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डॉ प्रेमजी के पत्र के जवाब का खंडन -3


आपने लिखा है “यह ऋषिप्रसाद नही द्वेष प्रसाद है।

इस से तो यह स्पष्ट हो गया कि प्रभुजी ऋषि प्रसाद के सदस्य बनाने की सेवा करनेवाले मेरे गुरुदेव के सेवकों से उसे बंद करके अपने मेगेजिन की सदस्यता की सेवा में क्यों लगाते थे. वी सिर्फ अपने मेगेजिन की सदस्यता बढ़ाना ही चाहते हो ऐसा बात नहीं है, वे ऋषि प्रसाद की सदस्यता को भी कम करना चाहते थे क्योंकि उनको ऋषि प्रसाद द्वेष प्रसाद लगता है. इसलिए मेरे जो भी गुरुभाई प्रभुजी के कहने से ऋषि प्रसाद की सेवा छोड़कर दुसरे मेगेजिन की सदस्यता बढाने में लगे हो उनको फिर से अपने गुरुदेव की सेवा में लग जाना चाहिए. गुरु परिवार के किसी सदस्य ने अगर कुछ आदेश दिया हो तो उसे गुरु का आदेश मानना नहीं चाहिए, और गुरुसेवा से विरुद्ध आदेश हो तब तो मानना ही नहीं चाहिए. अगर वह आदेश धर्म और निति के अनुकूल हो तो उनकी सेवा करना चाहिए. देवगुरु बृहस्पति के पुत्र कच ने अनेक कष्टों और यातनाओं को सहकर भी असुर गुरु शुक्राचार्य से मृत संजीवनी विद्या सीखी. लौटते समय शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी ने उनके साथ विवाह करने की इच्छा व्यक्त की पर कच ने इनकार कर दिया तब देवयानी ने शाप दिया कि उनकी सीखी हुई विद्या निष्फल हो जायेगी. तब कच ने भी देवयानी को शाप दिया कि इसका विवाह देवलोक के किसी निवासी से नहीं होगा. कच ने ये नहीं सोचा कि गुरु और गुरु परिवार एक ही है इसलिए गुरु पुत्री की आज्ञा भी गुरु आज्ञा ही है. गुरु ने भी कच को ऐसा नहीं कहा कि तुम मेरी पुत्री की आज्ञा क्यों नहीं मानते. हमारा अव्यवहार शास्त्रों के नियमों के अनुसार होना चाहिए.

मनु स्मृति के दुसरे अध्याय के श्लोक क्रमांक २०९ को अवश्य पढ़ना चाहिए. मनु महाराज कहते है: “शरीर मलना, नहलाना, उच्छिष्ट भोजन करना और पैर धोना इतनी सेवा गुरुपुत्र की न करे. (अर्थात ये गुरु की ही करनी चाहिए).”      

अगर कोई मानता है कि ऋषि प्रसाद द्वेष प्रसाद है तो वह अपनी द्वेष दृष्टि का ही परिचय देता है. जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि. जिसकी दृष्टि में द्वेष है, जिसका चित्त द्वेशाक्रांत हो, उसे संत महात्मा और ऋषियों का प्रसाद द्वेष प्रसाद दिखेगा. उल्लू को दिन में सूर्य नहीं दिखता और वह कहता है कि सूर्य अन्धकार रूप है तो उस से सूर्य की तेजस्विता नष्ट नहीं हो जाती. दुसरे अनेक प्राणी सूर्य की रौशनी का लाभ लेकर कृतार्थ होते है. वैसे लाखों लोग ऋषि प्रसाद रुपी ज्ञान सूर्य का लाभ लाकर अपना जीवन उन्नत करते है.

