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गुरु आश्रय से वक्र भी वंदनीय यदि कहते कि ‘सदगुरु को कृपा करने की क्या आवश्यकता है ?


सद्गुरु को कृपा करके वक्र को वंदनीय बनाने की क्या आवश्यकता है ?’ तो भाई ! यह सद्गुरु का और ईश्वर का स्वभाव है कि वे अपने आश्रित मनुष्य के गुण और दोष का विचार नहीं करते हैं । वे अपने आश्रित जन को आश्रय देते हैं । उसकी रक्षा करते हैं । शंकर ईश्वर हैं । शंकर गुरु हैं । ईश्वर और गुरु का सहज स्वभाव होता है कि वे अपने आश्रित जन के गुण-दोष का विचार नहीं करते हैं । भगवान श्री रामचन्द्र जी ने विभीषण शरणागति के प्रसंग में कहा कि “भले ही विभीषण दोषी है, फिर भी हम उसको ग्रहण करते हैं क्योंकि वह हमारी शरण में आया है । कोटि विप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ।। ‘जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आऩे पर मैं उसे भी नहीं त्यागता ।’ (श्रीरामचरित. सुं.कां. 43.1) यद्यपि कोई दोषी हो तथापि शरणागत होने पर उसे अपनाना चाहिए । जब मनुष्य आश्रित हो जाता है तब उसके गुण और दोष का विचार नहीं किया जाता है । सरनागत कहूँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि । ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ।। जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आये हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है) ।” (श्रीरामचरित. सुं.कां. 43) गुरुकृपा का आश्रय लो गुरुकृपा अहैतुकी होती है, किसी आवश्यकता की पूर्ति के स्वार्थ को लेकर गुरु कृपा नहीं करते । भला गुरु को किस वस्तु व्यक्ति की आवश्यकता अपेक्षा है ? यह तो गुरु एवं ईश्वर का सहज स्वभाव है कि शरणागत होने पर वे दोषी से दोषी व्यक्ति को भी अपना लेते हैं । यदि दोषी को ग्रहण करना – अपनाना – आश्रय देना, गुरु का और ईश्वर का स्वभाव न हो तो पुण्यात्माओं के लिए तो उऩकी मानो जरूरत ही न हो, वे अपने पुण्यकर्म से पार हो जायेंगे, उनको तो गुरु की कृपा की क्या जरूरत है ? लेकिन केवल अपने पुण्यकर्मों से कोई अज्ञान-समुद्र को पार नहीं करता । उसके लिए तो गुरुकृपा की अनिवार्य आवश्यकता है । निर्दोषं ही समं ब्रह्म… केवल ब्रह्म ही निर्दोष है । गुरु साक्षात् परब्रह्म-परमात्मा हैं । यदि तुम्हारी दृष्टि में एक भी निर्दोष तत्वज्ञ नहीं है तो तुम अपने जीवन में निर्दोष-निर्विकार होने की कल्पना भी मत करना । हाँ, यदि तुम अपने जीवन में महान होना चाहते हो, अवक्र होना चाहते हो तो तुम गुरुकृपा का आश्रय लो । गुरुकृपा आश्रय लेने में तुम्हारा लाभ ही लाभ है । गुरु अपने सहज स्वभावानुसार अपनी कृपा करुणा अनुग्रह से अपने आश्रित जन के समस्त दोषों को निवारण करके उसके सर्वथा निर्दोष बना देते हैं । गुरु अपने आश्रित जन को उसकी समस्त वक्रताओं से विमुक्त करके उसे अपने ही समान वंदनीय गरु बना देते हैं । यही तो गुरुकृपा आश्रय का लाभ है कि शिष्य शिष्य नहीं रहता अपितु वंदनीय गुरु हो जाता है । स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 10 अंक 345 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

