आत्मसाक्षात्कारी गुरु के दैवी कार्य में भागीदार होने के लिए सेवा खोज लेना, यह भगवान की कितनी बड़ी कृपा है ! जिनमें श्रद्धा नहीं है उनसे तो श्रद्धावाले हजार गुने अच्छे हैं और श्रद्धालुओं की अपेक्षा दैवी कार्य में भागीदार होने वाले लाख गुने अच्छे हैं । दैवी कार्य में भागीदार होने की अपेक्षा दैवी कार्य खोज लेने वाले और अच्छे हैं । तो दैवी कार्य खोजने वाले की कितनी ऊँची कमाई है, कितना ऊँचा पुण्य है, कितना ऊँचा अधिकार बन जाता है ! जो सद्गुरु के दैवी कार्य में भागीदार होने के साथ सेवा को खोज लेता है वह उत्तम शिष्य उत्तम गुरुकृपा को पा लेता है । जो संकेत से करता है वह भी धर्मात्मा है, दिव्यता को पाता है । और जो आज्ञा से करता है वह भी बड़भागी है और जो आज्ञा मिलने पर भी टालता है उसको भी शिष्य तो कह सकते हैं लेकिन परम सौभाग्यशाली नहीं कह सकते, वह कहने भर को शिष्य है ।
गुरुवाणी में आता हैः
सतिगुरु सिख के बंधन काटै ।।
शिष्य के बंधन सद्गुरु काटते हैं अपनी कृपा से, अपने बल से ।
गुर का सिखु बिकार ते हाटै ।।
छल-कपट, लापरवाही और संसार का आकर्षण – इन विकारों से शिष्य बचे तो गुरु पद-पद पर उसको बल, सत्ता, सामर्थ्य देकर ब्रह्मज्ञानी बना देते हैं, ईश्वरमय बना देते हैं । जैसे श्रीकृष्ण ब्रह्मज्ञानी हैं, श्रीराम जी ब्रह्मज्ञानी हैं, गुरु नानक जी ब्रह्मज्ञानी हैं, भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी बापू ब्रह्मसाक्षात्कारी हैं, ब्रह्मज्ञानी हैं और ऐसा बना देते हैं । 33 करोड़ देवता जिनका दीदार करके अपना भाग्य बना लें ऐसा ब्रह्मज्ञानी का पद होता है । ब्रह्मज्ञानी के शिष्य का भी इन्द्रदेव आदर-पूजन करते हैं परंतु शिष्य भी सत्पात्र हो ।
ब्रह्मज्ञानी भृगु ऋषि के शिष्य शुक्र का ध्यान करते-करते तीसरा नेत्र खुल गया था तो उसने विश्वाची अप्सरा देख ली । अब बार-बार अप्सरा में मन जा रहा था तो फिर वह योगबल से वह स्वर्ग गया । वहाँ के देवदूत ने जाकर इन्द्र से पूछाः ″ब्रह्मज्ञानी गुरु का शिष्य शुक्र आ रहा है । पूर्णता को तो नहीं पाया है लेकिन है गुरु के दैवी कार्य में जुड़ा हुआ । विश्वाची अप्सरा के साथ विवाह करने के लिए आ रहा है । उसको गिरा दें या सजा दें या नरक भेजें या आने दें, जो आज्ञा हो ।″
इन्द्र ने कहाः ″ब्रह्मज्ञानी गुरु का सेवक है । उसको आदर से आने दो ।″
इन्द्र ने अपने सिंहासन पर शुक्र को बिठाया और उसका पूजन किया । यह भी योगवासिष्ठ महारामायण में लिखा हुआ है, कोई भी पढ़ सकता है । ब्रह्मज्ञानी गुरु का शिष्य, ज्ञानी का दैवी कार्य खोजने वाला शिष्य इन्द्र से पूजा जाता है, लो !
गुरुवाणी में क्या स्पष्टता की गयी हैः
साधसंगि धरम राइ करे सेवा ।
यमदूतों से तो मृत्युकाल में बड़े-बड़े तीसमारखाँ काँपते हैं लेकिन यमदूतों के स्वामी धर्मराज ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के शिष्यों का आदर करते हैं, यह कितना ऊँचा पद है साधक के लिए ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 4 अंक 352
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