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तीन सच्चे हितैषी – पूज्य बापू जी


सच्चे हितैषी तीन ही होते हैं-

1. संयमी, सदाचारी, शांत मन हमारा हितैषी है । जो मन में आया वह करने लगे या मन के गुलाम बने तो वह मन हमारा शत्रु है । जो मन संयमित है, शांत है वही हमारा हितैषी है । असयंमित, अशांत मन तबाही देता है ।

2. इष्टदेव हमारे हितैषी हैं । ब्रह्मवेत्ता गुरु मिलने के पहले जिनको भी इष्ट माना है वे हमारे हितैषी होते हैं । वे इष्ट ही हमारी प्रेरणा करते हैः ‘जाओ लीलाशाहजी के पास या फलाने ब्रह्मवेत्ता गुरु के पास, यह करो, वह करो….।’

3. ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु हमारे हितैषी हैं । जब सद्गुरु मिल जाते हैं तो इष्ट का काम पूरा हो जाता है । अकेले इष्ट शक्तिशाली तो हैं परन्तु वे एक शक्ति हैं, जब इष्ट गुरु के पास भेजते हैं तो शक्ति 11 गुना हो जाती है ।

इष्ट को हम मानते थे, उनकी पूजा करते थे । इष्ट ने गुरु के पास भेजा और गुरु ने इष्ट को चुरवा लिये तो इष्ट नाराज नहीं हुए कि ऐसा गुरु ? मैंने तो ऐसा साधक भेजा और मेरी ही पूजा छुड़वा दी !’ नहीं-नहीं, इष्ट और सद्गुरु पूजा के प्यासे नहीं होते, पूजा के भूखे नहीं होते । पूजा के निमित्त हमारा मंगल हो इसलिए स्वीकार कर लेते हैं, बाकी उनको क्या परवाह है ! इष्ट और सद्गुरु हमारे दुश्मन नहीं होते हैं परंतु कभी-कभार देखोगे कि अच्छे काम करके इष्ट या सद्गुरु को प्रणाम करने गये हो तो वे प्रसन्न मिलेंगे और गड़बड़ की तो इष्ट या गुरु की आँखें अंगारे बरसाती हुई मिलेंगी । हम स्वयं अपने हितैषी नहीं हैं, सद्गुरु सच्चे हितैषी होते हैं, जो कई जन्मों की हमारी कमजोरी, दोष, पाप, अपराध, दुष्टता व अकड़-पकड़ को जानते हुए भी हमारा त्याग नहीं करते, हमसे घृणा नहीं करते, हमारे लिए उनके मन में हित की भावना होती है । ऐसे पूर्ण हितैषी सद्गुरु हमें जो देना चाहते हैं उसकी हम 10 जन्मों में भी कल्पना नहीं कर सकते ।  उस परमात्म-धन के वे धनी होते हैं और वह हँसते-खेलते हमें देना चाहते हैं । आवश्यक वस्तु बिना माँगे ही सद्गुरु दे देते हैं और अनावश्यक माँगें जैसे प्रसिद्ध होने की माँग, कपट करके लोगों से पैसा बटोरने की माँग… ये सब जो गलत बातें हैं, जिनको यदि आप चाहते हैं तो गुरु जी उन चाहों को लताड़ते हुए भी आपको शुद्ध बनाने में बहादुर होते हैं । अनावश्यक वस्तुएँ, जिनको हम चाहते हैं, वे हमसे छीनते हैं और आवश्यक वस्तुएँ जिनको हम नहीं भी चाहते हैं उन्हें वे हँसते-खेलते, पुचकारते हुए देते हैं ।

शोक, विलाप, मनमुखता, छल कपट करने की तुम्हारी जो पुरानी आदते हैं उनको सच्चे हितैषी गुरु कैसे निकालते हैं वह तो वे ही जानते हैं । उस समय गुरु शत्रु जैसे भी लगें तब भी भूलकर भी उनका दामन नहीं छोड़ना चाहिए । परम हितैषी सद्गुरु तुम्हारे अहं की परवाह न करके तुम्हारी महानता पर दृष्टि रखते हैं । उनके लिए ‘परम हितैषी’ शब्द भी छोटा है ।

