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दृढ़व्रती हो जाओ – पूज्य बापू जी


संत कबीर जी ने कहाः

कबिरा जोगी जगत गुरु तजे जगत की आस ।

जो जग की आशा करे तो जग गुरु वह दास ।।

योगी तो जगत का गुरु होता है । आप जगत में से सुख लेने की इच्छा न करें, सुख तो अपने आत्मा का आता है, जगत का तो उपयोग होता है, सुख नहीं होता है । लोग क्या करते हैं कि जगत में सुख लेने की मजदूरी करते हैं । जितना व्यक्ति जगत में सुख लेने के आवेग में है उतना वह बेचैन मिलेगा आपको ।

आज के युवक-युवतियाँ बड़े बेचैन मिलते हैं बेचारे क्योंकि जगत से सुख लेना चाहते हैं । जितना जागतिक सुख लेना चाहते हैं उतने अशांत होंगे ।

तुम जब 18-20 साल के थे तब जितना अपने माँ-बाप का आदर करते थे या तुम जितना मान-अपमान को झेल सकते थे या पिता की डाँट सह सकते थे उतना तुम्हारे बेटे तुम्हारी डाँट नहीं सह सकते हैं, बेचारे जगत के अधीन हो गये, बहिर्मुख हो गये, जीवनीशक्ति क्षीण हो गयी, सहनशक्ति नष्ट हो गयी ।

तो आप जितनी अंतर्यात्रा करते हैं उतना दृढ़व्रती होते हैं । जितना दृढ़व्रती होते हैं उतनी अंतर्यात्रा होती है  । जितना बाहर के जगत से सुख लेने की बेवकूफी बढ़ती है उतना व्यक्ति चंचल हो जाता है, अदृढ़व्रती हो जाता है, डरपोक हो जाता है, हृदय से कमजोर हो जाता है ।

खैर, अब क्या करें ? जो समय बीत गया उसको याद करके अपने को कमजोर मत बनाओ । अब दृढ़ संकल्प करो कि इतना जप करूँगा, ऐसे रहूँगा ! निर्भय नाद पुस्तक ( यह आश्रमों में सत्साहित्य सेवा केन्द्रों से तथा समितियों से प्राप्त हो सकती है । ) पढूँगा, हिम्मत देने वाले शास्त्रों को पढूँगा, जो हमारी हिम्मत तोड़ें ऐसे व्यक्तियों की बातों को सुनी-अनसुनी कर दूँगा ।

जो बीत गयी सो बीत गयी,

तकदीर का शिकवा कौन करे ।

जो तीर कमान से निकल गया,

उस तीर का पीछा कौन करे ?

बीती हुई कमजोरियों को याद मत करो, बीते हुए गुनाह को याद मत करो । छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी… इतना तो पिक्चरवाले भी जानते हैं ! हिम्मत करो, दृढ़ता लाओ तो तुम्हारे लिए कठिनाई नहीं होगी । एक बार भगवान बुद्ध हताश-निराश होकर अपने घर को लौट रहे थे ।

सोचा कि यशोधरा के मुखमंडल को छोड़कर मैं अरण्य में आया, अपने एक दिन के जन्मे हुए बच्चे राहुल का त्याग करके आया । इतनी मेहनत की और भगवान मिले नहीं, क्या रखा है… चलो वापस ! वापस लौटने के, अदृढ़ कर देने वाले कायरता के विचार आ रहे थे । इतने में देखा कि एक कीड़ा तने के सहारे पेड़ पर चढ़ रहा है । हवा का झोंका लगा तो वह गिर गया, फिर चढ़ा, फिर गिरा, फिर चढ़ा… सीधी चढ़ाई थी । वह 7 बार गिरा और आठवीं बार चढ़ गया । बुद्ध ने देखा कि यह कोई घटना नहीं, यह संकेत है कि कीड़ा भी अपना लक्ष्य नहीं छोड़ता तो मैं मनुष्य अपना लक्ष्य छोड़कर फिर वापस नरक में जाऊँ यह कैसे हो सकता है ! यह नहीं हो सकता ।

वो कौन-सा उकदा है जो हो नहीं सकता ?

तेरा जी न चाहे तो हो नहीं सकता ।।

छोटा सा कीड़ा पत्थर में घर करे ।

इंसान क्या दिले-दिलबर में घर न करे ?

