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मैं वर्षगाँठ मनाने के पक्ष में नहीं भी हूँ और हूँ भी… पूज्य बापू जी


वर्षभर का हिसाब-किताब करने का दिन

वर्षगाँठ जीवन के बीते हुए वर्ष के आखिरी क्षणों और नये वर्ष की शुरुआत की संधि को बोलते हैं । वर्षगाँठ यह संदेशा लाती है कि ‘जो जिंदगी के दिन बीत गये वे तो चले गये, अब तुम्हारे पास हैं कितने दिन ?’

पहले के जमाने में नल नहीं थे । कुएँ में रस्सी के सहारे बाल्टी या लोटा डालते थे । रस्सी का हाथभर टुकड़ा हाथ में रह जाता था, बाकी सारी रस्सी और लोटा या बाल्टी कुएँ में पहुँच जाते थे । उस हाथभर रस्सी से गयी हुई रस्सी को खींचकर बाल्टी खींच लेते थे और पानी पीते, प्यास मिटाते थे । ऐसे ही जिंदगी की आयुरूपी काफी रस्सी खत्म हो गयी, काल के कुएँ में चली गयी, अब बाकी का जो छोर बचा है उसको सँभाल लें तो बीती हुई जिंदगी सार्थक हो जायेगी । अगर वह हाथ भर रस्सी ( शेष आयु ) हाथ से गयी तो सब गया, जीवन प्यासा ही रह गया ।

जीवन मिला है प्यास बुझाने के लिए और प्यास क्या है ? कि ‘मैं सदा सुखी रहूँ’ – यह मनुष्यमात्र की माँग है, प्यास है क्योंकि जो सदा रहने वाला तत्त्व है उससे आपका सनातन संबंध है ।

आदि सचु जुगादि सचु ।।

है भी सचु नानक होसी भी सचु ।।

शरीर के साथ आपका संबंध सदा नहीं है । कुछ वर्ष पहले अपना शरीर अपने पास नहीं था और कुछ वर्ष बाद यह नहीं रहेगा । यह छीज रहा ( क्षीण हो रहा ) है । तो वर्षगाँठ याद दिलाती है कि इतने वर्ष गये, अब आयुरूपी रस्सी का जो थोड़ा-सा टुकड़ा है उसको हम सँभालें, उसका सदुपयोग करें । जैसे व्यापारी दीवाली के दिनों में बहीखाता देखता है कि ‘किस चीज के व्यापार में फायदा हुआ और कौन-सी चीज पड़ी रही ?’ ऐसे ही वर्षभर में कौन-से कर्म करने से हम ईश्वर के, सच्चे-सुख के, चैतन्य के, ज्ञान के, आनंद के नजदीक गये और हमारे हृदय में कितना उस परमेश्वर-तत्त्व का अवतरण हुआ इसका हिसाब लगायें और आने वाले वर्ष में क्या-क्या  हम करेंगे यह निर्णय लें ।

जीवन की दिशा तय करने का संधिकाल

जीवन में दिशा होनी चाहिए । जीवन की दिशा हर वर्ष के लिए तय करने का जो संधिकाल है उसको बोलते हैं ‘वर्षगाँठ’ । यह तो परदेशियों के रीति-रिवाजों से प्रभावित होने से बुद्धि में कचरा घुस गया है कि ‘बासी केक काटकर जन्म दिवस मनाओ ।’ भोजन अग्नि पर बनने के 3 घंटे के अंदर खा लिया तो ठीक है, नहीं तो तामसी माना जाता है । वह आपकी बुद्धि व तबीयत को बिगाड़ने वाला होगा । केक कई घंटे पहले बना हुआ होता है और फिर उस पर मोमबत्ती जलाते हैं और फूँक मारते हैं तो फूँक के साथ थूक के कण भी गिरते हैं और अनेक जीवाणु भी केक पर जाते हैं, फिर वही लोगों खिलाते हैं, बोलते हैं- ‘हैप्पी बर्थ डे… हैप्पी बर्थ डे…’ वास्तव में यह रोने का दिन है । पूरा वर्ष कहाँ-कहाँ गया ? अगर अच्छा गया तो शांत होकर उस अच्छे को ( परमात्मा को ) धन्यवाद दो, अगर गलतियों में गया है तो रोकर प्रायश्चित करो कि ‘आने वाला वर्ष मेरा बढ़िया जाय’ और बढ़िया-में-बढ़िया जो परमात्मा है उसके नाते सबसे मिलो ।

