आत्मज्ञान पाया नहीं, आत्मा में स्थिति अभी हुई नहीं, अभ्यास और वैराग्य है नहीं तो ऐसे साधक के लिए शास्त्रकार कहते हैं और अनुभवी महापुरुषों का अनुभव है कि हलकी वृत्ति के लोगों के बीच उठना-बैठना साधक के लिए हानिकारक है । जो मंदमति हैं, जिनका आचार-विचार, खान-पान मलिन है और जिनकी दृष्टि मलिन है, ऐसे लोगों के बीच वैराग्यवाले साधक का वैराग्य भी मंद हो जाता है और अभ्यास वाले का अभ्यास भी मंद हो जाता है । इसलिए हमेशा ऐसे पुरुषों के संग में रहना चाहिए जिनके संग से वैराग्य बढ़े और अभ्यास में रुचि हो, तो अपना कल्याण होगा ।
अभ्यास और वैराग्य में रुचि न हो ऐसे व्यक्तियों के पास रहने से अथवा जिनकी चेष्टा मलिन है, आजीविका मलिन है – पाप से कमाते हैं और खर्चने में पाप करते हैं एवं देखने में भी पाप करते हैं, ऐसे लोगों के सम्पर्क में और स्पर्श या स्पंदनों में साधक रहता है तो उसका भी अभ्यास-वैराग्य मंद हो जाता है । जो महापुरुष हैं, जिनकी उन्नत, ब्राह्मी दृष्टि है, आत्माभ्यास जिनका सदा स्वाभाविक होता रहता है, उन पुरुषों को शरण में रहने से साधक का उत्थान जल्दी होता है । इसलिए श्रीमद राजचन्द्र की बात हमको यथार्थ लगती है । उन्होंने कहा कि ″जब तक आत्मप्रकाश न हो, आत्मस्थिति न हो तब तक व्यक्ति महापुरुषों की शरण में अनाथ बालक की नाईं पड़ा रहे । महापुरुषों की चरणरज सिर पर चढ़ाये ।″ इसका मतलब यह नहीं कि पैरों को जो मिट्टी छूई उसे सिर पर घुमाते रहें । कहने का तात्पर्य है कि जैसे चरणरज उनके शरीर को छूती है ऐसे ही उनके हृदय को छूकर जो अनुभव की वाणी निकलती है, वह शिरोधार्य करें । यह है चरणरज का आधिदैविक स्वरूप । आधिभौतिक स्वरूप तो पैरों को जो मिट्टी लगी वह है ।
श्रीमद् राजचन्द्र जी की सेवा में लल्लू जी नामक एक साधक रहते थे । एक दिन लल्लू जी ने राजचन्द्र जी को पूछाः ″मैं घर-बार छोड़कर अपने पुत्र, पत्नी – सब छोड़ के और मिल्कियत का दान-पुण्य करके यहाँ सेवा में लग गया हूँ । इतने वर्ष हुए, अभी तक मुझे आत्मा का अनुभव नहीं हुआ, पूर्णता का अनुभव नहीं हुआ है, ऐसा क्यों ?″
राजचन्द्र एक मिनट के लिए मौन हो गये फिर कहाः ″लल्लू जी ! लोगों की नज़र में तो तुम बड़े बुद्धिमान हो लेकिन अपने बेटे, पत्नी, एक घर छोड़कर इधर कई घरवालों से कितना परिचय बना लिया है और कितनी व्यर्थ की बातचीत करते हो…. दो चार व्यक्तियों का संबंध छोड़ के कितने व्यक्तियों से आसक्तिवाला संबंध करते हो… एक घर की रोटी छोड़ के कितने घरों का, जिस-किसी के डिब्बे का क्या-क्या लेते-देते, खाते हो… तो अब तुम्हारी वृत्ति अभ्यास-वैराग्य में तो लगती नहीं ! वृत्ति अभ्यास वैराग्य में लगेगी नहीं और मलिन चित्तवाले लोगों के साथ ज्यादा सम्पर्क में रहोगे तो फिर-आत्मानुभव कैसे होगा ? हमारे चरणों में रहने का मतलब है कि हमारे संकेत को मानकर उसमें डट जाओ ।″
बुद्धिमान थे लल्लू जी, तुरन्त उनको अपनी गलती समझ में आयी और लग गये अभ्यास-वैराग्य बढ़ाने में ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 4 अंक 345
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