माँ-बाप बच्चे का जितना हित जानते और कर सकते हैं उतना बच्चा नहीं जानता है, नहीं कर सकता है । माँ-बाप की तो सीमा है परंतु सद्गुरु व इष्ट की तो सीमा होती ही नहीं है । वे असीम तत्त्व के धनी होते हैं ।

आपका गुरु जाने, आप जानो, मैं तो मेरे गुरुदेव को बोल रहा हूँ कि ‘आप ब्रह्म हैं, आप विष्णु हैं, आप चन्द्र हैं, आप सूर्य हैं, आप नक्षत्र हैं, आप ग्रहों से भी परे हैं, आप पूर्ण के पूर्ण हैं । ब्रह्मा-विष्णु, महेश का अधिष्ठान जो आत्मा है वही आप हैं ।’

मैंने अपने गुरु को जब ‘गुरु ब्रह्मा’ बोला तो मेरी आँखें पवित्र हो गयीं, भर आयीं । दुनिया में ऐसा कोई हितैषी नहीं जितना गुरुदेव हैं ।

‘हे लीलाशाह भगवान ! भगवान भी आपके आगे मत्था टेकते हैं, आप ब्रह्मस्वरूप हैं ।’ किसी ने कहाः ″मेरे गुरु तो भगवान हैं ।″

  मैंने कहाः ″तू गाली दे रहा है ।″

अरे, भगवान भी जिनका चेला बन के अपने सौभाग्य की सराहना करते हैं उनको बोलते हैं ‘गुरु’ ।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मैं श्री गुरवे नमः ।।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मङ्गलम् ।

जब तक ब्रह्मज्ञानी गुरु नहीं मिले तब तक इष्ट का अवलम्बन, सहारा कुछ साथ देता है परंतु जैसे जब सूरज के प्रकाश में आ गये तो दीये का प्रकाश सूरज के प्रकाश में समा जाता है ऐसे ही इष्ट का कृपा-प्रसाद गुरुकृपा आने के बाद सब गुरुकृपा में बदल जाता है ।

हमारे इष्ट को गुरुदेव ने चुरवा लिया, गोदाम में रखवा दिया । इष्ट को कोई फिक्र नहीं । उसके बाद इष्ट की पूजा हमने कभी की नहीं और अनिष्ट कभी हुआ ही नहीं, इष्ट-ही-इष्ट है । गुरु ने हमको ही करोड़ों लोगों का इष्ट बना दिया ।

हे गुरुदेव ! हम तो इस बात में बबलू थे । हम जो नहीं चाहते थे (जिसका हमें पता नहीं था) वह दे दिया और हम जो चाहते थे (शिवजी का साकार दर्शन व प्रसन्नता) वह हटवा दिया । कितना हित है आपकी दृष्टि में ! कितने हितैषी हैं आप !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 344

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दशरथ की सभा में छलका जनक जी के दूतों का ज्ञानामृत


जब राजर्षि जनक के दूतों ने महाराज दशरथ को भगवान श्रीरामचन्द्र जी द्वारा शिव-धनुष टूटने का समाचार सुनाया तब भाव से उनका हृदय भर आया और अत्यधिक स्नेह के कारण वे अपने पद की गरिमा भूल गये और दूतों को पास बैठाकर कहने लगेः

″भैया कहहु कुसल दोउ बारे ।

भैया ! क्या मेरे दोनों नन्हें पुत्र कुशल हैं ?″

जनकपुर के दूत चकित होकर सोचने लगे, ‘इन्होंने कैसी विलक्षण दृष्टि पायी है – जिन्होंने धनुष तोड़ दिया वे इन्हें नन्हें-से बालक दिखाई दे रहे हैं ! आश्चर्य हैं ! पत्र में पढ़ चुके हैं, फिर भी कुशल पूछ रहे हैं ।’

दूत मौन हैं । दूतों की चुप्पी से दशरथ जी को संदेह हुआ कि ‘इन लोगों को पत्र दे दिया होगा, जिसे लेकर चले आये होंगे । शायद राम को देखा या नहीं ?″ फिर एक शब्द और जोड़ दियाः ″अच्छा, देखा है तो क्या अपनी आँखों से देखा है ? अगर अपनी आँखों से देखा है तो अच्छी तरह से देखा कि नहीं  ?″

