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आदर्श नर-नारी का परस्पर कैसा हो दृष्टिकोण ?


आदर्श नर-नारी का परस्पर कैसा हो दृष्टिकोण ?

प्रश्नः यदि नारी को नर भोग्या समझता है तो इसमें क्या दोष है ?

स्वामी अखंडानंद जीः अनेक दोष हैं-

  1. एकमात्र परमात्मा ही सत्य है – इस तात्त्विक सिद्धांत से च्युत हो जाना ।
  2. अपने को देहाभिमानी भोक्ता मान बैठना ।
  3. नारी को पंचभौतिक पुतला मानकर उसके प्रति स्थूल खाद्य पदार्थ – अन्न-जल आदि के समान व्यवहार करके अपमानित करना । इसी प्रवृत्ति से लोग स्त्री जाति को सामान्य धन समझकर व्यापार करते हैं ।
  4. अपवित्र में रमकर स्वयं नष्ट होना और दूसरे को नष्ट करना इत्यादि ।

प्रश्नः नारी को ‘माया’ कहने का क्या अभिप्राय है ?

उत्तरः ‘माया’ शब्द का प्रयोग उत्तम और अधम दोनों अर्थों में होता है । तथापि यहाँ दूसरे अर्थ पर विचार किया जाता है । माया का अर्थ है – हो कुछ और दिखावे कुछ और ! नर भ्रांति-परम्परा में विचरता हुआ इस स्थिति में पहुँच गया कि वह भोग वासना के आवेश में अन्य की अपेक्षा नारीरूपधारी असंग चेतन को ही भोग्य समझने लगा । नारी ने सहयोग दिया – ‘मैं सचमुच तुम्हारी भोग्या हूँ ।’ यह छलना है – माया है । वस्तुतः भोक्ता और भोग्य का भेद झूठा है । यदि देहावेश (देहाभिमान) को स्वीकार कर लें तो भी दोनों भोक्ता हैं । इस छलनामय भोग्यता के प्रदर्शन में जो नारियाँ आगे रहीं उन्हें ही ‘माया’ कहा गया है ।

प्रश्नः अन्य पुरुषों के प्रति नारी की कैसी दृष्टि हो ?

उत्तरः जब अपने पति के सहवास का उद्देश्य ही काम पर विजय पाना है तब ऐसी कोई भी दृष्टि जिससे काम-वासना को उद्दीपन प्राप्त हो, किसी के प्रति भी कैसे की जा सकती है ? इसी से चाहे पतिदेव इस लोक में हों चाहे न हों, नारी का धर्म यही है कि स्वप्न में भी अपने मन में बुरे भाव न आने दे । जो लोग वासनाओं का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करते हैं और कहते हैं कि ‘नारी उन्हें  (वासनाओं को) वश में नहीं कर सकती’, वे नारी का अपमान करते हैं । उनकी बातों में आकर नारियों को अपने व्रत से च्युत नहीं होना चाहिए और किसी भी दृष्टि से पिता, भाई, पुत्र मानकर भी पर-पुरुष, से हेल-मेल (उठ-बैठ) नहीं बढ़ाना चाहिए । किसी-किसी का कहना है कि ‘भगवान श्री रामचन्द्र जी जब अत्रि मुनि के आश्रम में गये तब अनसूया जी उन्हें प्रणाम करने तक नहीं आयीं, मिलने की तो बात दूर है ।’ वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि लंका में हनुमान जी ने सीताजी से कहा कि ″माता ! आप मेरी पीठ पर बैठकर भगवान के पास चलें ।″ तो उन्होंने  स्पष्ट रूप से मना कर दिया । बोलीं- ″हरण के समय विवशता के कारण मुझे रावण का स्पर्श प्राप्त हुआ । अब मैं जानबूझकर तुम्हारा स्पर्श नहीं कर सकती ।″ सती-साध्वी नारियों के अंतःकरण स्वतः ही ऐसे पवित्र होते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 21 अंक 345

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सद्गुरु की युक्ति को मूर्खता से त्यागो मत


पूज्य श्री के पावन सान्निध्य में श्री योगवासिष्ठ महारामायण का पाठ चल रहा हैः महर्षि वसिष्ठ जी बोलेः ″हे राम जी ! एक दिन तुम वेदधर्म की प्रवृत्ति सहित सकाम यज्ञ, योग आदिक त्रिगुणों से रहित होकर स्थित हो और सत्संग व सत्शास्त्र परायण हो तब मैं एक ही क्षण में दृश्यरूपी मैल दूर कर दूँगा । हे राम जी ! गुरु की कही युक्ति को जो मूर्खता से त्याग देते हैं उनको सिद्धान्त प्राप्त नहीं होता ।″

इन वचनों को सुनते ही पूज्य बापू जी के श्रीमुख से सहसा निकल पड़ाः ″ओहो ! क्या बहादुरों-के-बहादुर हैं ! कैसे हैं भगवान श्रीराम के गुरु जी !

