Articles

अपने जीवन में थोड़े नियम डाल दो – पूज्य बापू जी


यजुर्वेद में आया है कि व्रतेन दीक्षामाप्नोति… व्रत करने से जीवन में दक्षता आती है । दक्षता से दृढ़ता आती है, दृढ़ता से श्रद्धा में परिपक्वता आती है और श्रद्धा से परमात्मप्राप्ति की योग्यता निखर जाती है । जिसके जीवन में कोई नियम, व्रत नहीं है उसका असली विकास भी नहीं होता है ।

शास्त्र कहते हैं- सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानम्… परमात्मा तो है लेकिन सत्त्वगुण नहीं हैं, राजसी खुराक, राजसी उठना-बैठना, यह-वह… जीवन में व्रत नियम नहीं है तो आप भगत भगतड़े बन जाते हैं और ठगे भी जाते हैं कई जगहों पर ।

साँईं चाहते हैं आपका तन तंदुरुस्त रहे, मन प्रसन्न रहे और बुद्धि में बुद्धिदाता का प्रकाश हो । तो आप सीधा पकड़ो न बुद्धिदाता को, जिसमें रात्रि को बुद्धि विश्राम करती है उसी को बोलोः ‘मैं जैसा-तैसा हूँ, तुम्हारा हूँ ।…’ यह एकदम सीधा संबंध है । 95 प्रतिशत तो इसी से आपकी आध्यात्मिकता सफल हो जायेगी । बाकी 5 प्रतिशत में से 2-3 प्रतिशत तुम करो, 2-3 प्रतिशत मैं साँईं के खजाने से धक्का मार दूँगा ।

मैं एकदम सरल उपाय बताता हूँ कि ईश्वर को अपना और अपने को ईश्वर का मानो । फिर व्यवहार में सच्चरित्रता हो, वाणी में विनय हो, मन में माधुर्य हो, चित्त में चैतन्य का चिंतन हो, हाथ में दान हो और मुख में नाम ( भगवन्नाम ) हो तो बेड़ा पार हो गया ! तुम्हारा तो हो गया और तुम जिसके सम्पर्क में आओगे या जो तुम्हारी वाणी सुनेगा या चिंतन करेगा उसको भी सत्संग का रंग लग जायेगा ।

सत्संग तो सुना, अब दृढ़ व्रतवाले हो जाओ । ऐसे लोगों से अपना मेलजोल न रखो जो संसार को सच्चा मानकर काम, क्रोध, लोभ, भय, चुगली, गपशप में अपना मनुष्य जीवन बरबाद कर रहे हैं । ऐसे लोगों से प्रभावित मत हो और ऐसे लोगों को महत्त्व मत दो ।

साँईं टेऊँराम जी ने कहा कि ″इन सात चीजों का ध्यान रखें- 1 सत्संग व सत्पुरुषों के अनुभव का आश्रय 2 सत्शास्त्रों का अध्ययन 3 प्रातःकालीन भगवन्नाम जप 4 थोड़ा-बोलना, थोड़ा खाना, थोड़ा सोना 5 शुद्ध आहार करना 6 ब्रह्मचर्य का पालन 7 सादगी ।″

इस प्रकार आपके अंदर सत्त्वगुण बढ़ जायेगा तो फिर बुद्धि में परमात्मा की प्राप्ति की ललक लगते ही कोई महापुरुष मिल जायेंगे तो हो जायेगा काम…

आसोज सुद दो दिवस, संवत बीस इक्कीस ।

मध्याह्न ढाई बजे, मिला ईस से ईस ।।

ऐसा नहीं लिखा कि मिला जीव से ईस । वास्तव में हमारा आत्मा और परमात्मा दोनों एक ही सत्ता है, जीने की वासना और बेवकूफी से ‘जीव’ कहलाते हैं और उस जीव में भी अधिक वासनाएँ हो जाती हैं तो फिर ‘जंतु’ कहलाते हैं ।

