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सद्गुरु-वचनों में निष्ठा कितना ऊँचा बनाती है – पूज्य बापू जी


विश्वास बहुत बड़ी चीज है । विश्वासो फलदायकः । जैसा विश्वास और जैसी श्रद्धा होगी, वैसा ही फल प्राप्त होगा । नामदेव जी की निष्ठा थी तो कुत्ते में से भगवान को प्रकट होना पड़ा । निष्ठा थी धन्ना जाट की तो सिलबट्टे में से ठाकुर जी प्रकट हो गये । शबरी की भी अपने गुरु के वचनों में दृढ़ श्रद्धा, दृढ़ निष्ठा और दृढ़ भक्ति थी तो श्रीराम जी शबरी का द्वार पूछते-पूछते आये और उन्होंने शबरी के जूठे बेर भी खाये ।

पम्पा सरोवर के इर्द-गिर्द तपस्वी लोग तपस्या करते थे । वे श्री राम जी के लिए व्रत रख के बैठे थे । उन्होंने सुना कि रामजी हमारे पास पहले नहीं पधारे, उस भीलन के यहाँ गये हैं तो वे सारे ऋषि-मुनि, यति-योगी, तपस्वी भागे-भागे आये ।

श्रीराम जी ने कहाः ″ऋषिवरो ! इतनी सुबह हो गयी है और दिन चढ़ गया है फिर भी आपकी वेशभूषा से लगता है कि आपने नहाया नहीं है । साधु तो सवेरे-सवेरे नहाते हैं फिर तिलक करते हैं किन्तु न आपका नहाना हुआ है न साधु का श्रृंगार है, क्या कारण है ?″

वे ऋषि-मुनि बोलेः ″भगवन् ! क्या बतायें, पम्पा सरोवर के पास मतंग ऋषि के आश्रम में शबरी आयी थी । कुछ नये-नये साधुओं ने कहा कि यह तो अंत्यज है, छोटी जाति की है, पम्पा सरोवर में पानी भरने जाती है, हमारा सरोवर अपवित्र करती है । छोटे-बड़े विचारवाले सब जगह होते हैं । तो कुछ छोटे विचारवालों ने शबरी का अनादर कर दिया, तब से पम्पा सरोवर सूखने लग गया है । अब तो खड्डे में थोड़ा-सा पानी है लेकिन पानी क्या है, वह तो मवाद और रक्त का दुर्गंध लिये हुए है । वह हमारे आचमन के योग्य भी नहीं रहा, स्नान, अर्घ्य और पूजा के योग्य भी नहीं रहा, बड़ी समस्या है । आप चलो और अपना पवित्र, कोमल चरण रखो, जल की अंजलि भरकर संकल्प डालो तो कहीं कुछ हो सकता है ।″

राम जी बोलते हैं- ″यह सामर्थ्य मुझमें नहीं है कि शबरी के अनादर से जो प्रकृति कोपायमान हुई है और पम्पा सरोवर का पानी रक्त और मवाद में बदल गया है उसको मैं शुद्ध कर सकूँ । मैं अपना अपमान तो सह लेता हूँ किंतु मेरे भक्त का अपमान मेरे से सहा नहीं जाता । मेरा कोई मान करे तो मुझे इतना आनंद नहीं आता जितना मेरे भक्त और संत के मान से मुझे आनंद आता है ।

हाँ, एक उपाय है । अगर शबरी भीलन राजी हो जाय और दायें पैर का अँगूठा पम्पा सरोवर में डाले तो सरोवर पवित्र हो सकता है ।″

शबरी की कैसी निष्ठा थी सद्गुरु वचनों में, श्रीराम जी में और उसी निष्ठा के प्रभाव से राम जी ने शबरी को कितना ऊँचा कर दिया !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2022, पृष्ठ संख्या 21 अंक 350

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परिप्रश्नेन


प्रश्नः मन एकाग्र नहीं होता है तो क्या करें ?

