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अविश्वास की सजा ! – पूज्य बापू जी


एक जिज्ञासु भक्त किन्हीं महात्मा के पास गया और बोलाः “बाबा ! मैं पापी हूँ, कामी हूँ, क्रोधी हूँ, लोभी हूँ, मोही हूँ, संसारी हूँ, फँसा हूँ । महाराज ! मुझे इस दलदल से निकाल लीजिये, मुक्ति का मार्ग दिखाइये ।”

महाराज ने कहाः “ये मान्यताएँ छोड़ दे ! मैं कामी हूँ, मैं क्रोधी हूँ, मैं पापी हूँ, मैं यह हूँ….’ इन मान्यताओं के साथ जुड़ मत । तू तो ‘तत्त्वमसि’ तत् माने ‘वह (परमात्मा)’, त्वम् माने ‘तू (आत्मा)’, असि माने ‘है’ । मान्यताओं से सम्बंध विच्छेद कर दे तो तू वही है ।”

उसको यह बात जँची नहीं । उसने हाथ जोड़ेः “बाबा ! अच्छा, राम-राम ।” और चल दिया ।

दूसरी किन्हीं महात्मा के पास पहुँचा और बोलाः “महाराज ! देखो तो सही, बड़े ब्रह्मज्ञानी बन गये आजकल ! मैंने एक महात्मा से कहा कि “मैं संसारी हूँ, मुझे मुक्ति का मार्ग दिखाइये ।” तो बोलेः “तत्त्वमसि – तू वही है ।”

दूसरे वाले महात्मा जानते थे कि पहले वाले महात्मा ने करुणा-कृपा करके आखिरी बात बता दी पर यह अभी अनधिकारी है । महात्मा बोलेः “वे तो ऐसे ही हैं । ब्रह्मज्ञान छाँटते रहते हैं ! तुम ऐसा करो कि 12 साल कर्मकांड करो, गायो को चराओ, चारा डालो, उनके गोबर के कंडे बनाओ, धूप-दीप करो । फिर 12 साल भंडारी (रसोई का व्यवस्थापक’ को सहाय-सहकार दो । फिर 12 साल आश्रम की मुख्य सेवा सम्भालो ।”

ऐसा करते-करते 36 वर्ष हो गये ।

एक दिन वह महात्मा को बोलाः “बाबा ! आपकी सारी बातें मानीं, अब तो मेरे को परमात्मा का दर्शन कराओ ।”

महात्मा बोलेः “परमात्मा को खोजने वाला जो है, जहाँ से (जिस सत्ता से) परमात्मा की खोज होती है वही (परमात्म-सत्ता) तू है – तत्त्वमसि ।”

बोलाः “महाराज ! यह तो 36 साल पहले ही सुना था – तत्त्वमसि ।”

महात्मा बोलेः “मूर्ख ! तूने सुना तो था लेकिन महापुरुष के शब्दों पर विश्वास नहीं किया, उसी की सजा है कि 36 साल झख मारा । अब विचार करने पर तेरे को समझ में आयेगा !”

जिसका अंतःकरण अत्यंत शुद्ध है वह तो श्रवणमात्र से ज्ञान पा सकता है । जिसके कुछ कल्मष शेष हैं वह पहले ध्यान, जप आदि करके अंतःकरण को शुद्ध करे और वेदांत के सत्संग का यत्नपूर्वक श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन करे, तब उसे बोध होगा । जो उससे भी ज्यादा बहिर्मुख है उसका मन तो ध्यान, जप आदि में भी शीघ्र नहीं लगेगा । अतः वह पहले निष्काम सेवा के द्वारा अंतःकरण को शुद्ध करे । ज्यों-ज्यों अंतःकरण शुद्ध होता जायेगा, त्यों-त्यों ध्यान, जप में मन लगता जायेगा । फिर वह सत्शास्त्र एवं सद्गुरु के वचनों का श्रवण करे तो ज्ञान को पा लेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 20, अंक 343

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ऋषि प्रसाद सेवाधारियों को पूज्य बापू जी का अनमोल प्रसाद – इस प्रसाद के आगे करोड़ रुपये की भी कीमत नहीं


(ऋषि प्रसाद जयंतीः 23 जुलाई 2021)

ऋषि प्रसाद के सेवाधारियों को मैं ‘शाबाश’ देने से इन्कार कर रहा हूँ । न शाबाश देना है, न धन्यवाद देना है और न ही कोई चीज़-वस्तु या प्रमाणपत्र देना है क्योंकि दी हुई चीज तो छूट जायेगी । जो है

हाजरा-हुजूर जागंदी ज्योत ।

आदि सचु जुगादि सचु ।।

है भी सच नानक होसी भी सचु ।।

उसमें इनको जगा देना है, बस हो गया !

