गुफा में लाख वर्ष का अँधेरा है लेकिन दीया जलाओ तो लाख वर्ष के अँधेरे का प्रभाव नहीं रहेगा । ऐसे ही लाखों-करोड़ों वर्ष के जीवत्व के, जन्म-मरण के संस्कार हैं परंतु सत् का संग हो गया तो करोड़ों वर्षों के अज्ञान का प्रभाव नहीं रहेगा । इसलिए सत् के संग से एक सप्ताह में परीक्षित को सत् तत्त्व का साक्षात्कार हो गया, हमको 40 दिन में हो गया । मैं तो कहता हूँ कि 40 साल में भी ईश्वर का साक्षात्कार हो जाय तो सौदा सस्ता है । बहुत बढ़िया, बहुत मंगल समाचार, मंगल दिवस है ।
नानक जी बचपन से भजन में लगे थे । सत् का संग किया । एक रात्रि को माँ ने दस्तक दियाः ″बेटा ! यह क्या करते हो ? रात के 12 बजे हैं, सो जाओ ।″
बेटे ने माँ की आज्ञा मानकर पलथी खोली, चटाई बिछायी, बिस्तर लगाया, जरा-सा लेटा तो पपीहे न कहाः ‘पिहू पिहू पिहू…’
″माँ-माँ ! वह अपने प्यारे को याद करता है तो मैं अपने प्यारे की याद छोड़ के कैसे सोऊँ !″
अपने दिलबर को पाने की ऐसी तड़प से उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ और नानक बेटे से गुरु नानकदेव प्रकट हो गये । ऐसे ही नरेन्द्र में से स्वामी विवेकानंद जी, लीलाराम में से साँईं लीलाशाह जी और आसुमल में से आशाराम प्रकट हो गये । थे ही, प्रकट क्या होना है ! नासमझी की चदरिया हटी तो पहले ही थे यह पता चल गया । मनमानी साधना से अहं बढ़ेगा –
जन्म-जन्म मुनि जतनु कराहीं ।
अंत राम कहि आवत नाहीं ।।
अहं की पर्तें तो सद्गुरु की कृपा के बिना हट ही नहीं सकती हैं । संत कबीर जी ने कहाः
सद्गुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट ।
मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट ।।
गोपियों को श्रीकृष्ण ने नग्न कर दिया । नग्न कर दिया बिल्कुल सच्ची बात है लेकिन चित्रों में जो दिखाते हैं या पंडे जो समझाते हैं वह मोटी बुद्धिवालों के लिए है । असली ‘मैं’ पर 5 आवरण हैं – 1 अन्नमय कोष 2 प्राणमय कोष 3 मनोमय 4 विज्ञानमय 5 आनंदमय कोष । इन 5 कोषों के भीतर तत्त्वरूप में हम हैं । तो गोपियों के ये पाँचों कोष श्रीकृष्ण की बंसी से, दृष्टि से, सान्निध्य से, सत्संग से हट गये थे तो गोपियाँ हो गयी थी नग्न अर्थात् शरीर का ‘मैं’, प्राणों का ‘मैं’, मन का ‘मैं’, बुद्धि का ‘मैं’, चित्त का ‘मैं’ ये सारी पर्तें हट गयी थीं । स्वामी रामतीर्थ जी ने भजन गाया है । बड़ा अलमस्तीभरा भजन हैः
जंगल में जोगी बसता है, गाह ( कोई विशिष्ट काल ) रोता है गाह हँसता है ।
दिल उसका कहीं न फँसता है, तन मन में चैन बरसता है ।
खुश फिरता नंगम-नंगा है, नैनों में बहती गंगा है ।
जो आ जाये सो चंगा है, मुख रंग भरा मन रंगा है ।।
हर हर हर ॐ, हर हर ॐ
संत कबीर जी ने गाया हैः
तन की कूंडी मन का सोंटा, हरदम बगल में रखता है ।
पाँच पच्चीसों मिलकर आवें, उनको घोंट पिलाता है ।।
निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है ।।
निरंजन… अंजन माने इन्द्रियाँ । जहाँ इन्द्रियों की पहुँच नहीं है, इन्द्रियाँ तो बाहर का दृश्य दिखाती हैं । वह दृश्य से परे है । लेकिन दृश्य उसी की सत्ता से बना है, उसी में दिख रहा है । स्वप्न की सृष्टि स्वप्न के समय सच्ची लगती है परंतु तुम्हारे ‘मैं’ के बिना स्वप्न की सृष्टि टिक नहीं सकती । तुम थे तभी स्वप्न की सृष्टि बनी और सृष्टि हट गयी फिर भी तुम रहते हो । ऐसे ही ये सृष्टियाँ बदल जाती हैं फिर भी तुम रहते हो, वह तुम हो चाँदों का चाँद, सूरजों का सूरज । ऐसा ज्ञान सत्संग से प्राप्त हो जाता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2022, पृष्ठ संख्या 9, 10 अंक 353
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