पूज्य बापू जीः तुम्हारा मन एकाग्र नहीं होता है तो सबका हो गया क्या ? मन एकाग्र नहीं होता तो अभ्यास करना चाहिए । भगवान के, सद्गुरु, स्वस्तिक अथवा ॐकार के सामने बैठकर एकटक देखने का अभ्यास करो । मन इधर-उधर जाय तो फिर से उसे मोड़कर वहीं लगाओ । कभी-कभी चन्द्रमा की ओर देखते हुए आँखें मिचकाओ, उसको एकटक देखो । कभी श्वासोच्छ्वास को गिनो । श्वास अंदर जाता है तो ‘शांति’, बाहर आता है तो ‘1’… अंदर जाता है तो ‘ॐ’, बाहर आता है तो ‘2’… अंदर जाता है तो ‘आनंद’, बाहर आता है तो ‘3’… ऐसे 54 या 108 तक गिनती तक करो । मन कुछ अंश में एकाग्र होगा, मजा भी आयेगा और शरीर की थकान भी मिटेगी ।

प्रश्नः कर्तव्य क्या है ?

पूज्य बापू जीः ईश्वर में स्थिर होना और औरों को स्थिर करना – यह कर्तव्य है । बाकी का सब बेवकूफी है । आप ईश्वर में स्थिर हो जाओ फिर दूसरों को करा दो – यह कर्तव्य है । तो सब तो सत्संग नहीं करेंगे । नहीं-नहीं, आप जो भी काम करें वह ईश्वर में स्थिर होने के लिए करें तो उससे आप भी स्थिर होते जायेंगे और दूसरे को भी सहायक हो जायेंगे न ! कर्तव्य से चूका कि धड़ाक… दुःख चालू । ईश्वर के विचार से, आत्मविचार से जरा-सा नीचे हटे कि मन पटक देगा । जो अपनी शांति सँभाल नहीं सकता, अपनी प्रसन्नता सँभाल नहीं सकता, अपना कर्तव्य सँभाल नहीं सकता वह तो जीते-जी मरा हुआ है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2022, पृष्ठ संख्या 34 अंक 350

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…तो जीवनदाता तुम्हारा आत्मा प्रकट हो जायेगा – पूज्य बापू जी


जीवन में विवेक का आदर होने से स्वभाव में असंगता आयेगी । स्वार्थ से संगदोष लगता है और विवेक से संग में रहते हुए भी असंगता आती है । जैसे हवा सबसे मिलती जुलती है फिर भी आकाश में देखो असंग है । आकाश सबसे मिला है फिर भी असंग है, सूर्य सबसे मिला है फिर भी असंग है, ऐसे ही विवेक के आदर से तुम सबसे मिलते हुए भी असंग रहोगे । वासना के कारण संगदोष लगता है लेकिन विवेक से तुम मिले तो संगदोष नहीं रहेगा, मिलते हुए भी तुम असंग हो । वासनावान दूसरे को बंधन में रखता है और विवेकी दूसरों की मुक्ति और अपनी मुक्ति का रास्ता साफ कर लेता है ।

जो अपना नहीं है उसे हम अपना मानते हैं । प्रेम सदा विशालता दिखाता है । जिसके प्रति तुम प्रेम रखते हो उसको संकीर्ण क्यों बनाना ? जिसके प्रति तुम सहानुभूति रखते हो उसको उदारता भी तो दो । ‘तू मेरा दोस्त है तो अन्य किसी से बोल मत, तू मेरा मित्र है तो दूसरे किसी से मिल मत…’ यह संकीर्णता है । ‘तू मेरा मित्र है तो तेरी मन की प्रसन्नता देखकर मैं प्रसन्न होऊँगा, तेरी विशालता देख के मैं विशाल-हृदय होऊँगा…’ ऐसा अगर विवेक आ जाय तो संसार के तमाम झगड़े, तमाम मुसीबतें कम हो जायें ।

