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कष्ट-मुसीबतों को पैरों तले कुचलने की कला


कष्ट-मुसीबतें और प्रतिकूलताएँ तो सभी के जीवन में आती हैं, संत-महापुरुषों व अवतारों के जीवन में तो प्रतिकूल परिस्थितियों की खूब अधिकता देखने में आती है किंतु सामान्य व्यक्ति और उनके जीवन में इतना ही अंतर देखने में आता है कि उन परिस्थितियों में मन की विचारधारा और बुद्धि की निष्ठा दोनों की अलग-अलग होती है । इसका प्रभाव यह होता है कि जहाँ सामान्य व्यक्ति विषमता, शोक की खाई में गोते लगाता है वहीं वे महापुरुष समता और सद्ज्ञान की गहराई में सहज ही चले जाते हैं । समान परिस्थिति में फल इतना विपरीत होने का एकमात्र कारण गुरुज्ञान है । कैसे ? आईये जानते हैं गुरुज्ञान को मात्र शाब्दिक रूप से नहीं अपितु अनुभवरूप से आत्मसात् किये हुए पूज्य बापू जी के श्रीमुख से प्रवाहित उन्हीं के जीवन-प्रसंगों सेः

गुरुज्ञान ही काम आया

सन् 1974-1975 के आसपास की बात होगी । अहमदाबाद आश्रम की गौशाला में एक बछड़े को साँड बनाना था तो उसे गायों से अलग रखते थे । वह घूमने जाता तो हम कभी-कभी उसके सींग पकड़ के उसके साथ जरा विनोद करते थे । बात तो साधारण है पर ज्ञान बिल्कुल टनाटन है ।

गर्मियों के दिनों में हम हिमालय जाते । महीने-दो-महीने वहाँ जरा सामान्य दिनों से अल्प खान-पान, यह-वह सब करते । एक बार हम जब हिमालय से लौटे तो हमारा शरीर थोड़ा कृश हो गया था और वह साँड घूमघाम के बारिश की मस्ती लेकर तगड़ा हो गया था । जब वह घूम रहा था तब हम भी घूमने गये । तो हमारी पुरानी दोस्ती थी, वह हमारे नजदीक आया । मैंने उसके सींग पकड़े तो वह आगे-पीछे हुआ और साँड-तो-साँड है, उसने दे मारा धक्का । धड़ाक-धूम…. हाथ के बल ऐसे गिरे कि दायाँ हाथ तो उसके सींगों में रहा और बायें हाथ पर मेरा बल और उसका बल तो वह बायाँ हाथ उलटा हो गया, कोहनी से घूम गया ।

साँड तो चला गया लेकिन पहले क्षण तो ऐसी पीड़ा हुई कि ओ हो…. पैरों तले धरती निकल गयी, अँधेरा सा छा गया । पहले मिनट में इतनी पीड़ा हुई, इतनी पीड़ा हुई कि जिसको वैसा लगा हो उसी को पता चले ।

मेरे असंख्य भक्त थे और दर्जनों डॉक्टर मेरे शिष्य थे । करोड़ों रुपये मेरे लिए खर्चने वाले भक्त भी थे । परंतु उस समय उनके करोड़ों रुपये, दर्जनों डॉक्टर मेरे काम नहीं आये । सद्गुरु का सुना हुआ ज्ञान काम में आया कि ‘पीड़ा हो तो किसको पीड़ा हो रही है ध्यान से देखना !’

यह बात आपके लिए बड़ी कीमती है । गुरु का ज्ञान काम आया कि ‘यह हाथ टूट गया है, पीड़ा हो रही है कोहनी में, बाकी का शरीर ठीक है । कोहनी को, हाथ को पीड़ा हो रही है, उसको देखने वाला मैं अलग हूँ ।’ अपने आत्मा का, पीड़ा-दुःख से अलग होने का विचार आते ही बुद्धि, तन और मन नियंत्रित हुए । मैंने धीरे से हाथ को पकड़ा, सँभाला और उठ खड़ा हुआ । आश्रमवासियों को बोलाः ″हाड़वैद्य को बुलाना है जरा ।″

बोलेः ″किसके लिए ?″

″काम है ।″

″कहाँ भेजना है ?″

″कहीं भेजना नहीं है, जरा हाथ में लग गया है तो पट्टा-वट्टा बँधवाना है । यह हाथ थोड़ा घूम गया था, अभी मैंने ठीक कर दिया है ।″