जब दूत कुछ बोले नहीं तो स्वयं बताने लगे कि ″मेरा एक पुत्र तो साँवले और दूसरा गोरे रंग का है । वे धनुष-बाण लेकर चलते हैं । विश्वामित्र जैसे मुनि के साथ हैं ।″

दूत मौन ही हैं इसलिए उन्होंने आगे कहाः ″अगर पहचानते हैं तो

पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ ।

दूर से तो कोई भी चर्चा सुन लेता है पर स्वभाव का पता तो पास जाकर ही चलता है ! तो क्या आप उनके स्वभाव को जानते हैं ?″

राजा दशरथ प्रेम से बार-बार इस प्रकार पूछने लगे । फिर भी दूत नहीं बोले तो उन्होंने प्रश्न कियाः ″यह प्रश्न मेरे दिल में इसलिए बहुत उठ रहा है क्योंकि मैंने सुना है जनक विदेह हैं, देह की भावना से ऊपर हैं, फिर ऐसे विदेह (जनक) ने उन्हें कैसे जाना ?

कहहु विदेह कवन विधि जाने ।″

ये प्रेमभरे वचन सुनकर दूत मुस्कराये और कहाः ″हे राजाओं के मुकुटमणि ! सुनिये, आपके समान धन्य और कोई नहीं है, जिनके राम-लक्ष्मण जैसे पुत्र हैं, जो दोनों विश्व के भूषण हैं । आपके पुत्र पूछने योग्य नहीं हैं ।

पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे ।।

‘वे पुरुषसिंह तीनों लोकों के प्रकाशस्वरूप हैं ।’ (श्री रामचरित. बा.कां. 291.1)

महाराज ! आप यह कह रहे हैं लेकिन आपके पुत्र जो हैं वे प्रकाश में देखने के लिए नहीं हैं अपितु स्वयं प्रकाशित करने के लिए हैं । सारे संसार में जो दिखाई दे रहा है, उनके प्रकाश से ही दिखाई दे रहा है ।″

बड़ा दार्शनिक सूत्र देते हुए उन्होंने आगे कहाः ″अँधेरे में कोई वस्तु खो जाये और न मिले तो कहा जाता है कि ‘अब तो प्रकाश की आवश्यकता है, दीया जलाकर ढूँढ लो ।’ पर क्या सूर्योदय के बाद कोई यह कहता है कि ‘जरा दीपक लेकर देखो कि सूरज निकल आया कि नहीं ?’ यह तो उलटी बात होगी, कारण कि सूरज निकलने के बाद यही कहा जाता है कि ‘अब दीपक की क्या आवश्यकता है, इसे बुझा दो ।’

तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे ।

देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे ।।

हे नाथ ! उनके लिए आप क्या कहते हैं कि ‘उन्हें कैसे पहचाना ?’ क्या सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखा जाता है ?″ (श्री रामचरित. बा. कां. 291.1.2)

सीधा-सा तात्पर्य है कि बुद्धि ही दीपक है और संसार की वस्तुओं को देखने के लिए बुद्धि के दीये को जलाने की आवश्यकता है । पर परम प्रकाशक जब स्वयं प्रकट हो जायें, उस समय बुद्धि के प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं है ।

फिर दूत आगे कहते हैं- ″आपके बड़े राजकुमार अत्यंत शीलवान और विनयवान हैं । उनमें कोमलता है तथा छोटे राजकुमार अत्यंत तेजस्वी हैं, जिन्हें देखकर ही जो बुरे राजा हैं वे काँपने लगते हैं । आपने जो पूछा कि ‘अपनी आँखों से देखा कि नहीं और विदेह ने कैसे जाना ?’ तो महाराज ! हमें तो आपकी बात कुछ उलटी दृष्टि आ रही है । इनको विदेह ही जान सकते हैं ! जो मात्र ‘देह’ देखने वाले हैं वे क्या जानें ! वे तो उनको भी एक देह में घिरा हुआ मान लेंगे । आपने जब यह कहा कि ‘भली प्रकार देखा कि नहीं ?’ तो उनको देखने के बाद अब दिखाई देना ही बंद हो गया ।