आ गयी दृढ़ता, मार दी छलाँग और हो गये पार ! अभी भगवान बुद्ध के नाम से पूजे जाते हैं । अदृढ़ होते तो महाराज ! न इधर के होते न उधर के होते ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 27,29 अंक 349

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ईश्वरीय अंश विकसित कर यहीं ईश्वरतुल्य हो जाओ – पूज्य बापू जी


मनुष्य इन तीन तत्त्वों का मिश्रण हैः पाशवीय तत्त्व, मानवीय तत्त्व और ईश्वरीय तत्त्व । पाशवीय तत्त्व अर्थात् पशु जैसा आचरण । चाहे जैसा खाना-पीना, माता-पिता की हितकारी बात को ठुकरा देना, सामाजिक नीति-नियमों को ठुकरा देना, जैसे ढोर चलता है ऐसे ही मन के अनुसार चलना – ये पाशवीय तत्त्व हैं ।

मानवीय तत्त्व अर्थात् मानवोचित आचरण । यथायोग्य आहार-विहार, अच्छे संस्कार, अच्छा संग, माता-पिता एवं गुरु का आदर करना – ये मानवीय तत्त्व हैं ।

ईश्वरीय तत्त्व… जब संत सद्गुरु मिलते हैं एवं मानव साधन-भजन करता है, ध्यान जप करता है, व्रत उपवास करता है तब ईश्वरीय तत्त्व विकसित होता है ।

जो मनमुख होता है उसमें पाशवीय अंश जोरदार होता है । फिर वह चाहे अपना बेटा हो या भाई हो लेकिन पाशवीय अंश ज्यादा है तो हैरान करता है । जैसे पशु जरा-जरा बात में लात मारता है, कुत्ता जरा-जरा बात में भौंकता है ऐसे ही पाशवीय अंश वाला मनुष्य जरा-जरा बात में अशांत हो जायेगा, जरा-जरा बात में राग-द्वेष की गाँठ बाँध लेगा । वह अपनी पाशवीय वासनापूर्ति में लगा रहता है । ये वासनाएँ जहाँ पूर्ण होती हैं वहाँ राग करने लगेगा और जहाँ वासनापूर्ति में विघ्न आयेगा वहाँ द्वेष करने लगेगा । वासनापूर्ति में कोई अपने से बड़ा व्यक्ति विघ्न डालेगा तो भयभीत होगा, बराबरी का विघ्न डालेगा तो स्पर्धा करेगा और छोटा विघ्न डालेगा तो क्रोधित होगा । इस प्रकार राग-द्वेष, भय-क्रोध, संघर्ष, स्पर्धा आदि में मनुष्य की ईश्वरीय चेतना खर्च होती रहती है ।

इससे कुछ ऊँचे लोग होते हैं, जो अपने कर्तव्यपालन में तत्पर होते हैं और मानवीय अंश विकसित किये हुए होते हैं । वे राग-द्वेष को कम महत्त्व देते हैं और अगर हो भी जाता है तो थोड़ा बहुत सँभल जाते हैं । मानवीय अंश विकसित होने के बावजूद यदि किसी में पाशवीय अंश का जोर रहा तो वह पशुयोनि में जाता है, जैसे राजा नृग । उन्होंने मानवीय अंश तो विकसित कर लिया था फिर भी पाशवीय अंश का जोर था तो गिरगिट बन के कुएँ में पड़े रहे । यदि किसी में मानवीय अंश का जोर रहा तो मरने के बाद वह पुनः मनुष्य शरीर में आता है और यदि मानवीय अंश के साथ ईश्वरीय अंश के विकास में भी लगा रहा तो वह यहाँ भी सुखी एवं शांतिप्रिय जीवन व्यतीत करेगा और मरने के बाद भी भगवान के धाम में जायेगा । किंतु जो अपने में पूरा ईश्वरीय अंश विकसित कर लेते हैं, वे यहीं ईश्वरतुल्य हो के पूजे जाते हैं ।

