आदर्श नर-नारी का परस्पर कैसा हो दृष्टिकोण ?
प्रश्नः यदि नारी को नर भोग्या समझता है तो इसमें क्या दोष है ?
स्वामी अखंडानंद जीः अनेक दोष हैं-
- एकमात्र परमात्मा ही सत्य है – इस तात्त्विक सिद्धांत से च्युत हो जाना ।
- अपने को देहाभिमानी भोक्ता मान बैठना ।
- नारी को पंचभौतिक पुतला मानकर उसके प्रति स्थूल खाद्य पदार्थ – अन्न-जल आदि के समान व्यवहार करके अपमानित करना । इसी प्रवृत्ति से लोग स्त्री जाति को सामान्य धन समझकर व्यापार करते हैं ।
- अपवित्र में रमकर स्वयं नष्ट होना और दूसरे को नष्ट करना इत्यादि ।
प्रश्नः नारी को ‘माया’ कहने का क्या अभिप्राय है ?
उत्तरः ‘माया’ शब्द का प्रयोग उत्तम और अधम दोनों अर्थों में होता है । तथापि यहाँ दूसरे अर्थ पर विचार किया जाता है । माया का अर्थ है – हो कुछ और दिखावे कुछ और ! नर भ्रांति-परम्परा में विचरता हुआ इस स्थिति में पहुँच गया कि वह भोग वासना के आवेश में अन्य की अपेक्षा नारीरूपधारी असंग चेतन को ही भोग्य समझने लगा । नारी ने सहयोग दिया – ‘मैं सचमुच तुम्हारी भोग्या हूँ ।’ यह छलना है – माया है । वस्तुतः भोक्ता और भोग्य का भेद झूठा है । यदि देहावेश (देहाभिमान) को स्वीकार कर लें तो भी दोनों भोक्ता हैं । इस छलनामय भोग्यता के प्रदर्शन में जो नारियाँ आगे रहीं उन्हें ही ‘माया’ कहा गया है ।
प्रश्नः अन्य पुरुषों के प्रति नारी की कैसी दृष्टि हो ?
उत्तरः जब अपने पति के सहवास का उद्देश्य ही काम पर विजय पाना है तब ऐसी कोई भी दृष्टि जिससे काम-वासना को उद्दीपन प्राप्त हो, किसी के प्रति भी कैसे की जा सकती है ? इसी से चाहे पतिदेव इस लोक में हों चाहे न हों, नारी का धर्म यही है कि स्वप्न में भी अपने मन में बुरे भाव न आने दे । जो लोग वासनाओं का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करते हैं और कहते हैं कि ‘नारी उन्हें (वासनाओं को) वश में नहीं कर सकती’, वे नारी का अपमान करते हैं । उनकी बातों में आकर नारियों को अपने व्रत से च्युत नहीं होना चाहिए और किसी भी दृष्टि से पिता, भाई, पुत्र मानकर भी पर-पुरुष, से हेल-मेल (उठ-बैठ) नहीं बढ़ाना चाहिए । किसी-किसी का कहना है कि ‘भगवान श्री रामचन्द्र जी जब अत्रि मुनि के आश्रम में गये तब अनसूया जी उन्हें प्रणाम करने तक नहीं आयीं, मिलने की तो बात दूर है ।’ वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि लंका में हनुमान जी ने सीताजी से कहा कि ″माता ! आप मेरी पीठ पर बैठकर भगवान के पास चलें ।″ तो उन्होंने स्पष्ट रूप से मना कर दिया । बोलीं- ″हरण के समय विवशता के कारण मुझे रावण का स्पर्श प्राप्त हुआ । अब मैं जानबूझकर तुम्हारा स्पर्श नहीं कर सकती ।″ सती-साध्वी नारियों के अंतःकरण स्वतः ही ऐसे पवित्र होते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 21 अंक 345
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