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थी मौत की तैयारी, जान बची, बना सेवाधारी


सन् 1992 से 1998 तक मैं गम्भीर रूप से बीमार रहा, जिससे मेरा वजन 25 किलो रह गया । कई जगह इलाज कराया, 8 लाख रुपये खर्च हो गये । अंत में डॉक्टरों ने जवाब दे दिया । मैं 6 साल तक एक ही जगह पड़ा रहा । हर तरफ से निराश हो गया था । सौभाग्य से मुझे पूज्य बापू जी का सत्साहित्य पढ़ने को मिल गया । पढ़ते-पढ़ते एक दिन मेरी आँखों में आँसू आ गये । मैंने बापू जी से आर्तभाव से प्रार्थना कीः ‘हे गुरुदेव ! अब बस एक आपका ही सहारा है, मुझे बचा लीजिये ।’ उसी रात परम दयालु बापू जी सपने में आये । मैंने दंडवत् प्रणाम किया तो आशीर्वाद देते हुए बोलेः ″क्यों घबराता है ! चल उठ, खड़ा हो जा !″

सुबह उठा तो शरीर को ताजगी तथा मन को उत्साह व प्रसन्नता से भरपूर पाया ।

चार दिन बाद मैं भोपाल आश्रम गया । बड़दादा की परिक्रमा करके बड़दादा की मिट्टी ली और 15 दिन तक रोज प्रसाद रूप में उसे ग्रहण करता रहा । परिणामस्वरूप धीरे-धीरे स्वास्थ्य में सुधार आने लगा । नौ माह बाद मेरा वजन 60 किलो हो गया । मैंने पूज्य श्री से मंत्रदीक्षा ले ली और 200 लोगों को दीक्षा दिलवायी । वर्तमान में मैं ‘ऋषि प्रसाद’ के सदस्य बनाता हूँ तथा विद्यालयों में इसका निःशुल्क वितरण करता हूँ । मैं संकल्प करता हूँ कि जब तक मैं जीवित रहूँगा तब तक ऋषि प्रसाद की सेवा करता ही रहूँगा । बापू जी से गुरुमंत्र की दीक्षा व कर्मयोग की शिक्षा पाकर मैं मृत्यु से अमरता की ओर चल पड़ा हूँ । नवजीवन-दाता सद्गरुदेव के श्रीचरणों में खूब-खूब नमन !

मथुरालाल नागर, राजगढ़ (म.प्र.) सचल दूरभाषः 9669342990

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गुरुदेव ने अप्सरा की माया से बचाया


मेरे पुण्यों का उदय तब हुआ जब मुझे ब्रह्मवेत्ता संत पूज्य बापू जी का दर्शन-सत्संग और उनसे नामदान पाने का अवसर प्राप्त हुआ । सन् 1974 के उत्तरायण शिविर में जब पहली बार मैं बापू जी के दर्शन करने आया तो सर्वांतर्यामी पूज्य बापू जी ने कहाः ″नामदान (मंत्रदीक्षा) लेना है तो मांस, दारू सब खाना-पीना छोड़ना पड़ेगा ।″

मैंने कहाः ″बापू ! खाता तो सब कुछ हूँ पर आज से मांस-दारू नहीं खाऊँगा-पिऊँगा ।″

फिर बापू जी ने उसी दिन मंत्र दीक्षा दे दी ।

एक बार 7 दिन के लिए मैं आश्रम के मौन मंदिर में साधना के लिए रहा था । 7 दिन तक एक ही पवित्र और विशाल कमरे में बंद रह के साधना करने का मेरे जीवन में यह प्रथम अवसर था ।

मंगलवार को सुबह 4.30 बजे मैं ध्यान में बैठा तब ध्यान में एक विचित्र दृश्य देखा कि एक स्त्री अर्धनग्न अवस्था में मेरे सामने आ के खड़ी हो गयी है । मैं चौंक गया । मुझे तुरंत ख्याल आया कि यह मेरी साधना में विघ्न डालने आयी है । मैंने गुरुदेव का स्मरण किया । थोड़ी ही देर में देखा तो सद्गुरुदेव भी कमरे में एक कोने में आकर खड़े हैं । मेरा भय दूर हो गया । सद्गुरुदेव को देख के वह स्त्री तुरंत ही अदृश्य हो गयी ।

उसी दिन शाम को मन हुआ कि ‘अहमदाबाद में कितने दिनों से बारिश नहीं हो रही है । हमारे सद्गुरुदेव तो समर्थ हैं, वे चाहें तो क्या बारिश नहीं कर सकते ?’

