श्रमरहित जीवन,
पराश्रयरहित जीवन जीवनदाता से मिलने में सफल हो जाता है । भोग में श्रम है, संसार
के सुखों में श्रम है, पराधीनता है किंतु परमात्मसुख में श्रम नहीं है, पराधीनता
नहीं है । श्रमरहित अवस्था विश्राम की होती है । श्रीकृष्ण 70 साल के हुए । एकाएक
अनजान जगह पर चले गये । किसी को पता नहीं चले इस तरह घोर अंगिरस ऋषि के आश्रम में
अज्ञात रहे ।
एकांत में साधारण व्यक्ति
रहेगा तो खायेगा, पियेगा, सोयेगा, आलसी हो जायेगा । लेकिन श्रीकृष्ण जैसे और दूसरे
आत्मज्ञानी महापुरुषों के शिष्य एकांत में रहेंगे तो श्रमरहित विश्रांति पायेंगे –
जहाँ संकल्प-विकल्प नहीं, निद्रा नहीं, आलस्य नहीं, देखने-सूँघने, चखने का विकारी
सुख नहीं, शांत आत्मा…. श्वास अंदर जाय तो भगवन्नाम, बाहर आये तो गिनती… ऐसा
करते-करते फिर गिनती भी छूट जायेगी, निःसंकल्प अवस्था… यह ब्राह्मी स्थिति है,
यह ब्रह्म-परमात्मा से मिलने की स्थिति है ।
मनुष्य जीवन
ब्रह्म-परमात्मा से मिलने के लिए ही हुआ है । बाहर से जिनसे भी मिलोगे, बिछुड़ना
पड़ेगा और श्रम होगा, श्रम के बिना, प्रवृत्ति के बिना मन नहीं मानता है तो
प्रवृत्ति करें किंतु परहित के लिए प्रवृत्ति करें । यह शरीर भी पराया है, अपना
नहीं है, छोड़ना पड़ेगा । इसको खिलाओ-पिलाओ, नहलाओ-धुलाओ, घुमाओ ताकि श्रमरहित
साधन में मदद करे, काम आ जाय ।
जो न तरै भव सागर नर समाज
अस1 पाइ ।
सो कृत निंदक मंदमति
आत्माहन गति जाइ ।।
1 ऐसे ( मानव शरीर,
सद्गुरु एवं प्रभुकृपा रूपी साधन )
जो मनुष्य भवसागर से तरने
का प्रयास नहीं करता, जन्म-मरण के चक्र से छूटने का प्रयास नहीं करता वह बाहर
दुनियादारी में भले कितना भी चतुर है पर वह कृतघ्न है, निंदनीय है, ईश्वर की कृपा
का दुरुपयोग करने वाला है, मंदमति है, छोटी-छोटी चीजों में बुद्धि को, मन को, शरीर
को और समय को खत्म कर रहा है । ऐसा आत्म हत्यारा अधोगति को जाने वाला होता है ।
एक बार राजा भोज ने हीरा
परखने वाले एक जौहरी को इनाम देने की आज्ञा दी कि ″मंत्री ! इस जौहरी ने हीरे को परखने में बेजोड़ चमत्कार दिखाया है । तुम्हें जो भी
उचित लगे इसको इनाम दे दो ।″
मंत्री ने कहाः ″मुझे तो उचित लगता है कि इसकी टाल पर सात जूते मार दें ! एक तो मनुष्य जन्म मिलना कठिन है, उसमें भी इतनी बढ़िया बुद्धि ! इस बुद्धि को मूर्ख ने पत्थर परखने में लगा दिया ! यह पत्थर परखने
की विद्या क्या इसे जन्म-मरण से छुड़ायेगी ?
संसार से तरना बड़ा आसान
है, दुःखरहित परमात्मा में श्रमरहित होना आसान है परंतु आदत पड़ गयी दुःखालय संसार
में सुख खोजने की । फिर कभी कोई आपत्ति, कभी कोई चिंता, कभी कोई तनाव, कभी कोई भय
और अंत में न जाने कितनी-कितनी चिंताएँ, वासनाएँ लेकर बेचारा मर जाता है… यह भी
उसी रास्ते जा रहा है । अपना आत्मा-परमात्मा जो निकट-से-निकट है उसको तो परखा
नहीं, पहचाना नहीं ।
बुद्धिमान जौहरी ने अपनी
गलती स्वीकार की और राजा ने भी मंत्री की बुद्धि व सूझबूझ की खूब सराहना की ।
अकेले आये थे, अकेले जाना
पड़ेगा तो अकेले बैठने का अभ्यास करो । उस एक ( परमात्मा ) में ही वृत्तियों का
अंत करो, यही अकेले बैठना है, एकांत है । कितना पसारा करोगे ? अपने शरीर के
लिए, दो रोटी के लिए कितना करोगे ? अपने लिए सुख लेने की भावना से करोगे तो बँध
जाओगे । ‘पत्नी से सुख लूँ, पति से सुख लूँ, रुपयों
पैसों से सुख लूँ, घूमने से सुख लूँ… ‘ तो बाहर से सुख लेने
वाला परिश्रम, थकान और दुःख का भागी बनता है । बाहर कुछ किये बिना नहीं रहा जाय तो
बाहर दूसरे के तन की, मन की, बुद्धि की, अपने शरीर की थोड़ी सेवा कर लो पर इनसे
मजा मत भोगो । मजा अपने आत्मा में है, शांत होने में है, भगवच्चिंतन करते-करते
भगवन्मयी वृत्ति जगाने में है । श्रमरहित का अर्थ आलस्य नहीं, निद्रा नहीं, सुन्न
होना नहीं, संकल्प-विकल्प नहीं, देखने, सूँघने, चखने का विकारी सुख नहीं, श्रमरहित
का अर्थ है भगवदाकार वृत्ति अर्थात् ब्रह्माकार वृत्ति ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी
2022, पृष्ठ संख्या 20, 26 अंक 350
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