श्रीकृष्ण ने जगाने के लिए ऐसे लोगों को कड़क शब्द कहा हैः तेन मुह्यन्ति जन्तवः… जैसे दीया जल रहा है, उसमें जन्तु जल-जल के गिर रहे हैं, तप-तप के मर रहे हैं और नये आते हैं तो फिर वे भी वहीं जा रहे हैं । ऐसे ही ‘आई लव यू, आई लव यू…’ करके संसार में तबाही हुई, फिर से वही करता है मनुष्य ! तो यह जंतु जैसी आदत है । कुत्ते 6 महीने में एक बार संसारी व्यवहार करते हैं पर मनुष्य का तो आजकल बुरा हाल है फिर एण्ड्रायड फोन आ गये तो छोटी उम्र में ही क्या-क्या देख के तबाही हो रही है उसका कोई वर्णन ही नहीं है । क्या बुरा परिणाम आयेगा सोच नहीं सकते हैं ।

फिर भी झूलेलाल को प्रकट करने वाले पूर्वजों को खूब-खूब नमन है कि उन्होंने दृढ़ता से व्रत का आश्रय लेकर वरुणदेव का प्राकट्य करके  सिंधी साँईंयों के लिए द्वार खोल दिये । और वरुणदेव केवल सिंधियों के नहीं हैं, वे तो आत्मस्वरूप हैं, ब्रह्मस्वरूप हैं । जो भी उनको मानेगा उसको आनंद है । जो भी उनकी सीख को मानेगा उसको लाभ है । तो अपने जीवन में व्रत, उद्देश्य की ऊँचाई आदि को पकड़ रखो, बड़ा भारी काम होगा । आपस में एकता करनी चाहिए । कलियुग में संगठन की बड़ी महिमा है । संगठन में भी भगवान के नाम का आसरा और दृढ़ता हो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2022, पृष्ठ संख्या 10, 27 अंक 353

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

हनुमान जी के सद्गुण अपनायें, जीवन को सफलता से महकायें – पूज्य बापू जी


हनुमान जी के जीवन की ये चार बातें आपके जीवन में आ जायें तो किसी काम में विफलता का सवाल ही पैदा नहीं होताः 1 धैर्य 2 उत्साह 3 बुद्धिमत्ता 4 परोपकार ।

फिर पग-पग पर परमात्मा की शक्तियों का चमत्कार देखने को मिलेगा । हनुमान जी का एक सुंदर वचन हृदय पर लिख ही लोः

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई ।

जब तव सुमिरन भजन न होई ।। ( श्री रामचरित. सुं.कां. 31.2 )

विपत्ति की बेला वह है जब भगवान का भजन-सुमिरन नहीं होता । तब जीव अपनी हेकड़ी दिखाता हैः ″मैं ऐसा, मैं ऐसा…″ अरे ! अनंत-अनंत ब्रह्मांड जिसके एक रोमकूप में हैं, जिनकी गिनती ब्रह्मा जी नहीं कर सकते हैं, ऐसे भगवान तेरे साथ हैं और तू अपनी छोटी-सी डिग्री-पदवी लेकर ‘मैं-मैं-मैं…’ करता है तो फिर ‘मैंऽऽऽ… मैंऽऽऽ…’ करने वाला ( बकरा ) बनने की तैयारी कर रहा है कि नहीं ?

मेरा मुझ में कुछ नहीं जो कुछ है सो तोर ।

तेरा तुझको देत हैं, क्या लागत है मोर ।।

अहंकाररहित, विनम्रता की मूर्ति

हनुमान जी की प्रशंसा राम जी करते हैं तो जैसे सूखा बाँस गिर जाय अथवा कोई खम्भा गिर जाय ऐसे हनुमान जी एकदम राम जी के चरणों में गिर पड़ते हैं- ″पाहिमाम् ! पाहिमाम् प्रभु ! पाहिमाम् !! प्रभु ! मैं बहुत पीड़ित हूँ, बहुत दुःखी हूँ ।″

रामजी बोलेः ″हनुमान तुम सीता की खोज करके आये । ऋषि-मुनियों के लिए दुर्लभ ऐसी तुम्हारी गति ! ब्रह्मचारी होते हुए भी महिलाओं के विभाग में गये और वहाँ जाकर भी निष्काम ही रहे । कुछ लेना नहीं फिर भी सब कुछ करने में तुम सफल हुए फिर तुम्हें क्यों कष्ट है ?″

