जब रघुराई बने ‘सेन नाई’ – पूज्य बापू जी
भक्तमाल में एक कथा आती हैः
बघेलखंड के बांधवगढ़ में राजा वीरसिंह का राज्य था । वीरसिंह
बड़ा भाग्यशाली रहा होगा क्योंकि भगवन्नाम का जप करने वाले, परम
संतोषी एवं उदार सेन नाई उसकी सेवा करते थे । सेन नाई भगवद्भक्त
थे । उनके मन में मंत्रजप चलता ही रहता था । संत-मंडली ने सेन नाई
की प्रशंसा सुनी तो एक दिन उनके घर की ओर चल पड़ी । सेन नाई
राजा साहब के यहाँ हजामत बनाने को जा रहे थे ।
मार्ग में दैवयोग से मंडली ने सेन नाई से ही पूछाः “भैया ! सेन
नाई को जानते हो ?”
सेन नाईः “क्या काम था ?”
संतः “वह भक्त है । हम भक्त के घर जायेंगे । कुछ खायेंगे-पियेंगे
और हरिगुण गायेंगे । क्या तुमने सेन नाई का नाम सुना है ?”
सेन नाईः “दास आपके साथ ही चलता है ।”
संतों को छोड़कर वे राजा के पास कैसे जाते ? सेन नाई संत
मंडली को घर ले आये । घर में उनके भोजन की व्यवस्था की । सीधा
सामान आदि ले आये । संतों ने स्नानादि करके भगवान का पूजन
किया एवं कीर्तन करने लगे । सेन नाई भी उसमें सम्मिलित हो गये ।
तन की सुधि न जिनको, जन की कहाँ से प्यारे…
सेन नाई हरि-कीर्तन में तल्लीन हो गये । हरि ने देखा कि ‘मेरा
भक्त तो यहाँ कीर्तन में बैठ गया है ।’ हरि ने करुणावश सेन नाई का
रूप लिया और पहुँच गये राजा वीरसिंह के पास ।
सेन नाई बने हरि ने राजा की मालिश की, हजामत की । राजा
वीरसिंह को उनके कर-स्पर्श से जैसा सुख मिला वैसा पहले कभी नहीं
मिला था । राजा बोल पड़ाः “आज तो तेरे हाथ में कुछ जादू लगता है !”
“अन्नदाता ! बस ऐसी ही लीला है ।” कहकर हरि तो चल दिये ।
इधर संत-मंडली भी चली गयी तब सेन नाई को याद आया कि
‘राजा की सेवा में जाना है ।’ सोचने लगेः ‘वीरसिंह स्नान किये बिना
कैसे रहे होंगे ? आज तो राजा नाराज हो जायेंगे । कोई दंड मिलेगा या
तो सिपाही जेल में ले जायेंगे । चलो, राजा के पास जाकर क्षमा माँग लूँ
।’
हजामत के सामान की पेटी लेकर दौड़ते-दौड़ते सेन नाई राजमहल
में आये ।
द्वारपाल ने कहाः “अरे, सेन जी ! क्या बात है ? फिर से आ गये
? कंघी भूल गये कि आईना ?”
सेन नाईः “मजाक छोड़ो, देर हो गयी है । क्यों दिल्लगी करते हो
?”
ऐसा कहकर सेन नाई वीरसिंह के पास पहुँच गये । देखा तो राजा
बड़ा मस्ती में है ।
वीरसिंहः “सेन जी ! क्या बात है ? वापस क्यों आये हो ? अभी
थोड़ी देर पहले तो गये थे, कूछ भूल गये हो क्या ?”
“महाराज ! आप भी मजाक कर रहे हैं क्या ?”
“मजाक ? सेन ! तू पागल तो नहीं हुआ है ? देख यह दाढ़ी तूने
बनायी, तूने ही नहलाया, कपड़े पहनाये । अभी तो दोपहर हो गयी है, तू
फिर से आया है, क्या हुआ ?”
सेन नाई टकटकी लगाकर देखने लगे कि ‘राजा की दाढ़ी बनी हुई
है । स्नान करके बैठे हैं । फिर बोलेः “राजा साहब ! क्या मैं आपके पास
आया था ?”
राजाः “हाँ, तू ही तो था लेकिन तेरे हाथ आज बड़े कोमल लग रहे
थे । आज बड़ा आनंद आ रहा है । दिल में खुशी और प्रेम उभर रहा है
। तुम सचमुच भगवान के भक्त हो । भगवान के भक्तों का स्पर्श
कितना प्रभावशाली व सुखदायी होता है इसका पता तो आज ही चला ।”
सेन नाई समझ गये कि ‘मेरी प्रसन्नता और संतोष के लिए
भगवान को मेरी अनपस्थिति में नाई का रूप धारण करना पड़ा ।’ वे
अपने आपको धिक्कारने लगे कि ‘एक तुच्छ सी सेवापूर्ति के लिए मेरे
कारण विश्वनियंता को, मेरे प्रेमास्पद को खुद आना पड़ा ! मेरे प्रभु को
इतना कष्ट उठाना पड़ा ! मैं कितना अभागा हूँ !’
वे बोलेः “राजा साहब ! मैं नहीं आया था । मैं तो मार्ग में मिली
संत-मंडली को लेकर घर वापस लौट गया था । मैं तो अपना काम भूल
गया था और साधुओं की सेवा में लग गया था । मैं तो भूल गया किंतु
मेरी लाज रखने के लिए परमात्मा स्वयं नाई का रूप लेकर आये थे ।”
‘प्रभु !… प्रभु !…’ करके सेन नाई तो भाव समाधि में खो गये ।
राजा वीरसिंह का भी हृदय पिघल गया । अब सेन नाई तुच्छ सेन नाई
नहीं थे और वीरसिंह अहंकारी वीरसिंह नहीं था । दोनों के हृदयों में
प्रभुप्रेम की, उस दाता की दया-माधुर्य की मंगलमयी सुख-शांतिदात्री….
करुणा-वरुणालय की रसमयी, सुखमयी प्रेममयी, माधुर्यमयी धारा हृदय
में उभारी धरापति ने । दोनों एक दूसरे के गले लगे और वीरसिंह ने सेन
नाई के पैर छुए और बोलाः “राज परिवार जन्म-जन्म तक आपका और
आपके वंशजों का आभारी रहेगा । भगवान ने आपकी ही प्रसन्नता के
लिए मंगलमय दर्शन देकर हमारे असंख्य पाप-तापों का अंत किया है ।
सेन ! अब से आप यह कष्ट नहीं सहना । अब से आप भजन करना,
संतों की सेवा करना और मेरा यह तुच्छ धन मेरे प्रभु के काम में लग
जाय ऐसी मुझ पर मेहरबानी किया करना । कुछ सेवा का अवसर हो तो
मुझे बता दिया करना ।”
भक्त सेन नाई उसके बाद वीरसिंह की सेवा में नहीं गये । थे तो
नाई लेकिन उस परमात्मा के प्रेम में अमर हो गये और वीरसिंह भी ऐसे
भक्त का संग पाकर धनभागी हो गया ।
कैसा है वह करूणा-वरूणालय ! अपने भक्त की लाज रखने के
लिए उसको नाई का रूप लेने में भी कोई संकोच नहीं होता ! अद्भुत है
वह सर्वात्मा और धन्य है उसके प्रेम में सराबोर रहकर संत-सेवा करने
वाले सेन नाई !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 344
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