वसिष्ठजी महाराज कहते हैं कि ″सकाम भावना से ऊपर उठो तो एक ही क्षण में मैं दृश्यरूपी मैल दूर कर दूँगा अर्थात् परमात्म-साक्षात्कार करा दूँगा ।″

जैसे लाइट फिटिंग हो गयी हो तो बटन दबाने पर एक ही क्षण में अँधेरा भाग जाता है । बटन दबाने में देर ही कितनी लगती है ? उतनी ही देर आसोज सुद दो दिवस, संवत बीस इक्कीस (इसी दिन पूज्य बापू जी को आत्मसाक्षात्कार हुआ था) को लगी थी । दृश्य की सत्यता दूर हो गयी । गुरु जी को तो इतनी-सी देर लगी और अपना ऐसा काम बना कि अभी तक बना-बनाया है । इस काम को मौत का बाप भी नहीं बिगाड़ सकता ।

गुरु जी की कही हुई युक्ति को, उपदेश को जो मूर्खता से सुना-अनसुना कर देते हैं उनको सफलता नहीं मिलती । गुरु जी की युक्ति, गुरु जी के संकेत को महत्त्व देना चाहिए । उत्तम सेवक तो सेवा खोज लेगा, मध्यम को संकेत एवं कनिष्ठ को आज्ञा मिलने पर वे सेवा करेंगे और कनिष्ठतर को तो आज्ञा दो फिर भी कार्य करने में आलस्य करेगा, टालमटोल करेगा । गुरु की युक्ति को महत्त्व न देना, उनके उपदेश का अनादर करना ऐसे दुर्गुण छोड़ते जायें तो सभी ईश्वरप्राप्ति के पात्र हैं । कुपात्रता छोड़ते जायें तो पात्र ही पात्र हैं । यह मनुष्य जीवन ईश्वरप्राप्ति की पात्रता है लेकिन ये दुर्गुण पात्रता को कुपात्रता में बदल देते हैं । दुर्गुण छोड़ें तो बस पात्रता ही है और दुर्गुण छोड़ने के पीछे मत लगे रहो, ईश्वरप्राप्ति के लिए लगो तो दुर्गुण छूटते जायेंगे । ईश्वरप्राप्ति का उद्देश्य बनायेंगे न, उद्देश्य ऊँचा होगा तो दुर्गुण छूटेंगे और सेवा भी बढ़िया होगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 32 अंक 344

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मन को युक्ति से सँभाल लो तो बेड़ा पार हो जायेगा


एक बार बीरबल दरबार में देर से आये तो अकबर ने पूछाः ″देर हो गयी, क्या बात है ?″

बीरबल ने कहाः ″हुजूर ! बच्चा रो रहा था, उसको जरा शांत कराया ।″

″…तो बच्चे को शांत कराने में दोपहर कर दी तुमने ! कैसे बीरबल ?″

″हुजूर बच्चे तो बच्चे होते हैं । राजहठ, स्त्रीहठ, योगहठ, बालहठ…. जैसे राजा का हठ होता है वैसे ही बच्चों का होता है जहाँपनाह !″

अकबरः ″बच्चों को रिझाना क्या बड़ी बात है !″

बीरबलः हुजूर ! बड़ी कठिन बात होती है ।″

″अरे, बच्चे को तो यूँ पटा लो ।″

″नहीं पटता महाराज ! बच्चा हठ ले ले तो फिर देखो । आप तो मेरे माई-बाप हैं, मैं बच्चा बन जाता हूँ ।″

″हाँ चलो, तुमको हम राजी कर दें ।″

बीरबल रोयाः ″पिताजी !…. पिता जी ! ऐंऽऽऽ….ऐंऽऽऽ…″

अकबरः ″अरे, क्या चाहिए ?″

ऊँऽऽऽ…. ऊँऽऽऽ…

″अरे, क्या चाहिए ?″

″मेरे को हाथी चाहिए ।″

अकबर ने महावत को बोलाः ″हाथी ला के खड़ा कर दो ।″

बीरबल ने फिर रोना चालू कर दियाः ″ऐंऽऽऽ ऐंऽऽऽ ऐँऽऽऽ

″क्या है ?″

″मेरे को देगचा (खाना पकाने का एक छोटा बर्तन) ला दो ।″

″अरे, चलो एक देगचा मँगा दो ।″

देगचा लाया गया ।

अकबर बोलाः ″देगचा ला दिया… बस ?″

″ ऊँऽऽऽ…. ऊँऽऽऽ…″

″अब क्या है ?″

″हाथी देगचे में डाल दो ।″

अकबर बोलता हैः ″यह कैसे होगा !″

बोलेः ″डाल दो… ।″

″अरे, नहीं आयेगा ।″

″नहीं, आँऽऽ… आँऽऽ…″

बच्चे का हठ… और क्या है ! अकबर समझाने में लगा ।

बीरबलः ″नहीं ! देगचे में हाथी डाल दो ।″

अकबर बोलाः ″भाई ! मैं तो तुमको नहीं मना सकूँगा । अब मैं बेटा बनता हूँ, तुम बाप बनो ।″