और एकाध घंटे के बाद ही जोर से हवा चलने लगी । आकाश में बादल आ गये और बारिश होने लगी । वाह मेरे सद्गुरुदेव !

इसी शाम को 7-8 बजे मैं ध्यान में बैठा था । तब ध्यान में एक अप्सरा दिखी । उसके वस्त्र बिल्कुल पारदर्शी व सुंदर थे । उनमें से उसके अंग सूर्य की किरणों की तरह चमक रहे थे । ऐसी अलौकिक लावण्ययुक्त स्त्री किसी ने इस पृथ्वी पर नहीं देखी होगी । बहुत देर तक वह मुझको मोहित करने का प्रयत्न करती रही । मैंने वह दृश्य दूर करने का प्रयास किया लेकिन विफल रहा । अंत में खूब करुण भाव से सद्गुरुदेव को प्रार्थना करने लगा । थोड़ी देर के बाद ध्यान टूटा तब पता चला कि बाहर से कोई दरवाजा खटखटा रहा है । मैं दरवाजा खोल के देखा तो पूज्य गुरुदेव स्वयं खड़े थे । मेरी ओर बहुत ही प्रेमयुक्त मधुर दृष्टि डाली । साधना में उत्साहप्रेरक शब्दों के साथ जरूरी मार्गदर्शन देकर गुरुदेव चले गये । ध्यान में उस विचित्र दृश्य के बाद तुरंत ही पूज्य श्री का दर्शन पाकर अंतर पुलकित हो गया, धन्यता का अनुभव हुआ ।

पहले सुना था कि माया की शक्तियाँ आ-आ के ध्यान में बैठने वाले तपस्वियों की परीक्षा लेती हैं । अब मेरे लिए यह प्रत्यक्ष अनुभव बन गया ।

उसके बाद 3 दिनों तक निर्विघ्न रूप से अच्छा ध्यान होता रहा । कोई उपद्रव नहीं आया । परंतु शनिवार की रात को 9-10 बजे मैं ध्यान में बैठा था, तब सामने वाली कुर्सी पर एक नवयौवना आकर बैठ गयी और अपनी नखरेवाली चेष्टाओं से मुझे आकर्षित करने लगी । वह रूप लावण्य में बेजोड़ थी । उसने जो महीन व अल्प वस्त्र पहने थे उनमें से उसके अंग दिखते थे । वह अपने विविध आकर्षक अंगों से कामुक चेष्टाएँ करने लगी किंतु मैं गुरुदेव का स्मरण करते-करते अचल रहा ।

थोड़ी ही देर में वह दृश्य बदला और उसकी जगह एक भयंकर रुग्ण शरीरवाली स्त्री उपस्थित हुई । उसने संकल्प से अपने शरीर से चमड़ी हटा ली । उसके अंदर तो मांस मज्जा, हड्डियाँ, खून, मल-मूत्र भरे हुए शरीर के दर्शन हुए । उसके सभी अंग वीभत्स रोग से ग्रस्त थे । चेहरा अत्यंत कुरूप बन गया था । मुँह से खून, लार आदि टपक रहे थे । रोग की पीड़ा से वह कराह रही थी । उसके दर्शनमात्र से घृणा हो रही थी । उसके शरीर की बनावट देख के अनुमान होता था कि पहले बहुत सुंदर अंगना होनी चाहिए पर उसकी यह हालत देख के किसी को भी दया आ जाय । कैसा करुण दृश्य !

