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डॉ प्रेमजी के पत्र के जवाब का खंडन -9


आपने लिखा है “आपके आश्रम वाले  आते है सत्संग सुनने कुछ तो माल मिलता होगा ।“

ऐसा तो हमने कहा नहीं है कि कुछ नहीं मिलता. कथा मिलती है, कीर्तन, भजन मिलते है, बहुत कुछ मिलता है. पर साथ में श्रद्धांतरण का जहर भी मिलता है. जैसे किसी ने भोजन में हमें मेवे, मिठाइयां, स्वादिष्ट व्यंजन आदि से भरकर थाली दी हो पर साथ में एक मीठे जहर की गोली भी उस में मिलाई हुई हो तो वह भोजन खानेवाले को मौत की और ले जाता है, वैसे ही तरह श्रद्धांतरण रुपी जहर मिलाया हुआ कथा, कीर्तन, आदि सब गुरुभक्त को विनाश की तरफ ले जाते है. जहर वाला भोजन तो एक बार ही मारता है पर श्रद्धान्तरण रुपी जहर वाला भोजन अनेक जन्मों में साधक को मारेगा क्योंकि वह जन्म मरण से मुक्त करनेवाले सतगुरुसे विमुख कर देता है. अतः कुछ नहीं मिलता ऐसा हमने नहीं कहा, हम तो यह कहते है कि जो माल बापूजी से मिलता था वह तीनों लोक में और किसी जगह नहीं मिल सकता.

अतः मैं फिर से मेरे गुरुदेव के शिष्यों को प्रार्थना करता हूँ कि वे गुरुदेव के संकेत के अनुसार चले, किसीके बहकावे में आकर आतंरिक संघर्ष न करे, क्योंकि ऐसा करने से हम अपने गुरुदेव की शक्ति का ही ह्रास करते है क्योंकि दोनों गुटों के लोग एक ही गुरु के शिष्य है और उन सबको एक ही गुरुदेव से शक्ति मिलती है. जो मेरे गुरुदेव के समर्पित शिष्य ही नहीं है उनके बहकाने से अगर मेरे गुरुदेव के शिष्य आपस में संघर्ष करके अपने समय और शक्ति का ह्रास करेंगे तो उस से गुरुदेव नाराज होगे.

 गुरु के आदेश के बिना कुछ भी मनमानी करना सच्चे शिष्य को शोभा नहीं देता.

और हमारे गुरु ही जेल में गए हो ऐसी बात नहीं है. इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ है. गुरु अर्जनदेव को जहांगीर ने जेल में डाल दिए थे, गुरु हरगोविंद को भी जेल में डाल दिए थे तब उनके शिष्यों ने क्या किया ये उनसे सीखो. उनके शिष्यों को उन गुरुओं ने जेल में से कोई सन्देश भी नहीं भेजा था, फिर भी उनके शिष्यों ने मनमानी नहीं की. उनके आदेश की प्रतीक्षा की और आदेश मिलने पर उसका पालन किया  और और जिनके गुरु बार बार जेल में से सन्देश देते है फिर भी उनकी बात न मानकर जो आपसी कलह में उलझाना चाहते है उनकी बात जो मानते है वे बालिश है. ऐसे गुमराह करनेवालों से गुरु के सच्चे शिष्यों को सावधान रहना पड़ेगा. अन्यथा वे महापाप के भागी होगे.  गुरु के संकेत और गुरु के आदेश का अनादर करेंगे वे गुरु के ह्रदय से उतर जायेंगे.

फिर से याद दिलाता हूँ कि यह पत्र मेरे गुरुदेव के शिष्यों में आपसी कलह मिटाने के उद्देश्य से ही लिखा है, मेरा कुप्रचार रोकने के लिए नहीं. दोनों गुट मिलकर मेरा कुप्रचार खूब करो, पर आपको मेरे गुरुदेव से मिली हुई शक्ति का आपसी कलह में उलझकर ह्रास मत करो.

डॉ प्रेमजी के पत्र के जवाब का खंडन -8


आपने आगे लिखा है “आश्रम वाले जितना राग द्वेष करते है इतना तो संसारी लोग भी नही करते।“

अगर आश्रम के साधक राग द्वेष के संस्कारों से रहित ही होते और अहंकार से मुक्त होते तो वे गुरुदेव की शरण क्यों जाते? और गुरुदेव उनको आश्रम में क्यों रखते?