देव देखि तब बालक दोऊ ।

अब न आँखि तर आवत कोऊ ।।

‘हे देव ! आपके दोनों बालकों को देखने के बाद अब आँखों के नीचे कोई आता ही नहीं (हमारी दृष्टि पर कोई चढ़ता ही नहीं) ।″ (श्री रामचरित. बा. कां. 292.3)

जब रोम-रोम में रमने वाला सर्वव्यापी राम ज्ञानचक्षु से भली प्रकार से दिखाई देता है तो फिर और कुछ नहीं दिखाई देता, पूरा दृश्य-प्रपंच भी चैतन्यस्वरूप परमात्मा का आनंद-उल्लास जान पड़ता है । जनक जी के दूतों के ज्ञान की मधुरता छलकाते वचन सुनकर सभारहित राजा दशरथ प्रेम में मग्न हो गये ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 344

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जब रघुराई बने ‘सेन नाई’ – पूज्य बापू जी


‘भक्तमाल’ में एक कथा आती हैः

बघेलखंड के बांधवगड़ में राजा वीरसिंह का राज्य था । वीरसिंह बड़ा भाग्यशाली रहा होगा क्योंकि भगवन्नाम का जप करने वाले, परम संतोषी एवं उदार सेन नाई उसकी सेवा करते थे । सेन नाई भगवद्भक्त थे । उनके मन में मंत्रजप निरंतर चलता ही रहता था । संत-मंडली ने सेन नाई की प्रशंसा सुनी तो एक दिन उनके घऱ की ओर चल पड़ी । सेन नाई राजा साहब के यहाँ हजामत बनाने जा रहे थे ।

मार्ग में दैव योग से मंडली ने सेन नाई से ही पूछाः ″भैया ! सेन नाई को जानते हो ?″

सेन नाईः ″क्या काम था ?″

संतः ″वह भक्त है । हम भक्त के घर जायेंगे । कुछ खायेंगे, पियेंगे और हरिगुण गायेंगे । क्या तुमने सेन नाई का नाम नहीं सुना है ?″

सेन नाईः ″दास आपके साथ ही चलता है ।″

संतों को छोड़कर वे राजा के पास कैसे जाते ? सेन नाई संत-मंडली को घर ले आये । घर में उनके भोजन की व्यवस्था की । सीधा-सामान आदि ले आये । संतों ने स्नानादि करके भगवान का पूजन किया एवं कीर्तन करने लगे । सेन नाई भी उसमें सम्मिलित हो गये ।

तन की सुधि न जिनको, जन की कहाँ से प्यारे…

सेन नाई हरि कीर्तन में तल्लीन हो गये । हरि ने देखा कि ‘मेरा भक्त तो यहाँ कीर्तन में बैठ गया है ।’ हरि ने करुणावश सेन नाई का रूप लिया और पहुँच गये राजा वीरसिंह के पास ।

सेन नाई बने हरि ने राजा की मालिश की, हजामत की । राजा वीरसिंह को उनके करस्पर्श से जैसा सुख मिला वैसा पहले कभी नहीं मिला था । राजा बोल पड़ाः ″आज तो तेरे हाथ में कुछ जादू लगता है !″

″अन्नदाता ! बस ऐसी ही लीला है ।″ कहकर हरि तो चल दिये । इधर संत-मंडली भी चली गयी तब सेन नाई को याद आया कि ‘राजा की सेवा में जाना है ।’ सोचने लगेः ‘वीर सिंह स्नान किये बिना कैसे रहे होंगे ? आज तो राजा नाराज हो जायेंगे कोई दंड मिलेगा या तो सिपाही जेल में ले जायेंगे । चलो, राजा के पास जाकर क्षमा माँग लूँ ।’

हजामत के सामान की पेटी लेकर दौड़ते-दौड़ते सेन नाई राजमहल में आये ।

द्वारपाल ने कहाः ″अरे, सेन जी ! क्या बात है ? फिर से आ गये ? कंघी भूल गये कि आईना ?″

