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क्रोध से हानियाँ और उससे बचने के उपाय


पद्म पुराण में आता हैः ‘जो पुरुष उत्पन्न हुए क्रोध को अपने मन से रोक लेता है, वह उस क्षमा के द्वारा सब को जीत लेता है । जो क्रोध और भय को जीतकर शांत रहता है, पृथ्वी पर उसके समान वीर और कौन है ! क्षमा करने वाले पर एक ही दोष लागू होता है, दूसरा नहीं, वह यह कि क्षमाशील पुरुष को लोग शक्तिहीन मान बैठते हैं । किंतु इसे दोष नहीं मानना चाहिए क्योंकि बुद्धिमानों का बल क्षमा ही है । क्रोधी मनुष्य जो जप, होम और पूजन करता है वह सब फूटे हुए घड़े से जल की भाँति नष्ट हो जाता है ।’

क्रोध से बचने के उपाय

एकांत में आर्तभाव से व सच्चे हृदय से भगवान से प्रार्थना कीजिये कि ‘हे प्रभो ! मुझे क्रोध से बचाइये ।’

जिस पर क्रोध आ जाय उससे बड़ी नम्रता से, सच्चाई के साथ क्षमा माँग लीजिये ।

सात्त्विक भोजन करे । लहसुन, लाल मिर्च एवं तली हुई चीजों से दूर रहें । भोजन चबा-चबाकर कम-से-कम 25 मिनट तक करें । क्रोध की अवस्था में या क्रोध के तुरन्त बाद भोजन न करें । भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज भोजन से पूर्व हास्य-प्रयोग करने को कहते थे । अपने आश्रमों में भी भोजन से पूर्व हास्य-प्रयोग किया जाता है, साथ ही श्री आशारामायण जी की कुछ पंक्तियों का पाठ और जयघोष भी किया जाता है तो कभी ‘जोगी रे….’ भजन की कुछ पंक्तियाँ गायी जाती हैं । इस प्रकार रसमय होकर फिर भोजन किया जाता है । इस प्रयोग को करने से क्रोध से सुरक्षा तो सहज में ही हो जाती है और साथ-ही-साथ चित्त भगवद्-आनंद, माधुर्य से भी भर जाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 33 अंक 343

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आरती में कपूर का उपयोग क्यों ?


सनातन संस्कृति में पुरातन काल से आरती में कपूर जलाने की परम्परा है । आरती के बाद आरती के ऊपर हाथ घुमाकर अपनी आँखों पर लगाते हैं, जिससे दृष्टि-इन्द्रिय सक्रिय हो जाती है । पूज्य बापू जी के सत्संग वचनामृत में आता हैः ″आरती करते हैं तो कपूर जलाते हैं । कपूर वातावरण को शुद्ध करता है, पवित्र वातावरण की आभा पैदा करता है । घर में देव दोष है, पितृ दोष है, वास्तु दोष है, भूत-पिशाच का दोष है या किसी को बुरे सपने आते हैं तो कपूर की ऊर्जा उन दोषों को नष्ट कर देती है ।

बोलते हैं कि संध्या होती है तो दैत्य राक्षस हमला करते हैं इसलिए शंख, घंट बजाना चाहिए, कपूर जलाना चाहिए, आरती पूजा करनी चाहिए अर्थात् संध्या के समय और सुबह के समय वातावरण में विशिष्ट एवं विभिन्न प्रकार के जीवाणु होते हैं जो श्वासोच्छवास के द्वारा हमारे शरीर में प्रवेश करके हमारी जीवनरक्षक कोशिकाओं से लड़ते हैं । तो देव – असुर संग्राम होता है, देव माने सात्त्विक कण और असुर माने तामसी कण । कपूर की सुगंधि से हानिकारक जीवाणु एवं विषाणु रूपी राक्षस भाग जाते हैं ।

वातावरण में जो अशुद्ध आभा है उससे तामसी अथवा निगुरे लोग जरा-जरा बात में खिन्न होते हैं पीड़ित होते हैं लेकिन कपूर और आरती का उपयोग करने वालों के घरों में ऐसे कीटाणुओं का, ऐसी हलकी आभा का प्रभाव टिक नहीं सकता है ।

अतः घर में कभी-कभी कपूर जलाना चाहिए, गूगल का धूप करना चाहिए । कभी-कभी कपूर की 1-2 छोटी गोली मसल के घर में छिटक देनी चाहिए । उसकी हवा से ऋणायन बनते हैं जो कि हितकारी हैं । वर्तमान के माहौल में घर में दिया जलाना अथवा कपूर की कभी-कभी आरती कर लेना अच्छा है ।

अकाल मृत्यु से रक्षा हेतु

भगवान नारायण देवउठी (प्रबोधिनी) एकादशी को योगनिद्रा से उठते हैं । उस दिन कपूर से आरती करने वाले को अकाल मृत्यु से सुरक्षित होने का अवसर मिलता है ।″

