Tag Archives: Ishwar Prapti

Self Realization

Rishi Prasad 270 Jun 2015

गुरुदेव की अंतर्वाणी


हे साधक ! ‘अपने उस आत्मस्वरूप को, मधुरस्वरूप को, मुक्तस्वरूप को हम पाकर रहेंगे’ – ऐसा दृढ़ निश्चय कर। विघ्न बाधाओं के सिर पर पैर रखता जा। यह मन की माया कई जन्मों से भटका रही है। अब इस मन की माया से पार होने का संकल्प कर। कभी काम, क्रोध, लोभ में तो कभी मद, मात्सर्य में यह मन की माया जीव को भटकाती है। लेकिन जो भगवान की शरण हैं, गुरु की शरण हैं, जो सच्चिदानंद की प्रीति पा लेते हैं वे इस माया को तर जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। ( गीताः 7.14)
माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। भगवान के जो प्यारे हैं, गुरु के जो दुलारे हैं, माया उनके अनुकूल हो जाती है।
जैसे शत्रु के कार्य पर निगरानी रखते हैं, वैसे ही तू मन के संकल्पों पर निगरानी रख कि कहीं यह तुझको माया में तो नहीं फँसाता। संसार के भोगों में उलझना है तो बहुतों की खुशामद करनी पड़ेगी, बहुतों से करुणा-कृपा की याचना करनी पड़ेगी, उस पर भी कंगालियत बनी रहेगी और सच्चा सुख पाना है तो बस, भगवत्स्वरूप गुरु की रहमत काफी है।
बेटा ! शरीर से भले तू दूर है लेकिन मेरी दृष्टि से तू दूर नहीं है, मेरे आत्मस्वभाव से तू दूर नहीं है। मैं तुझे अंतर में प्रेरित करता हूँ। तू अच्छा करता है तो मैं धन्यवाद देता हूँ, बल बढ़ाता हूँ। कहीं गड़बड़ करता है तो मैं तुझे रोकता-टोकता हूँ। तू देखना मेरे चित्र की ओर। जब तू अच्छा करेगा तो मैं मुस्कराता हुआ मिलूँगा और जब तू गड़बड़ करेगा तो उसी चित्र में मेरी आँखें तेरे को नाराजगी से देखती हुई मिलेंगी। तू समझ लेना कि हमने अच्छा किया है तो गुरु जी प्रसन्न हैं और गड़बड़ की तो गुरु जी का वही चित्र तुझे कुछ और खबरें देगा। गुरुमंत्र के द्वारा गुरु तेरा अंतरात्मा होकर मार्गदर्शन करेंगे। तू घबराना मत !
सदाचारी के बल को अंतर्यामी पोषता है और वही देव दुष्ट आचरण करने वाले की शक्ति हर लेता है, उसकी मति हर लेता है। रब रीझे तो मति विकसित होती है और जिसकी मति विकसित होती है वह जानता है कि आखिर कब तक ? ये संबंध कब तक ? ये सुख-दुःख कब तक ? ये भोग और विकारों का आकर्षण कब तक ? आपका विवेक जगता है तो समझ लो रब राज़ी है और विवेक सोता है, विकार जगते हैं तो समझ लो रब से आपने पीठ कर रखी है, मुँह मोड़ रखा है। रब रूसे त मत खसे। ना-ना…. दुनिया के लिए रब से मुँह मत मोड़ना। रब के लिए भले विकारों से, दुनिया से मुँह मोड़ दो तो कोई घाटा नहीं पड़ेगा क्योंकि ईश्वर के लिए जब चलोगे तो माया तुम्हारे अनुकूल हो जायेगी।
जो ईश्वर के लिए संसार की वासनाओं का त्याग करते हैं, उन्हें ईश्वर भी मिलता है और संसार भी उनके पीछे-पीछे चलता है लेकिन जो संसार के लिए ईश्वर को छोड़कर संसार के पीछे पड़ते हैं, संसार उनके हाथों में रहता नहीं, परेशान होकर सिर पटक-पटक के मर जाते हैं और जो चीज कुछ पायी हुई देखते हैं, वह भी छोड़कर बेचारे अनाथ हो जाते हैं। इसीलिए हे वत्स ! तू अपने परमात्म-पद को सँभालना। उस प्रेमास्पद की प्रेममयी यात्रा करना।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2015, पृष्ठ संख्या 24, अंक 270
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Rishi Prasad 267 Mar 2015

