एक बार बीरबल दरबार में देर से आये तो अकबर ने पूछाः “देर हो
गयी, क्या बात है ?”
बीरबल ने कहाः “हुजूर ! बच्चा रो रहा था, उसको जरा शांत
कराया ।”
“…तो बच्चे को शांत कराने में दोपहर कर दी तुमने ! कैसे बीरबल
?
“हुजूर ! बच्चे तो बच्चे होते हैं । राजहठ, स्त्रीहठ, योगहठ और
बालहठ… जैसे राजा का हठ होता है वैसे ही बच्चों का होता है जहाँपनाह
!”
अकबरः “बच्चों को रिझाना क्या बड़ी बात है !”
बीरबरः “हुजूर ! बड़ी कठिन बात होती है ।”
“अरे, बच्चे को तो यूँ पटा लो ।”
“नहीं पटता महाराज ! बच्चा हठ ले ले तो फिर देखो । आप तो
मेरे माई-बाप हैं, मैं बच्चा बन जाता हूँ ।”
“हाँ चलो, तुमको हम राज़ी कर दें ।”
बीरबल रोयाः “पिता जी !…. पिता जी !…. ऐंऽऽ ऐंऽऽ ऐंऽऽ…”
अकबरः “अरे, क्या चाहिए ?”
“मेरे को हाथी चाहिए ।”
अकबर ने महावत को बोलाः “हाथी ला के खड़ा कर दो ।”
बीरबल ने फिर रोना चालू कर दियाः ” ऐंऽऽ ऐंऽऽ ऐंऽऽ…”
“क्या है ?”
“मेरे को देगचा ला दो ।”
“अरे, चलो एक देगचा मँगा दो ।”
देगचा लाया गया ।
अकबर बोलाः “देगचा ला दिया… बस ?”
“ऊँऽऽ ॐऽऽ..”
“अब क्या है ?”
“हाथी देगचे में डाल दो ।”
अकबर बोलता हैः “यह कैसे होगा !”
बोलेः “डाल दो…!”
“अरे, नहीं आयेगा ।”
“नहीं, आँऽऽ आँऽऽ…”
बच्चे का हठ… औऱ क्या है ! अकबर समझाने में लगा ।
बीरबलः “नहीं ! देगचे में हाथी डाल दो ।”
अकबर बोलाः “भाई ! मैं तो तुमको नहीं मना सकूँगा । अब मैं
बेटा बनता हूँ, तुम बाप बनो ।”
बीरबलः “ठीक है ।”
अकबर रोया । बीरबल बोलता हैः “बोलो बेटे अकबर ! क्या चाहिए
?”
अकबरः “हाथी चाहिए ।”
बीरबल ने नौकर को कहाः “चार आने के खिलौने वाले एक नहीं,
दो हाथी ले आ ।”
नौकर ने लाकर रख दिये ।
“ले बेटे ! हाथी ।”
“ऐंऽऽ ऐंऽऽ ऐंऽऽ…देगचा चाहिए ।”
“लो ।”
बोलेः “इसमें हाथी डाल दो ।”
बीरबलः “एक डालूँ कि दोनों के दोनों रख दँ ?”
बीरबल ने युक्ति से बच्चा बने अकबर को चुप करा दिया । ऐसे
ही मन भी बच्चा है । मन को देखो को उसकी एक वृत्ति ऐसी उठी
तो फिर वह क्या कर सकता है । उसको ऐसे ही खिलौने दो जिन्हें
आप सेट कर सको । उसको ऐसा ही हाथी दो जो देगचे में रह
सके । उसकी ऐसी ही पूर्ति करो जिससे वह तुम्हारी लगाम में,
नियंत्रण में रह सके । तुम अकबर जैसा करते हो लेकिन बीरबल
जैसा करना सीखो । मन बच्चा है, उसके कहने में चलोगे तो
गडबड़ कर देगा । उसके कहने में नहीं, उसको पटाने में लगो ।
उसके कहने में लगोगे तो वह भी अशांत, बेटा भी अशांत । उसको
घुमाने में लगोगे तो बेटा भी खुश हो जायेगा, बाप भी खुश हो
जायेगा ।
मन की कुछ ऐसी-ऐसी आकांक्षाएँ, माँगें होती हैं जिनको पूरी करते-
करते जीवन पूरा हो जाता है । और उनसे सुख मिला तो आदत बन
जाती है और दुःख मिला तो उसका विरोध बन जाता है । लेकिन उस
समय मन को कोई और बहलावे की चीज दे दो, और कोई चिंतन की
चीज दे दो । हलका चिंतन करता है तो बढ़िया चिंतन दे दो, हलका
बहलाव करता है तो बढ़िया बहलाव दे दो, उपन्यास पढ़ता है तो
सत्शास्त्र दे दो, इधर-उधर की बात करता है तो माला पकड़ा दो, किसी
का वस्त्र-अलंकार देखकर आकर्षित होता है तो शरीर की नश्वरता का
ख्याल करो, किसी के द्वारा किये अपने अपमान को याद करके जलता
है तो जगत के स्वप्नतत्त्व को याद करो । मन को ऐसे खिलौने दो
जिससे वह आपको परेशान न करे । लोग जो आया मन में लग जाते हैं
। मन में आया कि यह करूँ तो कर दिया, मन में आया फैक्ट्री बनाने
का तो खड़ी कर दी, मन का करते-करते फँस जाओगे, सँभालने की
जवाबदारी बढ़ जायेगी और अंत में देखो तो कुछ नहीं, जिंदगी बिन
जरूरी आवश्यकताओं में पूरी हो गयी !
इसलिए संत कबीर जी ने कहाः
साँईँ इतना दीजिये, जा में कुटुम्ब समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय ।।
अपनी आवश्यकता कम करो और बाकी का समय जप में,
आत्मविचार में, आत्मध्यान में, कभी-कभी एकांत में, कभी सत्कर्ण में,
कभी सेवा में लगाओ । अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ कम करो तो
आप स्वतंत्र हो जायेंगे ।
अपने व्यक्तिगत सुखभोग की इच्छा कम रखो तो आपके मन की
चाल कम हो जायेगी । परहित में चित्त को, समय को लगाओ तो वृत्ति
व्यापक हो जायेगी । परमात्मा के तत्त्व में लगाओ तो वृत्ति के बंधन से
आप निवृत्त हो जायेंगे ।
भाई ! सत्संग में तो हम आप लोगों को किसी प्रकार की कमी नहीं
रखते, आप चलने में कमी रखें तो आपकी मर्जी की बात है ।
मन बिनजरूरी माँगें करे और आप वे पूरी करेंगे तो आपको वह पूरा कर
देगा (विनष्ट कर देगा) । जो जरूरी माँग है वह अपने आप पूरी होती है
इसलिए गलत माँगें, गलत लालसाएँ करें नहीं और मन करता है तो वे
पूरी न करें और करनी हो तो युक्ति से कर लें । जैसे वह नकली हाथी
देगचे में डाल दिया । ऐसे ही मन को कोई इच्छा-वासना हुई तो उस
समय उसके अनुरूप हितकारी व्यवहार करें । समझो बीड़ी पीने की
इच्छा हुई तो सौंफ खा ली, चलचित्र देखने की इच्छा हुई तो कीर्तन में
चले गये, किसी को गुस्से से गाली देने की इच्छा है तो उस समय जो
से ‘राम-राम-राम’ चिल्लाने लग जायें । ऐसा करके युक्ति से मन को
सँभाल लो तो बेड़ा पार हो जायेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 344
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