मेरी ओर एकटक देखते हुए भारी आवाज में बोलीः ″पहले के सुंदर दृश्यों से अगर तू प्रभावित हुआ होता तो तेरी कैसी हालत होती पता है ? मेरे को देख ले । तेरी भी ऐसी ही हालत होती । संसार में ऐसे भोगों में रह के लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह जीवन बिता के जिंदगी बरबाद कर रहे हैं । उनकी हालत भी मेरे जैसी ही होगी । तू तो समर्थ गुरु की शरण में है इसलिए बच गया । अब अच्छे से साधना करना और परम लक्ष्य परमात्मप्राप्ति करके ही रहना ।″

ओह ! वह दृश्य कैसा विलक्षण था ! मेरे सद्गुरुदेव के प्रति मुझे खूब अहोभाव जगा । उनके श्रीचरणों में रह के साधना करने का अवसर मिला है यह कैसा परम सौभाग्य है ! समर्थ सद्गुरु के मार्गदर्शन बिना ही साधना करने वाले साधकों की दशा कैसी होती होगी ! मेरे समर्थ सद्गुरुदेव हर पल मेरा ध्यान रखते हैं । पूज्य सद्गुरुदेव का स्मरण आते ही सिर अहोभाव से झुक जाता है ।

रविवार को मेरा समय पूरा होने से मैं मौन मंदिर से बाहर निकला और दूसरे साधक को उस आगम-निगम के ताले खोलने की प्रयोगशाला में प्रवेश दिया गया । इस स्वप्नमय सृष्टि में बाह्य रूप-रंग-आकार में बह के लोग इतना अमूल्य जीवन बरबाद कर देते हैं और बाद में पछताते हैं लेकिन तब समय बीत गया होता है । धन्य हैं ऐसे साधकों को कि जो समय रहते ही ऐसे समर्थ सद्गुरु का सहारा पाकर जीवन का परम लक्ष्य ब्रह्मानुभव पा लेते हैं ।

  • परसराम दरियानानी, सेवानिवृत्त उप तहसीलदार, सरदार नगर, अहमदाबाद । सचल दूरभाषः 9662416171

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2022, पृष्ठ संख्या 7-8 अंक 355

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चार अक्षर बना गये साक्षर


साधनाकाल में पूज्य बापू जी जब डीसा में रहते थे, उस समय पहली बार जब पूज्य श्री मधुकरी (भिक्षा) करने गये थे तो एक सिंधी माई ने भिक्षा देने से मना कर दिया था । यह प्रसंग सभी ने सुना ही होगा । उस घर से चलकर बापू जी जब दूसरे घर गये तो वहाँ जिन्होंने भिक्षा दी थी वे हैं मिश्री बहन । वे उस दिन को याद करते हुए कहती हैं कि ″उस दिन मैंने खीर-पूड़ी बनायी थी । बापू जी हमारे घर के द्वार पर आये तो मैंने उन्हें वही भिक्षा के रूप में अर्पण की थी ।

बापू जी ने पूछाः ″क्या नाम है बेटी ?″

मैंने नाम बताया, फिर बोलेः ″साँईं लीलाशाह जी बापू के आश्रम में सत्संग होता है, तू जाती है वहाँ ?″

″नहीं महाराज !″

″जाया कर ।″

बापू जी ने सत्संग का समय भी बताया कि सुबह-सुबह होता है । उनकी पावन व हितकारी वाणी का ऐसा प्रभाव पड़ा कि दूसरे दिन तो जो काम मुझे 8 बजे तक पूरा करना होता था वह सारा 6 बजे ही निपटाकर मैं सत्संग शुरु होने के 15 मिनट पहले ही आश्रम में पहुँच गयी ।

वहाँ क्या विलक्षण माहौल था ! सब लोग एकदम शांत बैठे थे । बापू जी शिवजी की तरह ध्यानस्थ थे और लोग उनको देख-देख के ध्यान कर रहे थे ।

फिर सत्संग हुआ, किसी ने श्री योगवासिष्ठ महारामायण ग्रंथ पढ़ा, बापू जी ने उस पर व्याख्या की । बापू जी वेदांत के ऊपर ही सत्संग करते थे । ऐसा रोज होता था । फिर तो मुझे भक्ति, साधना का ऐसा रंग लगा कि वर्णन करने को शब्द नहीं हैं । श्री योगवासिष्ठ के श्रवण का ऐसा चस्का लगा कि अगर मैं योगवासिष्ठ नहीं सुनूँ तो नींद ही न आये । वर्ष भर में कभी बापू जी एक महीने के लिए हिमालय चले जाते थे । जब भी बापू जी हिमालय जाते तो मुझे बड़ा रोना आता था कि ‘अब मुझे योगवासिष्ठ कौन सुनायेगा ? मैं तो एकदम अनपढ़ हूँ ।’