सेन नाईः ″मजाक छोड़ो, देर हो गयी है । क्यों दिल्लगी करते हो ?″

ऐसा कहकर सेन नाई वीरसिंह के पास पहुँच गये । देखा तो राजा बड़ी मस्ती में । वीरसिंहः ″सेन जी ! क्या बात है ? वापस क्यों आये हो ? आप थोड़ी देर पहले तो गये थे, कुछ भूल गये हो क्या ?″

″महाराज ! आप भी मजाक कर रहे हैं क्या ?″

″मजाक ? सेन, तू पागल तो नहीं हुआ है ? देख यह दाढ़ी तुमने बनायी, तूने ही तो नहलाया, कपड़े पहनाये । अभी तो दोपहर हो गयी है, तू फिर से आया है, क्या हुआ ?″

सेन नाई टकटकी लगा के देखने लगे कि ‘राजा की दाढ़ी बनी हुई है । स्नान करके बैठे हैं ।’ फिर बोलेः ″राजा साहब ! क्या मैं आपके पास आया था ?″

राजाः ″हाँ, तू ही तो था लेकिन तेरे हाथ आज बड़े कोमल लग रहे थे । आज बड़ा आनंद आ रहा है । दिल में खुशी और प्रेम उभर रहा है । तुम सचमुच भगवान के भक्त हो । भगवान के भक्तों का स्पर्श कितना प्रभावशाली व सुखदायी होता है इसका पता तो आज ही चला ।″

सेन नाई समझ गये कि ‘मेरी प्रसन्नता और संतोष के लिए भगवान को मेरी अनुपस्थिति में नाई का रूप धारण करना पड़ा ।’ वे अपने-आपको धिक्कारने लगे कि ‘एक तुच्छ सी सेवापूर्ति के लिए मेरे कारण विश्वनियंता को, मेरे प्रेमास्पद को खुद आना पड़ा ! मेरे प्रभु को इतना कष्ट उठाना पड़ा ! मैं कितना अभागा हूँ ।!″

वे बोलेः ″राजा साहब ! मैं नहीं आया था । मैं तो मार्ग में मिली संत-मंडली को लेकर घर वापस लौट गया था । मैं तो अपना काम भूल गया था और साधुओं की सेवा में लग गया था । मैं तो भूल गया किंतु मेरी लाज रखने के लिए परमात्मा स्वयं नाई का रूप लेकर आये थे ।″

‘प्रभु !… प्रभु !….’ करके सेन नाई तो भावसमाधि में खो गये । राजा वीरसिंह का भी हृदय पिघल गया । अब सेन नाई तुच्छ सेन नाई नहीं थे और राजा वीरसिंह अहंकारी वीरसिंह नहीं  था । दोनों के हृदयों में प्रभुप्रेम की, उस दाता की दया-माधुर्य की मंगलमयी सुख-शांतिदात्री…. करुणा-वरुणालय की रसमयी, सुखमयी, प्रेममयी, माधुर्यमयी धारा हृदय में उभारी धरापति ने । दोनों एक दूसरे के गले लगे और वीरसिंह ने सेन नाई के पैर छुए और बोलाः ″राज-परिवार जन्म-जन्म तक आपका और आपके वंशजों का आभारी रहेगा । भगवान ने आपकी ही प्रसन्नता के लिए मंगलमय दर्शन देकर हमारे असंख्य पाप-तापों का अंत किया है । सेन ! अब से आप यह कष्ट नहीं सहना । अब से आप भजन करना, संतों की सेवा करना और मेरा यह तुच्छ धन मेरे प्रभु के काम में लग जाये ऐसी मुझ पर मेहरबानी किया करना । कुछ सेवा का अवसर हो तो मुझे बता दिया करना ।″

भक्त सेन नाई उसके बाद वीरसिंह की सेवा में नहीं गये । थे तो नाई लेकिन उस परमात्मा के प्रेम में अमर हो गये और वीरसिंह भी ऐसे भक्त का संग पाकर धनभागी हो गया ।

कैसा है वह करुणा-वरुणालय ! अपने भक्त की लाज रखने के लिए उसको नाई का रूप लेने में भी कोई संकोच नहीं होता ! अद्भुत है वह सर्वात्मा और धन्य है उसके प्रेम में सराबोर रहकर संत-सेवा करने वाला सेन नाई !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 344

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