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मन के द्वन्द्व का समाधान क्यों और किनसे करें ?


शूर्पणखा से जब रावण ने सुना कि दो राजकुमारों ने उसकी बहन की नाक काट ली तो सके मन में क्रोध का उदय हुआः ‘अरे ! मैं जगत-विजेता रावण और मेरी बहन का इतना बड़ा अपमान ! मैं बदला लिये बिना नहीं रहूँगा ।’ मानो उसके मन ने कहा कि ‘बदला लूँ ।’ किंतु रावण जब पलंग पर जाकर लेट गया तो उसकी बुद्धि ने दूसरी बात कहीः

खऱ दूषन मोहि सम बलवंता ।

तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ।।

‘खर-दूषण तो मेरे ही समान बलवान थे । उन्हें भगवान के सिवा और कौन मार सकता है ?’

( श्री रामचरित. अर. कां. 22.1 )

इस प्रकार मन कह रहा हैः ‘राजकुमारों से बदला लो ।’ बुद्धि कह रही हैः ‘वे तो भगवान हैं । उनकी भक्ति करो ।’ पर भक्ति इसलिए नहीं हुई क्योंकि तीसरा बोल पड़ा – मन ने झगड़े और ईर्ष्या की बात की, बुद्धि ने भक्ति का संदेश दिया और चित्त में जो संस्कार थे उन्होंने कहाः ‘बिना सोचे समझे मैंने ईश्वर कैसे मान लिया ? अगर है भी तो क्या हुआ ?’ मानो लेटे-लेटे रावण के अंतःकरण में एक के बाद एक स्वर उठ रहे हैं । जब बुद्धि ने कहाः ‘भगवान हैं, भजन करो ।’ तो तुरंत अहंकार बोल उठाः ‘मैं और भजन बिल्कुल नहीं ।

होइहि भजनु न तामस देहा ।’

एक ही रावण के अंतःकरण में श्रीरामजी के प्रति ईर्ष्या, रामभक्ति की प्रेरणा और भजन नहीं करने की परस्पर विरोधी वृत्तियाँ आती हैं । इस सब वृत्तियों में अहं प्रबल हो गया और उसने सोचा कि ‘पहले हम उसको भगवत्ता की कसौटी पर कसकर देखेंगे ।’ उसने निर्णय किया कि ‘शास्त्रों के अनुसार ईश्वर का लक्षण सर्वज्ञता है । मैं नकली मृग लेकर चलूँगा । अगर वे ईश्वर होंगे तो समझ लेंगे कि नकली है और यदि नहीं पहचान पायेंगे तो समझ लूँगा कि कोई अल्पज्ञ राजकुमार है ।’ ईश्वर की परीक्षा लेने का साहस – यह तो वस्तुतः रावण का अहंकार ही था !

वैसे ईश्वर को पहचानने का रावण के पास एक सरल उपाय भी था । अगर उसके अंतःकरण में द्वन्द्व उत्पन्न हुआ कि ‘यह ईश्वर है कि नहीं’ तो अपने सद्गुरु भगवान शंकर के पास चला जाता और उनसे पूछता कि ‘श्रीराम ईश्वर हैं कि मनुष्य हैं ?’ तब तो रावण का जीवन ही धन्य हो जाता, सारा झगड़ा ही मिट जाता । पर रावण के मस्तिष्क में गुरु-शऱण जाने का विचार यदि एक क्षण के लिए आया भी तो अहंकार ने रोक दिया कि ‘दस सिर वाला भला पाँच सिर वाले के पास जायेगा ! शंकर जी के पास तो मेरे से आधी ही बुद्धि है ।’ परिणाम यह हुआ कि बहिरंग लड़ाई तो रावण बाद में हारा पर वह भीतर-ही-भीतर अपने-आप में लड़-लड़कर थक रहा था और उचित निर्णय नहीं कर पाया ।

श्रीराम जब मरीच के पीछे भागे तो रावण के अहंकार ने कहाः ‘अरी बुद्धि ! तू मुझे कैसे धोखा दे रही थी… इसी को ईश्वर बता रही थी ! यह तो एक बुद्धिहीन राजकुमार है – बुद्धिमान होता तो कम-से-कम सोचता कि संसार में आज तक कोई सोने का मृग सुना नहीं, क्या यह सम्भव हो सकता है ? लेकिन वह स्वर्णमृग के पीछे भाग रहा है – यह तो ईश्वर नहीं, एक लोभी, बुद्धिहीन राजकुमार है ।’ और इसका परिणाम यह हुआ कि रावण का सर्वनाश हो गया । इसका तात्पर्य है कि जब हमारे अंतर्जीवन में – मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार में स्वयं द्वन्द्व होगा तो हम साधन नहीं कर पायेंगे ।

