साधनाकाल में पूज्य बापू जी जब डीसा में रहते थे, उस समय पहली बार जब पूज्य
श्री मधुकरी (भिक्षा) करने गये थे तो एक सिंधी माई ने भिक्षा देने से मना कर दिया
था । यह प्रसंग सभी ने सुना ही होगा । उस घर से चलकर बापू जी जब दूसरे घर गये तो
वहाँ जिन्होंने भिक्षा दी थी वे हैं मिश्री बहन । वे उस दिन को याद करते हुए कहती
हैं कि ″उस दिन मैंने
खीर-पूड़ी बनायी थी । बापू जी हमारे घर के द्वार पर आये तो मैंने उन्हें वही
भिक्षा के रूप में अर्पण की थी ।
बापू जी ने पूछाः ″क्या नाम है बेटी ?″
मैंने नाम बताया, फिर बोलेः ″साँईं लीलाशाह जी बापू के आश्रम में सत्संग होता है, तू जाती है वहाँ ?″
″नहीं महाराज !″
″जाया कर ।″
बापू जी ने सत्संग का समय भी बताया कि सुबह-सुबह होता है । उनकी पावन व
हितकारी वाणी का ऐसा प्रभाव पड़ा कि दूसरे दिन तो जो काम मुझे 8 बजे तक पूरा करना
होता था वह सारा 6 बजे ही निपटाकर मैं सत्संग शुरु होने के 15 मिनट पहले ही आश्रम
में पहुँच गयी ।
वहाँ क्या विलक्षण माहौल था ! सब लोग एकदम
शांत बैठे थे । बापू जी शिवजी की तरह ध्यानस्थ थे और लोग उनको देख-देख के ध्यान कर
रहे थे ।
फिर सत्संग हुआ, किसी ने श्री योगवासिष्ठ महारामायण ग्रंथ पढ़ा, बापू जी ने उस
पर व्याख्या की । बापू जी वेदांत के ऊपर ही सत्संग करते थे । ऐसा रोज होता था ।
फिर तो मुझे भक्ति, साधना का ऐसा रंग लगा कि वर्णन करने को शब्द नहीं हैं । श्री
योगवासिष्ठ के श्रवण का ऐसा चस्का लगा कि अगर मैं योगवासिष्ठ नहीं सुनूँ तो नींद
ही न आये । वर्ष भर में कभी बापू जी एक महीने के लिए हिमालय चले जाते थे । जब भी
बापू जी हिमालय जाते तो मुझे बड़ा रोना आता था कि ‘अब मुझे योगवासिष्ठ कौन सुनायेगा ? मैं तो एकदम अनपढ़ हूँ ।’
एक बार बापू जी लौटे तो मैंने बोलाः ″बापू जी ! आप तो चले
जाते हैं और मुझे योगवासिष्ठ सुनने को नहीं मिलता, और दूसरा कोई सुनाने वाला है
नहीं । आप ऐसी कृपा कीजिये कि मुझे पढ़ना ही आ जाये ।″
बापू जी प्रसन्न होकर बोलेः ″क्या बात है ! तू पढ़ेगी ?″
″जी, बापू जी !″
पूज्य श्री बोलेः ″स्लेट पर खड़िया ले के आ ।″
मैं लेकर आयी तो बापू जी ने 4 अक्षर लिख के दिये और बोलेः ″जब तू ये बिना देखे
लिखना सीख जायेगी तो तुझे पढ़ना आ जायेगा ।″
मैं अभ्यास करती रही । ब्रह्मवाक्य सिद्ध हुए । जब मैं उन
अक्षरों को बिना देखे लिखना सीख गयी तो मुझे पढ़ना आ गया । आज मैं हिन्दी व
गुजराती – दोनों भाषाएँ पढ़ लेती हूँ । योगवासिष्ठ पढ़ती हूँ, डीसा के सत्संगी भी
आते हैं व सुनते हैं ।″
आश्चर्य की बात तो यह है कि जब उन बहन जी से पूछा गया कि ″वे 4 अक्षर
वर्णमाला के कौन से अक्षर थे ? तो उन्होंने बताया कि ″वे अक्षर – ‘अ आ इ ई…
‘ (पूरी
वर्णमाला) में से कोई थे ही नहीं, वे अलग ही अक्षर थे । मैं जब से पढ़ना सीखी तब
से वे अक्षर भूल गयी ।″
जैसे शिवजी द्वारा प्राप्त 14 सूत्रों से पाणिनी मुनि ने
संस्कृत का व्याकरण रचा था, ठीक वैसे ही बापू जी ने 4 अक्षरों से पूरी वर्णमाला
सिखा दी और एक अनपढ़ को श्री योगवासिष्ठ महारामायण जैसे वेदांत के गूढ़ ग्रंथ के
पठन-पाठन में साफल्य प्रदान कर दिया ।
ध्यान में आये इन्द्रदेव
मिश्री बहन आगे बताती हैं कि ″मैं रोज़ बापू जी का सत्संग
सुनती और बस मुझे केवल ध्यान करने की इच्छा होती थी । एक दिन मैं ध्यान करने बैठी
थी तो मेरे ध्यान में समस्त देवी-देवता तथा इन्द्रदेव आये और बोलेः ″चलिये हमारे स्वर्ग में, हम आपको लेने आये हैं ।″ मैंने कहाः ″मुझे ब्रह्मज्ञानी सद्गुरु पूज्य बापू जी मिल गये हैं, मेरे
तो वे ही सब कुछ हैं । तुम्हारा स्वर्ग तुमको मुबारक हो, हमको नहीं चाहिए । इतना
सुन इन्द्रदेव आशीर्वाद देकर चले गये ।″
मिश्री बहन जी कहती हैं कि ″पूज्य बापू जी ने मुझे
आज्ञा दी थी कि ″हर गुरुवार को यहाँ (डीसा में) बहनों को बुलाकर सत्संग करना
। एक दिन मैं पूज्य श्री के दर्शन करने अहमदाबाद गयी तो मैंने बापू जी प्रार्थना
कीः ″गुरुदेव ! आपकी आज्ञा है कि ‘तू हर गुरुवार को सत्संग करना ।’ पर मेरे पास कोई आता ही
नहीं है ।″
बापू जीः ″अगर कोई नहीं आता है तो मेरी तस्वीर रख के सत्संग किया कर ।″
उन्होंने गुरु आज्ञा मानी तो आज वे अनपढ़ बहन अन्य बहनों को
श्री योगवासिष्ठ की व्याख्या सुना रही है । यह गुरुकृपा का ही चमत्कार है । धन्य
हैं गुरुदेव, जिन्होंने 4 अक्षरों में भाषा का पूरा ज्ञान कराया, साथ में
परमात्मप्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर किया ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2022, पृष्ठ संख्या 17,18 अंक 355
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