किनका योगक्षेम वहन करने में भगवान को मजा आता है ?-पूज्य बापू जी


श्राद्ध में पहुँचे भगवान अपने हृदय में भगवान के चिंतन को भर लो, भगवान की स्तुति भर लो, भगवान के प्रेम को भर लो, इससे बड़ा लाभ होगा । संत नरसिंह मेहता के यहाँ श्राद्ध दिवस था । उनके भाई ने भी श्राद्ध किया क्योंकि दोनों के पिता तो एक थे । ब्राह्मण देवता को जाकर एक दिन पहले बोलना पड़ता है कि ‘हमारे पिता (या फलाने संबंधी) का श्राद्ध है, आप आना ।’ कल श्राद्ध-अन्न खाना है तो ब्राह्मण ब्रह्मचर्य रखें, संयमी रहें । नहीं तो ब्राह्मण को पाप लगता है, श्राद्धकर्ता के श्राद्ध में गड़बड़ी होती है । तो नरसिंह मेहता एक दिन पूर्व शाम को ब्राह्मण को आमंत्रण देने गये । ब्राह्मण ने कहाः “तुम गरीब हो, तुम्हारे घऱ तो नहीं आऊँगा लेकिन तुम्हारे भाई जो श्राद्ध करेंगे तुम्हारे पिता का, मैं तो उधर जाऊँगा । उसका आमंत्रण मेरे पास है ।” नरसिंह मेहता ने भगवान को कहाः “प्रभु ! पुरोहित महाराज तो नहीं आयेंगे, अब तुम जानो, तुम्हारा काम जाने । कुछ करना प्रभु !” गरीब, दुःखी और भक्त व्यक्ति के पास भगवान की स्तुति और प्रार्थना का कितना बड़ा धन है, कितना बड़ा बल है ! अंदर से आवाज आयीः ‘तू चिंता क्यों करता है ! तू मेरा है तो तेरा कर्म और तेरी चिंता क्या मेरी नहीं है ?’ नरसिंह मेहता को अंतर मे ठंडक आयी । वे दूसरे ब्राह्मणों को आमंत्रण देने गये । ब्राह्म्णों को जलन थी कि ‘जितना हो सके अपने को तो इस नरसिंह मेहता को नीचा दिखाना है ! बोलेः “हाँ-हाँ, हम आयेंगे, हम आयेंगे…।” उनकी जाति वाले सभी बोले कि ‘हम आयेंगे, तुम्हारे यहाँ श्राद्ध है तो हम आयेंगे ।’ नागर समाज ने नरसिंह मेहता को नीचा दिखाने के लिए उनके यहाँ बिना बुलाये मेहमान बन के जाने का ठान लिया । नरसिंह मेहता श्राद्ध के लिए घी, सीधा-सामान आदि लेनॉ व्यापारी के पास गये । व्यापारी ने कहाः “मैं उधार तो दूँगा किंतु जरा भजन सुनाओ ।” नरसिंह मेहता भजन सुनाने लगेः “अखिल ब्रह्मांडमां एक तुं श्रीहरि । जूजवे रूपे अनंत भासे ।।… भजन में रस आने लगा तो एक के बाद एक भजन गाने लगे । गाते-गाते नरसिंह मेहता को तो पता भी नहीं चला की ‘श्राद्ध करना है… घी चाहिए, मैदा, बेसन, चिरौंजी चाहिए, बादाम, काली मिर्च, इलायची आदि चाहिए ।’ सब भूल गये, मुझे तो तू चाहिए ! मैं तेरा, तू मेरा ! अखिल ब्रह्मांडमां एक तुं श्रीहरि ।