इस निमित्त वर्षगाँठ मनाओ तो हम राजी हैं

वास्तव में मैं वर्षगाँठ मनाने के पक्ष में नहीं हूँ और मेरा विरोध भी नहीं है । पक्ष में क्यों नहीं हूँ कि जो पहले नहीं था बाद में नहीं रहेगा उस शरीर को ‘मैं’ मानकर वर्षगाँठ मनाते हैं- हैप्पी बर्थ डे, हैप्पी बर्थ डे… ‘हैप्पी बर्थ डे क्या ? कुछ भी नहीं है । जो पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा उस शरीर के वर्ष मानकर खुशियाँ मना रहे हैं… अरे रोओ कि ‘एक साल और मृत्यु के नजदीक चले गये…’ यह खुशी मनाने का दिन नहीं है । और मेरा विरोध इसलिए नहीं है कि इस निमित्त ( पूज्य बापू जी के अवतरण दिवस के निमित्त ) लाखों करोड़ों साधकों में उत्साह आता है, हजारों साधक लाखों-करोड़ों लोगों की सेवा करने का कुछ निमित्त बना लेते हैं । 1400 से अधिक समितियाँ और 432 आश्रम हैं । अपने-अपने क्षेत्रों में बच्चे और बड़े कीर्तन करते-करते समिति के केन्द्रों पर आते हैं, गरीब गुरबे भी आते हैं । कहीं कोई समिति 200 को तो कोई 500 को तो कोई 2500 या 5000 को भोजन कराती है । सत्संग, साधना, भजन-कीर्तन, ध्यान करा के उत्सव मनाते हैं । कहीं सत्साहित्य बाँटते हैं, सत्संग आयोजन करवाते हैं तो कहीं निःशुल्क शरबत छाछ वितरण केन्द्र खोलते हैं । कहीं साइकिलें देते हैं तो कहीं माइयों को सिलाई की मशीनें देते हैं । कहीं अस्पतालों में मरीजों को फल, औषधि आदि देते हैं तो कहीं बच्चों में नोटबुकें, पेन, पेंसिल आदि बाँटते हैं कि ‘गुरुदेव का जन्मदिवस है ।’ इस प्रकार हजारों बच्चों में अच्छे संस्कार पड़ रहे हैं और बड़ों का जीवन भी उन्नत हो रहा है  तो हम बोलते हैं- ″भाई ! अपने को घाटा भी नहीं है, होने दो कल्याण ।″

इस बहाने समिति के साधकों का, आश्रमवालों का, और साधक-शिष्यों का मन ईश्वर के चिंतन में जाता है । इधर-उधर, देश-परदेश में लोग सत्प्रवृत्ति कर रहे हैं तो इस बात से हम राजी भी हैं । नश्वर समय, नश्वर धन और नश्वर वस्तुओं का सदुपयोग करके शाश्वत उस अकाल पुरुष की यात्रा करते हैं तो हमें विरोध किस बात का ! हम इसमें राजी भी हैं ।

दुर्गुणनाशक है संत-संगति – संत निलोबा जी

संताचा वास जये स्थळीं ।…

…मदमत्सरां उरी नुरे ।।

जिस स्थान पर ब्रह्मनिष्ठ संतों का वास होता है वहाँ पाप नहीं रहते, वे नष्ट हो जाते हैं । काम-क्रोध का नाश हो जाता है, ममता-माया का बुरा हाल हो जाता है । तृष्णा और कल्पना का गाँव खाली हो जाता है और संदेह के लिए कोई जगह नहीं रहती । संतों की संगति होने पर वे अहंकार और मद मत्सर को हमारे अंतःकरण में रहने नहीं देते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 11, 12, 9 अंक 352

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भगवान किन पर नाराज और किन पर प्रसन्न होते हैं ? – पूज्य बापू जी


