सभी में भगवान हैं और सभी भगवत्स्वरूप हैं लेकिन भटक रहे हैं क्योंकि कुसंग ज्यादा है, सत्संग कभी-कभार मिलता है । सत्संग में दृढ़ता रहे तो कोई तकलीफ, मुसीबत टिक नहीं सकती । प्रारब्ध वेग से तकलीफ, मुसीबतें आयेंगी परंतु उनका आप उपयोग कर लोगे ।
कोई भी तकलीफ आये तो उसको इतना महत्त्व न दो कि आप दब जाओ और कोई भी अच्छा अवसर आये तो उसका इतना महत्त्व न दो कि उन सुविधाओं के आगे तुम दीन हो जाओ । जैसे जलेबी देखी तो पूँछ हिलाने लग गया और जरा सा डंडा देखा तो पूँछ दबा के चल पड़ा । इतना तो ये कुत्ते-बिल्ले भी जानते हैं । मनुष्य भी प्रतिकूलता में दब्बू हो गया, अनुकूलता में हर्षित हो गया तो अभी उसकी मति मिथ्या से इतनी सत्य की तरफ झुकी नहीं है । मति को सत् की तरफ लगाओ तो मति का बहुत-बहुत शीघ्र विकास होता है ।
सुबह उठते समय चिंतन करोः
‘प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वं…
प्रातःकाल में उठने पर जिसकी सत्ता से ‘मैं’ स्फुरित होता है, जाग्रत में मैं उसी परमेश्वर का चिंतन करता हूँ । परमेश्वर शांतरूप हैं, आनंदरूप हैं, सब अवस्थाओं के जानकार हैं । हैं न साँईं ? प्रभु जी ! हो न, हो न, हो न ?…’
इस प्रकार प्रभु के साथ अपना जो वास्तविक संबंध है उसकी स्मृति करना यह परम सत्संग हो जायेगा ।
रात को सोते समय बातें करोः ‘मैं आपको नहीं जानता हूँ, नहीं जानती हूँ लेकिन आप तो मेरे को जानते हैं न ! प्रभु ! जानते हो न ? जानते हो न ?…’ जैसे बच्चा कहेः ″माँ-माँ ! देखो-देखो, मैं यह कैसे खाता हूँ !″ तो माँ कहेगीः ″हाँ खा ले ।″
बच्चाः ″नहीं-नहीं, देखो न !″
माँ को 10 काम छुड़ा के देखने को मजबूर कर देता है और माँ बोलती हैः ″वाह भाई वाह ! वाह भाई वाह !!″
तो बालक को आनंद आता है । ऐसे ही माँओं की माँ और पिताओं के पिता परमात्मा तुम्हारे अंतरात्मा हो के बैठे हैं । उनका पल्ला पकड़ो । माँ का पल्ला तो साड़ी, सलवार-कुर्ते का होगा परंतु परमात्मा का पल्ला तो ऐसा है कि साड़ियाँ और कुर्ते कुछ भी महत्ता नहीं रखते हैं । परमात्मा का पल्ला तो शाश्वत सत्ता है ।
कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम् ।
‘परमात्मा करने में, न करने में और अन्यथा करने में भी समर्थ है ।’
यह है परमात्मा की सत्ता !
सिकुड़ो मत, डरो मत, तुम अकेले नहीं हो, विश्वनियंता सच्चिदानंद तुम्हारे साथ है । बचपन, जवानी साथ में नहीं रहते, शरीर साथ में नहीं रहेगा पर प्रलय के बाद भी जो ज्यों-का-त्यों रहता है वह परमेश्वर आत्मा तुम्हारा पहले था, अभी है, बाद में भी रहेगा ।
आदि सचु जुगादि सचु।।
है भी सचु नानक होसी भी सचु ।।
उसी का संग, उसी में प्रीति, उसी की स्मृति, उसी का जप, उसी का ध्यान, उसी की चर्चा यह है सत्संग ! तो सत्य में प्रीति, आसक्ति करो । मिथ्या में प्रीति से तुच्छ हो गये, अब सत्संग में सत् से प्रीति होने से महान हो जायेंगे । अब काँटे से काँटा निकालना है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2022, पृष्ठ संख्या 8 अंक 353
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