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…इससे स्वतः भगवान से प्रेम प्रकट हो जायेगा।


यदि साधक के मन में यह भाव आये कि ‘भगवान को मैं जानता नहीं, मैंने उनको कभी देखा नहीं तो बिना देखे और बिना जानकारी के उन पर कैसे विश्वास किया जाय और उनको कैसे अपना माना जाय ?’ तो अपने मन को समझाना चाहिए कि ‘तू जिन-जिन पर विश्वास करता है और जिनको अपना मानता है, क्या उन सबको जानता है ?’ विचार करने पर मालूम होगा कि नहीं जानता तो भी विश्वास करता है और उनको अपना मानता है । जिनको भली-भाँति जान लेने के बाद न तो वे विश्वास करने योग्य हैं और न वे किसी प्रकार भी अपने हैं,  उनमें जो विश्वास तथा अपनापन है वह तभी तक है जब तक उनकी वास्तविकता का ज्ञान नहीं है परंतु भगवान ऐसे नहीं हैं । उनको अपना मानने वाला और उन पर विश्वास करने वाला मनुष्य जैसे-जैसे उनकी महिमा को जानता है, वैसे-ही-वैसे उसका विश्वास और प्रेम नित्य बढ़ते जाते हैं क्योंकि भगवान विश्वास करने योग्य हैं और सचमुच अपने हैं ।

जिन साधक का ऐसा निश्चय हो कि ‘मैं तो पहले जानकर ही मानूँगा, बिना जाने नहीं मानूँगा ।’ तो उसे चाहिए कि जिन-जिन ( वस्तु-व्यक्ति-परिस्थिति ) पर उसने बिना जाने विश्वास कर लिया है और उन्हें अपना मान रखा है उन सबकी मान्यता को सर्वथा निकाल दे । किसी को बिना जाने न माने । ऐसा करने से भी उसका अपना बनाया हुआ दोष नष्ट होकर चित्त शुद्ध हो जायेगा । तब उस प्राप्त करने योग्य तत्त्व को जानने का सामर्थ्य उसमें आ जायेगा और वह उसे पहले जानकर बाद में मान लेगा । इसमें भी कोई आपत्ति नहीं है । यह भी भगवान को पाने का एक उपाय है ।

जिन्हें ( मित्र संबंधी आदि को ) मनुष्य अपना मान लेता है और जिन पर विश्वास करता है, क्या उनमें स्वाभाविक प्रेम नहीं होता ? क्या उनसे प्रेम करने के लिए मनुष्य को पाठ पढ़ना पड़ता है ? क्या किसी प्रकार का कोई अनुष्ठान करना पड़ता है या कहीं एकांत में आसन लगाकर चिंतन करना पड़ता है ? क्या यह सबका अनुभव नहीं है कि ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता बल्कि अपने-आप अनायास ही प्रत्येक अवस्था में स्वतः प्रेम हो जाता है ।

जो अपने नहीं थे, नहीं हैं और नहीं रहेंगे ऐसों को अपना मानने से उनसे स्वतः प्रेम हो जाता है तो जो पहले थे, अब भी अपना आपा हैं और बाद में भी रहेंगे ऐसे अपने परमात्मदेव को अपना मानने से क्या उनसे स्वतः प्रेम नहीं होगा ? बिल्कुल हो जायेगा और हमारा बेड़ा पार भी करा देगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2022, पृष्ठ संख्या 10 अंक 350

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असली सुख-शांति कहाँ है ? – पूज्य बापू जी


शांति के लिए लोग भजन, तप, उपवास, देश-परदेश की यात्राएँ आदि सब करते हैं । मेरा अमेरिका में व्हाइट हाउस के नजदीक कहीं जाना हुआ था । तो एक व्यक्ति आकर मिला, मेरे को बोलाः ″स्वामी जी ! You are an Indian? ( क्या आप भारतीय हैं ? )″

मैंने कहाः ″हाँ, आप भी तो भारतीय लगते हैं ।″ मैंने जानबूझकर उससे अपनी राष्ट्रभाषा में बात की ।

बोलाः ″हाँ ! I am also Indian. ( मैं भी भारतीय हूँ । )″

मैंने कहाः ″अच्छा, तो भारत में कहाँ रहते थे आप ?″

″I was Income Tax commissioner in Ahmedabad. ( मैं अहमदाबाद में आयकर आयुक्त था । )″

″अच्छा, बढ़िया । इधर कैसे आना हुआ ?″

″मैं वर्ल्ड टूर करने को निकला हूँ ।″

″तुम्हारा वर्ल्ड टूर का हेतु क्या है ?″

″I want peace, only peace. मैं बस शांति चाहता हूँ इसलिए वर्ल्ड टूर करने को निकला हूँ । अभी-अभी मेरा रिटायरमेंट हुआ है ।″

अब मैं उसको कैसे कहूँ कि तुम्हारा दुर्भाग्य है ! मैंने कहाः ″मेरे बड़े दुर्भाग्य रहे कि तुम इनकम टैक्स कमिश्नर रहे, हमारे आश्रम और तुम्हारे ऑफिस के बीच बस 8-9 कि.मी. का अंतर है और आपको आत्मशांति के लिए इतनी दूर वर्ल्ड टूर करना पड़ता है, यह बड़ा आश्चर्य है !″ शांति के लिए वर्ल्ड टूर ! नारायण… नारायण… ! शांति के लिए वर्ल्ड टूर की जरूरत नहीं, केवल हृदय के टूर की जरूरत है और हृदय का टूर कराने वाला कोई मिल जाय तो फिर देर कितनी होती है !