उनके राग द्वेष निकल रहे है तब तो आपको दीखते है. अगर वे राग द्वेष को दबाकर रखते तो आपको लगता कि वे राग द्वेष रहित है पर उनके भीतर राग द्वेष बने रहते. जैसे किसी गंभीर रोग से पीड़ित व्यक्ति को किसी अस्पताल में भर्ती कर दे और वह वहां अन्य मरीजों के शरीर से निकलते हुए मवाद, वमन, खून, आदि को देखकर ये सोचे कि यहाँ तो सब गंदे लोग है, मेरी बिमारी यहाँ के डॉक्टर से नहीं मिटेगी तो क्या किसी उद्यान या बगीचे के माली से उसकी बिमारी मिटेगी? वहां अन्य मरीजों के शरीर से निकलते हुए मवाद, वमन, खून, आदि को देखकर उसे ये सोचना चाहिए कि यहाँ इन बीमारों का इलाज हो रहा है, उनके शरीर की गन्दगी मवाद, वमन आदि के रूप में निकल रही है और वे स्वस्थ होगे जब उनका पूर्ण शुद्धिकरण हो जाएगा. अतः मेरा शुद्धिकरण भी यहीं हो सकेगा और मैं भी यहाँ स्वस्थ हो सकूँगा. तब तो वह रोग मुक्त हो सकेगा. और भागकर किसी बगीचे में जाएगा तो उसकी बिमारी वहां नहीं मिटेगी. अगर किसी संस्था में राग द्वेष नहीं दीखते उसका अर्थ यह नहीं कि वहां सब राग द्वेष से मुक्त हो गए है. वे राग द्वेष को दबा रहे है. और दबा हुआ राग द्वेष कालांतर में भारी हानि करता है. संसारी लोग राग द्वेष को दबाते है इसलिए वे दीखते नहीं है. जैसे नासूर को न काटा हो तो बदबू नहीं आती. उसका अर्थ यह नहीं कि भीतर मवाद नहीं है. वह मवाद कालान्तर में मृत्यु का शिकार बना देगा. और नासूर को काटने पर बहुत बदबू आती है उसका अर्थ यह है कि रोग को मिटाने की सही प्रक्रिया हो रही है. कालान्तर में स्वस्थ जीवन की प्राप्ति होगी.

दूसरी बात जब हम इश्वर के रास्ते चलते है तब हमें अपने राग द्वेष मिटाने पर ध्यान देना है. दूसरों के राग द्वेष मिटाने का ठेका हमें नहीं लेना है. उनके राग द्वेष मिटाने का काम गुरुदेव का है. अगर आश्रम के साधक राग द्वेष नहीं मिटायेंगे तो उनको कष्ट होगा हमें तो उनके कर्म भोगने नहीं पड़ेंगे. फिर चिंता क्यों करना.

डॉ प्रेमजी के पत्र के जवाब का खंडन -7


आपने आगे लिखा है “औरा की मसीन तो आजकल नकली होती है आप अंदर की औरा देखो प्रभुजी की।“

  किसने कहा कि Kirlian Photography की machine नकली होती है? रूस और चीन में अनेक मेडिकल डॉक्टर भी उस का उपयोग करते है मरीज के निदान के लिए. जैसे X Ray machine हड्डी के टूटी हाई या नहीं यह बताती है वैसे ही यह मशीन प्राणमय कोष, मनोमय कोष, कुण्डलिनी के चक्रों का विकास आदि की स्थिति बता देती है. यह एक विज्ञान है.

जैसे हड्डियों भीतर ही होती है वैसे औरा भीतर की ही होती है. सब गुरुओं की शिष्यों को उनकी भावना से उनके गुरु में दिव्य औरा दिखती है. हिरण्यकशीपु और रावण के चाटुकारों को भी उनके राजा में दिव्य आभा दिखती थी. और ओशो जैसे व्यभिचारी गुरु के शिष्यों को भी उन में दिव्य आभा दिखती होगी. पर सत्य का निर्णय भावना से नहीं होता, प्रमाण से होता है. ऐसे ५०० से ज्यादा प्रसिद्द महात्माओं की औरा का अध्ययन डॉ. हीरा तापरिया ने किया यह जानने के लिए कि सब के शिष्य बोलते है कि उनके गुरु सबसे बड़े है, उनकी औरा कितनी विकसित है, पर वास्तव में कौन बड़े है, किसकी औरा कितनी विकसित है ? उनको अध्ययन करने के बाद कहना पडा कि मेरे गुरुदेव की औरा सब से अधिक विकसित है, तब उन्होंने भावना से हटकर विज्ञान के आधार पर उनकी श्रेष्ठता की घोषणा की. वैसे तो सब माता पिता को अपने बेटे सब से बुद्धिमान दीखते है, पर वास्तव में कौन बुद्धिमान है यह जाने के लिए IQ test लिया जाता है. तब मालूम पड़ता है कि कौन सचमुच बुद्धिमान है. अगर कोई लड़का कहे कि IQ test तो झूठा होता है तो वह बुद्धू ही है क्योंकि वह अपनी बुद्धुपने की पोल खुल न जाए इसलिए उस टेस्ट से बचना चाहता है. ऐसा ही हाल आपके प्रभुजी का है.

अगर उनमें हिम्मत हो तो जांच कराके देख लो कि उनके कितने चक्र कितने विकसित है और उसके आधार पर अगर आप यह सिद्ध कर सको कि उनकी औरा मेरे गुरुदेव जितनी ही विकसित है तभी हम मान सकते है कि उनके पास वही माल मिलता है जो बापूजी के पास मिलता था. चाटुकारों की तालियों से उनकी बात की सत्यता प्रमाणित नहीं होती. भ्रष्टाचारी नेताओं को के चाटुकार भी उनको इमानदार मानते है.