…’ हरि ने देखा कि ‘ओ हो हो… (भक्त मेरे चिंतन में सब भूल गया है )’ एक ब्राह्मण को भगवान ने अपनी कृपादृष्टि देकर उसमें विद्वता भर दी । ब्राह्मण गये नरसिंह मेहता के पुरोहित बनकर । और भगवान ने स्वयं नरसिंह मेहता का रूप लेकर सीधे सामान की बैलगाड़ी भर-भरा के भक्त के घर में रखी । नरसिंह मेहता का रूप लेकर आये भगवान श्राद्धकर्म में जो बनना चाहिए, सीरा, कढ़ी, खीर आदि खूब बनवाते गये । नागर ब्राह्मण पंचायत ने खूब खाया । देखा कि ‘आहा ! अरे ! आज तो नरसिंह मेहता का रूप कुछ विशेष लग रहा है ! वाह भाई वाह ! हम तो इसको नीचा दिखाने के लिए आये थे लेकिन इसने तो क्या प्रेम से परोसा है ! और यह भोजन है कि अमृत है ! वाह भाई नरसिंह ! वाह !’ जो निंदा करते थे उनके मुँह से ‘वाह नरसिंह मेहता ! वाह ! वाह नरसिंह मेहता ! वाह ! निकलने लगा और नरसिंह मेहता तो वहाँ कहें- ‘वाह मेरे प्यारे ! वाह !’ उनको खबर ही नहीं है कि मेरा कन्हैया वहाँ क्या कर रहा है ! ऐसा करते-करते नरसिंह मेहता के साथ व्यापारी भी भजन में तल्लीन हो गया । उसे भूख लगी तो कुछ याद आया, बोलाः “नरसिंह मेहता ! तुम तो सीधा-सामान लेने आये थे । तीन बज गये तीन ! ले जाओ अब ।” नरसिंह मेहता बोलेः “तीन बज गये । मुझे तो पता ही नहीं । मैं तो सुबह आया था ! वहाँ सभी नागर ब्राह्मण बैठे होंगे, पुरोहित महाराज कोई आये होंगे, अच्छा लाओ भाई… !” दुकानदारः “क्या-क्या लेना है ?” “मैं तो भूल गया क्या लेना था । (भावपूर्वक अंतर्यामी से पूछते हैं-) प्रभु ! आप ही बताओ ?” प्रेरणा होती है कि ‘सब ले लिया गया है, वापस चल !’ नरसिंह मेहताः “यह कौन कहता है ?” अंदर से आवाज आयीः “जिसका तू भजन गा रहा था ।” बोलेः “वापस जाना है ?” “अभी तीन बजे कोई सीधा लेना होता है… भले मानुष ! सब हो गया है, चल ।” नरसिंह मेहता घर वापस आये । असली नरसिंह घर पहुँचे तो वे अंतर्यामी परमेश्वर जो नरसिंह मेहता का रूप लेकर आये थे अंतर्धान हो गये । नरसिंह मेहता ने पत्नी से कहाः “यह सब क्या है ?” पत्नीः “आपको कुछ हो गया है क्या ? गाड़ियाँ भर-भर के लाये, इतने लोगों को जिमाया और ‘यह सब क्या है ?’ – ऐसा पूछते हो ! आपको भूख लगी है, अच्छा आप जिमो ।” “अरे, मैं तो अभी आ रहा हूँ !” “अरे छोड़ो बात, सुबह आप बैलगाड़ी भर-भर के सामान लाये, श्राद्ध हुआ और सब लोग खा-खा के आपकी प्रशंसा करके गये, आपने नहीं सुना ?” “हाँ, लोग प्रशंसा तो कर रहे हैं पर जिसकी प्रशंसा हो रही है वह दिखता नहीं और जिसकी नहीं होनी चाहिए उसकी हो रही है ! जो सब कुछ करता है वह (ईश्वर) नहीं दिखता, जो कुछ नहीं करता वह शरीर ही दिखता है । मेरे प्रभु ! तू नहीं दिखता । हे मेरे कन्हैया ! हे मेरे साँवलिया ! तू धोखे में डालकर कहाँ गया रे… !” “अरे ! अभी-अभी तुमको क्या हुआ ?” “मुझे कुछ नहीं हुआ, वह धोखा दे के गया । मेरा रूप बना के आया था और सब कुछ कर-कराके गया ।” नरसिंह मेहता को पहले से ही लोग पागल कहते हैं । पत्नी ने सोचा, ‘इनका तो पागलपन बढ़ा !’ बोलीः “अभी तो लोगों को जिमाया और अब कह रहे हैं वह गया, वह गया… लेकिन आप ही तो थे !” नरसिंह मेहता ने पूरी घटना सुनायी और कहाः “विश्वास न हो तो उस व्यापारी से पूछ । मैं तो अभी-अभी आया हूँ ।” “अरे, आपको कुछ हो गया है ।” “हाँ, बात सच्ची है और मुझे क्या, भगवान करें कि यह सारी दुनिया को हो !” हम कितने भाग्यशाली हैं ! भगवान ने वचन दिया हैः अनन्याश्चिंतयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। (गीताः 9.22) जो अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हैं उनकी मैं व्यवस्था कर देता हूँ । और जब जिस वस्तु की, जिस व्यक्ति की, जिस सुख की, जिस दुःख की जरूरत पड़े उनके विकास के लिए, मैं उसका सर्जन कर देता हूँ । और उनका भार वहन करने में मेरे को मजा आता है । भगवान मजदूर होने में भी मजा लेते हैं, पशु होने में भी मजा लेते हैं, भक्त का सेवक ‘घोड़ा’ होने में भी भगवान को मजा आता है । ऐसा भगवान दुनिया मं कहीं है तो वह भागवत धर्म (सर्वत्र भगवद्-दर्शन, सम तत्त्व का दर्शन करते हुए ब्रह्मसाक्षात्कार की उपलब्धि कराने वाला पथ) में है, सनातन धर्म में है ! जिसे आँखों से देख सकते हैं, हाथ से छू सकते हैं, छछिया भर छाछ पर नचा सकते हैं – यदि ऐसा कोई भगवान है दुनिया में, किसी मजहब में या धर्म में तो वह इस सनातन धर्म का भगवान है । हम कितने भाग्यशाली हैं ! स्रोतः ऋषि प्रसाद सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 345 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अपने हृदय को आत्मज्ञान का कवच चढ़ा लो – पूज्य बापू जी


अपने को खोजो तो ईश्वर मिलेगा और ईश्वर को खोजो तो अपना आपा मिल जायेगा – ऐसा है । जो कभी नहीं मरता वह ईश्वर है । अब खोजो ‘कौन नहीं मरता ?’ शरीर मरने के बाद भी जो मरता नहीं है वह कैसा है ? कहाँ है ?’ खोजो । सुख-दुःख आया तो खोजो ‘किसको हुआ ?’ इसने दुःख दिया, इसने सुख दिया…. ऐसा तो अल्प मति के लोग मानते हैं । अरे ! सारा संसार सुख-दुःख के ताने-बाने से ही चलता है । राग-द्वेष से, निंदा-स्तुति से ही सारे संसार का खेल है । इसी में से खिलाड़ी (साक्षी आत्मस्वरूप) को समझ के अपना छक्का मार के पार हो जाओ । सदा किसी को सुख नहीं मिलता, सदा किसी को दुःख नहीं मिलता । सदा कोई शत्रु नहीं रहते, सदा कोई मित्र नहीं रहते – यह सब होता रहता है । कोई तरंग सदा चलती है क्या ? और बिना तरंग के दरिया होता है क्या ? तरंग जहाँ है, है और दरिया गहराई में ज्यों-का-त्यों है । ऐसे ही आपका आत्मा भी गहराई में ज्यों-का-त्यों है । मन की तरंगों में संसार की सब आपा-धापी-हइशो-हइशो… चलती रहती है । ‘ऐसा हो जाये, वैसा हो जाये…’ इस झंझट में मत पड़, यह तो चलता रहेगा । भगवान के पिताश्री भी संसार को ठीक नहीं कर सके । भगवान आये उस समय भी संसार ऐसा-वैसा था, अब भी ऐसा-वैसा है… यह तो चलता रहेगा । ऐसा हो जाय तो अच्छा… इसमें मत पड़ । तू तो अपने पैरों में जूते पहन ले बस ! सारे जंगल में से काँटे-कंकड़ हट जायें यह सम्भव नहीं है लेकिन अपने पैरों में जूते पहन ले तो तुझे काँटे-कंकड़ न लगेंगे ! ऐसे ही अपने हृदय को आत्मज्ञान का कवच चढ़ा ले तो तुझे  संसार के काँटे-कंकड़ न चुभेंगे, बस !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 2 अंक 345