″ऐं…. बापू ऐसा नहीं हो सकता !″

″है ।″

फिर गाड़ी-वाड़ी मँगायी । अहमदाबाद में दिल्ली दरवाजा क्षेत्र है, वहाँ हाड़वैद्य रहता था, उसके पास गये । जैसे ही वह दूसरे रोगियों को हाथ लगाता तो वे चिल्लाते थे – ऐसी पीड़ा होती है हड्डी टूटने की । परंतु जब वह इधर-उधर खूब घुमाकर मेरे हाथ की हड्डी बैठा रहा था तो मैं जोर से हँस पड़ा । वह घबराया कि ‘ये कैसे महाराज हैं ! हाथ इतना मुड़ गया, अब सीधा कर रहे हैं तो (इतने दर्द में भी ये) हँस रहे हैं !’

मैंने कहाः ″जैसी पीड़ा दूसरों को होती है वैसी इसको हुई लेकिन अब मैं समझता हूँ कि ‘इसको पीड़ा हुई, मैं पीड़ा को देखने वाला हूँ ।’ इस खुशी में हँस रहा हूँ ।″

वह हाड़वैद्य मुसलमान था, उसकी मेरे में श्रद्धा नहीं थी परंतु वह मेरी हँसी देखकर ऐसा भगत बन गया कि पट्टा बाँधने का एक पैसा भी नहीं लिया । उसने बोलाः ″गजब के फकीर हैं ! ऐसे फकीर की सेवा का मौका तो मिल जाये ।″

मैं इसलिए बता रहा हूँ कि आपके शरीर को कभी पीड़ा हो तो आप उसे अपने मन में घुसने न दीजिये, मन में अगर घुस भी जाये तो जोर-जोर से ‘हरि ओऽम्म… हरि ओऽम्म… हरि ॐ…’ ऐसा उच्चारण करके सोचें कि पीड़ा तो हाथ को, पैर को, पेट को, सिर को हुई है, मैं स्वस्थ हूँ ।’ इससे आधी पीड़ा का प्रभाव ऐसे ही टूट जायेगा, बाकी छोटे-मोटे इलाज से आप स्वस्थ हो जायेंगे । कभी यह न सोचना कि ‘मैं स्वस्थ हुआ हूँ ।’ शरीर स्वस्थ हुआ है । ‘मैं पहले भी स्वस्थ था, अब भी स्वस्थ हूँ और मरने के बाद भी ‘स्व’ में स्थिति होने की यात्रा करने वाला ‘स्व’ स्थ रहूँगा । हरि ओऽम्म…’

आत्मज्ञान कितनी रक्षा करता है !

विकट परिस्थितियों में गुरुज्ञान ही है एकमात्र आश्रय

अपना हौसला बुलंद हो तो असम्भव कुछ भी नहीं है, सब सम्भव है ।

हार कब होती है ? जब व्यक्ति भीतर से अपनी हार मानता है या भीतर से गिरता है । जीत कब होती है ? जब व्यक्ति भीतर से हौसला बुलंद रखता है और जीत मानता है ।

सन् 1998 की बात है, हम ओड़िशा पहुँचे । कटक में सत्संग हुआ । आसपास के आदिवासी इलाके में 10-15 हजार गरीब लोगों में भंडारा, अन्न-वस्त्र वितरण आदि सेवा हुई, उनके लिए वही सत्संग था । फिर ब्रह्मपुर में सत्संग करके कालाहांडी के आदिवासी इलाके में हम जाने वाले थे । पर वहाँ के कुछ नेताओं को भ्रांति हो गयी कि बापूजी आयेंगे तो शायद हम हार जायेंगे । अतः मेरे चार्टर प्लेन को उतरने की अनुमति देने में उन्होंने लीला की, आखिरी समय में जिलाधिकारी ने न बोल दिया । मुझे कार द्वारा 12 घंटे की मुसाफिरी करके वहाँ जाना पड़ा । फिर गरीबों को अन्न-वस्त्र बाँटने थे तो उन लोगों ने पूरी कोशिश की कि न बँटें और हमने पूरी कोशिश की बँट जायें तो हमारी कोशिश भगवान ने सफल कर दी ।

