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अनेक में एक और एक में अनेक का साक्षात्कार – पूज्य बापू जी


एक खास बात है । जो अपने को एक व्यक्ति मानेगा, एक सिद्धान्त वाला मानेगा वह दूसरों से शत्रुता करे बिना नहीं रहेगा लेकिन जो सबमें बसा जो आत्मा-परमात्मा है उसके नाते सबको अपना मानेगा वह स्वयं सुखी और आनंदित रहेगा और दूसरों को भी करेगा  । ‘मैं यह (शरीर) हूँ और इतना मेरा है’ यह मानता है तो बाकी वालों का तू शोषण करेगा । तू रावण के रास्ते है । ‘नहीं, मैं यह पंचभौतिक शरीर नहीं हूँ, यह प्रकृति का है । जो सबका आत्मा है वह मैं हूँ तो सभी के मंगल में मेरा मंगल, सभी की प्रसन्नता में मेरी प्रसन्नता, सभी की उन्नति में मेरी उन्नति है ।’ ऐसा मानेगा तो स्वयं भी परमात्मरस में तृप्त रहेगा और दूसरों को भी उससे पोषित करेगा ।

जो एक में अनेक दिखाये वह ‘ऐहिक ज्ञान’ है और जो अनेक का उपयोग करने की युक्ति दे वह ‘ऐहिक विज्ञान’ है । लेकिन जो अनेक में एक दिखाये वह ‘आध्यात्मिक ज्ञान’ है और वह एक ही अनेक रूप बना है ऐसा जो साक्षात्कार कराये वह ‘आध्यात्मिक विज्ञान’ है ।

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।…. गीताः 6.8)

ज्ञान माने ‘अनेक में एक का ज्ञान’ और वह एक ही अनेक रूप बना है । जैसे एक ही चैतन्य रात को स्वप्न में अनेक रूप बन जाता है न, ऐसे ही एक ही चैतन्य प्रकृति में 5 भूत हो गया और 5 भूतों की ये अनेक भौतिक चीजें हो गयीं लेकिन मूल धातु सबकी एक । गुलाब है, गेंदा है, और फूल भी हैं, सब अलग-अलग हैं लेकिन सबमें पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश – 5 भूत एक-के-एक । ऐसे ही चेहरे, नाम अनेक लेकिन सबमें हाड़-मांस, यह, वह… सब सामग्री एक-की-एक, चैतन्य एक-का-एक ! तो अनेक में एक है कि नहीं है ? अनेक घड़ों में एक आकाश, अनेक घड़ों में एक पानी, अनेक शरीरों में एक ही वायु, अनेक तरंगों में एक ही पानी नहीं है क्या ? कुल मिला के सब 5 भूत ही हैं और 5 भूत हैं प्रकृति में और प्रकृति है परमात्मा में । जैसे पुरुष और पुरुष की शक्ति अभिन्न है, दूध और दूध की सफेदी अभिन्न है, ऐसे ही परमात्मा और परमात्मा की प्रकृति अभिन्न है । वास्तव में परमात्मा ही है, उसी में प्रकृति भासित होती है ।

‘चन्द्र बन के औषधियों को पुष्ट मैं करता हूँ, सूर्य बनकर मैं प्रकाश करता हूँ, जल में स्वाद मेरा है, पृथ्वी में गंध मेरा है, वायु में स्पर्श मेरा है, आकाश में शब्द मेरा है । ॐ… ॐ… ॐ… ‘ ऐसा विशाल भाव, ज्ञान और व्यापक दृष्टि – इनकी एकता होती है तो लड़ाने-भिड़ाने की, शोषण करने की वृत्ति गायब हो जाती है और ‘सबका मंगल सबका भला’ भावना जागृत होती जाती है, अनेक में एक और एक में अनेक का साक्षात्कार हो जाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 2 अंक 347

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षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश लिखनेवाले गद्दारों का पर्दाफाश-10


➡ बापूजी कहते है कौन आज्ञा दिया इनको व्यासपीठ पर बैठने का ? सत्संग करने क‍ा,, मेरे नाम का दुरुपयोग करने का !!

उपरोक्त वचन दीदी (प्रभुजी) के बारे में कहे गए थे. संचालक अगर दीदी को भी गुरुकी आज्ञा के बिना आश्रम में व्यासपीठ पर बैठकर प्रवचन करने देते है तो वे गुरु आज्ञा का उल्लंघन करते है. अभी भी दीदी के भक्त दीदीके सत्संग कराने के लिए मेरे गुरुदेव के भक्तों से दान मांगते है और कोई समझदार साधक मना करे तो उनसे जबरदस्ती करके भी दान लेते है इस बात का मेरे पास प्रमाण है. यह गुरुदेव के नाम का दुरुपयोग नहीं तो और क्या है? 

षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश लिखनेवाले गद्दारों का पर्दाफाश-9


➡ अगर कोई एक व्यक्ति आवाज उठाता भी है, तब संचालकों के चेले लोग उस पर दबाव बनाते है ।।

➡ ,और आश्रम के अंदर एक साधक, दूसरे साधक को समझाता है कि :- जब कोई नही बोलता, तब तुम क्यू अकेले बोलते हो ? अकेले बोलने वाले का हाल तो देख चुके हो !! कहीं तुम्हारा भी वही हाल ना हो जाये ??