आपने लिखा है “फिर कह आश्रम वाले सब क्या क्या खाते है राबड़ी पूड़ी और आज जो भी केस का परिणाम है वो प्रभुजी की अवज्ञा के कारण है। प्रभुजी के एक इशारे से केस कहा चला जाये आप अनुमान नही लगा सकते हो।“

 आश्रमवाले क्या खाते है उस से आपको क्या लेना देना? राबड़ी पूड़ी खाए या समोसा, बर्फी खाए उसका फल वे भोगेंगे और उसका खर्च आश्रम भोगता है फिर आप क्यों अपना दिल जलाते हो? प्रभुजी के हम शिष्य नहीं है, इसलिए हमें उनके एक इशारे की जरूरत नहीं है. प्रभुजी में इतनी योग्यता होती तो मेरे गुरुदेव ने उनको ही यह केस सौंप दिया होता. फिर भी प्रभुजी को ऐसा लगता है कि वे कुछ कर सकते है तो मेरे गुरुदेव से मिलकर उनकी अनुमति लेकर आ जाए. आप प्रभुजी के शिष्य हो तो उनकी प्रमाणरहित, आधारहीन, बेतुकी बात को भी मानते हो और मेरी प्रमाणभूत, युक्तियुक्त बात को भी नहीं मानते हो तो आश्रम वाले भी तो उनके गुरु की बात मानेंगे, प्रभुजी की बात क्यों मानेंगे? मेरे गुरुदेव आपके प्रभुजी के बाप लगते है. वे उनकी योग्यता को आपसे ज्यादा जानते है. मानों प्रभुजी में ऐसी योग्यता हो तो भी उनकी उस योग्यता का उपयोग करना या न करना उस में मेरे गुरुदेव स्वतन्त्र है. महाभारत के युद्ध में बर्बरीक के पास वह योग्यता थी कि सिर्फ दो तीर मारकर वह सम्पूर्ण कौरव सेना का संहार का सकता था. यह बात जानकर भी भगवान् श्री कृष्ण ने उनका सर मांग लिया, और युद्ध जैसे होना था वैसे ही होने दिया. इसलिए प्रभुजी को अपनी औकात में रहना चाहिए, महापुरुषों से स्पर्धा नहीं करना चाहिए.

माताजी का हाल पूछने की मेरे गुरुदेव ने मना कर रखी है. इस मॉस के लोक कल्याण सेतु के अंक में वह लेख पढ़ लेना. आश्रम में जो गुरुदेव के द्वारा स्थापित मर्यादा है उसका पालन आश्रम के साधक करते है. उसके अनुसार महिला आश्रम और पुरुषों के आश्रम के मेनेजमेंट अलग अलग है और दोनों को अपने अपने आश्रम के साधकों या साधिकाओं के स्वास्थ्य आदि का ख्याल रखने का प्रबंध किया गया है. पुरुषों के आश्रम में मैं ३७ साल से रहता हूँ. कई साधक कई बार बीमार पड़े तब माताजी या प्रभुजी कितनी बार उनका हाल पूछने गए यह मैं जानता हूँ फिर भी साधक तो फ़रियाद नहीं करते कि हमारा हाल पूछने नहीं आई माताजी. साधक चाहते भी नहीं कि महिला आश्रम वाले उनके हालचाल पूछने आये. फिर प्रभुजी क्यों ऐसा मर्यादा विरुद्ध और गुरु आज्ञा विरुद्ध दुराग्रह रखते है? उनको पुरुषों के आश्रम के मेनेजमेंट में हस्तक्षेप करने का किसने अधिकार दिया है ? मेनेजमेंट को गुरु आज्ञा के विरुद्ध कार्य करना चाहिए ऐसा वे क्यों चाहते है?

