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क्या है मूल समस्या व उसके समाधान में ‘तुलसी पूजन दिवस’ का योगदान


जो स्वरूप से ही मुक्त है उसे अज्ञान के शिकंजे में कसकर ग्रसने वाला कौन ? बुद्धि को तुच्छ बनाने वाला कौन ? विद्यार्थियों की तेजस्विता, समाज के सौहार्द, राष्ट्र के गौरव और विश्व के मंगल का विघातक कौन ? ऐसे सभी दहकते प्रश्नों के उत्तर में एकमात्र निराकरणीय समस्या है – ‘जड़ता की स्वीकृति और चेतनता का तिरस्कार ।’

ब्रह्मनिष्ठ लोकसंत पूज्य आशाराम जी बापू की सत्प्रेरणा से शुरु हुई सत्प्रवृत्तियों की श्रृंखला हर ओर से इसी मूल समस्या पर कुठाराघात करती है । उसी श्रृंखला की एक कड़ी है – ‘तुलसी पूजन दिवस’, जिसकी शुरुआत संत श्री द्वारा 25 दिसम्बर 2014 को की गयी थी । पूज्य श्री के शुभ संकल्पों से आज यह पर्व लोक-स्वीकृत हो विश्व-भूमण्डल को अनुप्राणित ( प्राण संचारित करने ) करने में रत है । आप सभी को तुलसी पूजन दिवस की हार्दिक बधाइयाँ ! इस अवसर पर आइये समझें कि मूल समस्या क्या है और उसके समाधान में इस दिवस का क्या योगदान है ।

समस्या का अवलोकन

वेदांत-दर्शन में जानने में आने वाले (प्रकाश्य) को ‘जड़’ और जानने वाले (प्रकाशक) को ‘चेतन’ कहते हैं । अपने चैतन्यस्वरूप के अज्ञान से मालूम पड़ने वाले दृश्य में सत्-बुद्धि होने से जड़ से तादात्म्य हुआ है । ऐसे में जब चेतन का अनुसंधान न कर जड़ (दृश्य) से ही सुख खोजा जाता है तब केवल अर्थ और काम ही पुरुषार्थ है ऐसी मूढ़ताभरी मान्यता और अधिक दृढ़ हो जाती है । ऐसे में भोक्ता, भोग्य और भोग की त्रिपुटी से रहित शुद्ध चेतन का विवेक नहीं हो पाता और वृत्ति चेतन की जगह जड़ का अवलम्बन ले लेती है – यही जड़ता की स्वीकृति और चेतनता का तिरस्कार है । इसमें बुद्धि का अनादर है क्योंकि जड़ के चिंतन से बुद्धि जड़ होती है, सत्-असत् विवेक की उसकी योग्यता कुंठित होती जाती है ।

एक भारतीय संस्कृति ही है जिसमें जड़ता से तादात्म्य छुड़ाकर चैतन्यस्वरूप में जगा देने की सुदृढ़ व्यवस्था है । यहाँ बुद्धि का जितना आदर है उतना कहीं नहीं है । बुद्धि का आदर काक-दंत गिनने में नहीं है बल्कि मनुष्याकृति, काकाकृति आदि अनेकानेक आकृतियाँ जिस चेतन-तत्त्व में बिना हुए मालूम पड़ रही हैं उस अखंड चेतन को आकृतियों का तिरस्कार कर ‘मैं’ रूप से जानने में है । सनातन संस्कृति के सभी अंग – तुलसी, गाय, गंगा, गीता, धर्म, उपासना, योग, वेद-उपनिषद्, संत-भगवंत आदि जीव की बुद्धि का परिष्कार कर, जड़ता से उसका तादात्म्य छुड़ा के उसे स्व-स्वरूप में जगाने में सहभागी हैं और ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु तो इन सबके सिरमौर हैं ।

क्यों शुरु हुआ ‘तुलसी पूजन दिवस’ ? 