➡ ऐसी स्थिति में कोई भी साधक अाश्रम मैनेजमेंट के बारे में कुछ भी बोलने से डरता है,,

➡ अतः कृपया बाहर के साधक हमारी मदद करें ।। कोई भी आश्रमवासी साधक अाश्रम में रहते हुए मैनेजमेंट के विरुद्ध बोलने की स्थिति में नहीं है ।।

➡ ‘,,आप सभी साधकों से कर-बद्ध विनती है कि अाप लोग संगठित होकर

मैनेजमेंट के विरुद्ध आवाज उठाईये ।।

➡ हम गिनती के कुछ अच्छे अाश्रमवासी इतने ताकतवर मैनेजमेंट के साथ लड़ने

में असमर्थ है ।।

श्री गुरुदेव के द्वारा नियुक्त किये गए संचालक को क्या करना चाहिए यह सिखाने का अधिकार गुरुदेव किसी शिष्य को देते नहीं है. जैसे सेनापति के आदेश में सब सैनिकों को चलना ही पड़ता है वैसे ही संचालकों के आदेश का पालन सब आश्रमवासियों को करना पड़ता है. अगर वे कोई गलती करे तो उसकी सुचना गुरुदेव को दे सकते हो पर उनको सजा नहीं दे सकते. अभी के संचालक तो कुछ पढ़े लिखे भी है. मैं जब आश्रम में आया तब एक ऐसे संचालक थे जो गालियाँ भी बोलते थे और कभी किसी साधक को मार भी देते थे फिर भी हम सब साधक उनके व्यवहार को सहन कर लेते थे सिर्फ इसलिए कि उनको श्री गुरुदेव ने नियुक्त किये थे. कभी कभी वे संचालक श्री गुरुदेव को भी गुस्से में आकर खरी खोटी सूना देते थे. पर दयालु गुरुदेव सह लेते थे. जब गुरुदेव ऐसे संचालक का सह लेते हो तब दुसरे शिष्यों को भी सहना पड़ेगा. जब गुरुदेव उस संचालक को हटाते नहीं थे, हटाना चाहते नहीं थे तब हम कैसे हटा सकते है? गुरु के आश्रम में संचालक और साधक का सम्बन्ध किसी कंपनीके मेनेजर और कामदार जैसा नहीं होता. इस षड्यंत्र में अनेक नेताओं का हाथ है, अनेक विधर्मियों का हाथ है. इस षड्यंत्र में बाहर के अनेक साधकों का हाथ है, (फ़रियाद करनेवाली लड़की आर उसका बाप दोनों बाहर के साधक थे), फिर भी हम नहीं कहते के बाहर के साधकों ने यह षड्यंत्र किया है. हम कहते है कि षड्यंत्र करनेवालोंने षड्यंत्र किया. उनमें बाहर के साधक और असाधक थे और भीतर के लोग थे जो पहले कभी साधक या संचालक थे. षड्यंत्र करते समय वे न साधक थे न संचालक थे. इसलिए संचालकों या आश्रमवालों ने ने षड्यंत्र किया है यह बात झूठी है. सिर्फ आश्रमवालों ने यह सब किया है यह कहनेवाले गुरुदेव के शिष्यों में फूट डालना चाहते है. इसलिए उनसे बाहर के और भीतर के साधकों को सावधान रहना चाहिए और आपस में भिड़कर गुरुदेव के दैवी कार्यों में विघ्न नहीं डालना चाहिए. अपने गुरु के द्वारा नियुक्त संचालकों के आदेश में चलना, चाहे वे कैसे भी क्यों न होयह गुरु के आदेश में चलने के समान है. हमारे गुरुदेव और दुसरे अनेक संतों ने भी ऐसा ही किया है. हमारे गुरुदेव ने उनके गुरुदेव के आश्रम में रहते समय वहां के संचालक वीरभान की कभी फ़रियाद नहीं की. वह मेरे गुरुदेव को आश्रम से भगाने के लिए अनेक षड्यंत्र रचता था. वह अनेक बार झूठी फरियादें करके मेरे गुरुदेव को दोषी सिद्ध करता था फिर भी उनके अनुशासन में रहकर मेरे गुरुदेव ने गुरुसेवा की और वीरभान को हटाने का प्रयास नहीं किया. क्योंकि वीरभान को उनके गुरुदेव ने नियुक्त किया था. आप भी अगर कभी किसी ब्रह्मज्ञानी गुरुके आश्रममें रहोगे तो आपको भी वैसा ही करना पड़ेगा. अगर सब आश्रमवासी शिष्य अपने अपने ढंग से गुरु केद्वारा नियुक्त किये गए संचालकों को सजा देते रहेंगे तो आश्रम एक राजनीति का अखाड़ा बन जाएगा, आश्रम नहीं रहेगा.