डॉ प्रेमजी के पत्र के जवाब का खंडन -2


आपने लिखा है “प्रभुजी का योगमार्ग से श्री लीलाशाहजी महाराज से संपर्क है और उनकी आज्ञा  से बापू के घर मे आया है।…

ये वचन प्रमाण सिद्ध नहीं है. ब्रह्मज्ञानी महापुरुष जब ब्रह्मलीन हो जाते है तब उनका सूक्ष्म शरीर वहीँ सूक्ष्म भूतों में विलीन हो जाता है. और स्थूल शरीर स्थूल भूतों में विलीन हो जाता है. फिर भी भक्तों को ठगने के लिए ऐसा प्रचार कुछ लोग करते है. साईं लीलाशाहजी के शिष्य वीरभान ने भी साईं लीलाशाहजी के ब्रह्मलीन होने के बाद उनके जैसे वस्त्र पहनकर, उनके जैसा स्वांग बनाकर उनकी साईं से लिंक है ऐसा बताकर लोगों को ठगने का प्रयास किया था पर आखिर में वह दुखी होकर मर गया. मेरे गुरुदेव के आश्रम में भी एक ऐसा ठग आया था जिसने ऐसा नाटक किया था “मैं लीलाशाह बापू हूँ…ये मेरा शिष्य है…” आदि बकने लगा तब मेरे गुरुदेव ने उसकी पोल खोल दी. और कहा “मेरे गुरुदेव अपने पवित्र शरीर में नहीं रहे वो क्या तेरे मलिन शरीर में घुसेंगे?”

जो प्रत्यक्ष मेरे सतगुरु (जिनको साईं लीलाशाहजीने गीता सर पे रखकर कहा था कहा था “जो मैं हूँ सो तू है”) से लाभ नहीं ले सके वो योग मार्ग से साईं लीलाशाहजी से क्या संपर्क करेगा? जो सामने बहती गंगा का पानी पीकर प्यास न बुझा सका वो स्वर्ग की गंगा का पानी क्या पिएगा? इस मार्ग में लिंक से काम नहीं चलता. सतगुरु का सान्निध्य अनिवार्य है. कोई भी कह सकता है कि मेरी भगवान् कृष्ण से लिंक है, मेरी भगवान् शिवजी से लिंक है, मेरी स्वामी विवेकानंद से लिंक है…” पर भगवान कृष्ण, शिवजी और विवेकानंद ने स्वयं कहा है कि सतगुरु का प्रत्यक्ष सान्निध्य अनिवार्य है. आप उनके वचनों को मानोगे या उनके उपदेश से विरुद्ध बातें बनानेवालों को मानोगे? 

आप अपने रोग की चिकित्सा के लिए किसी विश्वविद्यालय से प्रमाणित वैद्य से इलाज कराओगे या जो कहे कि मेरी आचार्य चरक से या आचार्य सुश्रुत से लिंक है उस से चिकित्सा कराओगे? 

सनातन धर्म में सत्य की सिद्धि किसी व्यक्ति की मान्यता के आधार पर नहीं होती. किसीके अनुभव के आधार पर भी नहीं होती. अनेक व्यक्तियों के अनेक अनुभव हो सकते है और सत्य तो अनेक नहीं हो सकता. अतः श्रुति, युक्ति और अनुभूति के समन्वय से ही सत्य की सिद्धि होती है. जैसे नारायण साईं के पूर्व जन्म के बारे में गुरुदेव ने प्रमाण दिया है कि वे एक बंगाली योगी स्वामी केशवानंद थे. वैसा कोई प्रमाण प्रभुजी के बारे में मिलता नहीं है. उनके पूर्वजन्म के बारे में गुरुदेव नो जो बताया वह सुनाऊंगा तो आपकी श्रद्धा हिल जायेगी. वे पूर्व जन्म में कुबेर नगर में किस योनी में थे और करुणासागर मेरे गुरुदेव ने उनको मनुष्य जन्म देकर कृतार्थ किया ये उनसे ही पूछ लेना. ये प्रमाण मेरे गुरुदेव ने सत्संग में बताया हुआ है. फिर भी जिनको मानना है वे उनकी बेतुकी बातों को भले मानते रहे, हमारी किसीको मना नहीं है. हम ऐसी निराधार, बेतुकी और भ्रामक  बातों पर विश्वास नहीं करते.