जो धनवान होकर भी सत्कर्म, दान नहीं करता तथा जो विद्वान, बुद्धिमान हो के भी दुष्ट कर्म करता है उस पर भगवान नाराज होते हैं और जो बड़ी उम्र होने पर भी संसार की आसक्ति नहीं छोड़ता उस पर भी भगवान नाराज होते हैं ।

जो भगवान को अपना मानता है, अपने को भगवान का मानता है और प्रीतिपूर्वक भगवान और सद्गुरु को देखता है उस पर भगवान प्रसन्न होते हैं । जैसे ध्रुव पर प्रसन्न हो गये… प्रह्लाद पर प्रसन्न हो गये… समर्थ के भाई बालक रामी रामदास पर प्रसन्न हो गये… लीलाराम जी पर प्रसन्न हो गये तो वे भगवत्पाद लीलाशाह जी प्रभु बन गये । जिन पर सद्गुरु और भगवान प्रसन्न हो गये, समझो उनको सत्संग मिलेगा और जिनको सत्संग मिला उनको समझो देर-सवेर भगवान मिल जायेंगे । ॐ आनंद… छुपा हुआ है, केवल अनुभव में नहीं है… ॐ ॐ ॐ… सत्संग से उसका अपने में ही अनुभव हो जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 19 अंक 352

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तब से यमराज का विभाग कभी खतरे में नहीं पड़ा – पूज्य बापू जी


महापुरुषों के द्वारा मैंने एक कथा सुनी थी कि पृथ्वी पर कुछ ब्रह्मवेत्ता महापुरुष आ गये, जिनका दर्शन करके लोग खुशहाल हो जाते थे, जिनके वचन सुनकर लोगों के कान पावन हो जाते थे, जिनके वचन मनन करने से लोगों का मन पवित्र हो जाता था, जिनके ज्ञान में गोता मारने से लोगों की बुद्धि बलवती हो जाती थी, तेजस्वी हो जाती थी । लोग पुण्यात्मा, इन्द्रिय संयमी होते थे । संयम करके सूक्ष्म शक्तियों का विकास करते थे तो लोग तो तर जाते थे, साथ ही वे जिनके कुल में जन्मते थे उनका कुल भी तर जाता था, उनके नरक आदि में पड़े हुए जो पूर्वज थे वे भी तर रहे थे तो नरक खाली होने लगा । नये लोग नरक में जायें नहीं और पुराने नारकीय जीव जो नरकों में सड़ रहे थे, वे भी ब्रह्मवेत्ताओं का सम्पर्क करने वालों के प्रभाव से मुक्त हो रहे थे । नरक एकदम खाली हो गया । यमराज चिंतित हुए कि ‘हमारे विभाग के सब लोग जम्हाइयाँ खा रहे हैं, उनके पास कोई काम नहीं है । मेरा विभाग बंद होने को जा रहा है ।

अपना विभाग चलता है तो शोभा पाता है व्यक्ति, विभाग अगर मंदा हो जाय, ग्राहकी नहीं रहे तो फिर व्यक्ति जरा चिंतित होता है ।

तो चिंतित यमराज ब्रह्मा जी के पास गये, बोलेः ″ब्रह्मन् ! मेरे नरक में नये कोई पापी आते नहीं और पुराने जो हैं उनके मृत्युलोक में जो पुत्र परिवार हैं, वे ब्रह्मज्ञानियों का सत्संग सुन के इतने पुण्यात्मा हो जाते हैं कि उनके पुण्यप्रभाव से नरक से वे पूर्वज सब स्वर्ग में चले जाते हैं, मेरा विभाग खतरे में है, आप कृपा करके कोई उपाय बताइये । कम-से-कम मेरा काम तो चलता रहे ।

