वैदिक काल की बात है । राजा तेजबहादुर घूमने गया । लौटते समय रात्रि हो गयी, पूनम की रात नहीं होगी । वह दूसरे रास्ते से आया, एक झोंपड़ी दिखी । सोचा कि ‘इस जंगल में कौन बेचारा रहता है ?’ झोंपड़ी मे जरा झाँका, देखा कि एक टाट का टुकड़ा है, उस पर कोई बैठा है और ज्ञानमुद्रा में परमात्मा के ध्यान में मस्त लगता है । “कोई भिखारी है या कोई साधु है ?” सम्राट ने आवाज लगायी । साधु बाहर आये और बोलेः “क्या है ?” “आप इस झोंपड़ी में रहते हैं ?” “हाँ ।” राजा घोड़े से उतरा, देखा कि डिब्बे में जरा-से मूँग पड़े हैं जो रज़ाई है उसको कई थिगलियाँ लगी हैं, टाट का टुकड़ा है, बर्तन टूटा-फूटा है और झोंपड़ी ऐसी कि दिया जलाने की जरूरत नहीं पड़ती, चन्द्रमा की किरणों और टिमटिमाते तारों का प्रकाश खुली झोंपड़ी में आता है । दीया-बत्ती नहीं है, तेल भी नहीं, केरोसिन भी नहीं । राजा का दया आयी, बोलाः “मेरे नगर में ऐसा व्यक्ति ! इतना दुःखी-दरिद्र ! ठीक नहीं है । लो, मैं ये तुम्हें कुछ पैसे दे देता हूँ, बाद में तुम आ जाना, हम तुम्हारी व्यवस्था कर देंगे ।” साधु ने कहाः “जा ! किसी दरिद्र को दे देना ।” “तुमसे बढ़कर दरिद्र कौन मिलेगा ? खाने को नहीं, ओढ़ने को नहीं, पहनने को नहीं, रहने को नहीं… ले लो । मालूम होता है कि तुम बहुत दिनों से दुःख भोग रहे हो इसलिए अपमान करते हो मेरी छोटी सी भेंट का, हम दूसरी भी भिजवा देंगे ।” “दूसरी अपने पास रखो, यह भी तुम ले जाओ । मेरे को नहीं चाहिए ।” “महाराज ! तुम नाराज नहीं होना, हम कल और भेज देंगे ।” “मैं ना बोलता हूँ, नाराजगी कैसी ? किसी दरिद्र को देना ।” राजाः “तुमसे बढ़कर दरिद्र कौन मिलेगा ?” तब वे बाबा जी आ गये अपनी मौज में, अपने ‘सतत् संतुष्ट’ स्वभाव में, बोलेः “मैं दरिद्र नहीं हूँ । मैं तो सोना बनाना जानता हूँ, सोना ! मुझे तू नहीं जानता !…” राजा ने सोचा कि ‘इन बाबा लोगों का तो भला कहो भई ! छुपे वेश में क्या पता कौन हों ?’ वह तो देखता ही रह गया । “देखते क्या हो ! मैं सोना बनाना जानता हूँ ।” बाबा की वाणी में सच्चाई थी, कोई गहराई थी । राजा को एक गहरी चोट लग गयी कि ‘हाँ, वास्तव में हो सकता है ।’ राजा सिकुड़ गया, झुक गया । “महाराज ! तो फिर यह दास हाजिर है, दास को सिखाओ ।” “बेटा ! सुबह 4 बजे आ जाना नहा-धो के ।” “जी महाराज !” रातभर नींद नहीं आयी उस राजा को । सुबह आया, देखा कि बाबा जी ध्यान में बैठे हैं । वह बाहर खड़ा रहा अदब से । बाबा जी ध्यान से उठे, बोलेः “आ गया ?” “हाँ महाराज !” “अब ऐसा कर… तूने मेरे को कहा कि मैं दरिद्र हूँ । अब बता मैं दरिद्र हूँ कि तू दरिद्र है ? तू मेरे से सोना बनाने की विद्या माँगने आया है, मैं दूँगा दब तू लेगा ।” राजा किस समय कहाँ झुकना और कहाँ अकड़ना यह भली प्रकार जानता था । समझ गया कि यहाँ झुकने का मौका है । “महाराज ! हुक्म ! दास दरिद्र है ।” “तू 7 बार कहः मैं दरिद्र और आप सम्राट !, मैं दरिद्र आप सम्राट !” मन में सोचा, ‘7 बार क्या 17 बार भी कहने से अगर सोना बनाना सीख लिया तो अपने राज्य में लोहा तो बहुत है, ‘दे सोना – दे सोना…’ ऐसा करके आसपास के सब राज्य खरीदकर उनको अपना बना के…. ऐ ! बड़ा सम्राट बन जाऊँगा । इतना राज्य होते हुए भी तृष्णा जीर्ण नहीं हुई । ‘और कुछ चाहिए, और कुछ चाहिए…’ सारी पृथ्वी का राज्य एक व्यक्ति को मिल जाय तो भी वह संतुष्ट नहीं रह सकता जब तक उसे आत्मा का रस नहीं आया । गीताकार ने बहुत सुंदर बात कही हैः ‘सन्तुष्टः सततं योगी…’ ऐसा नहीं कहाः ‘सन्तुष्टः सततं धनवान्, सन्तुष्टः सततं रूपवान, सन्तुष्टः सततं मानवः, सन्तुष्टं सततं नारी, सन्तुष्टः सततं साधुः, सन्तुष्टः सततं गृहस्थी… ।’ जिसने आत्मा-परमात्मा का योग सिद्ध कर लिया वह सतत संतुष्ट रहता है । जो आत्मा के रस से विमुख है उसको सतत संतोष सतत आनंद नहीं रह सकता है । राजा ने सात बार कहाः “महाराज ! मैं दरिद्र आप सम्राट ! मैं दरिद्र, आप सम्राट !” “देख ! सोना बनाना सीखना है तो आज्ञा का पालन करना होगा ।” “महाराज ! कहो ।” “कान पकड़, उठ-बैठ कर और बोलः मैं दरिद्र, तुम स्वामी ! मैं सेवक, तुम स्वामी !” “बाबा जी ! यह तो सीधी बात है – मैं दरिद्र तुम स्वामी, मैं सेवक तुम स्वामी !” 10-15 दंड बैठक लगा दी, युवा तो था ही । महाराज ! ज्यों ही कान पकड़ के दंड-बैठक लगायी, सुबर का समय था, बाबा जी के ध्यान के स्पंदन थे, श्वासोच्छ्वास तेजी से चला, प्राण-अपान का आपस में टकराव हुआ । थोड़ा सा सुषुम्ना का द्वार खुला होगा अथवा तो प्राणायाम के, स्पंदनों के प्रभाव से उसकी चित्तवृत्ति थोड़ी-सी सात्त्विक हुई । बाबा ने कहाः “बेटा ! थोड़ी देर बैठ जा । मैं जरा सोचता हूँ ।” सोचना तो क्या था, ध्यान लगा के उसके कल्याण की जरा सी भावना कर दी । सूरज उग गया, बोलेः “आज तो नहीं होगा, थोड़े दिन आते-जाते रहना । जब मेरे को मौज आयेगी न, तब मैं सिखा दूँगा । ” वह राजा चला गया । कथा कहती है दूसरे दिन आया, बाबा ने दूसरे ढंग से बैठाया, कुछ प्राणायाम कराये, ध्यान कराया । तीसरे दिन भी बैठाया, प्राणायाम-ध्यान कराया । ज्यों-ज्यों उसे बैठाया, प्राणायाम और ध्यान कराया त्यों-त्यों उसकी रजस और तमस वृत्तियाँ शांत होती गयीं और सात्त्विक वृत्तियाँ उठती गयीं । उसे अंदर का रस आने लगा । शुरु में तो बाबा जी ने प्रलोभन से उस राजा को बुलाया पर कुछ दिनों के बाद तो उस भाग्यशाली राजा को आये बिना चैन नहीं पड़ता था । बाबा ने देखा कि यह अब पात्र है, ध्यान में बैठाया और थोड़ी सम्प्रेषण शक्ति का और धक्का मार दिया । महाराज ! उसकी समाधि लग गयी । कुछ घंटों के बाद उसे उठाया । “बोल बेटा ! कितना सोना बनाना है ?” “महाराज ! जो राज्य है वह भी तो छोड़ के मरूँगा । अब सोना बनाऊँ फिर दूसरे राज्य को अपना बनाऊँ, सब करके भी तो मर जाना है । अब मेरे को तो अंदर के रस में बढ़िया आनंद आ रहा है । महाराज ! अंदर का रस थोड़ा और आ जाय, और ध्यान लग जाय, समाधि लग जाय…।” “बेटा ! अब बता, तू पहले राजा था कि अभी राजा है ?” “महाराज ! पहले तो दरिद्रता को छुपाने के लिए बाहर से राजा था किंतु अभी मैं दिल का राजा हो गया हूँ । अब मुझे अंदर से संतोष मिल रहा है ।” संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः । मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।। (गीताः 12.14) जो निरंतर संतुष्ट, एकाग्रचित्त, शरीर और इन्द्रियों को वश में रखने वाला, दृढ़निश्चयी तथा मेरे में मन और बुद्धि को समर्पित किये हुए हैं, ऐसा जो मेरा भक्त है वह मुझको प्यारा है । जितने अंश में हमारी आंतरिक यात्रा होती है उतना-उतना हमारा आंतरिक राज्य बढ़ता है । संत कबीर जी ने कहा हैः दास कबीर चढ्यो गढ़ ऊपर । राज मिल्यो अविनाशी ।। स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 23-25 अंक 359 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