बीरबलः ″ठीक है ।″

अकबर रोया । बीरबल बोलता हैः ″बोलो बेटे अकबर ! क्या चाहिए ?″

अकबरः ″हाथी चाहिए ।″

बीरबल ने नौकर को कहाः ″चार आने के खिलौने वाले एक नहीं, दो हाथी ले आ ।″

नौकर ने लाकर रख दिये ।

″ले बेटे ! हाथी ।″

″ऐंऽऽऽ ऐंऽऽऽ ऐंऽऽ देगचा चाहिए ।″

″लो ।″

बोलेः ″इसमें हाथी डाल दो ।″

बीरबलः ″एक डालूँ कि दोनों के दोनों रख दूँ ?″

बीरबल ने युक्ति से बच्चा बने अकबर को चुप करा दिया । ऐसे ही मन भी बच्चा है ।मन को देखो कि उसकी एक वृत्ति ऐसी उठी तो फिर वह क्या कर सकता है । उसको ऐसे ही खिलौने दो जिन्हें आप सेट कर सको । उसको ऐसा ही हाथी दो जो देगचे में रह सके । उसकी ऐसी ही पूर्ति करो जिससे वह तुम्हारी लगाम में, नियंत्रण में रह सके । तुम अकबर जैसा करते हो लेकिन बीरबल जैसा करना सीखो । मन बच्चा है, उसके कहने में चलोगे तो गड़बड़ कर देगा । उसके कहने में नहीं उसे पटाने में लगो । उसके कहने में लगोगे तो वह अशांत रहेगा । फिर बाप भी अशांत, बेटा भी अशांत । उसको घुमाने में लगोगे तो बेटा भी खुश हो जायेगा, बाप भी खुश हो जायेगा ।

मन की कुछ ऐसी-ऐसी आकांक्षाएँ, माँगें होती हैं जिनको पूरा करते-करते जीवन पूरा हो जाता है । और उनसे सुख मिला तो आदत बन जाती है और दुःख मिला तो उसका विरोध बन जाता है । लेकिन उस समय मन को और कोई बहलाने की चीज़ दे दो । हलका चिंतन करता है तो बढ़िया चिंतन दे दो । हलका बहलाव करता है तो बढ़िया बहलाव दे दो । उपन्यास पढ़ता है तो सत्शास्त्र दे दो, इधर-उधर की बात करता है तो माला पकड़ा दो, किसी का वस्त्र-अलंकार देखकर आकर्षित होता है तो शरीर की नश्वरता का ख्याल करो, किसी के द्वारा किये अपने अपमान को याद करके जलता है तो जगत के स्वप्नत्व को याद करो । मन को ऐसे ही खिलौने दो जिससे वह आपको परेशान न करे । लोग जो मन में आया उसमें लग जाते हैं । मन में आया कि यह करूँ तो कर दिया, मन में आया फैक्ट्री बनाने का तो खड़ी करदी, मन का करते-करते फिर फँस जाओगे, सँभालने की जवाबदारी बढ़ जायेगी और अंत में देखो तो कुछ नहीं, जिंदगी बिनजरूरी आवश्यकताओं में पूरी हो गयी !

इसलिए संत कबीर जी ने कहाः

साँईं इतना दीजिये, जा में कुटुम्ब समाय ।

मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाये ।।

अपनी आवश्यकता कम करो और बाकी का समय जप में, आत्मविचार में, आत्मध्यान में, कभी-कभी एकांत में, कभी सत्कर्म में, कभी सेवा में लगाओ । अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ कम करो तो आप स्वतंत्र हो जायेंगे ।

अपने व्यक्तिगत सुखभोग की इच्छा कम रखो तो आपके मन की चाल कम हो जायेगी । परहित में चित्त को, समय को लगाओ तो वृत्ति व्यापक हो जायेगी । परमात्मा के ध्यान में लगाओ, वृत्ति शुद्ध हो जायेगी । परमात्मा के तत्त्व में लगाओ तो वृत्ति के बंधन से आप निवृत्त हो जायेंगे ।

भाई ! सत्संग में तो हम आप लोगों को किसी प्रकार की कमी नहीं रखते, आप चलने में कमी रखें तो आपकी मर्जी की बात है ।

मन बिनजरूरी माँगें करे और आप वे पूरी करेंगे तो वह आपको पूरा कर देगा (विनष्ट कर देगा ) । जो जरूरी माँग है वह अपने आप पूरी होती है इसलिए गलत माँगें, गलत लालसाएँ करें नहीं और मन करता है तो वे पूरी न करें और हों तो युक्ति से कर लें । जैसे वह नकली हाथी देगचे में डाल दिया । ऐसे ही मन की कोई इच्छा वासना हुई तो उस समय उसके अनुरूप हितकारी व्यवहार करें । समझो बीड़ी पीने की इच्छा है तो कीर्तन में चले गये, किसी को गुस्से से गाली देने की इच्छा है तो उस समय जोर से राम-राम-राम चिल्लाने लग जायें । ऐसा करके युक्ति से मन को सँभाल लो तो बेड़ा पार हो जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 6, 7 अंक 344

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