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‘मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू’



एक सेठ के बगीचे में गाय घुस आयी । सेठ ने दौड़कर डंडा मार
दिया । डंडा मर्मस्थल पर लगा गया । गाय मर गयी ।
गोहत्या आयी तो सेठ ने कहाः “मैंने गाय नहीं मारी, डंडे ने मारी
है । उसे लगो ।”
गोहत्या डंडे के पास गयी तो वह बोलाः “मुझे तो हाथ ने चलाया है
।”
हाथ की बारी आयी तो उसने कहाः “मेरे देवता तो इन्द्र हैं । मैं
उनकी शक्ति से चलता हूँ ।”
देवराज इन्द्र के पास गोहत्या गयी तो वे कहने लगेः “मुझे हाथ का
देवता भगवान विष्णु ने बनाया । मुझमें उऩ्हीं की शक्ति है ।”
गोहत्या भगवान विष्णु के पास गयी तो वे उसे लेकर ब्राह्मण बन
के सेठ के पास आये और बोलेः “यह बग़ीचा आपने लगवाया है ? बड़ा
सुंदर बग़ीचा है ।”
सेठः “आपकी कृपा है । इस दास ने यह बड़े परिश्रम से लगवाया
है । चलिये, दिखा दूँ आपको ।
अब सेठ ब्राह्मण को दिखाने लगे, बतलाने लगे कि कौनसा वृक्ष,
लता या पुष्प कहाँ से कैसे उन्होंने मँगवाया । इसी घूमने में ब्राह्मण के
पूछने पर उन्होंने बतलाया कि कुआँ उन्होंने बनवाया, धर्मशाला उन्होंने
बनवायी, अन्नक्षेत्र वे चलाते हैं । घूमते-घूमते ब्राह्मण मरी गाय के पास
पहुँचे और चौंकते से बोलेः “यह गाय कैसे मर गयी ?”
सेठः “यह तो अपने-आप मर गयी ।”
ब्राह्मणः “वाह सेठ जी ! बग़ीचा आपने लगवाया, कुआँ आपने
बनवाया, धर्मशाला आपने बनवायी, अन्नक्षेत्र आप चलाते हैं और गाय

अपने आप मर गयी ? गाय भी आपने मारी है, समझे ? यह गोहत्या
आपको लगेगी ही ।”
आप ईमानदारी से देखो कि आप अपने को कर्ता समझते हो या
नहीं ? अपने को कर्ता समझकर तो कर्म कर रहे हो, उसका उत्तम फल
भोगना चाहते हो और उसमें से दुःख-अपमान निकले तो अपने को
अकर्ता-अभोक्ता बनाना चाहते हो, यह ‘मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू’
नहीं चलेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 24 अंक 349
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बुद्धि का विकास और नाश कैसे होता है ? – पूज्य बापू जी


बुद्धि का नाश कैसे होता है और विकास कैसे होता है ? विद्यार्थियों को तो खास समझना चाहिए न ! बुद्धि नष्ट कैसे होती है ? बुद्धि शोकेन नश्यति । भूतकाल की बातें याद करके ‘ऐसा नहीं हुआ, वैसा नहीं हुआ…’ ऐसा करके जो चिंता करते हैं न, उनकी बुद्धि का नाश होता है और ‘मैं ऐसा करके ऐसा बनूँगा…’ यह चिंतन बुद्धि-नाश तो नहीं करता लेकिन बुद्धि को भ्रमित कर देता है । और ‘मैं कौन हूँ ? सुख-दुःख को देखने वाला कौन ? बचपन बीत गया फिर भी जो नहीं बीता वह कौन ? जवानी बदल रही है, सुख-दुःख बदल रहा है, सब बदल रहा है इसको जानने वाला मैं कौन हूँ ? प्रभु ! मुझे बताओ…’ इस प्रकार का चिंतन, थोड़ा अपने को खोजना, भगवान के नाम का जप और शास्त्र का पठन करना – इससे बुद्धि ऐसी बढ़ेगी, ऐसी बढ़ेगी कि दुनिया का प्रसिद्ध बुद्धिमान भी उसके चरणों में सिर झुकायेगा ।