ईश्वरप्राप्ति में बाधक और तारक ग्यारह बातें – पूज्य बापू जी


ईश्वरप्राप्ति में बाधक क्या है ? मान की चाह, अति भाषण, यश की लोलुपता, अधिक निद्रा, अधिक खान-पान, धन की लोलुपता – धन की माँग या दान की माँग। सातवी है कि अत्यन्त छोटी-छोटी बातों में, छोटे-छोटे लोगों में या छोटी-मोटी, हलकी पुस्तकों में उलझना और आठवीं बात है क्रोध और द्वेष। गुस्से-गुस्से में निर्णय लेना, ‘यह ऐसा है, वह ऐसा है….’ अपने अंदर गंदगी नहीं होगी तो दूसरे की गंदगी का महत्तव नहीं लगेगा। नौवीं है कामासक्ति। कामासक्ति भी आदमी को बेईमान और ईश्वर से दूर कर देती है। दसवीं है आलस्य और ग्यारहवीं है शौकीनी। ये ग्यारह बातें नाश का साधन हैं। इनसे बचें और हितकारी ग्यारह बातें अपने जीवन में लायें। गंदी आदत और गंदे स्वभाव का त्याग करें।
हितकारी ग्यारह बातें हैं – सत्संग में रुचि, दया, सबसे मैत्री, नम्रताभरा और शास्त्रोचित व्यवहार, व्रत-नियम, तपस्या, पवित्रता और सहनशीलता। सहनशीलता की कमीवाला भगेड़ू होता है। दसवीं बात है मितभाषण और ग्यारहवीं है स्वाध्यायशीलता।
एक दिन भी मेरे गुरुदेव स्वाध्याय के बिना नहीं रहे 93 साल की उम्र तक ! जब महाप्रयाण कर रहे थे उस समय भी सत्संग की बात सुनायी कि “शरीर में पीड़ा हो रही है, इसका प्रारब्ध है। मैं इस पीड़ा का साक्षी चैतन्य आत्मा हूँ।”
स्वाध्यायान्मा प्रमदः। तैत्तिरीयोपनषिद् 1.11
सत्संग व सत्शास्त्र का विचार करने में आलस्य नहीं करो, लापरवाही न करो।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 19 अंक 267
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