डॉ प्रेमजी के पत्र के जवाब का खण्डन -1


(1) आपने लिखा हैप्रभुजी ने बापूजी से मंत्र नही लिया है प्रभुजी का योगमार्ग से sree लीलाशाहजी महाराज से संपर्क है और उनकी आज्ञा  से बापू के घर मे आया है। …. प्रभुजी ने मंत्र मैया से लिया है औरश्री लीलाशाह बापूजी से लिंक है।

प्रभुजी ने बापूजी से मन्त्र न लिया हो तो भी बापूजी उनके पिताजी है इस बात को तो नहीं भूलना चाहिए.

अपने माता पिता का आदर करना संतान का कर्तव्य है. पिताजी के द्वारा नियुक्त किये गए संचालकों के दोष निकालना भी पिताजी के दोष देखने के बराबर ही है, क्योंकि पिताजी के शिष्य जो भी करते है वो पिताजी की आज्ञा और संकेत से ही करते है. जब वे कहते है कि “कांच के घर में रहनेवाले लोग…” तो यह सीधा आक्रमण उनके पिताजी पर कर रहे है क्योंकि वह घर पिताजी के संकेत से बनाया गया है. अगर प्रभुजी के स्थान पर मैं होता और मेरे कुछ शिष्यों ने गैरकानूनी ढंग से कोई निर्माण कार्य शुरू किया होता और मेरे पिताजी के आश्रम के साधक उसे नष्ट करवा देते तो मैं उनका धन्यवाद मानता कि उन्होंने चाहे पिताजी के संकेत से गैरकानूनी भी किया हो, पर वे मुझे तो ऐसे कार्य से रोकते है तो उनका आशय येही है कि उनको जो मुसीबतें उठानी पड़ी वो मुझे न उठानी पड़े. मानों मेरे पिताजी शराबी हो, बरसों से शराब पीते हो और कभी मैं शराब की बोतल लाकर पिने की शुरुआत करूँ तब पिताजी आकर उस बोतल को मुझसे छिनकर तोड़ दे तो मैं ऐसा नहीं कहूंगा कि आप तो बरसों से पीते हो और मुझे रोकते हो? मैं ऐसा सोचूंगा कि पिताजी ने जिस व्यसन की हानियों का अनुभव किया है उस से मुझे बचाने के लिए वे मेरी बोतल तोड़ रहे है, यह उनकी करुणा है. उनके दोष देखने के बदले मैं अपना दोष मिटाने का प्रयास करता.

मतभेद तो सभी पार्टियों में और संस्थाओं में होते है. मानों हमारा किसी हिन्दू संस्था से कभी मतभेद हो जाए, तो उसका उपाय परस्पर विचार विनिमय से शांतिपूर्ण ढंग से भी हो सकता है. इस तरह से अपनी समस्या को सुलझाने का प्रयास मैं करता, माइक पर आवेश में आकर द्वेषपूर्ण प्रवचन से अपनी भड़ास निकालकर लाखों गुरु भक्तों को गुमराह करने का पाप मैं नहीं करता. 