रमण महर्षि के पास पॉल ब्रंटन कैसा सिर झुकाता है और रमण महर्षि तो हाई स्कूल तक पढ़े थे । उनकी कितनी बुद्धि बढ़ी की मोरारजी भाई देसाई कहते हैं- ″मैं प्रधानमंत्री बना तब भी मुझे उतनी शांति नहीं मिली, उतना सुख नहीं मिला जितना रमण महर्षि के चरणों में बैठने से मिला ।″ तो आत्मविश्रांति से कितनी बुद्धि बढ़ती है, बोलो ! प्रधानमंत्री पर भी कृपा करने योग्य बुद्धि हो गयी रमण महर्षि की ।

जप करने से, ध्यान करने से बुद्धि का विकास होता है । जरा-जरा बात में दुःखी काहे को होना ? जरा-जरा बात में प्रभावित काहे को होना ? ‘यह मिल गया, यह मिल गया…’ मिल गया तो क्या है ! ज्यादा सुखी-दुःखी होना यह कम बुद्धि वालों का काम है । जैसे बच्चे की कम बुद्धि होती है तो जरा-से चॉकलेट में, जरा-सी चीज में खुश हो जाता है और जरा-सी चीज हटी तो दुःखी हो जाता है लेकिन जब बड़ा होता है तो चार आने का चॉकलेट आया तो क्या, गया तो क्या ! ऐसे ही संसार की जरा-जरा सुविधा में जो अपने को भाग्यशाली मानता है उसकी बुद्धि का विकास नहीं होता और जो जरा-से नुकसान में अपने को अभागा मानता है उसकी बुद्धि मारी जाती है । अरे ! यह सपना है, आता-जाता है । जो रहता है उस नित्य तत्त्व में जो टिके उसकी बुद्धि तो गजब की विकसित होती है ! सुख-दुःख में, लाभ-हानि में, मान-अपमान में सम रहना तो बुद्धि परमात्मा में स्थित रहेगी और स्थित बुद्धि ही महान हो जायेगी ।

बुद्धि बढ़ाने के 4 तरीके

एक तो शास्त्र का पठन, दूसरा भगवन्नाम-जप करके फिर भगवान का ध्यान, तीसरा पवित्र स्थानों ( जैसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के आध्यात्मिक स्पंदनों से सम्पन्न आश्रम ) में जाना और चौथा परमात्मा को पाये हुए महापुरुषों का सत्संग-सान्निध्य – इन 4 से तो गजब की बुद्धि बढ़ती है !

विद्या के 6 विघ्न

स्वच्छन्दत्वं धनार्थित्व प्रेमभावोऽथ भोगिता ।

अविनीतत्वमालस्यं विद्याविघ्नकराणि षट् ।।

‘स्वच्छन्दता अर्थात् मनमुखता, धन की इच्छा, किसी के ( विकारी ) प्रेम में पड़ जाना, भोगप्रिय होना, अनम्रता, आलस्य – ये 6 विद्या के विघ्न हैं ।’ ( सुभाषितरत्नाकर )

बल ही जीवन है

बल ही जीवन है, दुर्बलता मौत है । जो नकारात्मक विचार करने वाले हैं वे दुर्बल हैं, जो विषय विकारों के विचार में उलझता है वह दुर्बल होता है लेकिन जो निर्विकार नारायण का चिंतन, ध्यान करता है और अंतरात्मा का माधुर्य पाता है उसका मनोबल, बुद्धिबल और आत्मज्ञान बढ़ता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 18, 19 अंक 349

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बल ही जीवन है – पूज्य बापू जी



बल ही जीवन है, दुर्बलता मौत है । जो नकारात्मक विचार करने
वाले हैं वे दुर्बल हैं, जो विषय-विकारों के विचार में उलझता है वह दुर्बल
होता है लेकिन जो निर्विकार नारायण का चिंतन, ध्यान करता है और
अंतरात्मा का माधुर्य पाता है उसका मनोबल, बुद्धिबल और आत्मज्ञान
बढ़ता है ।