सामान्य जीवन की आपाधापी से बाहर आकर आंतरिक सुख पाने के लिए पर्व-त्यौहारों की व्यवस्था है पर यदि धर्म ( ईश्वरीय दैवी विधान जिसे ‘सनातन धर्म’ या ‘वैदिक धर्म’ भी कहा जाता है । ) का सत्यस्वरूप का साक्षात्कार किये हुए महापुरुषों का अंकुश न हो तो जड़ता की स्वीकृति और चेतनता के तिरस्कार के कारण पर्व-त्यौहारों के दिनों में ही सुख की लोलुपता में नशीले पदार्थों का सेवन, प्राणी-हिंसाएँ, आत्महत्याएँ आदि अधिक मात्रा में होते हैं । पाश्चात्य कल्चर के त्यौहारों का बोलबाला बढ़ने से 25 दिसम्बर से 1 जनवरी के बीच भी यही देखने को मिलता है । जब पूज्य बापू जी ने देखा कि भोगों का आदर कर विश्व की प्रज्ञा अनादरित हो रही है तो पूज्य श्री के हृदय-मंदिर से ‘विश्वगुरु भारत कार्यक्रम’ का शंखनाद हुआ । 25 दिसम्बर से 1 जनवरी तक आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में तुलसी, गौ व जपमाला पूजन, गौ-गीता गंगा जागृति यात्राएँ, सहज स्वास्थ्य एवं योग प्रशिक्षण शिविर आदि विभिन्न कार्यक्रम होते हैं । यह ‘विश्वगुरु भारत कार्यक्रम’ विश्व को भारत की गुरुता का प्रसाद दिलाने में अहम भूमिका निभायेगा । इस कार्यक्रम के अंतर्गत पहला पर्व है ‘तुलसी पूजन दिवस’ ।

निकट भूतकाल में तुलसी, गौ, गंगाजल और गीता हर घर की धऱोहर थे । लोग अपेक्षाकृत सरल व सत्संगसेवी थे । लौकिक व्यवहार को संक्षिप्त कर वे परम तत्त्व में मन लगाते थे, जिससे उनकी बुद्धि, आरोग्य, सहनशक्ति, सच्चाई, समता, प्रसन्नता, परदुःखकातरता आदि के स्तर ऊँचे थे । आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक स्वास्थ्य उनकी पूँजी थी ।

जैसे-जैसे मैकालियन पद्धति की शिक्षा का रंग चढ़ता गया, ये धरोहरें घऱ-घर से बाहर होती गयीं । घरों में इन धरोहरों को पुनः स्थापित करने के लिए पूज्य बापू जी द्वारा गौ, गीता, गंगा, तुलसी आदि की महत्ता जन-जन तक पहुँचायी गयी । जैसे गायों के संरक्षण के लिए गौशालाओं की स्थापना की गयी, गौ-पालन हेतु लोगों को प्रेरित किया गया, अपने सत्संगों व गीता पर आधारित सत्साहित्य के माध्यम से गीता-ज्ञान घर-घर तक पहुँचाया गया, वैसे ही घर-घर में तुलसी की स्थापना हो, जन-जन इसके सेवन से सत्त्व व आरोग्य का लाभ उठा सके इस हेतु ‘तुलसी पूजन दिवस’ की शुरुआत की गयी ।

यह दिवस देता है आध्यात्मिक दृष्टिकोण

अध्यात्म को भी अधिभूत बना देना यह लौकिक दृष्टि है, इससे तो विश्व जड़ हुआ जा रहा है । किंतु ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष पूज्य बापू जी ने अपने सत्संग-प्रसाद से समाज को कैसी दृष्टि दी है कि हम देखें अधिभूत को और हमारी दृष्टि अधिभूत-अधिदैव-अध्यात्म तीनों में चम-चम चमकते आत्म-तत्त्व पर चली जाय ।

यह ‘तुलसी पूजन दिवस’ समाज को भगवान की सत्त्व व आरोग्यदायिनी शक्ति रूप से तुलसी का पूजन करने की प्रेरणा देता है ताकि पूजक की दृष्टि तुलसी की पौधारूप आकृति से उठकर उसके आधार-अधिष्ठान आत्म-चैतन्य पर चली जाय और पूजक की आरोग्यशक्ति और सत्त्वबल जागृत हो । इस प्रकार तुलसी-सेवन की प्रेरणा द्वारा बुद्धि का सत्त्व बढ़ा कर और चैतन्य तत्त्व में जड़ को अध्यस्त बता के सच्चिदानंदस्वरूप की झलक देने वाला यह दिवस मूल समस्या का समाधान करता है ।