हनुमान जीः ″आप मेरी प्रशंसा कर रहे हैं तो मैं कहाँ जाऊँगा ?″

साधारण व्यक्ति तो किसी से प्रशंसा सुनकर फूला नहीं समाता और भगवान प्रशंसा करें तो व्यक्ति की बाँछें खिल जायें परंतु हनुमान जी कितने सयाने, चतुर, विनम्रता की मूर्ति हैं ! तुरंत द्रवीभूत होकर रामजी के चरणों में गिर पड़ते हैं कि ‘पाहिमाम् पाहिमाम् पाहिमाम्…’

मूर्ख लोग बोलते हैं कि ‘प्रशंसा से भगवान भी राजी हो जाते हैं ।’

अरे मूर्खो ! तुम भगवान के कितने गुण गाओगे ? अरब-खरबपति को बोलो कि ″सेठ जी ! तुम तो हजारपति हो, लखपति हो…″ तो तुमने उसको गाली दे दी । ऐसे ही अनंत-अनंत ब्रह्मांड जिसके एक-एक रोम में है ऐसे भगवान की व्याख्या, प्रशंसा हम पूर्णरूप से क्या करेंगे !

रामु न सकहिं नाम गुन गाई । ( रामायण )

भगवान भी अपने गुणों का बयान नहीं कर सकते तो तुम-हम क्या कर लेंगे ?

सात समुँद1 की मसि2 करौं, लेखनी सब वनराई3

धरती सब कागद4 करौं, प्रभु गुन लिखा न जाई ।।

गुरु गुन लिखा न जाई ।।

1 समुद्र 2 स्याही 3 वन-समूह 4 कागज

हम भगवान की प्रशंसा करके भगवान का अपमान ही तो कर रहे हैं । फिर भी भगवान समझते हैं- ″भोले बच्चे हैं, इस बहाने बेचारे अपनी वाणी पवित्र करते हैं ।…’

एक आशाराम नहीं, हजार आशाराम और एक जीभ नहीं, एक-एक आशाराम की हजार-हजार जीभ हो जायें फिर भी भगवान की महिमा गाऊँ तो भी सम्भव ही नहीं है । ऐसे हमारे प्रभु हैं ! और प्रभु के सेवक हनुमान जी… ओ हो ! संतों-के-संत हैं हनुमान जी !

विभीषण कहते हैं

अब मोहि भा भरोस हनुमंता ।

बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ।। ( श्री रामचरित. सुं.कां. 6.2 )

हे हनुमान ! अब मुझे भरोसा हो गया है कि हरि की मुझ पर कृपा है तभी मुझे आप जैसे संत मिले हैं, नहीं तो संत का दर्शन नहीं हो सकता है ।

काकभुशुंडि जी कहते हैं-

जासु ना भव भेषज5 हरन घोर त्रय सूल ।

सो कृपाल मोहि तो6 पर सदा रहउ अनुकूल ।। ( श्री रामचरित. उ.कां. 124 )

5 संसाररूपी रोग की औषधि 6 तुम

जिनका सुमिरन करने से आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक – तीनों ताप मिट जाते हैं वे भगवान मेरे अनुकूल हो जायें, बस !

हम तो यह कहते हैं कि भगवान अनुकूल हों चाहे न हों, हनुमान जी ! आप अनुकूल हो गये तो राम जी अनुकूल हो ही जायेंगे ।

ईश्वर की कृपा होती है तब ब्रह्मवेत्ता संत मिलते हैं और ब्रह्मवेत्ता संतों की कृपा होती है तब ईश्वर मिलते हैं ( ईश्वर का वास्तविक पता मिल जाता है ) । दोनों की कृपा होती है तब अपने आत्मा का साक्षात्कार होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 13, 14 अंक 352