ब्रह्माजी ने कमंडल से पानी लेकर पद्मासन बाँधा और जहाँ से योगेश्वरों का योग सिद्ध होता है, जिसमें भगवान शिव जी, भगवान नारायण और ब्रह्मज्ञानी महापुरुष रमण करते हैं उसी आत्मा-परमात्मा के सहज स्वभाव में एक क्षण के लिए रमण करके उपाय ले आये । उपाय यह लाये कि जो ब्रह्मज्ञानियों का सत्संग सुनेगा वह संयमी होगा, भक्तिवाला होगा, पुण्यात्मा होगा, उसका कुल तो तरेगा लेकिन अब से पृथ्वी पर जब भी कोई ब्रह्मज्ञानी आयेंगे तो कोई-न-कोई निंदक लोग पैदा हुआ करेंगे । महापुरुषों की निंदा करके वे लोग भी डूबेंगे और उनके सम्पर्क में आने वाले भी डूबेंगे, वे सब तुम्हारे पास आयेंगे । तुम्हारा विभाग चलता रहेगा । तब से आज तक वह विभाग बंद नहीं हुआ, बढ़ता ही चला गया ।

वसिष्ठ जी कहते हैं- ″ हे राम जी ! मैं बाजार से गुजरता हूँ तो मूर्ख लोग मेरे लिए क्या-क्या बकवास करते हैं, क्या-क्या अफवाह फैलाते हैं, वह सब मुझे पता है लेकिन मेरा दयालु स्वभाव है ।″

क्योंकि यमराज का विभाग चालू रखना है । संत कबीर जी के लिए लोग कुछ-का-कुछ बोलते थे, ऋषि दयानंद को लोगों ने 22 बार जहर दिया, और भी न जाने क्या-क्या बोला, क्या-क्या विरोध-प्रदर्शन किये और क्या-क्या किया, वेश्याओं को भेजा और क्या-क्या गंदी अफवाहें फैलायीं । विवेकानंद जी के लिए, रामकृष्ण जी के लिए, रामतीर्थ के लिए निंदक कुछ भी बकते थे । बुद्ध के जमाने में बुद्ध के विरोधी थे कबीर जी के जमाने में कबीर जी के विरोधी थे । तो जब-जब भी ब्रह्मवेत्ता आये… चाहे जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य आये हों, चाहे कबीर जी आये हों उनके विरोधी भी हुए हैं, होते ही हैं । चाहे श्रीकृष्ण होकर आ जाय वह ब्रह्म, चाहे राम जी हो के आ जाय फिर भी शकुनि और धोबी जैसे निंदक तो बनते ही हैं क्योंकि यमराज का विभाग चालू रखना है ।

उस विभाग में जो अपने परिवार को भेजना चाहता है वह जरूर संतों की निंदा करे, राम जी के विरुद्ध जाय, श्रीकृष्ण के विरुद्ध जाय… शकुनि जैसे होते रहते थे कि नहीं ?

वह अंधा धृतराष्ट्र बोलता है कि ″यह शक्ति कर्ण ने घटोत्कच पर क्यों लगा दी, वह कृष्ण पर लगाता ।″ जानता है कि कृष्ण क्या हैं, कितना प्रभाव है, कितने उदार हैं, कितने ज्ञानी हैं ! बीच-बीच में तो यूँ भी उछलता है कि ‘अगर मेरे को भी कृष्ण कहे तो मैं भी जरूर आज्ञा पालूँ ।’

फिर भी मोह के कारण सोचता है कि कृष्ण पर शक्ति लगती अर्थात् उससे कृष्ण मर जाते तो अच्छा था ।

तो जब श्रीकृष्ण के जमाने में, श्रीराम जी के जमाने में यमराज का विभाग चालू रहा तो अभी क्या बंद हो गया होगा ! कलियुग है, अभी तो वह विभाग बहुत बड़ा बन गया होगा, सुविधाएँ ज्यादा हुई होंगी, ज्यादा व्यक्ति बैठ सकें ऐसी व्यवस्था हुई होगी । नारायण ! नारायण !!

जब वसिष्ठजी को लोगों ने नहीं छोड़ा, कबीर जी और नानक जी को नहीं छोड़ा, राम जी और श्रीकृष्ण को नहीं छोड़ा तो तुम्हारी कोई निंदा करे तो तुम घबराओ नहीं, सिकुड़ो मत, डरो मत । कोई निंदा करे तो भगवान का रास्ता छोड़ो मत । कोई स्तुति करे तो फूलो मत । यह सब इन्द्रियों का धोखा है । निंदा-स्तुति सब आने जाने वाली चीजें हैं, तुम अपने-आप में लगे रहो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 352

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