एक हिन्दू धर्म की संस्था के हेड होने के नाते भी प्रभुजी को किसी हिन्दू संस्था के दोषों को उजागर नहीं करना चाहिए. ईसाई धर्म में सैकड़ो पंथ है उनमें आपसी मतभेद बहुत है फिर भी दुसरे धर्म के साथ कभी संघर्ष हो जाए तब वे सब एकजूट हो जाते है, जबकि हिन्दू के आपसी मतभेद के कारण उनको divide and rule की पालिसी से आतंरिक कलहों में उलझाने में विधर्मी इसलिए सफल होते है कि हिन्दू में अपने स्वार्थ की पूर्ती के लियी अपने ही धर्म के दुसरे सम्प्रदाय का विरोध करने में संकोच नहीं होता, अपने ही भाई से लड़ाई करने में संकोच नहीं होता. इसी वजह से इतने विशाल भारत पर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने ७०० साल तक शासन किया और अंग्रेजों ने २०० साल तक इस देश पर शासन करके उसका शोषण किया. अगर हिन्दुओं में गद्दारी का दुर्गुण नहीं होता तो उनको कोई पराजित नहीं कर सकता था. दुसरे सम्प्रदाय तो ठीक पर एक ही गुरु की संतानें भी सत्ता पाने के लिए आपस में संघर्ष करती देखि गई है इस देश में, जैसा गुरु अर्जनदेव और प्रिथिचंद के दृष्टांत से स्पष्ट मालूम पड़ता है. वे दोनों गुरु रामदास के पुत्र थे. जबसे गुरु रामदासजी ने अर्जनदेव को अधिकारी समझकर गुरुगद्दी देने का विचार किया तब से प्रिथिचंद ने अर्जनदेव को सताने के षड्यंत्र शुरू कर दिए. और उनको कारावास की सजा और यातनाएं भी हिन्दू मंत्री चंदू शाह के षड्यंत्रों के द्वारा दी गई. हिन्दुओं की आपसी फूट के कारण आजतक भारत हिन्दू बहुल राष्ट्र होने पर भी भारत के हिन्दुओं का शोषण विधर्मी लोग कर रहे है. कम से कम अपने पिताजी की संस्था से तो प्रभुजी को द्वेषपूर्ण व्यवहार नहीं करना चाहिए. दोष देखने हो ता सब संस्थाओं में मिल जायेंगे, फिर भी जैसे इसाई धर्म के सैकड़ो सम्प्रदाय एक दुसरे के दोष प्रकट करने के बदले संगठित रहकर धर्म प्रचार करते है वैसे अगर हिन्दू धर्म के सम्प्रदाय के हेड करें तो विधर्मी ताकते विफल हो सकती है.

मानो प्रभुजी ने बापूजी से मन्त्र नहीं लिया हो, और माताजी से मन्त्र लिया हो तो भी बापूजी उनके दादागुरु लगते है क्योंकि उनकी गुरु माताजी के पतिदेव है बापूजी. और हिन्दू धर्म में पतिव्रता स्त्री को अपने पति को गुरु मानने का विधान है. और माताजी ने बापूजी से मन्त्र लिया हो तो भी मेरे गुरुदेव प्रभुजी के दादागुरु हुए. अतः दादागुरु की संस्था से भी द्वेषपूर्ण व्यवहार  नहीं करना चाहिए और उनके दोष नहीं देखने चाहिए.