तुलसी उपनिषद् में आता हैः ‘ब्रह्मानन्दाश्रुसञ्जाते ।’ ‘हे तुलसी ! तुम ब्रह्मानंदरूप आँसुओं से उत्पन्न होने वाली हो ।’ ‘अमृतोपनिषद् रसे ।’ ‘तुम अमृतरूपी उपनिषद्-रस हो ।’ ‘अवृक्षवृक्षरूपासि वृक्षत्वं मे विनाशय ।’ ‘अवृक्ष ( चैतन्यरूप ) होते हुए भी तुम वृक्षरूप में दिखाई देती हो, मेरे वृक्षत्व ( जड़ता ) का विनाश करो ।’

तुलसी पूजन दिवस के रूप में विश्वमानव को आरोग्यता का, चैतन्यता का प्रसाद देने वाले ब्रह्मवेत्ता संत श्री आशाराम जी बापू का कैसा करुणाई हृदय है इस ओर समाज का ध्यान जाना ही चाहिए । वे एक ऐसी चेतना हैं जो अखिल विश्व को जड़ता की नींद से जगाना चाहते हैं । वे ऐसे प्रेमस्वरूप हैं जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों को अपनी सरस, हितभरी दृष्टि से पोषित कर रहे हैं । ऐसे माधुर्यस्वरूप हैं जो विश्व-फलक पर सबको ईश्वरीय माधुर्य का, आरोग्यता का दान देने को अथकरूप से यत्नशील हैं । निर्दोष ब्रह्म के ऐसे निर्दोष विग्रह के हृदय में जरा झाँककर तो देखें, जो कारागृह से भी, कितने-कितने अन्याओं को सह के भी सबके लिए हितकारी अपनी दिव्य आभा से, प्रेरणा से विश्व का मंगल कर रहे हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 348

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तो समझ लेना चाहिए कि मोह प्रबल है



रावण ने हनुमान जी से पूछाः “रे वानर ! तुमने मेरी वाटिका क्यों
उजाड़ दी, बताओ तुम कौन हो ? और तुम्हारे पीछे किसका बल है ?”
हनुमान जी को लगा कि बहुत अच्छा अवसर है, अब इसे भगवत्कथा
सुना ही दी जाय ! जब हनुमान जी का मिलन भरत जी से हुआ था तो
उन्होंने उनके प्रश्न का सीधा उत्तर देते हुए कहा था कि “मैं पवनपुत्र
कपि हनुमान हूँ और प्रभु का एक छोटा सा दास हूँ ।”
पर जब रावण ने पूछा तो हनुमान जी ने शुरु से ही कथा प्रारम्भ
कर दीः “हे रावण ! सुन, मैं उऩ प्रभु का दूत हूँ जिनका बल पाकर
माया सम्पूर्ण ब्रह्मांडों के समूहों की रचना करती है, जिनके बल से हे
दशशीश ! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमशः) सृष्टि का सृजन, पालन और
संहार करते हैं, जिनके बल से सहस्र मुखवाले शेषजी पर्वत और वन
सहित समस्त ब्रह्मांड को सिर पर धारण करते हैं, जो देवताओं की रक्षा
के लिए नाना प्रकार की देह धारण करते हैं और जो तुम्हारे जैसे मूर्खों
को शिक्षा देने वाले हैं, जिन्होंने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला
और उसी के साथ राजाओं के समूह का गर्व चूर्ण कर दिया, जिन्होंने
खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि को मार डाला जो सब-के-सब अतुलनीय
बलवान थे ।”
हनुमान जी ने उसे सब कथा सुनाकर अँत में कहा कि “रावण !
तुमने भी तो संसार को जीता है पर क्या तुमने कभी विचार किया कि
किसके बल से जीता ?”
हनुमान जी का अभिप्राय यह था कि संसार में जो कुछ भी कार्य
कोई कर रहा है उसके पीछे केवल ईश्वर की ही शक्ति है । किसी
व्यक्ति का अपना कोई बल नहीं है । और इसलिए उन्होंने कहाः “रावण

