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सूर्यदेव ने कार्तिकजी का पूजन रोककर पहले किनको पूजा ? – पूज्य बापू जी


एक बार भगवान शिवजी के बेटे कार्तिक स्वामी भगवान सूर्यदेव से मिलने गये । जब वे पहुँचे तो सूर्यदेव ने देखा कि ये तो शिवजी के बेटे आ रहे हैं तो पूजा की थाली लाये । ज्यों वे पूजा करने जाते हैं इतने में उन्होंने देखा कि कोई विमान जा रहा है । विमान में कौन बैठा है यह देखा तो सूर्यनारायण ने कार्तिक स्वामी का पूजन रोक दिया और विमान में जा रहे महान आत्मा का आवाहन किया और उनका पूजन कर लिया । उन महात्मा का पूजन हुआ फिर वह विमान आगे गया । फिर सूर्यनारायण दूसरी थाली लाये कार्तिक जी की पूजा के लिए । इतने में दूसरा विमान जाते हुए सूर्यदेव ने देखा । सूर्यदेव तो ज्ञान के देव हैं, बुद्धि के देव ! उन्होंने उसमें बैठे व्यक्ति का आवाहन किया और उनका पूजन किया । वह विमान जब आगे निकल गया तब सूर्यनारायण तीसरी थाली लाये और कार्तिक स्वामी का पूजन करने लगे ।

कार्तिक स्वामी बोलते हैं- ″आप तो मेरे को जानते हैं, मैं शंकर भगवान का पुत्र हूँ किंतु वे कौन आत्माएँ कौन थीं जिनके लिए आपने मुझे बाजू में रख के उनका पूजन किया ? अगर मैं अधिकारी हूँ तो बताइये ।″

सूर्यदेव बोलेः ″शिवपुत्र कार्तिक स्वामी ! आपको तो प्रणाम है लेकिन वह जो पहला विमान था उसमें दूसरों को ज्ञान देकर, भक्ति की शक्ति जागृत करके व्यक्ति की सुषुप्त शक्ति जगावें, पैसों के लिए कथा नहीं बल्कि लोगों की भलाई हो, शरीर तंदुरुस्त रहे, मन प्रसन्न रहे और बुद्धि में छुपी हुई बुद्धिदाता की शक्ति जागृत हो ऐसे निर्दोष भाव से सत्संग करने वाले आत्मसाक्षात्कारी, ब्रह्मज्ञानी गुरु थे । जिनके चरणों में भगवान भी माथा झुकाते हैं ऐसे गुरु जा रहे थे । इसलिए मैंने उनका स्वागत किया ।″

कार्तिक स्वामीः ″अच्छा, तो दूसरे विमान में भी ऐसे ही गुरु थे ?″

बोलेः ″नहीं, दूसरे विमान में ऐसे गुरु नहीं थे लेकिन ऐसे गुरु का कार्यक्रम-आयोजन करने वाला सत्पात्र शिष्य था । तन-मन-धन से लगकर गुरु का प्रसाद लोगों तक पहुँचाने में सदैव तत्परता से सेवा करने वाला सत्शिष्य था, उसका स्वागत किया ।″

बोलेः ″बहुत बढ़िया बात है ! सूर्यनारायण ! यह आपके और हमारे संवाद की कथा, यह ऐसी ऊँची घटना जो सुनेंगे, एक-दूसरे को सुनायेंगे उनके पाप मिटेंगे और उन्हें हजार कपिला गोदान करने का फल होगा ।″

हजारों की खुशामद छोड़कर एक ईश्वर से प्रीति करो और हजारों से ईश्वर के नाते प्रेम से मिलो तो आपके इस हाथ में भी लड्डू और उस हाथ में भी लड्डू – इस जहाँ में भी मौज और परलोक में भी खुशी ! – पूज्य बापू जी

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 7 अंक 349

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बल ही जीवन है – पूज्य बापू जी



बल ही जीवन है, दुर्बलता मौत है । जो नकारात्मक विचार करने
वाले हैं वे दुर्बल हैं, जो विषय-विकारों के विचार में उलझता है वह दुर्बल
होता है लेकिन जो निर्विकार नारायण का चिंतन, ध्यान करता है और
अंतरात्मा का माधुर्य पाता है उसका मनोबल, बुद्धिबल और आत्मज्ञान
बढ़ता है ।

वासना-प्रधान नहीं विवेक-प्रधान व्यवहार हो – पूज्य बापू जी


पति पत्नी को बोलता है कि ‘भोग-वासना में सहयोग देना तेरा कर्तव्य है ।’ और पत्नी समझती है कि ‘तुम हमारी वासना के पुतले बने रहो यह तुम्हारा कर्तव्य है ।’ नहीं-नहीं, ये दोनों एक दूसरे को खड्डे में गिराते हैं । पति सोचे कि ‘पत्नी के चित्त, शरीर और मन में आरोग्यता आये, ऐसा सत्संग, ऐसा संग, ऐसे विचार देना या दिलाने की व्यवस्था करना मेरा कर्तव्य है’ और पत्नी चाहे कि ‘पति की कमर न टूटे, कमर मजबूत रहे, शरीर मजबूत रहे, मन मजबूत रहे ऐसे व्यवहार, खुराक और सेवा से, ऐसे आचरण से पति के तन की, मन की बुद्धि की और आत्मा की उन्नति करना मेरा कर्तव्य है ।’

तो कर्तव्य बुद्धि से पति पत्नी को देखे और पत्नी पति की सेवा करे तो दोनों एक दूसरे के गुरु होकर गुरुपद में जगने में सफल हो सकते हैं । लेकिन पत्नी चाहे कि ‘पति मेरे कहने में चले’ और पति चाहता है कि ‘पत्नी मेरे कहने में चले’ तो यह विवेक की कमी है । विवेक की कमी होने से व्यक्ति दूसरे को अपने अधिकार के अधीन करना चाहता है । यह समझता नहीं कि जो तुम्हारा है वह औरों का भी है, बहुतों का है । पति तुम्हारा है तो वह किन्हीं माँ-बाप का बेटा भी तो है, उसको उधर भी कर्तव्य निभाने दो और किन्हीं गुरु का शिष्य भी है, उधर भी उसको कर्तव्य निभाने दो । लोग जिसको अपना मानते हैं उससे विवेक-प्रधान व्यवहार नहीं करते, वासना-प्रधान व्यवहार करते हैं । जब अपने वालों के साथ वासना-प्रधान व्यवहार होता है तो अविवेक जगता है, आसुरी भाव जगता है और जब अपने वालों के प्रति विवेक-प्रधान व्यवहार होता है तो सुर भाव – देवत्व भाव जगता है और दैवी गुणों की सम्पदा हमारे चित्त में आती है – निर्भयता, तत्परता, सद्गुरु-उपासना, ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर उपासना) आदि सद्गुण विकसित होते हैं और दैवी सम्पदा के 26 लक्षणों में से जितने-जितने लक्षण जितने अंश में बढ़ते हैं उतने अंश में हम अपने आत्मदेव की निकटता का अनुभव करते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 21 अंक 349

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