसार में व्याप्त हैं। किसी व्यक्ति ने महात्मा से पूछाः “महाराज ! सर्वत्र भगवान हैं ?”

महात्माः “हाँ।”

व्यक्तिः “महाराज ! आप पक्का कहते हैं ?”

महात्माः “अरे, पक्का नहीं तो कच्चा है क्या ?”

व्यक्तिः “महाराज ! आपको मिले हैं ?”

महात्माः “हाँ।”

व्यक्तिः “आपको सर्वत्र दिखते हैं ?”

महात्माः “हाँ।”

व्यक्तिः “महाराज ! फिर हम लोगों को क्यों नहीं दिखते ?”

महात्माः “मुफ्त में सवाल का जवाब पूछेगा ? कुछ सेवा वगैरह भी कर, दूध तो पिला।”

वह व्यक्ति कटोरा भर कर दूध ले आया और बोलाः “लीजिये, महाराज !”

महाराज ने पूछाः “दूध में मक्खन होता है और दूध से ही घी निकलता है न ?”

व्यक्तिः “हाँ, महाराज !”

महात्माः “दूध में ही घी अथवा मक्खन व्याप्त है न ?”

व्यक्तिः “हाँ, महाराज !”

महाराज ने दूध में उँगली घुमाते हुए कहाः “झूठ बोलता है। कहाँ व्याप्त है ?”

व्यक्तिः “महाराज ! व्याप्त है लेकिन दिखता नहीं है। देखने के लिए पहले दूध को गरम करना पड़ेगा, फिर इसमें दही डालकर जमाना पड़ेगा, फिर इसे मथना पड़ेगा। उसके बाद मक्खन निकलेगा।”

महात्माः “बस, ऐसे ही परमेश्वर सर्वत्र है। पहले संयम आदि करके अपने हृदय को, अपने अंतःकरण को शुद्ध करो। फिर ध्यान करके इसमें परमात्मभाव को, ज्ञान को जमाओ। फिर आत्मविचार करके अनात्मा को छोड़ते जाओ और आत्मा को, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ को समझते जाओ तो परमात्म-प्राप्तिरूपी मक्खन तैयार ! तब सर्वत्र व्याप्त परमेश्वर के दर्शन हो सकते हैं। दूध पीना नहीं था, केवल तुझे समझाना था। जा, दूध ले जा। जैसे दूध में मक्खन व्याप्त है, वैसे ही सर्वत्र परमेश्वर व्याप्त है।”

उस सर्वत्र व्याप्त परमेश्वर को जानने के लिए सोपान हैं-

पुराने संस्कारों के आकर्षणों को निकालना। मनुष्य को चाहिए कि अपने पुराने दोषों को निकालने का यत्न करे। पुरानी वासना के अनुसार जो मन बह रहा है उसको ईश्वर की ओर मोड़े।

गुणों का आदान करना। भगवान सर्वगुण-सम्पन्न हैं। किसी में बुद्धि की कुशलता है। किसी में बल की प्रधानता है। किसी में समता का गुण। किसी में सत्य का गुण है। किसी में स्मृति निखरी है। किसी में निर्भयता निखरी है। ये जो सारी निखारें हैं वे उस परब्रह्म परमात्मा की ही सत्ता की किरणें हैं।

अपने चित्त में गुणनिधि परमेश्वर हैं। उनका जो गुण अपने में निखरा है, उस गुण को निखारते-निखारते गुण के मूल (परमेश्वर) को धन्यवाद देना चाहिए, उन्हीमें विश्रांति पानी चाहिए। जैसे श्रीकृष्णावतार में प्रेम-गुण का निखार है, श्रीरामावतार में सत्य-गुण का विशेष निखार है, कपिलावतार में आत्मज्ञान का विशेष निखार है तथा नृसिंहावतार और परशुराम अवतार में बल के गुण का निखार है।

ऐसे ही अपने जीवन में भी किसी न किसी गुण का निखार होता ही है। किसी में श्रद्धा के गुण का निखार है, किसी में समता का निखार है तो किसी के जीवन में एक दूसरे में सुलह कराने का, शांति स्थापित करने के गुण का निखार है। श्रद्धा, शांति, प्रेम, समता, निर्भयता आदि जो भी सदगुण हैं वे सारे सदगुण सत्यस्वरूप ईश्वर के ही हैं।

अपने जीवन में भी कोई न कोई विशेष गुण आपको मिलेगा। जो कुछ विशेषता है वह उस सच्चिदानंद की विशेष किरण है। सब लोगों की विशेषता अपने में न भरो तो कोई बात नहीं लेकिन अपनी विशेषता को निखारते-निखारते आप उस गहराई में शांत हो सकते हो, जहाँ से वह विशेषता आती है। जैसे सूर्य की भिन्न-भिन्न किरणें सूर्य के ही आधार से दिखती हैं, वैसे ही समस्त गुणों का आधार है परमात्मा। उस गुणनिधान परमात्मा में ही विश्रांति मिले ऐसा प्रयास करना चाहिए एवं दूसरों की विशेषताओं का आदर करना चाहिए। जो दूसरों की विशेषताओं का आदर करना चाहिए। जो दूसरों की विशेषताओं का आदर नहीं करता उसमें मत्सर दोष आ जाता है। मात्सर्यवाला पुरुष दूसरे के गुणों को नहीं देख सकता है।

परमात्मा को जानने का तीसरा सोपान है-आत्मचिंतन करना। गुण-दोषमयी दृष्टि एवं पाप-पुण्य का मिश्रण लेकर मनुष्य शरीर बना है। उन पाप-पुण्यों के प्रभावों को मिटाने के लिए आत्मचिंतन करें।

आत्मचिंतन का मतलब क्या है ? जैसे यह पुष्पों की माला है तो ‘यह माला है, मैं माला नहीं हूँ। माला मुझे दिखती है तो मुझसे अलग है।’ ऐसे ही ‘यह हाथ है, मैं हाथ नहीं हूँ…. यह शरीर, मैं शरीर नहीं….. मैं मन नहीं…. मैं इन्द्रियाँ नहीं…’ इस प्रकार नहीं, नहीं करते-करते मन शांत हो जायेगा। शून्यमना हो जायेगा। ऐसी निःसंकल्प अवस्था आत्मचिंतन से प्राप्त होती है। आरम्भ में यह निःसंकल्प अवस्था भले एक सेकेण्ड के लिए हो फिर बढ़ाते-बढ़ाते दो सेकेण्ड की हो जायेगी। ऐसा करते-करते मन यदि भागने लगे तो ॐ का दीर्घ उच्चारण करें, ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ का जप करें अथवा श्वासोच्छ्वास की गिनती करने लगें या विशाल आकाश की ओर दृष्टि करके वृत्ति व्यापक करने से मन निःसंकल्प नारायण के सुख में स्थित होने लगेगा।

इन तीन सोपानों को पार करके मनुष्य सर्वत्र व्याप्त परमात्मा का दीदार करने में सफल हो सकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 110

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