अक्ल नकल नहीं चाहिए हमको पागलपन दरकार ।

छोड़ पुवाड़े ( बखेड़े ) झगड़े सारे, गोता वहदत ( एक अद्वैत तत्त्व में ) अंदर मार ।।

लाख उपाय कर ले प्यारे ! कदे ( कभी भी ) न मिलसी यार ।

बेखुद ( अहंकाररहित ) हो जा देख तमाशा, आपे खुद दिलदार ( प्रेमास्पद ) ।।

लाख उपाय वर्ल्ड टूर के कर लें, संग्रह कर लें, पद-प्रतिष्ठा के कर लें लेकिन असली सुख और असली शांति नहीं मिलेगी । बेखुद हो जा, देख तमाशा… अपनी खुदी ( अहं ) को खो दे उस गुरु-तत्त्व में, आत्म-तत्त्व में, फिर तमाशा देख तो आनंद-ही-आनंद है ! मौज ही मौज है ! मंगल-ही-मंगल है ! कल्याण-ही-कल्याण है ! चाहे वर्ल्ड टूर करो, चाहे ब्रह्मांड का टूर करो । ये टूर आरम्भ में तो उत्साह देंगे – टूरवाले भागेंगे, यह देखेंगे – वह देखेंगे और अंत में थककर आयेंगे ।

शादी करके युवक-युवती आये बोले कि ″हनीमून करने जा रहे हैं ।″

पूछाः ″कहाँ जाना है ?″

बोलेः ″कश्मीर ।″

मैंने सोचा कि ‘ऐ कश्मीर ! तेरे पास कौन-सा सुख है, मैं जाँचने को आता हूँ ।’ मेरा एक इंजीनियर शिष्य हवाई जहाजों में नौकरी करता था, उसके साथ योजना बनायी और डेढ़ दिन के लिए चुपचाप चले गये कश्मीर में जाँचने कि सुख कहाँ रहता है ? डल झील में गये, इधर गये, उधर गये, सब जगह घूमे, नाव-वाव में भी बैठकर देखा । सैलानियोंवाली नाव में बैठे तो उसमें जो सैर कराने वाला व्यक्ति था वह बोलाः ″बाबा जी ! मेरा हाथ देखो न ! मेरे भाग्य में मुंबई देखना लिखा है क्या ? बस एक बार मुंबई देख लूँ ।″

मैंने कहाः ″धत् तेरे की… मुंबई वाले इधर सुख खोज रहे हैं और इधरवाला मुंबई देखना चाहता है ।″

यह बड़े-में-बड़ी गलती है कि लोग मानते हैं- ‘हम जहाँ हैं वहाँ सुख नहीं है, और कहीं  जायेंगे तब सुख होगा । हम जैसे हैं वैसे में सुख नहीं है, और कुछ बनेंगे तब सुख होगा ।…’ नहीं, तुम जहाँ हो, जैसे हो, जिस समय हो उसी समय सुखसागर तुम्हारे चित्त में है । जो सच्चा प्रेमी है वह कहीं जाकर, कुछ पा के सुखी होने की भ्रांति में नहीं पड़ता है । वह तो दिले तस्वीर है यार ! जब भी गर्दन झुका ली, मुलाकात कर ली । ॐ गुरु ॐ ॐ… ॐ गुरु… ॐ आनंद… ॐ मस्ती… ॐ स्वास्थ्य… हरि ॐ ॐ ॐ… ॐ माधुर्य… ॐ ॐ आनंद…

आनंद तेरा आत्मा है, प्रसन्नता तेरा आत्मा है, गुरुकृपा तेरे साथ है और फिर तू सुख के लिए बाहर भटकेगा ! कब तक ? अपने असली घर में आ । शरीर का घर तो चारदीवारी है और तेरा घर तो दिलबर का द्वार है । हरि ॐ ॐ…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2022, पृष्ठ संख्या 5, 6 अंक 350

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कर्मयोग से विदेहमुक्ति तक की यात्रा – संत भोले बाबा


ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करने का नाम ‘कर्मयोग’ है । निष्काम कर्मों का अनुष्ठान करने से अंतःकरण शुद्ध हो जाता है । अंतःकरण शुद्ध होने से ( सद्गुरु का वेदांत-उपदेश हृदय में शीघ्र ठहर कर ) आत्मा का ज्ञान हो जाता है । आत्मज्ञान होने से भोगों की आसक्ति निवृत्त जाती है और भोगों की आसक्ति निवृत्त होने से वासनाओं की निवृत्ति हो जाती है । वासनाओं की निवृत्ति होने से उस अधिकारी साधक का संसार निवृत्त हो जाता है । इससे वह साधक एक ईश्वर की शरण लेता है और ईश्वर की शरण लेने से सब धर्म-अधर्म छूट जाते हैं क्योंकि समस्त धर्म देह के हैं, आत्मा का कोई धर्म नहीं है । सभी धर्म-अधर्मों के छूट जाने से जिस प्रकार आँख सर्वत्र रूप को देखती है, उसी प्रकार अधिकारी की बुद्धि की वृत्ति सर्वत्र ब्रह्म – आत्मा को ही विषय करती है । ऐसा पुरुष जीता हुआ ही निरंतर मुक्ति के सुख का अनुभव करता है, जीवन्मुक्त हो जाता है और शरीर त्यागने के बाद विदेहमुक्ति के सुख का अनुभव करता है ।

समय बड़ा कीमती है और वह बीतता जा रहा है… जो मन के स्फुरण की धारा में बहते जाते हैं वे साधारण जीव हैं लेकिन जो स्फुरण की धारा से बचते हैं, किनारे लगने का प्रयत्न करते हैं उनको ‘साधक’ कहा जाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 16 अंक 349

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