जिस व्यक्ति के जीवन में विवेक होता है वह जब छोटी-छोटी चीजों में अपना विवेक बेचता नहीं, बड़ी-बड़ी चीजों में भी विवेक नहीं बेचता तब बड़े-में-बड़ा पद और बड़े-में-बड़ा जो परमात्मा है वह उसको देर-सवेर मिल ही जाता है । इसलिए अपने विवेक का आदर करना चाहिए । जो विवेक बेचकर बरबादी के जीवन में जाते हैं, शुरुआत में उनको मजा आता है – डिस्को में मजा आ जाता है, ‘रॉक एंड रोल’ में मजा आ जाता है, काम विकार, परस्त्रीगमन आदि में मजा आ जाता है किंतु अंत में अनंत-अनंत जन्मों तक पेड़-पौधों की योनियों, राक्षसी योनि, प्रेत की योनि, भैंसों की योनियों में दुःख भोगना पड़ता है । एक अल्प ( क्षणभंगुर ) मनुष्य जन्म, उसमें अगर विवेक का सहारा ले ले तो मनुष्य अनंत ब्रह्मांडनायक ईश्वर से मिल सकता है और अविवेक की शरण जाता है तो अनंत काल तक गर्भाग्नि में पकने की एवं जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि की पीड़ा सहता-सहता, दुःख सहता-सहता अपने लिए, देश के लिए, विश्व के लिए अभिशाप बन जाता है । और जो विवेक का सहारा लेता है, ब्रह्मजिज्ञासा का सहारा लेता है वह अपने लिए, कुटुम्ब के लिए, देश के लिए, विश्व के लिए, अरे ! विश्वेश्वर के लिए भी अनुकूल हो जाता है । तो आप कृपा करके अपने प्रति न्याय और दूसरों के प्रति उदारता का व्यवहार करें । इससे आपके जीवन में असंगता आ जायेगी ।

असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा । ( गीताः 15.3 )

गीता ने कहाः अपने असंग स्वभावरूप दृढ़ शस्त्र से मोह-माया का छेदन करो ।

अपनी गलती को आप निकालने में जब तक तत्पर नहीं होंगे तब तक आपकी उन्नति नहीं होगी । देवी-देवता, गुरु, संत भी आपकी उन्नति तब करेंगे जब आप अपने जीवन में उतारेंगे । आपके पास विवेक होगा तो उनका परामर्श आप अपना बना लेंगे । संत महात्मा और मजहब तुमको परामर्श दे सकते हैं, मोक्ष नहीं दे सकते हैं । मोक्ष तो वे दें पर उसमें आपके विवेक की जरूरत है । शिक्षक आपको पाठ पढ़ा सकता है पर याद तो तुम्हें ही करना होगा । शिक्षक बोर्ड पर लिख सकता है किंतु स्मृति में लिखने की जवाबदारी तुम्हारी होती है । ऐसे ही विवेक का आदर करके जीवन जीने की जवाबदारी तुम्हारी है । ऐसी जवाबदारी मान लोगे तो जीवनदाता तुम्हारा आत्मा प्रकट हो जायेगा ।

अर्जुन ने मान ली थी यह बात और युद्ध के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण के वचनों को मानकर आत्मसात् किया था । राजा रहूगण ने जड़भरत जी के वचनों को, राजा जनक ने अष्टावक्र जी के वचनों को, शुकदेव जी ने राजा जनक के वचनों को, रामकृष्ण परमहंस जी ने तोतापुरी जी के वचनों को आत्मसात् किया और हमने भी अपने सद्गुरु भगवत्पाद पूज्य लीलाशाह जी बापू के वचनों को आत्मसात् किया और परमात्मप्राप्ति कर ली । यह कठिन नहीं है, केवल विवेक का आदर करो, ब्रह्मवेत्ता संत-सद्गुरु के वचनों को जीवन में उतारो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2022, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 350

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