मानों प्रभुजी मेरे गुरुदेव को पिताजी ही मानते हो, गुरु न मानते हो तो भी पिताजी क्या है, और उनसे क्या माल मिलता था इस विषय में अपनी मंद बुद्धि से निर्णय नहीं लेना चाहिए. मैंने अगले पत्र में विस्तार के भय से कुछ बातें नहीं लिखी थी वे इस के साथ लिखता हूँ ताकि प्रभुजी को पता चले कि उनके पिताजी से क्या माल लोगों को मिलता था, जिस से प्रभुजी वंचित रह गए. अगर वंचित नहीं रहे होते तो वे ऐसा बोल ही नहीं सकते कि उनके सत्संग में वह माल मिलता है जो बापूजी से मिलता था.“लोगों को माल देने के विषय में मेरे गुरुदेव के समकक्ष होने का दावा अगर कोई अवतार भी करे तो मैं उनको नहीं मान सकता. अगर कृष्ण भी कहे कि मैंने वही माल दिया था लोगों को जो पूज्य बापूजी से लोगों को मिला है तो मैं उनसे सविनय पूछूँगा, “भगवान आपने ब्रह्मज्ञान का उपदेश कितने लोगों को दिया? अर्जुन, उद्धव और १० – २० लोगों के नाम ही वे बता सकेंगे. तब मैं कहूँगा कि मेरे गुरुदेव ने लाखों नहीं करोड़ों को ब्रह्मज्ञान का उपदेश सुनाया है. आप उनसे अपनी तुलना नहीं कर सकते. अगर वे कहे कि मैंने भक्तों को प्रेमा भक्ति का अमृत पिलाया है. तो मैं सविनय पूछुंगा कि आपने कितने लोगों को और कितनी बार प्रेमा भक्ति का अमृत किस प्रकार के लोगों को पिलाया है? तब वे इतना ही कह सकेंगे कि वृन्दावन में रहने वाले निर्दोष ह्रदय के गोप और गोपियों को पिलाया है और विशेष रूप से एक ही बार रासलीला के समय पिलाया है. तब मैं कहूंगा कि मेरे गुरुदेव ने हजारों बार कलियुग के झूठे और कपटी, जटिल लोगों को वैसा प्रेमा भक्ति का अमृत पिलाया है. उनके हर शिबिर में रासलीला से अधिक लोग प्रेमा भक्ति के अमृत से तृप्त होते मैंने देखे है. और उनको सिर्फ प्रेमा भक्ति के भावों में मग्न करके छोड़ नहीं देते थे. उनको ज्ञानामृत से भी तृप्त करते थे मेरे गुरुदेव. अगर भगवान् कृष्ण कहे कि मैंने भक्तों को मक्खन भी खिलाया है. तो मैं कहूँगा कि आपने सिर्फ आपके ग्वालबाल जो वृन्दावन में रहते थे, जिनकी संख्या १०० या १००० से ज्यादा नहीं हो सकती, उनको ही १० या १५ साल तक मक्खन खिलाया है, वो भी चोरी करके खिलाया है! मेरे गुरुदेव ने पूरे भारत देश और विदेशों से आनेवाले लाखों भक्तों को करीब ५० साल मक्खन मिश्री, काजू, किशमिश, आदि सूखे मेवे, अनेक प्रकार की मिठाइयां, आम आदि फलों का रस, और अन्य शरबत, चोकलेट, पिपरमेंट आदि खिलाये है और वो भी अपनी कमाई से, चोरी करके नहीं! अगर कोई कहे कि ये चीजें तो भक्त लाते थे और गुरुदेव बाँटते थे तो उनको मालूम होना चाहिए कि कलियुग के महास्वार्थी मनुष्य कोई न कोई बड़ा लाभ होता है तभी संतों के पास उनको जितना लाभ हुआ हो उसका हजारवां या लाखवां हिस्सा मेवे, मिठाई आदि के रूप में रखते है. किसी को मेरे गुरुदेव के सामर्थ्य संपन्न आशीर्वाद से २–५ लाख रुपयों का लाभ होता (किसीको असाध्य रोग से मुक्ति का, तो किसीको आर्थिक लाभ तो किसीको कोर्ट के झूठे मुक़दमे से मुक्ति का, तो किसीको ऑपरेशन के बिना स्वस्थ होने का, तो किसीको अकस्मात् से बचने का या अन्य किसी प्रकार का) तब वह १ या २ किलो मिठाई और १०० या २०० रुपये