मनुष्य जीवन किसलिए ? – पूज्य बापू जी


ईश्वरप्राप्ति में बहुत मजा है, यह बहुत सुगम है। संसार-सागर तरना गाय के खुर को लाँघने के समान सुगम है – यह बाद में पता चला, पहले मैंने भी बहुत पापड़ बेले थे। लेकिन मेरे गुरुदेव को जो मेहनत करनी पड़ी थी, उसका सौवाँ हिस्सा भी मुझे नहीं करनी पड़ी। अनजाने में मुझे जितनी मेहनत करनी पड़ी, उसका हजारवाँ हिस्सा भी तुमको नहीं करनी है।
माँ को कितनी मेहनत करनी पड़ती है – गेहूँ लाओ, सब्जी लाओ, रोटी बनाओ पर बेटे को तो बस चबाना है। गाय को मेहनत करनी होती है – चारा खाना, चबाना लेकिन बछड़े को तो बस ‘सकुर-सकुर’ दूध पीना है। उसको तो मुँह हिलाना पड़ता है, तुमको तो मुँह भी नहीं हिलाना केवल कानों के द्वारा सुनना है, तैयार माल पड़ा है।
दुनियादारी की सारी विद्याएँ सीख लो, सबकी बातें मान लो पर दुःखों का अंत नहीं होगा और परमानंद नहीं मिलेगा।
जीवन केवल दुःख मिटाने और बाहरी सुख पाने के लिए नहीं है। नौकरी करते हैं तो सुखी होने के लिए, फर्नीचर खरीदते हैं तो सुखी होने के लिए, शादी करते हैं तो सुखी होने के लिए, तलाक देते हैं तो सुखी होने के लिए, झुकते हैं तो सुखी होने के लिए, रोब मारते हैं तो सुखी होने के लिए, रोते हो तो सुख के लिए। दुःख मिटाना और सुख को थामना यही तो दो काम करते हो जीवनभर ! तीसरा क्या करते हो ?
सुबह से शाम तक और जन्म से मौत तक सभी लोग यही कर रहे हैं। आश्चर्य तो यही है कि दुःख को भगाते-भगाते और सुख को थामते-थामते जिंदगी पूरी हो जाती लेकिन अंत में दुःख ही रह जाता है। लोग मरते समय दुःखी हो के, चिंता ले के मरते हैं क्योंकि मूल में ही गलती आ गयी। मुझमें भी थी, मैं भी तुम्हारी पंक्ति में ही था। हम भी दुःख भगाने और सुख को पाने में लगे थे। जब गुरु के द्वार गये तो उन परम दयालु सदगुरु दाता ने घर में घर दिखा दिया…. दिल में ही दिलबर का दीदार कर दिया।
तो जीवन दुःख मिटाने और परम सुख पाने के लिए है, ज्ञानदाता सदगुरु का आश्रय लेकर जीवनदाता का साक्षात्कार करने के लिए है।
दुःखों-परेशानियों से डरने का कारणः अज्ञान
एक विद्यालय के बंद होने से उस विद्यालय का मास्टर सर्कस में नौकरी करने चला गया। सर्कसवालों ने कहाः “ठीक है, हम तुमको शेर की खाल पहना देंगे और तार पर चलना सिखा देंगे।” सारी व्यवस्था हो गयी, करतब सिखा दिया गया।
पहले दिन मास्टर साहब को को शेर का जामा पहनाकर तार पर चलने के लिए सर्कस में लाया गया। मास्टर साहब ने नीचे देखा तो शेर गुर्रा रहे हैं। अब इनका गुर्राना और चलना तो सही था लेकिन नीचे गुर्राते हुए शेरों को देखकर मास्टर डर गये कि ‘कहीं मैं नीचे गिर गया तो ये मुझे फाड़कर खा लेंगे !’ डर के मारे बेचारा घबराकर नीचे गिर गया, बोलाः “हे भगवान ! बचाओ।”
गुर्राने वाले शेरों ने धीरे से कहाः “पागल ! हम भी उसी विद्यालय के हैं। हमने भी तुम्हारे जैसी खाल पहनी है। डर मत, नहीं तो हृदयाघात हो जायेगा। हम भी दिखावटी शेर हैं।”
हम सभी ऐसे ही दिखावटी शेर हैं। ‘यह कर लूँगा, यह कर लूँगा…’ लेकिन अंदर से धक-धक चलती है। जरा सी प्रतिकूलता आती है तो डर जाते हैं। सुखद स्थिति आ जाये चाहे दुःखद स्थिति आ जाय, दोनों में विचलित न हों। दुःख पैरों तले कुचलने की चीज है और सुख बाँटने की चीज है। आप तो अपने परम ज्ञान में रहिये, परम पुरुष गुरु के तत्त्व में रहिये।
समझदार लोग परिस्थितियों से घबराते नहीं अपितु संतों से, सत्संग से सीख लेते हैं और सुख-दुःख का सदुपयोग करके बहुतों के लिए सुख, ज्ञान-प्रसाद व प्रकाश फैलाने में लगकर धनभागी होते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 21, अंक 266
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