हर रोज प्रातःकाल जल्दी उठकर सूर्योदय से पूर्व स्नानादि से निवृत्त हो जाओ । स्वच्छ, पवित्र स्थान में आसन बिछाकर पूर्वाभिमुख हो के पद्मासन या सुखासन में बैठ जाओ । शांत और प्रसन्न वृत्ति धारण करो ।
मन
में दृढ़ भावना करो कि ‘मैं प्रकृति-निर्मित इस शरीर के सब अभावों को पार
करके (उन अभावों से संबंध विच्छेद करके), सब मलिनताओं-दुर्बलताओं से पिंड छुड़ाकर
आत्मा की महिमा में जाग के ही रहूँगा ।’
आँखे
आधी खुली-आधी बंद रखो । अब फेफड़ों में खूब श्वास भरो और भावना करो कि ‘श्वास के साथ मैं
सूर्य का दिव्य ओज भीतर भर रहा हूँ ।’ श्वास को यथाशक्ति
अंदर टिकाये रखो । फिर ‘ॐ’ का लम्बा उच्चारण करते हुए श्वास को धीरे-धीरे
छोड़ते जाओ । श्वास के खाली होने के बाद तुरंत श्वास न लो । यथाशक्ति बिना श्वास
रहो और भीतर-ही-भीतर ‘हरिॐ… हरिॐ….’ का मानसिक जप करो ।
फिर से फेफड़ों में खूब श्वास भरो । पूर्वोक्त रीति से श्वास यथाशक्ति अंदर रोककर
बाद में धीरे-धीरे छोड़ते हुए ‘ॐ….’ का गुंजन करो ।
10-15
मिनट ऐसे प्राणायाम सहित उच्च स्वर से ‘ॐ….’ की ध्वनि करके शांत
हो जाओ । सब प्रयास छोड़ दो । वृत्तियों को आकाश की ओर फैलने दो । आकाश के अंदर पृथ्वी
है । पृथ्वी पर अनेक देश, अनेक समुद्र एवं अनेक लोग हैं । उनमें से एक आपका शरीर
आसन पर बैठा हुआ है । इस पूरे दृश्य को आप मानसिक आँख से, भावना से देखते रहो । आप
शरीर नहीं हो बल्कि अनेक शरीर, देश, सागर, पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र
एवं पूरे ब्रह्माण्ड के द्रष्टा हो, साक्षी हो । इस साक्षीभाव में जाग जाओ ।
थोड़ी
देर बाद फिर से प्राणायामसहित ‘ॐ’ का लम्बा उच्चारण करो
और शांत हो के अपने विचारों को देखते रहो ।
सदा
स्मरण रहे कि इधर-उधर भटकती वृत्तियों के साथ तुम्हारी शक्ति भी बिखरती रहती है ।
अतः वृत्तियों को बहकाओ नहीं । तमाम वृत्तियों को एकत्र करके साधनाकाल में
आत्मचिंतन में लगाओ और व्यवहार काल में जो कार्य करते हो उसमें लगाओ ।
विचारशील
एवं प्रसन्न रहो । स्वयं अचल रहकर सागर की तरह सब वृत्तियों की तरंगों को अपने
भीतर समा लो । जीवमात्र को अपना स्वरूप समझो ।
सबसे स्नेह रखो । हृदय को व्यापक रखो । संकुचितता का निवारण करते रहो ।
खंडनात्मक वृत्ति (परमात्मा की सृष्टि में दोष देखने की वृत्ति) का सर्वथा त्याग
करो ।
आत्मनिष्ठा
में जागे हुए महापुरुषों के सत्संग और सत्साहित्य से जीवन को भक्ति एवं वेदांत से
पुष्ट व पुलकित करो । कुछ ही दिनों के इस सघन प्रयोग के बाद अनुभव होने लगेगा कि ‘भूतकाल के नकारात्मक
स्वभाव, संशयात्मक-हानिकारक कल्पनाओं ने जीवन को कुचल डाला था, विषैला कर दिया था
। अब निश्चयबल के चमत्कार का पता चला । अंतरतम में आविर्भूत दिव्य खजाना अब मिला ।
प्रारब्ध की बेड़ियाँ अब टूटने लगीं ।’
जिनको
ब्रह्मज्ञानी महापुरुष का सत्संग और आत्मविद्या का लाभ मिल जाता है, उनके जीवन से
दुःख विदा होने लगते हैं । ॐ आनंद ! ठीक है न ? करोगे न हिम्मत ? शाबाश वीर….! शाबाश…!!
(आश्रम से प्रकाशित सत्साहित्य ‘जीवन रसायन’ से)
स्रोतः
ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 342
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