अर्पण करते थे. उनमें से भी कईयों की भेंट गुरुदेव स्वीकार नहीं करते थे. इसलिए ये सब मेरे गुरुदेव की कमाई का माल था जो वो बाँटते थे, चोरी करके नहीं बाँटते थे! अगर भगवान् कहते कि मैंने भक्तों के कष्ट मिटाए, तो मैं कहता भगवान, आपको अपने पृथ्वीलोक के निवास के दौरान भगवान् मानकर पूजनेवाले भक्त ही कितने थे? आपके भक्त ही गिनेगिनाये थे तो उनके कष्ट भी गिनेगिनाये ही होगे. मेरे गुरुदेव को उनके पृथ्वीलोक निवास के दौरान इस समय तक भगवान् मानकर पूजनेवाले लाखों भक्त है और उन में से प्रत्येक को मेरे गुरुदेव की कृपा से कम से कम ५—१० कष्ट निवारण के अनुभव तो हुए ही है. उन सबका संकलन कोई करे तो १० भागवत पुराण जितना बड़ा ग्रन्थ बन सकता है.  अतः आप उनसे अपनी तुलना नहीं कर सकते. अगर भगवान् बुद्ध कहे कि मैंने वही माल दिया था लोगों को जो पूज्य बापूजी से लोगों को मिला है तो मैं उनसे कहूँगा भन्ते, आपने स्वमुख से धर्म का उपदेश पूरे जीवन में जितने लोगों को सुनाया है उतने लोगों को मेरे गुरुदेव का उपदेश प्रतिदिन सुनने का सौभाग्य मिलता था क्योंकि आपके समय में साउंड सिस्टम, लाइव टेलीकास्ट, इन्टरनेट आदि नहीं थे. और आपने सिर्फ धर्म और योग का उपदेश दिया जब की मेरे गुरुदेव ने धर्म, निष्काम कर्म योग, भक्ति योग, राज योग, हठयोग, कुण्डलिनी योग, नादानुसंधान योग, ज्ञान योग, व्यवहार कुशलता, और स्वास्थ्य विषयक उपदेश भी दिए है. अगर चैतन्य महाप्रभु कहे कि मैंने वही माल दिया था लोगों को जो पूज्य बापूजी से लोगों को मिला है तो मैं उनसे सविनय कहूँगा महाप्रभुजी, आपने हरी नाम संकीर्तन और कृष्ण भक्ति का उपदेश पूरे जीवन में जितने लोगों को सुनाया है उतने लोगों को मेरे गुरुदेव का उपदेश प्रतिदिन सुनने का सौभाग्य मिलता था क्योंकि आपके समय में साउंड सिस्टम, लाइव टेलीकास्ट, इन्टरनेट आदि नहीं थे. और आपने सिर्फ कीर्तन, और कृष्ण भक्ति का उपदेश दिया जब की मेरे गुरुदेव ने धर्म, निष्काम कर्म योग, भक्ति योग, राज योग, हठ योग, कुण्डलिनी योग, नादानुसंधान योग, ज्ञान योग, व्यवहार कुशलता और स्वास्थ्य विषयक उपदेश भी दिए है.  इस तरह आज तक में जितने भी अवतार, और महापुरुष हुए है उन सबको अगर वे मेरे गुरुदेव के साथ अपनी तुलना करेंगे तो हार माननी पड़ेगी. मेरे गुरुदेव ने क्या माल दिया है उसका आकलन करनेवाल आज तक कोई पैदा नहीं हुआ और आगे होगा भी नहीं. पिताजी ने ऐसा उत्तम कोटि का माल इतनी व्यापक मात्रा में बांटा है यह समझकर भी उनसे या उनकी संस्था से द्वेष नहीं करना चाहिए. उपरोक्त और अन्य सभी अवतारों, महापुरुषों, संतों, भक्तों, आदि का हम आदर करते है, वंदन करते है, और उन्होंने तत्कालीन समाज की आवश्यकतानुसार जो कुछ माल दिया उसके लिए धन्यवाद देते है पर अभी इस युग में जो माल अवतारवरिष्ठ मेरे गुरुदेव ने दिया है उसकी तुलना उन में से किसी के द्वारा दिए गए माल से नहीं हो सकती. देखो यहाँ हम तुलना उनके द्वारा दिए गए माल की करते है, उनकी तुलना नहीं करते क्योंकि भिन्न भिन्न युगों में हुए वे सब अवतार एक ही सत्ता के है जो आज इस घोर कलियुग में मेरे गुरुदेव के रूप में कार्य कर रही है.