प्रश्नः गुरुदेव ! शिष्य का कर्तव्य क्या है ?
पूज्य बापू जीः गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मङ्गलम् ।
तुम्हें जो अच्छा लगे वह तुम्हारा कर्तव्य नहीं है, गुरु की जो आज्ञा है, तुम्हारे परम हितैषी सद्गुरु को जो अच्छा लगे वही तुम्हारा कर्तव्य है बच्चे ! तुम्हें जो अच्छा लगा है वह सदियों से करते आये हो, तुम्हें जो अच्छा दिखा है वह युगों से करते आये हो लेकिन उन बुद्धपुरुषों को जो अच्छा लगा है वह एक बार करके देखो । तुम्हें रुचे वह तुम्हारा कर्तव्य नहीं है क्योंकि तुम्हारा अहं अनेक आयाम बदलता रहता है । जैसा अहं बदलता है वैसा कर्तव्य बदलता है । अहं मिटता है तो कर्तव्य मिटता है, अहं बदलता है तो कर्तव्य बदलता है । इसलिए कृपानाथ ! कर्तव्य बदलते-बदलते तो तुम्हारी कमर थक गयी । अब
लाख चौरासी के चक्कर से थका, खोली कमर ।
अब रहा आराम पाना, काम क्या बाकी रहा ।।
लग गया पूरा निशाना, काम क्या बाकी रहा ।
जानना था सोई जाना, काम क्या बाकी रहा ।।
अहं ब्रह्मास्मि । शिवोऽहम् । शुद्धोऽहम् । सत्पात्रोऽहम् । ‘मैं गुरु का सत्पात्र हूँ इसलिए मुझमें यह ज्ञान ठहरेगा, मैं सद्गुरु का सत्शिष्य हूँ इसलिए मुझे सद्गुरु का ज्ञान ठहरेगा….’ ऐसा दृढ़ भाव करते जाओ ।
वसिष्ठ जी महाराज कहते हैं- ″जो जितेन्द्रिय न हो उसमें ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) नहीं ठहरता, जितेन्द्रिय हो लेकिन जो शिष्य नहीं है उसमें भी ज्ञान नहीं ठहरता । जो शिष्य भी है और संयम भी करना चाहता है उसमें वह ज्ञान ठहरता है ।″ दूसरे व्यक्तियों को शब्द मिलते हैं लेकिन जिसमें शिष्यत्व आ जाता है उसमें गुरुत्व की सम्प्रेषण शक्ति काम करती है ।
तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।
संत हैं तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – ये चार पुरुषार्थ मिल जायेंगे । लेकिन ये चार पुरुषार्थ जिससे सिद्ध होते हैं उसमें अपने अहं का विसर्जन हो जाना यह अनंत फल…. है ।
सद्गुरु मिले अनंत फल….
न अन्तः इति अनन्तः ।
जिस फल का कोई अंत नहीं, कोई पारावार नहीं वह अनंत फल और अनंत फल अहं की स्फूर्ति नहीं, अहं का परिवर्तन नहीं बल्कि अहं का अपने स्वरूप में विसर्जन और अहं को अपने स्वरूप में विसर्जन करने का यही सुंदर-सुहावना तरीका हैः ‘मैं शांतस्वरूप, अकर्ता, अभोक्ता, निरंजन नारायण स्वरूप हूँ… ।
शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि
संसारमायापरिवरर्जितोऽसि ।
संसारस्वप्नं त्यज मोहनिद्रां
मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम् ।।
हे पुत्र ! तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है, संसार की माया से रहित है । यह संसार स्वप्नमात्र है । उठ, जाग, मोहनिद्रा का त्याग कर ! तू सच्चिदानंद आत्मा है ।
रानी मदालसा अपने प्यारे पुत्र को जो ब्रह्मरस पिला रही है वही मैं तुमको पिला रहा हूँ, उसको पचाते जाइये ।
मदालसा की गोद में खेलनेवाले बच्चे ब्रह्मरस पचा सकते हैं तो गुरुओं के आश्रम में खेलने वाले बच्चे क्यों न पचायेंगे ?
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2021, पृष्ठ संख्या 4, अंक 346
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