! तुमने संसार को जीता, वह भी उनके बल के लवलेश से ही जीता है
।” तथा इस प्रकार अंत में कथा का उद्देश्य भी प्रकट कर दिया ।
हनुमान जी ने जब यह कहा कि “सारे ब्रह्मांड में सबके पीछे
भगवान का ही बल है और तुम्हारे पीछे भी उऩ्हीं का बल है ।” तो फिर
रावण पूछ सकता था कि ‘तुममें और मुझमें कुछ भेद है क्या ?’
इसलिए हनुमान जी ने कहाः “तुममें और मुझमें भेद अवश्य है ।’
हनुमान जी कहते हैं-
“जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि ।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ।। (श्रीरामचरित.
सुं.कां. 21)
जिन प्रभु की लेशमात्र शक्ति से तुमने समस्त चराचर जगत को
जीत लिया तथा जिनकी शक्ति (अर्थात् प्रिय पत्नी) को तुम हरकर ले
आये हो, मैं उनका दूत हूँ और उनकी शक्ति का पता लगाने आया हूँ ।”
संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसकी बुद्धिमत्ता, योग्यता,
बल आदि ईश्वर के दिये हुए न हों । किंतु बुरा और भला किसे कहते हैं
? भगवान की दी हुई वस्तुओं का जो सदुपयोग कर रहा है वह भला है
तथा जो दुरुपयोग कर रहा है वह बुरा है । हनुमान जी का अभिप्राय है
कि तुम इतने कृतघ्न हो कि जिनसे तुम्हें इतना सामर्थ्य मिला उनके
प्रति कृतज्ञ होने के स्थान पर तुमने यही सोचा कि ‘सारा चमत्कार तो
शक्ति का है अतः मैं शक्ति को ही क्यों न चुराकर अपनी बना लूँ ?’
बस, तुममें और मुझमें यही अंतर है ।
हनुमान जी रावण को हर तरह से समझाया । पर प्रश्न यह है कि
उस कथा का रावण पर क्या प्रभाव पड़ा ? वर्णन आता है कि सुनकर
रावण खूब हँसा । हनुमान जी की कथा उसको अच्छी तो लग नहीं रही

थी । अंत में हनुमान जी रावण को याद दिलाने लगेः “मैं तुम्हारी प्रभुता
को खूब जानता हूँ, सहस्रबाहू से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से
युद्ध करके तुमने सुयश प्राप्त किया था ।”
रावण बड़ा प्रसन्न हुआ कि ‘इसने एक बार भी नहीं कहा कि तुम
बालि से पराजित हुए या सहस्रबाहु से हार गये ।’ रावण खूब हँसाः ‘हाँ-
हाँ… मेरा तो ऐसा बल है ही ।’ रावण ने कभी राक्षसों के सामने यह
प्रकट नहीं होने दिया था कि वह सहस्रबाहु और बालि से हारा है ।
क्योंकि जब वह हारा था तो अकेले में हारा था । वह स्वयं बताये तब
लोगों को पता चले न ! किंतु उसने कभी किसी को बताया ही नहीं और
आज हनुमान जी ने भी हारने का नाम ही नहीं लिया इसलिए – सुनि
कपि बचन बिहसि बिहरावा ।
वह कहता हैः ‘वाह, वाह ! कपि ! बड़ी अच्छी कथा है ।’ कथा में
तो भगवान राम का गुण गाया जा रहा है पर रावण सोचता है कि ‘कथा
का उपसंहार मेरे वर्णन से हो रहा है ।’ जब भगवत्कथा में सत्संग में
ऐसी वृत्ति बने तो समझ लेना चाहिए कि मोह (अज्ञान) प्रबल है । और
कहा गया है कि ‘विनाशकाले विपरीतबुद्धिः’ । जब बुद्धि विपरीत हो
जाय तो समझ लेना चाहिए कि विनाशकाल निकट है । और इस प्रसंग
के बाद शीघ्र ही रावण का विनाश हुआ तथा उपरोक्त शास्त्र-वचन की
सत्यता प्रकट हुई । इसलिए मोह-नाश हेतु सत्संगरूपी मुख्य साधन का
एवं सेवा, साधना रूपी सहायक साधनों का अवलम्बन जीवन में अवश्य
लेना चाहिए ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 348
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चॉकलेट के दुष्परिणामों से बचकर
अपनायें स्वास्थ्य-हितकर तुलसी गोली !