अतः जब भी इनमें द्वन्द्व हो तो ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु की शरण जाना चाहिए, उनके सत्संग-ज्ञान की शरण जाना चाहिए, उनके सत्संग-ज्ञान की दृष्टि से विचार करके देखना चाहिए कि अमुक विषय में मेरे गुरुदेव ने क्या बताया है, अमुक विषय में मेरे गुरुदेव का सिद्धान्त क्या कहता है । जो इस प्रकार गुरु की दृष्टि का अवलम्बन लेकर चलेगा वह व्यवहार एवं परमार्थ दोनों में सफल होता जायेगा । यदि समय रहते सत्संग द्वारा अंतःकरण के द्वन्द्व का समाधान नहीं किया गया तो वह उपद्रव मचा देता है और बुद्धि नाश द्वारा समय पाकर सर्वनाश को आमंत्रण दे देता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 349

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परिक्रमा क्यों ?


भगवत्प्राप्त संत-महापुरुष के व्यासपीठ या निवास-स्थान की, उनके द्वारा शक्तिपात किये हुए वट या पीपल वृक्ष की, महापुरुषों के समाधि स्थल अथवा किसी देव प्रतिमा की किसी कामना या संकल्पमूर्ति हेतु जो परिक्रमा (प्रदक्षिणा) की जाती है उसके पीछे अत्यंत सूक्ष्म रहस्य छिपे हैं । इसके द्वारा मानवी मन की श्रद्धा-समर्पण की भावना का सदुपयोग करते हुए उसे अत्यंत प्रभावशाली’ आभा विज्ञान’ का लाभ दिलाने की सुंदर व्यवस्था हमारी संस्कृति में है ।

प्रदक्षिणा में छिपे वैज्ञानिक रहस्य

देवमूर्ति व ब्रह्मनिष्ठ संत-महापुरुषों के चारों तरफ दिव्य आभामंडल होता है । वैसे तो हर व्यक्ति के शरीर से एक आभा निकलती है किंतु ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष का आभामंडल दूर-दूर तक फैला होता है । यदि वे महापुरुष कुंडलिनी योग के अनुभवनिष्ठ योगी भी हों तो उनका आभामंडल इतना व्यापक होता है कि उसे नापने में यंत्र भी असमर्थ हो जाते हैं । ऐसे आत्मारामी संत जहाँ साधना करते हैं, निवास करते हैं वह स्थल उनकी दिव्य आभा से, उनके शरीर से निकलने वाली दिव्य सूक्ष्म तरंगों से सुस्पंदित, ऊर्जा-सम्पन्न हो जाता है । इस कारण ऐसे महापुरुष की परिक्रमा करने से तो लाभ होता ही है, साथ ही उनके सान्निध्य से सुस्पंदित स्थानों की भी परिक्रमा से हमारे अंदर आश्चर्यजनक उन्नतिकारक परिवर्तन होने लगते हैं ।

प्रदक्षिणा = प्र + दक्षिणा अर्थात् दक्षिण ( दायीं दिशा ) की ओर फेरे करना । परिक्रमा सदैव अपने बायें हाथ की ओर से दायें हाथ की ओर ही की जाती है क्योंकि दैवी शक्ति के आभामंडल की गति दक्षिणावर्ती होती है । इसकी विपरीत दिशा में परिक्रमा करने से उक्त आभामंडल की तरंगों और हमारी स्वयं की आभा-तरंगों से टकराव पैदा होता है, जिससे हमारी जीवनीशक्ति नष्ट होने लगती है ।

प्रदक्षिणा 7, लाभ अनगिनत !

तीर्थों की अपनी महिमा है परंतु हयात ब्रह्मवेत्ता सत्पुरुषों की महिमा तो निराली ही है । उनके लिए शास्त्र कहते हैं कि ‘वे तो चलते-फिरते तीर्थराज हैं, तीर्थ-शिरोमणि हैं ।’ ऐसा महापुरुष की यदि किसी वस्तु पर दृष्टि पड़ जाय, स्पर्श हो जाय अथवा वे उस पर संकल्प कर दें तो वह हमारे लिए ‘प्रसाद’ हो जाती है, प्रसन्नता, आनंद-उल्लास एवं शांति देने वाली हो जाती है, साथ ही मनोकामनाएँ भी पूर्ण करती है । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है विश्वभर में स्थित संत श्री आशाराम जी आश्रमों में ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष पूज्य बापू जी द्वारा शक्तिपात किये हुए वटवृक्ष या पीपल वृक्ष, जिन्हें बड़ बादशाह अथवा पीपल बादशाह के नाम से जाना जाता है । आज ये कलियुग के साक्षात् कल्पवृक्ष साबित हो रहे हैं । इनकी श्रद्धापूर्वक मात्र 7 प्रदक्षिणा करने से लाखों-लाखों लोगों ने अनगिनत लाभ उठाये हैं । कितनों के रोग मिट गये, कितनों के दुःख-संताप दूर हुए, कितनों की मनोकामनाएँ पूर्ण हुई हैं तथा कितनों की आध्यात्मिक उन्नति हुई है ।