कई ऐसे बुद्धिमान ( बुद्धिजीवी ) लोग भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते । उनकी सारी बुद्धि शरीर की सुख सुविधा इकट्ठी करने में ही खर्च हो जाती है । ऐसे बुद्धिजीवी अपने को श्रेष्ठ एवं दूसरों को तुच्छ मानते हैं जबकि वे स्वयं भी तुच्छता से घिरे हुए हैं क्योंकि जो शरीर क्षण-प्रतिक्षण मौत की तरफ गति कर रहा है उसी को ‘मैं’ मानते हैं और उससे संबंधित पद-प्रतिष्ठा एवं अधिकारों को ‘मेरा’ मानते हैं । लेकिन उन भोले मूर्खों को पता नहीं होता कि जैसे बिल्ली चूहे को सँभलने नहीं देती, वैसे ही मृत्यु भी किसी को सँभलने नहीं देती । कब मृत्यु आकर झपेट ले इसका कोई पता नहीं ।

अमेरिका के अखबार बताते हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का प्रेत-शरीर व्हाइट हाउस में दिखता है । अब्राहिम लिंकन मानवतावादि तो थे किंतु यदि साथ ही उनका ईश्वरीय अंश विकसित होता तो मरने के बाद प्रेतयोनि में नहीं भटकते बल्कि आध्यात्मिक यात्रा कर लेते ।

मृत्यु के बाद कैसी गति ?

कुछ लोग मरने के बाद प्रेत होते हैं । मृत्यु के समय पाशवीय वृत्तिवाले मनुष्य सुन्न हो जाते हैं । मृत्यु आती है तो सवा मुहूर्त तक उनका अंतःकरणयुक्त सूक्ष्म शरीर वातावरण में सुन्न-सा, मूर्च्छित-सा हो जाता है । वासना जगी रहती है अतः शरीर में घुसना चाहता है पर नहीं घुस सकता । फिर वासना के अनुसार उसकी गति होती है । जैसे, अभी प्यास लगी है, भूख लगी है, नींद आ रही है…. इनमें से जिसका जोर ज्यादा होगा, वही काम आप पहले करेंगे । ऐसे ही मरने के बाद जो पाशवीय अथवा मानवीय वासना प्रबल होती है उसी के अनुसार जीव की गति होती है ।

जैसे, किसी भीड़ से छूटने के बाद कोई शराबी है तो शराब के अड्डे पर जायेगा, जुआरी है तो जुए के अड्डे पर जायेगा, सद्गृहस्थ है तो अपनी प्रवृत्ति की ओर जायेगा, साधक है तो अपनी साधना में लगेगा या किसी आश्रम की ओर जायेगा । ऐसे ही मरने के बाद जीव भी अपनी-अपनी वासना एवं कर्म संस्कार के अनुसार विभिन्न योनियों में गति करते हैं । मानो, इच्छा है कोई भोग भोगने की और शरीर छूट गया तो फिर अपने कर्मों की तारतम्यता से वह जीव चन्द्रमा की किरणों द्वारा अथवा वृष्टि के द्वारा अन्न-फल इत्यादि में पड़ता है और उसको मनुष्यादि प्राणि खाते हैं । अगर उसका तारतम्य ठीक है तो उसकी वासना के अनुरूप उसे माता का गर्भ मिलता है और यदि ठीक नहीं है तो वह बेचारा पेशाब आदि के द्वारा नाली में बह जाता है । कहाँ तो बड़ा तीसमारखाँ था और कहाँ दुर्गति को प्राप्त हो गया ! ऐसे कई बार यात्राएँ करते-करते ठीक संयोग बनता है तो उसे गर्भ में टिकने का अवसर मिलता है और वह जन्म लेता है । फिर वह अपनी वासना के अनुसार कर्म करता रहता है और नयी-नयी वासनाएँ बनती रहती हैं ।

…तो पशुता और मानवता के संस्कार सबमें हैं । जीव को सत्ता तो ईश्वरीय तत्त्व देता है किंतु वह ईश्वरीय तत्त्व का अनुसंधान नहीं करता तो कभी पशुयोनि में तो कभी मानवयोनि में जाता है तो कभी सज्जनता का पवित्र व्यवहार करके देवयोनि में जाता  है और पुण्य भोगकर पुनः नीचे की योनि में आ जाता है ।