10-12 घंटे आने के, 10-12 घंटे भण्डारे में, 2-5 घंटे उन्होंने रोके रख तो शरीर की भी अपनी सीमा होती है । शरीर की थकान, भूख-प्यास…. फिर फालसीपेरम मलेरिया के मच्छरों ने  शरीर पर भंडारा चालू कर दिया तो फालसीपेरम मलेरिया हो गया । वह मलेरिया भीतर काम करता रहा और हम बाहर सत्संग-कार्यक्रम करते रहे । भीतर खून को पानी बनाने वाला वह मलेरिया बहुत तेजी से फैल गया । हीमोग्लोबिन 14-15 g/dl था तो 7 g/dl हो गया ।

बीमारी ने कोटा (राज.) में जोर पकड़ा फिर भी फरीदाबाद व गुड़गाँव का सत्संग करने को हम वहाँ से चल पड़े पर शरीर को फालसीपेरम मलेरिया ने इतना तोड़ दिया कि शरीर ने कहा कि ‘अब भाई लाचार हैं !’

फरीदाबाद में 2-3 दिन इलाज हुआ परंतु सब उलटा ही हो रहा था । मुझे सचमुच बड़ी खुशी होती थी कि ‘शरीर की ऐसी स्थिति होने पर भी चित्त में दुःख नहीं । वाह मेरे गुरुदेव ! आपके ज्ञान की महिमा !!’

फिर चौथे दिन शाम को हम अहमदाबाद पहुँचे । एलोपैथिक इलाज से रोग चला गया परंतु वह बड़ा दुष्प्रभाव दे गया । बकरी तो निकल गयी पर ऊँट घुस गया ।

बुखार उतर गया परंतु फिर न हो जाय इसलिए डॉक्टरों ने 6 गोली का कोर्स दे दिया । हमें तो एक गोली ही बड़ी खतरनाक लगी । मजे की बात थी कि कुछ भी लेता तो मेरा हृदय प्रेरणा करता था कि ‘यह लो, यह न लो ।’ उस गोली को लेता तो हृदय हिचकता था तो मैंने बोलाः ″नहीं-नहीं ।″

डॉक्टर बोलेः ″बापू जी ! इतनी तो हमारी मानो ।″ रोते गये ।

मैंने कहाः ″लाओ भाई ! शिवजी जब विष पी गये तो गोलियाँ पीने में क्या लगता है ?″

मैंने 5 गोलियाँ ले लीं तो उन गोलियों ने जो किया उसका मजा निराला था ।

एक दिन के बाद आ हा हा… शरीर में आग-आग… जैसे तवे की रोटी चिपक जाय ऐसे जीभ तालू को चिपक जाय, सूख जाय । बुखार तो नहीं था पर मत्थे पर घी लगायें तो गायब ! चुल्लू भर-भर के पैरों पर घी लगायें तो गायब !

मिश्री खाकर पानी पियो तो वह कहाँ गया कुछ पता न चले ! 6 रात, 6 दिन एक मिनट भी नींद नहीं ! फिर गुरु की कृपा का आनंद जो आ रहा था वह अब भी है ।

फिर मैंने अंग्रेजी दवा वालों को बोलाः ″भाई ! अब तुम्हारी हीं-हीं नहीं चलेगी, हाथाजोड़ी मत करो । अब हम अपने ढंग से उपचार करेंगे ।″

अंग्रेजी दवाओं ने इतना दुष्प्रभाव दिखाया कि मेरी आँखें तिरछी हो गयी थीं, कान, यकृत व गुर्दे खराब हो गये थे । जो डॉक्टर लगे थे वे इंजेक्शन लगा के जाकर रोते थे कि ‘हमारे हाथ से ये केस गया हुआ है ।’

सम्भव ही नहीं था कि विज्ञान के बल से आँखें ठीक हो जायें । इतना दुष्प्रभाव कि बैठ नहीं सकें, सो नहीं सकें, लेट नहीं सकें, छटपटायें । पीड़ा ऐसी कि उसके आगे प्रसूति की पीड़ा भी कुछ नहीं है । चिड़िया चें करे तो मानो एक तलवार लग गयी ऐसी पीड़ा होती थी ।

ऐसी पीड़ा में भी जरा सा याद करते कि ‘दुःख किसको हो रहा है ? शरीर को हो रहा है, हम तो उससे न्यारे हैं ।’ तो बड़ी हँसी आती थी । मन (कराहते हुए) कहता हैः ″ऐं… ऐं… ऐं…″