ऋषि प्रसाद के एक-एक सेवाधारी को एक-एक करोड़ रुपये दें तो वे भी कोई मायना नहीं रखते हैं इस प्रसाद के आगे । करोड़ रुपये देंगे तो ये शरीर की सुविधा बढ़ा देंगे और भोगी बन जायेंगे । और भोगी आखिर नरकों में जाते हैं । लेकिन यह ज्ञान दे रहे हैं तो ये ज्ञानयोगी बन जायेंगे और ज्ञानयोगी जहाँ जाता है वहाँ नरक भी स्वर्ग हो जाता है ।

श्वास स्वाभाविक चल रहा है, उसमें ज्ञान का योग कर दो – सोऽ….हम्…’ । बुद्धि की अनुकूलता में जो आनंद आता है वह मेरा है । आपका आनंद कहाँ रहता है ? खोजो ! यह जान लो और आनंद लूटो, जान लो और मुक्ति का माधुर्य लो, जान लो और बन जाओ हर परिस्थिति के बाप, अपने आप ! स्वर्ग भी नन्हा, नरक भी प्रभावहीन… सोऽहंस्वरूप… भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश जिस माधुर्य में रहते हैं उसके द्वार पहुँचा देता है यह ।

‘ऋषि प्रसाद’ वालों का क्या देना ? जो समाज औऱ संत के बीच सेतु बने हैं उनको क्या बाहर की खुशामद, वाहवाही, शाबाशी दें ? यह तो उनका अपमान है, उनसे ठगाई है । ये तो नेता लोग दे सकते हैं- ‘भई,  इन्होंने यह सेवा की, बेचारों ने यह किया… यह किया…. ।’

ऋषि प्रसाद के लाखों सदस्य हैं और लाखों लोगों को ऋषि प्रसाद हाथों-हाथ मिलती है यह सब यश ऋषि प्रसाद के सदस्य बनाने वालों व उसे बाँटने वालों के भाग्य में जाता है किंतु इससे तो उनका कर्तापन मजबूत बनेगा कि ‘हमने सेवा की है, हमने ऋषि प्रसाद बाँटी है । हम बाँटने वाले हैं, हम सेवा करने वाले हैं….’ उसका को जरा-सा पुण्य भोगेंगे – वाहवाही भोग के बस खत्म ! सेवा का फल वाहवाही, भोग नहीं चाहिए । सेवा का फल चीज-वस्तु नहीं, सेवा का फल कुछ नहीं चाहिए । तो तुच्छ अहं का जो कचरा पड़ा है वह ऐसी निष्काम सेवा से हटता जायेगा और अपना-आप जो पहले था, अभी है और जिसको काल का काल भी मार नहीं सकता वह अमर फल, आत्मफल प्रकट हो जायेगा, अपने-आप में तृप्ति, अपने-आप में संतुष्टि मिल जायेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 17, अंक 343

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जितनी जिम्मेदारी और तत्परता, उतना विकास – पूज्य बापू जी


सत्संग को पाने और समझने के लिए तो राजे-महाराजे राजपाट छोड़कर सिर में खाक डाल के, हाथ में झाड़ू ले के सफाई करने या बर्तन माँजने की सेवा हो तो वह भी स्वीकार करके ब्रह्मवेत्ता गुरुओं को रिझाते थे तब उनको ज्ञान मिलता था ।

हम भी गुरुद्वार पर बर्तन माँजने की सेवा करते थे तो वहाँ की मिट्टी पथरीली होने से सेवा करते-करते कभी-कभी उँगलियों से खून बह जाता । हाथों पर पट्टी बाँध लेते लेकिन सेवा नहीं छोड़ते थे, आखिर गुरुद्वार की सेवा थी । उन दिनों में हम 10 से 15 तोला सोना रोज खरीद के रख सकें इतना कमा सकते थे, सोना भी सस्ता था । अभी 10-15 तोला सोना सवा सात लाख का मान लो । सवा सात लाख आज के दिन में रोज कमाना, उसको छोड़कर गुरु जी के यहाँ बर्तन माँजने की सेवा, शास्त्र पढ़ने की सेवा, चिट्ठियाँ आती थीं तो उनको श्रीचरणों में पढ़कर उनका जवाब भेजने की सेवा… तो चपरासी से लेकर खास सचिव तक की सारी सेवा हम उठा लेते थे ।

जो जिम्मेदारी लेने से कतराता है, काम करने में लापरवाही करता है या मैं तो भजन कर रहा हूँ, ऐसा कह के सेवा से जी चुराता है, वह भजन में भी सफल नहीं होगा, कामकाज में भी सफल नहीं होगा । काम करो तो तत्परता से करो फिर भजन भी तत्परता से होगा । लापरवाह व्यक्ति न भजन में सफल होगा न कामकाज में सफल होगा । कार्य करें तो मन लगा के करें । कार्य जितनी जिम्मेदारी से, तत्परता से करेंगे उनती योग्यता बढ़ेगी । जितनी बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियाँ लोगे और तत्परता से पूरी करोगे उतना विकास होगा । तो कभी भी पलायनवादी विचार नहीं करना । ‘सीताराम-सीताराम’ की, ‘जय श्री कृष्ण की चादर ओढ़कर भगतड़े बन जाना कोई बड़ी बात नहीं है; श्री कृष्ण अथवा रामजी ऐसे भगतड़ों को नहीं मिलते । भगवान कृष्ण और राम जी का अनुभव भक्तों को मिलता है । भक्त वे हैं जो अपने चैतन्य स्वभाव से, अपने आत्मस्वभाव से विभक्त न हों, अलग न हों, सावधान रहें ।

भगत जगत को ठगत है, भगत को ठगे न कोई ।

एक बार जो भगत ठगे, अखंड यज्ञ फल होई ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021 पृष्ठ संख्या 16 अंक 343

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