वह सचमुच में भाग्यशाली है…

बड़भागी तो वह है जो अपना ईश्वरीय अंश विकसित करने के लिए ईश्वरीय नाम का आश्रय लेता है, ईश्वर की प्राप्ति के लिए साधना करता है और मानवीयता के सुंदर सेवाकार्य करता है । सेवाकार्य भी वाहवाही के लिए नहीं, स्वर्गप्राप्ति के लिए नहीं वरन् ईश्वरप्राप्ति के लिए ही करता है । भलाई के कार्य करने से अंतरात्मा विकसित होती है और आत्मबल बढ़ता है । ईश्वरीय अंश हमारी सहायता करता है और हमें सत्प्रेरणा देता है । इस प्रकार जो ईश्वरीय अंश को जगाने में लगता है और सतर्क रहता है वही मनुष्यलोक में बुद्धिमान है । वह सचमुच में भाग्यशाली है, जो अपने हृदय में ईश्वरीय अंश को विकसित करके ईश्वरीय सत्प्रेरणा, ईश्वरीय ज्ञान, ईश्वरीय ध्यान और ईश्वरीय शांति पाने के लिए सत्कर्म करता है ।

छोड़ो कुसंग, कुचिंतन, कुवासना और…

घट में है सूझे नहीं लानत ऐसे जिंद ।

तुलसी ऐसे जीव को भयो मोतियाबिंद ।।

सर्वेश्वर, परमेश्वर, परम सुहृद, परम हितैषी, सब घट वासी, जो दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं, पराया नहीं उसका मार्ग छुड़ाकर जो 2 करोड़ वर्ष 84 के चक्कर में भटकावें, गर्भों में अटकावें-लटकावें ऐसे निगुरे लोगों को संत तुलसीदास जी कृपा करके ‘घट में है सूझे नहीं लानत ऐसे जिंद ।…’ – ऐसे वचन बोलते हैं । यह भी तो संत की कृपा है ! सगुरों-श्रद्धालुओं को तुच्छ माननेवाले निगुरे लोग अपने तुच्छ भविष्य का निर्माण करते हैं । उनको तुलसीदास जी लानत दे के समझाते हैं । श्रीकृष्ण ऐसों को ‘नराधमाः, विमूढाः, आसुरं भावमाश्रिताः’ आदि वचन कहकर समझाते हैं और आत्मज्ञानी महापुरुषों की महिमा गाते हैं कि ‘भक्त निष्पाप हैं, उदार हैं और उनमें ज्ञानी सर्वोपरि हैं – मेरा ही स्वरूप हैं ।’ गीता में, रामायण में आता है । अतः ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों का सत्संग-सान्निध्य लाभ लेकर, सेवाकार्य करके अपने को तुलसीदास जी, श्रीकृष्ण और कबीर जी की नजरों में ऊँचा उठाओ । करो हिम्मत ! छोड़ो कुसंग, कुचिंतन, कुवासना और करो सुकर्म, सुसंग और परम श्रेष्ठ परमात्मप्राप्ति का इरादा पक्का !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 4-6 अंक 349

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स्वस्थ जीवन व ध्यान-भजन में उन्नति हेतु


एक व्यक्ति एक संत के पास आया और बोलाः ″महाराज ! मैं भगवान का भजन ठीक से नहीं कर पाता ।″ संत ने कहाः ″पेट पर ध्यान दो ।″ फिर दूसरा व्यक्ति आया और बोलाः ″मेरा अपने मन पर काबू नहीं है ।″ संत बोलेः ″पेट पर ध्यान दो ।″ तीसरा व्यक्ति आया और बोलाः ″मैं प्रायः बीमार रहता हूँ ।″ तब भी संत ने यही कहा कि ″पेट पर ध्यान दो ।″

जिह्वा के गुलाम न बनकर सात्त्विक, ताजा आहार ही लेना, भूख से थोड़ा कम खाना, तथा पेट साफ रखना – यह स्वस्थ जीवन के लिए तो जरूरी है ही, साथ ही ध्यान-भजन में मन लगने व शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी अत्यावश्यक है । कहा भी गया हैः

पेट सही तो सब सही, पेट खराब तो सब खराब ।

कम खाओ, गम खाओ ( धैर्य रखो )। पेट पर ध्यान दो ।

लंघन अर्थात् उपवास स्वास्थ्य का परम हितैषी एवं रोगी का परम मित्र है । वाग्भट्ट जी ने इसे परम औषध कहा हैः ‘लङ्घनं परमऔषधम् ।’

अष्टांगहृदय ( सूत्रस्थानः 2.19 ) में आता हैः जीर्णे मितं चाद्यान्न । पहले किये हुए भोजन के पच जाने के पश्चात जो हितकर भोजन हो उसे भूख से थोड़ी कम मात्रा में खायें ।’ यह स्वास्थ्य का मूल मंत्र है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 29 अंक 349

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