मैंने कहाः ″ऐं-ऐं करता है रो ?″ तो फिर हँसी आती । फिर थोड़ी देर बाद बोलताः ऊँ… ऊँ…. ऊँ…″

मैंने कहाः ″ऊँ… ऊँ… ऊँ… क्यों करता है ?″

बोलेः ″शरीर को आराम मिलता है ।″

मैंने कहाः ″अच्छा, कर लेकिन तू ‘ऊँ ऊँ… ‘ कर मैं देखता हूँ ।″

बोलेः ″फिर नहीं होगा ।″

तो इसका भी मजा मैंने लिया । ″मैं चैतन्य देखता है और करता है मन व शरीर । तो ऐसी सत्संग की बात चलते-फिरते भी पक्की रखो । दुःख, पीड़ा, आपत्ति भगवान (साक्षीस्वरूप परमात्मा) के आगे कोई मायना नहीं रखते ।

फिर हम कमरे में बंद हो गये । सेवक को बोला किः ″सुबह कमरा खोलना और ऐसे  समाधि कर देना । कोई आडम्बर नहीं करना ।″ मैंने प्राणायाम करके प्राण को ऊपर खींच के झटका मारा ताकि ब्रह्मांडव्यापिनी यात्रा पूरी हो जाय, एक-दो बार प्रयास किये । ‘मौत आकर मारे उसके पहले हम ब्रह्म में आ रहे हैं ।’ तो हो नहीं रहा था । फिर हमने इष्ट में शांत होकर बोलाः ″क्या मर्जी प्रभु आपकी ? रखना है तो डॉक्टरों व दवाइयों के वश का नहीं है और लेना है तो फिर यहाँ रुकावट क्यों आ रही है ?″

अंदर से आवाज आयीः ″रहना है ।″

″रहना है तो फिर  अब यह सब कैसे ठीक होगा ?″

बोलेः ″नारायणो वैद्यो जाह्नवी औषधिः ।″

तब से वैद्य मेरे नारायण हैं और गंगा जी औषधि हैं । फिर जैसी प्रेरणा मिलती गयी, खाते-पीते गये । और ये वैद्य बेचारे थोड़ा-बहुत आयुर्वेदिक ढंग से उपचार करते रहे तो मेरा यकृत, गुर्दे, आँख ठीक हो गये और बीमारी के पहले जो शरीर था उससे भी अच्छा हो गया, फुर्तीला हो गया ।

किसी ने घर पर, किसी ने आश्रम में तो किसी ने कहीं – कई बच्चे-बच्चियों ने, कई शिष्यों ने जप किया कि ‘हे भगवान ! बापू ठीक हो जायें ।’ वह तुम्हारा संकल्प भी काम करता है ।

सर्व रोग-व्याधिनाशक शक्ति का स्रोत

जब मेरी माँ की उम्र करीब 86 वर्ष की थी तब उनका शरीर काफी बीमार हो गया था । यकृत (लिवर), गुर्दे (किडनी), जठर, प्लीहा (सप्लीन) आदि खराब हो गये थे तथा और भी कई जानलेवा बीमारियों ने घेर लिया था । डॉक्टरों ने कह दिया था कि ‘अब 24 घंटे से ज्यादा नहीं निकाल सकती हैं ।’

23 घंटे हो गये । मैंने अपने 7 दवाखाने सँभालने वाले वैद्य को कहाः ″महिला आश्रम में माता जी हैं । तू कुछ तो कर भाई !″

वह गया और थोड़ी देर बाद मुँह लटकाये आया, बोलाः ″अब माता जी एक घंटे से ज्यादा नहीं निकाल सकती हैं । नाड़ी विपरीत चल रही है ।″

मैं गया । मेरी माँ मुझे पुत्र के रूप में नहीं देखती थीं वरन् जैसे कपिल मुनि की माँ उनको भगवान के रूप में, गुरु के रूप में मानती थीं वैसे ही मेरी माँ मुझे मानती थीं । माँ ने कहाः ″प्रभु ! अब मुझे जाने दो ।″

उनकी श्रद्धा का मैंने सात्त्विक फायदा उठाया ।

मैंने कहाः ″मैं नहीं जाने दूँगा ।″

″मैं क्या करूँ ?″

″मैं मंत्र देता हूँ आरोग्यता का ।″

उनकी श्रद्धा और मंत्र भगवान का प्रभाव… माँ ने मंत्र जपना चालू किया । मैं आपको सत्य बोलता हूँ कि एक ही घंटे बाद स्वास्थ्य में सुधार होने लगा । फिर तो 1 दिन, 2 दिन… एक सप्ताह… एक महीना… ऐसा करते-करते 72 महीने तक उनका स्वास्थ्य बढ़िया रहा । कुछ खान-पान की सावधानी, कुछ औषध का भी उपयोग किया गया ।