एक बार बापू जी लौटे तो मैंने बोलाः ″बापू जी ! आप तो चले जाते हैं और मुझे योगवासिष्ठ सुनने को नहीं मिलता, और दूसरा कोई सुनाने वाला है नहीं । आप ऐसी कृपा कीजिये कि मुझे पढ़ना ही आ जाये ।″

बापू जी प्रसन्न होकर बोलेः ″क्या बात है ! तू पढ़ेगी ?″

″जी, बापू जी !″

पूज्य श्री बोलेः ″स्लेट पर खड़िया ले के आ ।″

मैं लेकर आयी तो बापू जी ने 4 अक्षर लिख के दिये और बोलेः ″जब तू ये बिना देखे लिखना सीख जायेगी तो तुझे पढ़ना आ जायेगा ।″

मैं अभ्यास करती रही । ब्रह्मवाक्य सिद्ध हुए । जब मैं उन अक्षरों को बिना देखे लिखना सीख गयी तो मुझे पढ़ना आ गया । आज मैं हिन्दी व गुजराती – दोनों भाषाएँ पढ़ लेती हूँ । योगवासिष्ठ पढ़ती हूँ, डीसा के सत्संगी भी आते हैं व सुनते हैं ।″

आश्चर्य की बात तो यह है कि जब उन बहन जी से पूछा गया कि ″वे 4 अक्षर वर्णमाला के कौन से अक्षर थे ? तो उन्होंने बताया कि ″वे अक्षर – ‘अ आ इ ई… ‘ (पूरी वर्णमाला) में से कोई थे ही नहीं, वे अलग ही अक्षर थे । मैं जब से पढ़ना सीखी तब से वे अक्षर भूल गयी ।″

जैसे शिवजी द्वारा प्राप्त 14 सूत्रों से पाणिनी मुनि ने संस्कृत का व्याकरण रचा था, ठीक वैसे ही बापू जी ने 4 अक्षरों से पूरी वर्णमाला सिखा दी और एक अनपढ़ को श्री योगवासिष्ठ महारामायण जैसे वेदांत के गूढ़ ग्रंथ के पठन-पाठन में साफल्य प्रदान कर दिया ।

ध्यान में आये इन्द्रदेव

मिश्री बहन आगे बताती हैं कि ″मैं रोज़ बापू जी का सत्संग सुनती और बस मुझे केवल ध्यान करने की इच्छा होती थी । एक दिन मैं ध्यान करने बैठी थी तो मेरे ध्यान में समस्त देवी-देवता तथा इन्द्रदेव आये और बोलेः ″चलिये हमारे स्वर्ग में, हम आपको लेने आये हैं ।″ मैंने कहाः ″मुझे ब्रह्मज्ञानी सद्गुरु पूज्य बापू जी मिल गये हैं, मेरे तो वे ही सब कुछ हैं । तुम्हारा स्वर्ग तुमको मुबारक हो, हमको नहीं चाहिए । इतना सुन इन्द्रदेव आशीर्वाद देकर चले गये ।″

मिश्री बहन जी कहती हैं कि ″पूज्य बापू जी ने मुझे आज्ञा दी थी कि ″हर गुरुवार को यहाँ (डीसा में) बहनों को बुलाकर सत्संग करना । एक दिन मैं पूज्य श्री के दर्शन करने अहमदाबाद गयी तो मैंने बापू जी प्रार्थना कीः ″गुरुदेव ! आपकी आज्ञा है कि ‘तू हर गुरुवार को सत्संग करना ।’ पर मेरे पास कोई आता ही नहीं है ।″

बापू जीः ″अगर कोई नहीं आता है तो मेरी तस्वीर रख के सत्संग किया कर ।″

उन्होंने गुरु आज्ञा मानी तो आज वे अनपढ़ बहन अन्य बहनों को श्री योगवासिष्ठ की व्याख्या सुना रही है । यह गुरुकृपा का ही चमत्कार है । धन्य हैं गुरुदेव, जिन्होंने 4 अक्षरों में भाषा का पूरा ज्ञान कराया, साथ में परमात्मप्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर किया ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2022, पृष्ठ संख्या 17,18 अंक 355

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