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

ओज, तेज और संयम के धनी राजा ऋषभदेव – पूज्य बापू जी


भारत देश का नाम ‘भारत’ नहीं पड़ा था तब की बात है । तब इस देश को अजनाभ खंड बोलते थे । उस समय राजा नाभि ने यज्ञ किया और यज्ञपुरुष परमात्मा नारायण प्रकट हुए । ब्राह्मणों ने भगवान नारायण का स्तवन किया और प्रार्थना कीः ″राजा नाभि साधु-संतों का, ब्राह्मणों का बड़ा सेवक है, सदाचारी है, प्रजापालक है । हमारे यजमान के पास और सब कुछ है, केवल उसकी गोद खाली है, हम चाहते हैं कि हे नारायण ! उनके यहाँ आप जैसा ओजस्वी-तेजस्वी बालक हो ।″

भगवान नारायण ने कहाः ″मेरे जैसा तो भाई, मैं ही हूँ ।″

तो नारायण का अंशावतार, भगवान नारायण का ओज राजा नाभि के घर प्रकटा । होनहार विरवान के होत चीकने पात । हाथों में, पैरों में शंख, सुदर्शन, पद्म आदि चिह्न थे और वह बाल्यकाल में बड़ा बुद्धिमान था । उस बुद्धिमान बालक का नाम रखा गया ‘ऋषभ’, जो बाद में जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ‘ऋषभदेव’ बने ।

बुद्धिमान राजा ने पत्नी सहित की आत्मलाभ की यात्रा

राजा नाभि ने देखा कि ‘बालक तो कब जवान होगा, मेरा जीवन ऐसे ही बीता जा रहा है… मैं वह परम लाभ पा लूँ जिस लाभ से अधिक कोई लाभ नहीं है । अजनाभ खंड के राज्य का लाभ तो है लेकिन यह कोई परम लाभ नहीं है, छोटा-मोटा दुःख भी इस राजगद्दी के सुख को डाँवाडोल कर देता है ।’

बुद्धिमान राजा नाभि अपनी पत्नी को लेकर बदरिकाश्रम के एकांत में गये और आत्मा-परमात्मा का अनुसंधान करके आत्मलाभ की यात्रा की । ऋषभदेव के लिए क्या किया कि ‘कब जवान हो और कब राज्य सँभाले ? और राज्य ऐसे लावारिस छोड़कर जाना भी ठीक नहीं ।’

ऐसा विचार कर ईमानदार ब्राह्मणों की गोद में ऋषभदेव को बिठा के राज्याभिषेक कर दिया और कहाः ″जब तक यह लड़का छोटा है तब तक तो राज्य तुम सँभालो और यह जब बड़ा हो जायेगा, सशक्त हो जायेगा तो फिर यह अपने-आप सँभाल लेगा ।″

ब्राह्मणों ने ऋषभदेव को विद्याध्ययन के लिए गुरुकुल में रखा ।  ऋषभदेव युवावस्था में आये, राजकाज को सँभाल लेने के योग्य हुए, राज्य सँभालने लगे ।

भारत के संयमी युवराज हुए देवराज की परीक्षा में सफल

एक बार ऋषभदेव के राज्य में एकाएक अकाल पड़ गया । चहुँ और सूखा-सूखा-सूखा… मंत्रियों ने, ब्राह्मणों ने कहाः ″राजाधिराज इन्द्रदेव कोपायमान हुए हैं । 12 मेघों में से कोई मेघ नहीं बरस रहा है ।″

ऋषभदेव जी समझ गये, ध्यानस्थ हो गये और अपनी योगशक्ति से उन्होंने अजनाभ खंड को हरा-भरा कर दिया बारिश करा के ।

इन्द्र संतुष्ट हुए, उन्होंने कहाः ″मैंने तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए सूखा किया था । मेरी जयंती नाम की कन्या है, उसे मैं वीर्यवान पुरुष को अर्पण करना चाहता था तो तुम्हारी परीक्षा ली कि तुम्हारे में बल है कि नहीं ? परम्परागत पिता की गद्दी मिली है कि नारायण का ओज है तुममें, वह देखने के लिए मैंने अनावृष्टि की । मेरी कन्या के लिए आप योग्य वर हैं ।″

देवताओं का राजा इन्द्र भारत के युवराज को अपनी कन्या देने के लिए आया है और आज का युवक प्लास्टिक  की पट्टियाँ ( फिल्मों ) के दृश्यों का अनुसरण कर गिड़गिड़ा के अपनी कमर तोड़ लेता है और चेहरा बूढ़े जैसा बना लेता है, कितने शर्म की बात है !