अमेरिका का डॉक्टर पी.सी. पटेल (एम.डी) भी आश्चर्यचकित हो गया कि ’86 वर्ष की उम्र में माँ के लीवर, किडनी कैसे ठीक हो गये ?’ तो मानना पड़ेगा कि सर्व व्याधिविनाशिनी शक्ति, रोगहारिणी शक्ति मंत्रजप में छिपी हुई है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 13 से 17, अंक 344

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नित्य गुरुज्ञान में रमण करो ! – पूज्य बापू जी


जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते रहते हैं । राग-द्वेष अनादि काल से है, वह भी तुम्हें झकझोरता होगा लेकिन तुम अपना लक्ष्य बना लो कि ‘जैसे मेरे सद्गुरु हर परिस्थिति में सम हैं, शांत हैं सजग हैं, सस्नेह हैं, सविचार हैं, ससत् हैं, सचित् हैं, सानंद हैं अर्थात् सत् के साथ, चेतन के साथ, आनंद के साथ जैसे मेरे गुरुदेव रमण करते हैं वैसे मैं भी करूँ ।’

इस प्रकार की सूझबूझ और सतत सावधानी जो रखता है वह यदि साधारण से साधारण व्यक्ति हो तो भी अपने उच्च आत्मा को पा लेता है, समझ लेता है ।

‘मैं बीमार हूँ, मैं बीमार हूँ….’ ऐसा चिंतन नहीं करो । ‘बीमार शरीर है, मैं इसको जानता हूँ ।’ ‘मैं दुःखी हूँ….’ नहीं, दुःखी मन है, मैं इसको जानता हूँ । मैं अमर आत्मा हूँ, मैं गुरु का हूँ – गुरु मेरे हैं, मैं प्रभु का हूँ – प्रभु मेरे हैं !’ ऐसा चिंतन करो तो दुःख बीमारी, परेशानी चले जायेंगे । भले देर-सवेर जायें पर जायेंगे जरूर । और अगर फिर आयेंगे तो इनका महत्त्व नहीं रहेगा । बाह्य जगत में तुम जिसको महत्त्व देते हो, जिससे प्रभावित होते हो वही तुम्हारे को नन्हा बना देता है और ईश्वर एवं सद्गुरु को महत्त्व देते हो, उनसे प्रभावित रहते हो तो वे तुम्हें अपने स्वभाव में मिला लेंगे और तुच्छ को महत्त्व देते हो तो वे तुम्हें तुच्छ बना देंगे । कभी भी रोग को, दुःख को बीमारी को, भूतकाल को महत्त्व न दो । गुरु-तत्त्व को, चैतन्य तत्त्व को, गुरुज्ञान को महत्त्व देकर नित्य उस गुरुज्ञान में रमण करो ।

सावधानी ही साधन है…

सजगता, सावधानी ही साधन है । दूसरे सब साधन छोटे हैं । गुरु से प्राप्त उपदेश में हम सजग रहें, सावधान रहें और कभी यह पकड़ न रखें कि ‘ऐसा क्यों ?’ वैसा क्यों ?…’ इसी का नाम तो दुनिया है । जो बीत गया वह भूतकाल है, जो आयेगा वह भविष्य है – अभी हमारे पास नहीं है, अभी जो वर्तमान है वह देखते-देखते पसार हो रहा है, उसमें रुकने की ताकत ही नहीं है । जो प्रकृति (माया) के दायरे में है और सतत (बीतता) जा रहा है उसका भय क्यों ? उसका आकर्षण क्यों उसकी चिंता क्यों ? और जाने को जो निहार रहा है, जो सदा है उस गुरु-तत्त्व, चैतन्य तत्त्व, आत्मतत्त्व से विमुखता क्यों ? जो सदा है उसके सम्मुख  हो जायें और जो जा रहा है उसका ठीक उपयोग कर लें बस, तुम्हारे दोनों हाथों में लड्डू !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 2, अंक 344

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आपकी चिंताएँ, दुःख आदि मुझे अर्पण कर दो !