जब श्रद्धालु अपना दायाँ अंग आराध्य देव की ओर करके एवं मन-ही-मन प्रदक्षिणा की संख्या व संकल्प निश्चित करके प्रदक्षिणा करता है तो उसके शरीर, मन व बुद्धि पर इष्ट देवता की दिव्य तरंगों का विशेष प्रभाव पड़ता है । परिक्रमा के समय यदि मन से शुभ संकल्प व समर्पण-भावना के साथ सर्वसिद्धि-प्रदायक भगवन्नाम या गुरुमंत्र का जप-सुमिरन होता है तो मनःशुद्धि भी होती है और लौकिक – शारीरिक, सांसारिक और भी लाभ होते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 24 अंक 349

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परमात्मप्राप्ति की आधारशिला – पूज्य बापू जी


‘बीमारी है, थकान है तो शरीर को है, चिंता है तो मन को है, राग-द्वेष है तो बुद्धि में है लेकिन प्रभु ! मुझमें तो तू और तुझमें मैं…’ ऐसा चिंतन बड़ा आसान तरीका है ईश्वरप्राप्ति का । यह आधारशिला मिलेगी तो जहाँ-तहाँ पवित्र होने के लिए भागना नहीं पड़ेगा, जब जरूरत पड़ी तब पवित्र हो गये ।

चलो, पाप नष्ट हुए, हृदय पवित्र हुआ लेकिन वह फिर मैला हो जाय उसके पहले ही बीच में अपना काम ( परमात्मप्राप्ति ) कर लो । पवित्र हृदय हो तो ठीक है और थोड़ा उन्नीस-बीस भी हो तो भी उस सच्चिदानंदस्वरूप परमात्मदेव की चर्चा, चिंतन पवित्र कर देंगे, कमी पूरी कर देंगे । यह जरूरी थोड़े ही कि 100 प्रतिशत अंक आयें तभी विद्यार्थी पास होगा, 60 प्रतिशत वाला भी पास हो जाता है, 50 प्रतिशत वाला भी द्वितीय श्रेणी में पास हो जायेगा, और कमवाला तृतीय श्रेणी में भी तो निकल जायेगा ( पास हो जायेगा ) ।

तो हृदयशुद्धि का फायदा उठा लें । जीवनभर हृदयशुद्धि… हृदयशुद्धि…! जीवनभर कर्म… कर्म… कर्म करें तो करें लेकिन कर्म के फल को समझें । एक कर्म होते हैं बाहर की इच्छा से, उनका फल नाशवान होता है । सुख देकर पुण्य का फल चला जायेगा, दुःख दे के पाप का फल चला जायेगा । दूसरा कर्म है कि हृदय को शुद्ध करके हृदयेश्वर को पा लें – ईश्वर-अर्पण- कर्म । ईश्वर-अर्पण कर्म करके ईश्वर को पा लें । ईश्वर मिला तो फिर न पुण्य बाँधेगा न पाप बाँधेगा, न दुःख बाँधेगा न सुख बाँधेगा, न जन्म होगा न मृत्यु होगी ।

‘हे प्रभु ! हे हरि ! हे अच्युत ! हे अनंत ! हे गोविंद !… ‘ इस प्रकार चिंतन करते-करते उस वामन-विभु सूक्ष्म व व्यापक परमात्मदेव में विश्रांति पायेंगे तो आधारशिला मिल जायेगी । जिससे व्यापक विभु में विश्रांति मिलती है उसका सारा व्यवहार अभिनय हो जाता है । इसलिए ब्रह्मज्ञानी के लिए बोलते हैं कि ‘ये जीवन्मुक्त हैं, जीते-जी मुक्त हैं ।’

ब्रह्म गिआनी की मिति ( परिमाण, माप उनकी स्थिति का अनुमान ) कउनु बखानै ।

ब्रह्म गिआनी की गति ब्रह्म गिआनी जानै ।।

जिसको पाना कठिन नहीं है, जो दूर नहीं है, दुर्लभ नहीं है, परे नहीं है, पराया नहीं है और जिसको पाने के बाद कुछ पाना बाकी नहीं रहता ऐसे महान परमात्मदेव का ज्ञान पा लेना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 2 अंक 349

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