कपूर का वैज्ञानिक महत्त्व

कई शोधों के बाद विज्ञान ने कपूर की महत्ता को स्वीकारा है । कपूर अपने आसपास की हवा को शुद्ध करता है, साथ ही साथ शरीर को हानि पहुँचाने वाले संक्रामक जीवाणुओं को दूर रखने में मददगार होता है । इसकी भाप या सुगंध सर्दी-खाँसी से राहत देती है तथा मिर्गी, दिमागी झटके एवं स्थायी चिंता या घबराहट को कम करती है । कपूर की भाप या इसके तेल की उग्र सुगंध से नासिका के द्वार खुल जाते हैं । यह सुगंध श्वसन-मार्ग, स्वर तंत्र, ग्रसनी, नासिका-मार्ग तथा फुफ्फुस-मार्ग हेतु तुरंत अवरोध-निवारक का काम करती है । इसीलिए कपूर का उपयोग सर्दी-खाँसी की कई दवाओं (बाम आदि) में किया जाता है । कपूर भाप की सुगंध बलगमयुक्त गले की सफाई करके श्वसन संस्थान के मार्ग खुले करने में मदद करती है । कपूर मसलकर शरीर पर लगाने से यह रक्त प्रवाह बढ़ाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 22, अंक 343

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….इसी का नाम मोक्ष है ।


हिमालय की तराई में एक ब्रह्मनिष्ठ संत रहते थे । वहाँ का पहाड़ी राजा जो धर्मात्मा. नीतिवान और मुमुक्षु था, उनका शिष्य हो गया और संत का पास आकर उनसे वेदांत-श्रवण किया करता था  । एक बार उसके मन में शंका उत्पन्न हुई । उसने संत से कहाः ″गुरुदेव ! माया अनादि है तो उसका नाश होना किस प्रकार सम्भावित है ? और माया का नाश न होगा तो जीव को मोक्ष कैसे प्राप्त होगा ?″

संत ने कहाः ″तेरा प्रश्न गम्भीर है ।″ राजा अपने प्रश्न का उत्तर पाने को उत्सुक था ।

वहाँ के पहाड़ में एक बहुत पुरानी, कुदरती बड़ी गुफा थी । उसके समीप एक मन्दिर था । पहाड़ी लोग उस मन्दिर में पूजा और मनौती आदि किया करते थे । पत्थर की चट्टानों से स्वाभाविक ही बने होने से वह स्थान विकट और अंधकारमय था एवं अत्यंत भयंकर मालूम पड़ता था ।

संत ने मजदूर लगवाकर उस गुफा को सुरंग लगवा के खुदवाना आरम्भ किया । जब चट्टानों का आवरण हट गया तब सूर्य का प्रकाश स्वाभाविक रीति से उस स्थान में पहुँचने लगा ।

संत ने राजा को कहाः ″बता, यह गुफा कब की थी ?″

राजाः ”गुरुदेव ! बहुत प्राचीन थी, लोग इसको ‘अनादि गुफा कहते थे ।″

″तू इसको अनादि मानता था या नहीं ?″

″हाँ, अनादि थी ।″

″अब रही या नहीं रही ?″

″अब नहीं रही ।″

″क्यों ?″

″जिन चट्टानों से यह घिरी थी उन चट्टानों के टूट जाने से गुफा न रही ।″

″गुफा का अन्धकार भी तो अनादि था, वह क्यों न रहा ?″

राजाः ″आड़ निकल जाने के कारण सूर्य का प्रकाश जाने लगा और इससे अन्धकार भी न रहा ।″

संतः ″तब तेरे प्रश्न का ठीक उत्तर मिल गया । माया अनादि है, अन्धकारस्वरूप है किन्तु जिस आवरण से अँधेरे वाली है उस आवरण के टूट जाने से वह नहीं रहती ।

जिस प्रकार अनादि कल्पित अँधेरा कुदरती गुफा में था उसी प्रकार कल्पित अज्ञान जीव में है । जीवभाव  अनादि होते हुए भी अज्ञान से है । अज्ञान आवरण रूप में है इसलिए अलुप्त परमात्मा का प्रकाश होते हुए भी उसमें नहीं पहुँचता है ।″

जब राजा गुरु-उपदेश द्वारा उस अज्ञानरूपी आवरण को हटाने को तैयार हुआ और उसने अपने माने हुए भ्रांतिरूप बंधन को खो के वैराग्य धारण कर अज्ञान को मूलसहित नष्ट कर दिया, तब ज्ञानस्वरूप का प्रकाश यथार्थ रीति से होने लगा, यही गुफारूपी जीवभाव का मोक्ष हुआ ।

माया अनादि होने पर भी कल्पित है इसलिए कल्पित भ्रांति का बाध (मिथ्यापन का निश्चय) होने से अज्ञान नहीं रह सकता और जब अज्ञान नहीं रहता तब अनादि अज्ञान में फँसे हुए जीवभाव का मोक्ष हो जाता है । अनादि कल्पित अज्ञान का छूट जाना और अपने वास्तविक स्वरूप-आत्मस्वरूप में स्थित होना इसी का नाम मोक्ष है । चेतन, चिदाभास और अविद्या इन तीनों के मिश्रण का नाम जीव है । तीनों में चिदाभास और अविद्या कल्पित, मिथ्या हैं, इन दोनों (चिदाभास और अविद्या) का बाध होकर मुख्य अद्वितीय निर्विशेष शुद्ध चेतन मात्र रहना मोक्ष है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 343

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