ब्रह्मवेत्ता महापुरुष अपनी ब्रह्ममस्ती में मस्त रहते हुए भी अहैतुकी कृपा करने के स्वभाव के कारण संसार के दुःख, चिंता आदि तापों से तप्त मानव को ब्रह्मरस पिलाने के लिए समाज में भ्रमण करते हुए अनेक अठखेलियाँ करते रहते हैं । एक बार भगवत्पाद साँईँ श्री लीलाशाह जी महाराज आगरा में सत्संग कर रहे थे । बहनों-माताओं को व्यर्थ चिंता, तनाव व निंदा-स्तुति रो बचकर निश्चिंत, स्वस्थ व प्रसन्न रहने की युक्ति बताते हुए स्वामी जी ने कहाः ″स्त्रियाँ घर का श्रृंगार होती हैं । वे चाहें तो घर को स्वर्ग अथवा नरक बना सकती हैं । यदि घर में शांति, प्रेम, आनंद होगा तो घर स्वर्ग की भाँति बन जायेगा । बेचारा मर्द सारा दिन काम करके थक-हारकर जब घर में पहुँचे और उस समय धर्मपत्नी उसके सामने अपने दुखड़े रोने लगे तो उसे जिंदगी से भला कैसा आनंद आयेगा ? फुरसत के समय में यदि दो चार औरतें आपस में मिलती हैं तो किसी-न-किसी की निंदा करती रहती हैं तथा एक दूसरे को घर की बातें बताकर अपना रोना रोती हैं । अपना अमूल्य जीवन ऐसे ही व्यर्थ कर देती हैं ।

किसी के द्वारा कुछ कहने से क्या होता है ? आप पूरे शहर के लोगों से कहो कि मुझे गालियाँ दें परंतु मैं गालियाँ लूँगा ही नहीं अर्थात् उस ओर ध्यान ही नहीं दूँगा तो मेरा क्या बिगड़ेगा ? हे माताओ ! कुछ ध्यान दो, कुछ सोचो । यदि आपको कोई कुछ देवे और आप लो ही नहीं तो वह चीज वापस उसके पास ही रहेगी । आप एक दूसरे की बातें इधर-उधर करके अपने दिल को बेचैन मत करो ।″

फिर स्वामी जी ने सत्संगियों के सामने एक कपड़ा जो वे हमेशा साथ रखते थे, अपने सामने बिछाया तथा माताओं से कहने लगेः ″हे माताओ ! आपके पास जो चिंताएँ, दुःख आदि हों वे मुझे अर्पण कर दो, इस कपड़े पर डाल दो ।″ फिर वे अपने हाथ लम्बे करके मानो माताओं से उनकी चिंताएँ आदि लेकर कपड़े पर डालने लगे । कहने लगेः ″सब सुनो, देखो, कहीं किसी के पास कोई चिंता रह न जाये, सब मुझे दान में दे दो ।″ फिर सत्संगियों को हँसाते-हँसाते, वह कपड़ा उठाते हुए उसे गाँठ बाँधने लगे, बोलेः ″सब चिंताओं की गठरी भरकर गाँधीधाम जा के समुद्र में फेंक दूँगा । आज के बाद अब कोई भी माता चिंता नहीं करे ।

चिंता से चेहरो घटे, घटे बुद्धि और ज्ञान ।

मानव चिंता मत करो, चिंता चिता समान ।।

कलियुग में दान की बड़ी भारी महिमा है । शास्त्रों में कहा गया हैः दानं केवलं कलियुगे ।

8 प्रकार के दानों में सत्संग-दान सर्वोपरि है । हमारे प्यारे दादागुरु भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज ने सत्संग दान तो किया ही, साथ ही विनोद-विनोद में सत्संगियों के दुःख, चिंता आदि दूर करने के ले दान के रूप में उन्हें माँग लिया । यही है करुणावान, दया की खान ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की महानता, सरलता और विलक्षणता ! उनकी हर चेष्टा जीवमात्र के कल्याण के लिए ही होती है । जो दोष, दुर्गुण, दुःख, चिंता छोड़ने में असम्भव लगते हैं वे ऐसे महापुरुषों के दर्शन-सत्संग, उनकी प्रेमभरी लीलाओं के स्मरण चिंतन तथा उनकी बतायी सरल-से-सरल युक्तियों को जीवन में उतारने से सहज में ही छूट जाते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 21 अंक 344 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