बच्चों का रुचिकर चॉकलेट उनके स्वास्थ्य के लिए कितना घातक
है इस बात को या तो हम गम्भीरता से लेते नहीं हैं या फिर इसकी
हानियों को जानते हुए भी इससे बच्चों को नहीं बचा पाते क्योंकि हमारे
पास कोई दूसरा विकल्प नहीं होता जो बच्चों की चॉकलेट की माँग को
पूरा कर सके । यहाँ चॉकलेट का एक सुंदर विकल्प दिया जा रहा है ।
पूज्य बापू जी के सत्संग-वचनामृत में आता हैः “चॉकलेट से बहुत
हानि होती है । इसमें कई रसायन (केमिकल्ज़) पड़ते हैं । इससे चॉकलेट
खाने वाले बच्चों में मानसिक व्यग्रता, उत्तेजना, अवसाद (डिप्रेशन),
क्रोध, सिरदर्द, पेटदर्द, जोड़ों का दर्द और दाँतों के रोग बढ़ जाते हैं तथा
स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है ।
चॉकलेट बनाने वाले आपकी जेब के और आपके बच्चों के स्वास्थ्य
के दुश्मन हैं । इसलिए चॉकलेट भूलकर भी नहीं खिलाना चाहिए । हमने
एक टॉफी (तुलसी गोली) बनवायी, जिसमें त्रिकटु (सोंठ, काली मिर्च व
पीपर) हैं । इसके सेवन से बच्चे के पेट के कृमि मिट जायेंगे, उसको
कफ व खाँसी हो तो वे भी दूर हो जायेंगे, भूख भी अच्छी लगेगी और
टॉफी खाने का स्वाद भी आयेगा ।”
कई शोधों के बाद वैज्ञानिक भी अब यह बात बोलने लगे हैं कि
चॉकलेट का सेवन कई घातक बीमारियों का कारण है ।
चॉकलेट में पाये जाने वाले हानिकारक तत्त्व व उनके घातक
दुष्परिणाम
चॉकलेट में कैफीन, सीसा (लेड), कैडमियम, थियोब्रोमाइन,
वैसोएक्टिव एमाइंस, सैच्युरेटेड फैट्स व अतिरिक्त शर्करा, थियोफिलिन,

ट्रिप्टोफान जैसे हानिकारक तत्त्व पाये जाने इसका सेवन कई प्रकार की
विकृतियाँ पैदा करता है, जैसे-
बौद्धिक विकास में रुकावट होती है ।
रक्तचाप (बी.पी) बढ़ता है । यकृत (लिवर), गुर्दों (किडनीज़) और
हड्डियों को हानि पहुँचती है ।
अपच, पेटदर्द, सिरदर्द, अरुचि, जी मिचलाना, उलटी, दस्त,
अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, चक्कर आना, बेचैनी, हृदयरोग, मोटापा, दंतक्षय,
त्वचा का लाल होना, पेशाब में कठिनाई, त्वचा पर चकते, साँस लेने में
तकलीफ, थकान आदि समस्याएँ होती हैं ।
अतः हानिकारक द्रव्यों से युक्त चॉकलेट का सेवन करने की
अपेक्षा स्वास्थ्य, स्मृति व बल वर्धक तुलसी गोलियों का सेवन करें । ये
तुलसी के बीज, सोंठ, काली मिर्च, पीपर आदि बहुगुणी औषधियों से
युक्त होने से सभी के लिए लाभदायी हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 34 अंक 348
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