अपने जीवन की गाड़ी में ज्ञान की बत्ती चाहिए और संयम का ब्रेक चाहिए । ऋषभदेव में ये थे । अपने यौवन को बिखेरनेवाले जवानों में से नहीं थे नाभि-पुत्र राजा ऋषभदेव ।

जो-जो वीर्यवान हुए है, यशस्वी हुए हैं, वे चाहे संत हुए हों, चाहे राजा हुए हों, चाहे कोई सेनापति हुए हों, वे संयम से ही ऐसे हुए हैं । संयम के बिना व्यक्ति न भौतिक उन्नति में दृढ़ता से ऊँचे शिखर सर कर सकता है और न ही आध्यात्मिक उन्नति में ऊँचाई को छू सकता है ।

संयम के बिना मन एकाग्र नहीं होता, निरुद्ध नहीं होता और निरुद्ध और एकाग्र हुए बिना मन को परम सुख का अनुभव नहीं हो सकता है ।

ऋषभदेव राज्य-वैभव में रहे, वर्षों की लम्बी आयु होती थी उस समय । जयंती के गर्भ से सौ बेटों को जन्म दिया । वे बेटों को केवल आचार्यों से विद्या-शिक्षा-दीक्षा नहीं दिलाते थे, स्वयं भी धर्म की शिक्षा देते थे ।

ऋषभदेव जी का पुत्रों को उपदेश व परमहंस जीवन

आदर्श पिता

अपने बच्चों को बुलाकर ऋषभदेव कहते हैं- ″पुत्रो ! यह शरीर भोग भोगने के लिए नहीं  है । काम-विकार का भोग तो सूअर, कुत्ता और मुर्गे-मुर्गियाँ भी भोगते रहते हैं . यह दुर्लभ मनुष्य-शरीर योग करने के लिए है ।″

पिता बेटों को कहता हैः ″पिता न स स्यात्… वह पिता पिता नहीं है, जननी न सा स्यात्… वह जननी जननी नहीं है, दैवं न तत्स्यात्… वह देवता देवता नहीं है, गुरुर्न स स्यात्… वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजनो न स स्यात्… वह स्वजन स्वजन नहीं है जो अपने प्रिय संबंधी को संयम और भक्ति का मार्ग दिखाकर मुक्ति के रास्ते न ले जाय ।″

जो बोलते हैं कि ‘मन में जो आये वह करते जाओ, मन को रोको मत ।’ उन बेचारों को यह भागवत का प्रसंग अच्छी तरह से पढ़ना-विचारना चाहिए । दिव्य-प्रेरणा-प्रकाश ( युवाधन-सुरक्षा ) पुस्तक ( यह आश्रमों में सत्साहित्य सेवा केन्द्रों से व समितियों से प्राप्त हो सकती है । ) अच्छी तरह से 5 बार पढ़नी-पढ़ानी चाहिए ।

…त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।

जितना-जितना विषय-विकारों का त्याग होता जायेगा उतना-उतना शांत होते जायेंगे परमात्मशांति में और जितनी-जितनी पारमात्मिक शांति बढ़ेगी उतनी-उतनी आपकी योग्यता निखरेगी । आवश्यक सामर्थ्य मिलेगा और जो अवांछनीय वृत्तियाँ, अवांछनीय दोष हैं वे निवृत्त हो जायेंगे । जिसको ऊँचा जीवन जीना है, जिसको पाने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रहता ऐसे पद पर जाना है उसको भोगों के आकर्षण और भोगियों की मित्रता से बचते रहना चाहिए ।

जैसा संग वैसा रंग ।

…तो ऋषभदेव ने पुत्रों को उपदेश दिया । 100 बेटों में सबसे बड़े थे भरत, उनसे छोटे 9 पुत्र शेष 90 बड़े एवं श्रेष्ठ थे । उनसे छोटे कवि, हरि आदि 9 पुत्रों ने योगेश्वरों का मार्ग अपनाया, वे बड़े भगवद्भक्त थे । इनसे छोटे बाकी के 81 पुत्र संयम से होम-हवन करके क्षत्रिय में से ब्राह्मण होने के रास्ते चले ।

त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्

ऋषभदेव जी ने भरत का राजतिलक किया और अजनाभ खंड का विशाल राज्य छोड़कर उस आत्मपद में स्थिर होने के लिए अकेले चल पड़े । इतना विशाल राज्य लेकिन अंत में छोड़कर मरना है तो जीते-जी इसकी आसक्ति छोड़ के अमर आत्मा में चले गये, कैसी रही होगी ऋषभदेव की मति और कैसी रही होगी उनकी गति !

ऋषभदेव के पास जो वैभव था उतना वैभव आज के किसी सेठ के पास नहीं होगा, किसी नेता के पास नहीं होगा, आज के जमाने के 10 हजार करोड़ रुपयों से जो सोना और गहने आदि मिलते हैं उससे कई गुना ज्यादा वैभव ऋषभदेव के अधीन था । फिर भी उसको ठोकर मारकर वे आत्मदेव में स्थिति के लिए यात्रा करते हैं ।

ऋषभदेव ने राज्याभिषेक कर दिया अपने सुयोग्य भरत का और स्वयं एक आदर्श पुरुष, परमहंसों के मार्गदर्शक पुरुष बनकर, मिथ्या शरीर को मिथ्या जान के अमर आत्मा की यात्रा करने के लिए चल पड़े । उन्होंने ऐसा तो स्वाँग बनाया कि कोई सामने देखे ही नहीं । पूरा-का-पूरा समय उस समय अजपाजप में, उस सोऽहम्-स्वरूप में लगे रहे । चलते गये, चलते गये… अपने देश में भिक्षा माँगना मुश्किल है लेकिन परदेश में – जहाँ लोग नहीं पहचानते वहाँ भी ऐसा वेश बनाया कि कोई पहचाने नहीं । भूख लगती तो दो हाथों में भिक्षा माँगकर वह वीर पुरुष खा लेता, प्यास लगती तो चुल्लू भर के हाथ में पानी पी लेता । अभावग्रस्त नहीं थे, सब कुछ था लेकिन सब कुछ वास्तव में जिसका है उसको पाने में इससे अड़चन होती है तो सब कुछ को त्यागने में भी इस वीर ने देर नहीं की, चलते बने ।

भागवत में तो यहाँ तक आता है कि जैसे उन्मत्त हाथी जाता रहता है अपनी मस्ती से और मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं, ऐसे ही ऋषभदेव को मूर्ख लोग पागल समझते, उनका मजाक उड़ाते, उन पर कंकड़ उछालते, कोई उन पर थूकते तो कोई वो लेटे होते तो उन पर पेशाब कर देते थे, फिर भी ऋषभदेव जानते थे कि ‘जिस शरीर पर ये थूक रहे हैं, जिसका अपमान कर रहे हैं उसमें तो थूक भरा है और अपमान योग्य हाड़-मांस भरा है, मैं तो अमर-आत्मा हूँ, मेरा क्या बिगड़ता है !’ वे अपनी आत्ममस्ती में रहते थे । कभी-कभार तो लोग उनके आगे आकर अधोवायु छोड़ते फिर भी वे अपने चित्त को दूषित नहीं करते । सामने वाले का व्यवहार ऐसा-वैसा है लेकिन उसके व्यवहार से प्रभावित होकर हम दुःखी हों अथवा अप्रभावित रह से सम रहें यह हमारे हाथ की बात है । कितनी ऊँची समझ है ऐसे पुरुषों की ! ऐसे पुरुष ही भगवान हो के पूजे जाते हैं ।

त्याग बिना यह जीवन कैसे सफल विकास करे ।

…त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।

भोग-वासना का त्याग करो । हाँ, आवश्यकता है तो भोजन करो, मजा लेने के भाव से ठाँसो मत । आवश्यकता है तो देखो, विकार भड़काने के लिए मत देखो । विषय-विकारों का त्याग कर ऋषभदेव जी की तरह परमात्मा में स्थिति पा लो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 5-7 अंक 352

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